साहिर लुधियानवी
का एक बहुत खूबसूरत शेर है - “वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन , उसे एक
खूबसूरत मोड देकर छोड़ना अच्छा | ” अपनी ज़िंदगी मे ढेर सारे ऐसे प्रसंग आते रहे जिन पर लिखा जाए , बहस मुबाहिसा की जाए
तो पूरी ज़िदगी ही छोटी पड़ जाएगी |लेकिन
उनका संदर्भित किया जाना आत्मकथा में आवश्यक भी है क्योंकि तभी आप अपने साथ उन
लम्हों के साथ न्याय कर पाएंगे |
जैसा पहले ही बताया चुका हूँ कि मेरी दो संतानें हो चुकी थीं
– दोनों पुत्र | बड़े दिव्य आदित्य जिनका पुकार नाम है रूपल , वे अब गोरखपुर के केन्द्रीय विद्यालय से इंटरमीडिएट
करके फ़िटजी नामक संस्थान में इंजीनियरिंग परीक्षाओं की तैयारी के लिए दिल्ली जा
चुके थे |मैंने ही उनको वहां ले जाकर एडमिशन और हॉस्टल आदि की औपचारिकताऐं पूरी करा कर सेटिल कर दिया था |पहली बार बेटा दूर जा रहा था और वह स्वयं
तथा हम दोनों दुखी थे |इधर मेरे छोटे
बेटे यश आदित्य, जिन्हें हम लोग उनके पुकार नाम प्रतुल कहकर बुलाते थे,उन्होंने वर्ष 2000 में एयर
फोर्स स्कूल गोरखपुर से जब हाई स्कूल लगभग 90 प्रतिशत अंक के साथ उत्तीर्ण किया तो
हम लोगों ने आगे की अच्छी पढ़ाई के लिए उनको लखनऊ में रखना पसंद किया |उनकी उदार
हृदया मौसी ममता और मौसा जी ओम प्रकाश मणि
त्रिपाठी (डिप्टी एस०पी०/पी०आर०ओ० टू डी० जी०पी०)
ने उन्हें अपने यहाँ विज्ञानपुरी, महानगर के मकान में रखने का प्रस्ताव
दिया था |हम लोगों ने प्रतुल को उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए उसे लखनऊ शिफ्ट कर
दिया |अब हम लोग घर पर अकेले हो गए थे |
प्रतुल
का इंटरमीडिएट में एडमीशन सिटी मांटेसरी स्कूल के महानगर ब्रांच में कराया गया जो
आइ० सी० एस० ई० पैटर्न पर था जब कि प्रतुल
सी. बी. एस. ई. पैटर्न से पढ़कर गए थे |उनको शुरुआत मे थोड़ी दिक्कत हुई
लेकिन बाद में उन्होंने मेहनत करके पढ़ाई
में ही नहीं स्कूल में भी अपना नाम कर
लिया | वर्ष 2000 में लखनऊ में सम्पन्न Constania में, 2 मार्च से 4 मार्च 2001 तक ओवरसीज स्कूल, कोलंबो, श्रीलंका द्वारा आयोजित
तीन दिवसीय वर्ल्ड पार्लियामेंट फॉर यूथ
ओवरसीज में तथा 23 से 27 अगस्त 2001 में मैकफ़ेयर इंटरनेशनल वर्ल्ड पार्लियामेंट
में उन्होंने युगोस्लाविया देश के प्रतिभागी
के रुप में अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व किया |अपने घर अपने माँ बाप के संरक्षण की
बात कुछ और होती है और दूसरे के घर की बात कुछ और होती है |प्रतुल कुछ असुविधाओं
में रहकर (खास तौर से अपनी मौसी के चिड़चिड़े स्वभाव के कारण उपजी असुविधाएं ) भी
खुश रहने की कोशिश करता रहा और उसने कभी भी किसी प्रकार की असुविधा का जिक्र हम
सभी से नहीं किया | हम लोग उसकी हर
आर्थिक आवश्यकताऐं पूरी करते रहे और फोन से लगातार संपर्क में बने रहे |
यह सच है कि बच्चों का अभाव हमें भी खल रहा था लेकिन उनके कैरियर का
सवाल था |मेरे बड़े बेटे ने उसी बीच यह सुझाव दिया कि क्यों ना हमलोग भी लखनऊ शिफ्ट
हो जाएँ ! छोटे ने भी लखनऊ खासतौर से महानगर एरिया को बहुत अच्छा बताते हुए ऐसा ही
कहा | हमारी ट्रांसफ़र हो सकने वाली नौकरी थी ही,लखनऊ के कल्याणपुर मुहल्ले में
पहले से बना आधा अधूरा मकान भी था | आखिर ट्रांसफर ही तो लेना था ? आगे चलकर ऐसा
ही हुआ भी | लेकिन जब हुआ तो बच्चे लखनऊ और दिल्ली क्या और भी दूर हो गए |वाचिक परंपरा में वो एक सूफ़ी
कहावत है ना कि “अपने मन कछु और
हैं कर्ता के कछु और !”