Laga Chunari me Daag - 45 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | लागा चुनरी में दाग़--भाग(४५)

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(४५)

फिर धनुष भी अपने बिस्तर पर जाकर लेट गया और प्रत्यन्चा के बारें में सोचने लगा....
" कैंसी लड़की है ये,जब देखो तब नाक पर गुस्सा रखा रहता है,अगर मैं गुस्से में था तो क्या वो नर्मी से बात नहीं कर सकती थी,लेकिन नहीं महारानी साहिबा जाने अपनेआप को क्या समझती है,मैं भी अब उससे पहले से बात नहीं करूँगा,देखता हूँ भला कब तक रुठी रहती है मुझसे,गलती खुद करती है और गुस्सा मुझ पर करती है,अब मैं भी आगें से बात करने वाला नहीं"
और ये सब सोचते सोचते धनुष सो गया....
और इधर डाक्टर सतीश और उनकी माँ शीलवती प्रत्यन्चा को छोड़कर घर पहुँचे तो शीलवती जी डाक्टर सतीश से बोलीं...
"कितनी अच्छी और संस्कारी लड़की है प्रत्यन्चा,सबका कितना ख्याल भी रखती भी",
"हाँ! माँ! ये बात तो है,पूरा घर व्यवस्थित करने के बाद ही गईं वो यहाँ से",डाक्टर सतीश बोले....
"और साड़ी में आज वो बड़ी ही प्यारी लग रही थी",शीलवती जी बोलीं...
"हाँ! सुन्दर लग रही थीं प्रत्यन्चा जी साड़ी में",डाक्टर सतीश बोले....
"ऐसी ही लड़कियांँ घर को स्वर्ग बनाती हैं,फिर वो चाहे ससुराल हो या मायका",शीलवती जी बोलीं....
"लेकिन माँ! प्रत्यन्चा जी का तो कोई घर ही नहीं है,ना ही उन्होंने अपने बारें कभी भी किसी को कुछ बताया है",डाक्टर सतीश बोले....
"ऐसा कैंसे हो सकता है,कोई तो होगा उसका",शीलवती जी बोलीं...
"हाँ! वही तो,लेकिन किसी को कुछ पता नहीं है कि वो कहाँ से आईं हैं",डाक्टर सतीश बोले....
"तो फिर बेचारी हालातों की मारी होगी,इसलिए शायद उसने किसी को कुछ नहीं बताया",शीलवती जी बोलीं...
"ऐसी भी क्या मजबूरी है उनकी, जो वो अपने बारें में किसी को कुछ बता नहीं सकतीं",डाक्टर सतीश बोले...
"बेटा! तू नहीं समझ पाऐगा,क्योंकि तू पुरुष है,हम स्त्रियों से पूछ कि हम स्त्रियांँ किस तरह से अपने दिल में ग़म के सैलाब को छुपाकर इस दुनिया के सामने मुस्कुराकर जीतीं हैं,इसे चाहें हम स्त्रियों की फनकारी समझ लो या कि सब्र,लेकिन जो कुछ हो तुम पुरुष हम स्त्रियों से मजबूत कभी नहीं हो सकते",शीलवती जी बोलीं...
"माँ! तुम कहना क्या चाहती हो कि लगभग लगभग दुनिया की हर स्त्री दुखी है और अपने ग़मों को छुपाकर वो सबके सामने मुस्कुराती रहती है",डाक्टर सतीश ने पूछा....
"हाँ! और क्या ? हम अपने ग़म छुपाकर दूसरों को मुस्कुराना सिखाते हैं,दूसरों को जीना सिखाते हैं", शीलवती जी बोलीं...
"वो कैंसे भला?",डाक्टर सतीश ने अपनी माँ शीलवती जी से पूछा....
