Laga Chunari me Daag - 44 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | लागा चुनरी में दाग़--भाग(४४)

Featured Books
Categories
Share

लागा चुनरी में दाग़--भाग(४४)

डाक्टर सतीश प्रत्यन्चा को पीछे से बहुत देर तक देखते रहें,लेकिन उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि कौन है वो और उस के पास जाकर भी उसे देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी उनकी ,तभी एकाएक प्रत्यन्चा पलटी तो डाक्टर सतीश की नजर उस पर ठहर गई,बिना पलके झपकाएंँ मुँह खोलकर वे उसे देखते ही रह गए,तभी डाक्टर सतीश की माँ शीलवती उनके पास आकर बोलीं....
"मुँह तो बंद करो डाक्टर साहब!"
तब डाक्टर सतीश अपनी माँ से बोले...
"माँ!....ये तो प्रत्यन्चा जी हैं"
"बच्चू! खा गए ना धोखा,देख ! आज उसे मैंने तैयार किया है,लग रही है ना बिलकुल अप्सरा",शीलवती जी बोलीं...
"हाँ! माँ! सच में आज प्रत्यन्चा जी किसी अप्सरा से कम नहीं लग रहीं हैं",डाक्टर सतीश बोले....
"तो फिर यहाँ क्यों खड़ा है,जा उसके पास जाकर उससे बोल दे कि वो आज साड़ी में कितनी खूबसूरत लग रही है",शीलवती जी ने डाक्टर सतीश से कहा...
"क्या ये बात कहनी जरूरी है?", डाक्टर सतीश ने पूछा...
"बेटा! दिल की बात दिल में नहीं रखनी चाहिए",शीलवती जी बोलीं...
"तुम कहती हो तो बोल देता हूँ",डाक्टर सतीश बोले...
इसके बाद डाक्टर सतीश प्रत्यन्चा के पास गए और उससे बोले....
"मुझे नहीं मालूम था कि आप साड़ी में इतनी खूबसूरत लग सकतीं हैं",
"जी! शुक्रिया!",प्रत्यन्चा शरमाते हुए बोली....
"लाइए !कुछ काम बचा हो तो मैं करवाएँ देता हूँ",डाक्टर सतीश ने प्रत्यन्चा से कहा....
"जी! आप ऐसा कीजिए! वो जो वो दोने,पत्तल और सकोरे रखें हैं कोने में ,तो उन्हें रसोईघर में रख दीजिए और जो रसोईघर में खाना रखा है,उसे इधर बैठक में एक तरफ लगा दीजिए और पूजा की सामग्री भी इकट्ठी कर लीजिए क्योंकि पण्डित जी बस अभी आने वाले होगें",प्रत्यन्चा बोली...
"ठीक है तो मैं इतना काम कर देता हूँ",डाक्टर सतीश ने प्रत्यन्चा से कहा....
"हाँ! मैं तब तक बाकी के काम निपटा लेती हूँ" और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा वहांँ से चली गई"
थोड़ी देर बाद मेहमानों ने आना शुरू कर दिया,भागीरथ जी,तेजपाल जी और धनुष भी आ पहुँचे थे और सभी प्रत्यन्चा को ढूढ़ने लगे जब कि प्रत्यन्चा वहीं मौजूद थी,क्योंकि उन्होंने नहीं सोचा था कि प्रत्यन्चा साड़ी में हो सकती है,जब प्रत्यन्चा उन तीनों को जलपान देने पहुँची तो तब उन तीनों की नज़र प्रत्यन्चा पर पड़ी और वे भी उसे बस देखते ही रह गए,भागीरथ जी तो प्रत्यन्चा को देखकर बस मुस्कुरा दिए लेकिन तेजपाल जी ने प्रत्यन्चा से कहा....
