श्रीस्वभूरामदेवाचार्य जी महाराज का जन्म ब्राह्मण-कुल में हुआ था। आपके पिता का नाम श्रीकृष्णदत्त और माता का नाम श्रीराधादेवी था। श्रीकृष्णदत्त एवं राधादेवी को जब दीर्घकाल तक संतान की प्राप्ति नहीं हुई तो एक सन्त की प्रेरणा से दोनों निम्बार्क-सम्प्रदायाचार्य श्रीहरिदेव व्यासजी के पास गये। उन्होंने आप लोगों को गो-सेवा करने की आज्ञा दी। अब आप लोग गायों को चराते, उनकी सार-सँभाल करते और हर प्रकार को सेवा करते। इस प्रकार सेवा करते-करते गोपाष्टमी का दिन आया। आप दोनों लोग गोशाला में गये, वहाँ देखा तो चारों ओर प्रकाश फैला था और उस प्रकाशपुंज के मध्य में एक सुन्दर शिशु लेटा था। उसे देखते ही दम्पती का वात्सल्यभाव जाग्रत् हो गया और राधादेवी ने उसे अपनी गोद में उठा लिया। इस प्रकार स्वयं प्रकट होने के कारण शिशु का नाम स्वभूराम पड़ा। आठ वर्ष की अवस्था में बालक स्वभूराम को उनके माता-पिता श्रीहरिदेव व्यासजी के पास ले गये और उसका यज्ञोपवीत कराकर वैष्णव दीक्षा दिलायी, तत्पश्चात् सब लोग पुनः घर आ गये। श्रीस्वभूराम जी घर आ तो गये, पर उनका मन घर में न लगता। एक दिन उन्होंने अपने माता-पिता से संन्यास लेने की बात कही और उनसे आज्ञा एवं आशीर्वाद माँगा। इस पर आपके माता-पिता वात्सल्यस्नेहवश बिलखने लगे और रोते हुए बोले–'बेटा! हम वृद्धों के तुम्हीं एकमात्र प्राणाधार हो, यदि तुम भी वैराग्य-धारण कर लोगे तो हम लोग किसके आधार पर जीवन धारण करेंगे?' माता-पिता की इस परेशानी को देखकर आपने कहा कि यदि मेरे दो भाई और हो जायँ तो क्या आप लोग मुझे विरक्त हो जाने की आज्ञा दे देंगे? यह सुनकर माता-पिता हँस पड़े; क्योंकि तब तक उनकी पर्याप्त अवस्था हो चुकी थी। परंतु आपकी वाणी सत्य सिद्ध हुई। कुछ दिनों बाद भगवत्कृपा से सन्तदास और माधवदास नामक दो भाइयों का जन्म हुआ। उनके कुछ बड़े हो जाने पर आपने पुनः माता-पिता से संन्यास की अनुमति माँगी और मौन स्वीकृति प्राप्त कर श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी की शरण में चले गये। आपने श्रीगुरुदेवजी से विरक्त दीक्षा ली और भजन-साधन करने लगे। एक बार की बात है, श्रीयमुनाजी की बाढ़ से आपके आश्रम-ग्राम बुड़िया के डूब जाने की आशंका हो गयी। सभी गाँव वाले बचाव के लिये गाँव के चारों ओर ऊँची दीवाल बनाने लगे, परंतु जब उससे भी बाढ़ रोकने में सफलता न मिली तो त्राहि माम् त्राहि माम्' करते आपके पास आये। आपने मन में विचार किया कि श्रीयमुना महारानी तो स्वामिनीजी हैं, मेरे आराध्य की प्राणप्रिया हैं, यदि वे कृपाकर पधार रही हैं तो यह तो हर्ष का विषय है, ऐसे में भला उनके मार्ग में अवरोध खड़ा करना कहाँ उचित है. ऐसा सोचकर आपने फावड़ा उठाया और श्रीयमुनाजी से गाँव तक मार्ग बना दिया। सब लोग उनके इस क्रियाकलाप को आश्चर्य भाव से देखते रहे, परंतु यमुना मैया उनके दिव्य भाव को जान गयीं और एक पतली-सी धारा के रूप में आश्रम तक आकर फिर वापस चली गयीं। आपके इस अलौकिक प्रभाव से आज भी बुड़िया ग्राम में आपका सुयश गाया जाता है। आपका एक ब्राह्मण शिष्य था, सम्पत्ति तो उसके पास बहुत थी, पर संतान कोई न थी। एक-एक करके उसने तीन विवाह किये, पर संतान की प्राप्ति न हुई। गाँव वाले उसे निपूता कहते। एक दिन वह आपके पास आया और आपसे अपना दुःख निवेदन किया। आपने कहा चिन्ता न करो, तुम्हारी तीसरी पत्नी से तुम्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी, जो बड़ा ही भक्त और सन्त-सेवी होगा। यथासमय ब्राह्मण के घर पुत्र का जन्म हुआ। इसके बाद तो उसकी सन्त सेवा में और निष्ठा बढ़ गयी। कालान्तर में उस ब्राह्मण की मृत्यु हो गयी और उसके कुछ ही दिनों बाद पुत्र को भी एक विषधर ने डॅस लिया। रोती-बिलखती बालक की माँ उस मृतप्राय बालक को लेकर आपके पास आयी। आपने श्रीभगवान् का चरणामृत उस बालक के मुख में डाल दिया। बालक तत्काल वैसे ही उठ बैठा, जैसे कोई नींद से जगकर उठ बैठे। यही बालक आगे चलकर श्रीकन्हरदेवाचार्य नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार आपने अनेक अलौकिक कार्य किये और वैष्णव धर्म की ध्वजा फहरायी।