"वो ऐसे मेरे लाल! कि जब तेरे पापा हम दोनों को छोड़कर चले गए थे तो तू केवल तीन बरस का था,अगर उनके जाने के बाद मैं खुद को ना सम्भालती और उनके ग़म में रोने बैठ जाती तो फिर क्या होता तेरा,तुझे कौन सम्भालता,उस वक्त मैंने खुद को पक्का कर लिया और मन को मजबूत बनाकर रोने की जगह ये सोचने में लग गई कि तेरी परवरिश में मैं क्यों भी कसर नहीं छोड़ूगी और मैंने तुझे डाक्टर बनाकर ही दम लिया", शीवलती जी बोलीं...
"सच कहा माँ! मैं तुम्हारी बात से पूरी तरह सहमत हूँ,इसी तरह प्रत्यन्चा भी अपने ग़म छुपाकर जी रहीं होगीं",डाक्टर सतीश बोले....
"अब तू बिलकुल सही समझा मेरे लाल! इसलिए प्रत्यन्चा से उसके अतीत के बारें में पूछकर कभी भी उसके जख्मों को मत कुरेदना,नहीं तो वो टूट जाऐगी",शीलवती जी बोलीं....
"जी! वैसे मुझे क्या जरूरत है उनसे कुछ भी पूछने की,मैं क्या करूँगा उनके बारें में जानकर",डाक्टर सतीश बोले...
"अच्छा! अब जा आराम कर ,बहुत रात हो चुकी है,सुबह बातें करेगें",शीलवती जी ने डाक्टर सतीश से कहा...
"ठीक है माँ! मैं जाता हूँ और तुम भी आराम करो,दिनभर से काम करते करते थक गई होगी",
और ऐसा कहकर डाक्टर सतीश अपने कमरे में सोने चले गए....
दूसरे दिन सुबह सुबह प्रत्यन्चा मंदिर से लौट रही थी,तभी उसने देखा कि धनुष भी स्नान कर चुका है और विलसिया काकी पूजा का सामान लेकर उसके साथ साथ मंदिर की ओर चली आ रही थी,शायद धनुष मंदिर में पूजा करने आ रहा था,प्रत्यन्चा थोड़ी देर वहीं खड़ी रही ,तब विलसिया उसके पास जाकर बोली....
"छोटी मालकिन का जन्मदिन है आज,इसलिए छोटे बाबू मंदिर में प्रसाद चढ़ाने आएँ हैं",
"ओह...तो आज धनुष बाबू की माँ का जन्मदिन है,तो चलिए मैं भी साथ में मंदिर चलती हूँ",प्रत्यन्चा इतना बोली ही थी कि धनुष गुस्से से बोल पड़ा...
"कोई जरुरत नहीं है तुम्हें मंदिर में आने की",
धनुष की बात सुनकर प्रत्यन्चा वहीं रुक गई,लेकिन धनुष के कड़वे बोलों ने उसकी आँखें नम़ कर दी और फिर प्रत्यन्चा वहाँ से लौट आई,इसके बाद वो सीधे रसोई में चली गई और नाश्ते की तैयारी करने लगी,तभी भागीरथ जी उसे ढूढ़ते हुए उसके पास आकर बोले...
"अच्छा! बिटिया! तो तुम इधर हो"
"कुछ काम था क्या मुझसे",प्रत्यन्चा ने पूछा...
"हाँ! आज धनुष की माँ का जन्मदिन है,तो वृद्धाश्रम में कुछ कपड़े दान करने के लिए जाना है,अगर तुम भी साथ चलोगी तो अच्छा रहेगा",भागीरथ जी बोले....
"दादाजी! कब चलना है,मुझे बता दीजिए,मैं तब तक सारा काम निपटा लेती हूँ",प्रत्यन्चा ने पूछा....
"शाम तक चलना है,अभी तो तेजपाल वृद्धाश्रम में दान करने के लिए सामान खरीदने गया है",भागीरथ जी बोले...
"जी! मैं शाम तक तैयार हो जाऊँगीं",प्रत्यन्चा बोली....