"बहुत प्यारी लग रही हो बिटिया! घर जाकर विलसिया से नजर उतरवा लेना",
लेकिन धनुष प्रत्यन्चा को देखकर कुछ नहीं बोला और उसके कुछ कहने की आशा प्रत्यन्चा को थी भी नहीं,
फिर कुछ देर बाद पण्डित जी वहाँ पधारे और उन्होंने विधिवत शान्तिपूजा करवाई,पण्डित जी को भोजन कराने के बाद शीलवती जी ने सतीश और प्रत्यन्चा से अन्य मेहमानों को भी खाना परोसने के लिए कहा,प्रत्यन्चा और सतीश दोनों ही मेहमानों की आवभगत में लगे हुए थे,तभी भागीरथ जी ने धनुष से भी मदद करवाने के लिए कहा तो धनुष उनसे बोला....
"बाएँ हाथ से भला मैं कैंसे खाना परोस पाऊँगा",
भागीरथ जी को धनुष की ये बात भी ठीक लगी,फिर खाना खाने के बाद एक एक करके सभी मेहमान जाने लगे,भागीरथ जी का परिवार भी खाना खा चुका था,इसलिए उन्होंने भी शीलवती जी से घर जाने की इजाज़त माँगी, तब प्रत्यन्चा उनसे बोली....
"दादाजी! आप लोग जाइए,मैं थोड़ी देर में डाक्टर बाबू के साथ घर आ जाऊँगी,क्योंकि अभी पूरा घर फैला पड़ा है,चाची जी भला कितना काम सम्भालेगीं,वे सुबह से तो लगी हुई हैं,मैं उनके साथ लगकर पूरा घर व्यवस्थित कर देती हूँ,इसके बाद घर आ जाऊँगी"
"जैसी तेरी मर्जी बेटा!",तेजपाल जी बोले...
तब डाक्टर सतीश की माँ शीलवती प्रत्यन्चा से बोलीं....
"बेटी! तू घर जा! मैं सब सम्भाल लूँगीं",
"नहीं! चाची जी! मैं आपका काम सम्भालवा देती हूँ ना! आपसे अकेले इतना काम नहीं हो पाऐगा",प्रत्यन्चा शीलवती जी से बोली....
"ठीक है बेटी! तो तुम रुक जाओ! फिर मैं और सतीश तुम्हें घर छोड़ आऐगें",शीलवती जी बोलीं...
इसके बाद भागीरथ जी का परिवार चला गया,शीलवती जी ने घर के और सदस्यों के लिए भी खाना भिजवा दिया,ताकि विलसिया भी निश्चिन्त हो जाएँ और उसे रात का खाना ना बनाना पड़े और फिर प्रत्यन्चा काम करने के लिए वहीं रुक गई,करीब रात के ग्यारह बजे के बाद घर का काम खतम हुआ ,इसके बाद शीलवती जी प्रत्यन्चा से बोलीं....
"चलो! बेटी! हम दोनों तुम्हें घर छोड़कर आते हैं"
"जी! ठीक है! थोड़ी देर रुकिए,मैं तब तक साड़ी बदलकर आती हूँ",प्रत्यन्चा बोली...
"नहीं! बेटी! साड़ी बदलने की कोई जरुरत नहीं है,तू इसे मेरी तरफ से तोहफा समझकर रख ले"शीलवती जी बोलीं...
"लेकिन मैं आपसे ये साड़ी नहीं ले सकती",प्रत्यन्चा बोली...
"रख लीजिए ना प्रत्यन्चा जी! ये साड़ी,माँ आपको इतने प्यार से दे रहीं हैं,वैसे भी ये साड़ी आप पर बहुत जँच रही है",डाक्टर सतीश प्रत्यन्चा से बोले....
"ठीक है! ये साड़ी तो मैं रख लेती हूँ, लेकिन ये गहने मैं नहीं रख सकती,इन्हें आप ले लीजिए",प्रत्यन्चा शीलवती जी से बोली...