फिर दिनभर ऐसे ही बीत गया और जब शाम को सब तैयार होकर वृद्धाश्रम जाने लगे तो धनुष ने सबसे कहा...
"प्रत्यन्चा वृद्धाश्रम नहीं जाऐगी"
"लेकिन क्यों",तेजपाल जी ने धनुष से पूछा...
"मैंने कहा ना कि ये हम लोगों के साथ नहीं जाऐगी तो....बस नहीं जाऐगी" धनुष बोला...
अब जब धनुष ने मना कर दिया तो प्रत्यन्चा सबके साथ नहीं गई,तेजपाल जी भी धनुष से बहस करके बात को आगें नहीं बढ़ाना चाहते थे,क्योंकि वे ऐसा करके अपनी स्वर्गवासी पत्नी की आत्मा को नहीं दुखाना चाहते थे,इसलिए वे भी कुछ नहीं बोले और फिर सबके जाने के बाद इधर प्रत्यन्चा उदास मन से अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गई,क्योंकि उसे धनुष का बर्ताव अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए वो तकिऐ में मुँह छुपाकर फूट फूटकर रोने लगी,वो मन में सोचने लगी कि अपना घर होता और अपने लोग होते तो वो हजारों सवाल पूछ लेती कि मुझे साथ क्यों नहीं लिवा जाना चाहते ,लेकिन पराए लोगों पर कहाँ कोई जोर चलता है, इन लोगों ने मुझे सिर ढ़कने के लिए छत दी,तन ढ़कने को कपड़े दिए और दो वक्त की रोटी भी दे रहें हैं तो भला मैं कैंसे इन लोगों से कोई सवाल जवाब कर सकती हूँ,यही सब सोच सोचकर प्रत्यन्चा ना जाने कितनी देर तक रोती रही,फिर शाम को विलसिया काकी प्रत्यन्चा से रात के खाने के लिए पूछने आई कि आज रात क्या बनेगा तो प्रत्यन्चा ने विलसिया से कह दिया...
"काकी मुझे मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही है,क्या आज रात का खाना तुम बना लोगी"
"हाँ! बिटिया! हम बना लेगें खाना,कल डाक्टर बाबू के घर में दिनभर लगी रही,इसलिए शायद थक गई होगी"
इतना कहकर विलसिया नीचे आ गई और अपने हिसाब से खाना बनाने लगी,सब वृद्धाश्रम से लौटकर भी आ गए,लेकिन प्रत्यन्चा अपने कमरे से बाहर नहीं निकली,खाने की टेबल पर विलसिया ने ही खाना लगाया, जब भागीरथ जी ने विलसिया से प्रत्यन्चा के बारें में पूछा तो विलसिया बोली...
"बड़े मालिक! आज बिटिया की तबियत ठीक नाहीं है"
"लगता है नज़र लग गई होगी,कल साड़ी में इतनी प्यारी जो लग रही थी वो",तेजपाल जी बोले...
"कल बिटिया साड़ी पहने रही,हम तो ना देख पाएँ",विलसिया बोली...
"वो प्रत्यन्चा बता रही थी कि उसके कपड़े खराब हो गए थे,उनमें हल्दी उलट गई थी,घर आकर कपड़े बदलने का वक्त नहीं था,इसलिए डाक्टर साहब की माँ ने उससे साड़ी पहनने को कह दिया", भागीरथ जी बोले...
ये बात जब धनुष ने सुनी तो मन में सोचा...
"मुझसे ये बात नहीं बता सकती थी कि कपड़े खराब हो गए थे,इसलिए मजबूरी में साड़ी पहननी पड़ी, दादाजी को बता दी,मैं तो दुश्मन हूँ ना तो मुझे क्यों बताने लगी ये बात"
"इ बात है तो हम अबहीं बिटिया का बुला के उहकी नजर उतार देत हैं",
और ऐसा कहकर विलसिया प्रत्यन्चा को बुलाने चली गई....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....