"ये गहने अभी पहने रहो,इस साड़ी के साथ तुम पर अच्छे लग रहे हैं,बाद में वापस कर देना",शीलवती जी बोलीं....
"जी! ठीक है!",प्रत्यन्चा बोली...
इसके बाद डाक्टर सतीश और शीलवती जी प्रत्यन्चा को छोड़ने घर आएँ,वे उसे मेन गेट पर छोड़कर ही वापस चले गए,फिर बनी ठनी प्रत्यन्चा घर के भीतर आई तो उसने देखा कि सब सो चुके हैं और धनुष हाँल के सोफे पर बैठा उसका इन्तजार कर रहा है,जैसे ही उसने प्रत्यन्चा को देखा तो बोला...
"तो आ गईं महारानी साहिबा! फुरसत मिल गई घर आने की"
"हाँ! काम निपटाते निपटाते इतनी देर हो गई", प्रत्यन्चा चप्पल उतारकर सू रैक में रखते हुए बोली....
"मुझे तो ऐसा लग रहा है कि बात कुछ और ही है",धनुष गुस्से से बोला...
"बहुत थक चुकी हूँ मैं और सोने जा रही हूँ इसलिए आपको जो भी कहना सुनना है सुबह ही कहिएगा", प्रत्यन्चा गुस्से से बोली....
"अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई है",धनुष गुस्से से बोला...
"तो मैं क्या करूँ",और इतना कहकर प्रत्यन्चा अपने कमरे में जाने लगी तो धनुष ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा...
"बात पूरी सुनकर जाओ"
"ये क्या बतमीजी है?",प्रत्यन्चा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली...
"अच्छा! तो ये बतमीजी है और जो बाहर बन सँवरकर सबके सामने गई थी वो क्या था",धनुष गुस्से से बोला...
"मैं चाहे कुछ भी करूँ,बन सँवर कर कहीं भी जाऊँ,इससे आपको क्या,मैं कोई आपकी गुलाम हूँ जो हर काम आपसे पूछकर करूँगी",प्रत्यन्चा गुस्से से बोली....
"मैं इतनी अकड़ किसी की भी बरदाश्त नहीं करता",धनुष बोला...
"तो अकड़ बरदाश्त करने की आदत डाल लीजिए,क्योंकि मैं तो इसी अकड़ में ही रहती हूँ",प्रत्यन्चा ने गुस्से से कहा....
तभी दोनों की चिल्लमचिल्ली सुनकर भागीरथ जी बाहर आकर बोले...
"ये क्या शोर हो रहा है?",
"दादाजी! मुझे आने में देर हो गई तो ये मुझसे बहसबाजी कर रहे हैं",प्रत्यन्चा शिकायत करते हुए बोली...
"ये तो है ही पागल! जा बेटी! तू अपने कमरे में जाकर आराम कर",भागीरथ जी बोले...
"ठीक है दादा जी!", और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा अपने कमरे में आ गई और धनुष उसको जाते हुए देखता रहा...
फिर प्रत्यन्चा कपड़े बदलकर अपने बिस्तर पर लेट गई और धनुष के बारें में सोचने लगी...
"मैंने साड़ी पहनी थी तो ये नहीं कि कुछ अच्छा बोल देते,ऊपर से लड़ने लगे ,जब देखो तब मुझसे लड़ने के लिए उनके सींगों में खुजली होती रहती है,कितना गलत समझ लिया उन्होंने मुझे,मैं क्या दूसरों को दिखाने लिए बनी सँवरी थी,वो तो मेरे कपड़े खराब हो गके थे, चाचाजी ने जिद की तो मैंने साड़ी पहन ली,लेकिन उसका तो उन्होंने ना जाने क्या मतलब निकाल डाला"
और यही सब सोचते सोचते बहुत ज्यादा थकी होने के कारण प्रत्यन्चा की आँख लग गई...

क्रमशः...
सरोज वर्मा....