Laga Chunari me Daag - 38 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | लागा चुनरी में दाग़--भाग(३८)

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(३८)

भोर हो चुकी थी और प्रत्यन्चा आज एक नई उमंग के साथ जागी थी,क्योंकि कल रात जो धनुष के साथ उसकी बातें हुईं थीं उससे उसे लगा था कि अब शायद धनुष सुधर जाऐगा और उसके सुधरने से दादाजी और चाचाजी को बहुत खुशी मिलेगी,अगर ऐसा होता है तो घर के हालात बदल जाऐगें,वो यही सब मन में सोच रही थी,अभी तक वो अपने बिस्तर पर ही बैठी थी और भागीरथ जी के जागने का इन्तजार कर रही थी,फिर कुछ देर बाद भागीरथ जी भी जाग उठे और वो प्रत्यन्चा से बोले....
"जाग गई बिटिया! चल अब घर चलते हैं और फिर नहाकर नाश्ता करके यहाँ वापस आ जाऐगें,जब तक धनुष यहाँ पर है तो हम दोनों को उस पर नज़र रखनी पड़ेगी"
"जी! दादाजी! मैं भी यही सोच रही थी",प्रत्यन्चा बोली...
"तो चल ! फिर अब उठ!,मैं रामानुज को भी जगाता हूँ,वो मोटर में सो रहा होगा",
और ऐसा कहकर भागीरथ जी बाहर चले गए,इसके बाद प्रत्यन्चा ने अपना और भागीरथ जी का बिस्तर समेटकर रखा और बाहर जाने लगी,तभी एकाएक उसकी नज़र धनुष पर पड़ी,वो किसी शान्त बच्चे की तरह आराम से सो रहा था और उसकी चादर एक ओर हटी हुई थी,तब प्रत्यन्चा धनुष के पास गई और उसकी चादर उसे ठीक से ओढ़ाकर बाहर आ गई,फिर वो भागीरथ जी के साथ मोटर में बैठकर घर को चल पड़ी....
घर पहुँचकर प्रत्यन्चा ने स्नान किया और मंदिर चली गई पूजा के लिए,वो पूजा करके वापस लौटी तो तब तक विलसिया नाश्ता बनाकर टेबल पर लगा चुकी थी,प्रत्यन्चा रसोई में आई और उसने विलसिया से कहा....
"काकी! मैं आ तो रही थी रसोई में नाश्ता बनाने,तुमने क्यों नाश्ता बना दिया"
"बिटिया! तुम थक गई होगी,ऐही से हमने सोचा कि हम नाश्ता तैयार करे देते हैं" विलसिया बोली....
"मैं कौन सा अस्पताल से पत्थर तोड़कर आ रही हूँ काकी! आराम से सोकर आई हूँ और तुम इस उम्र में इतना काम करोगी तो थक जाओगी",प्रत्यन्चा ने विलसिया से कहा....
"बिटिया! जब तुम नाहीं आई थी इस घर में, तो सारा काम हम ही तो करते थे,अब जब तुम अस्पताल जाती हो तो चौका-चूल्हा का काम हम कर लिया करेगें,तुम यहाँ कि चिन्ता ना किया करो",विलसिया बोली....
"ठीक है काकी! वैसे आज नाश्ते में क्या बनाया है तुमने?",प्रत्यन्चा ने पूछा....
"तुम कह रही थी ना उस दिन कि तुम्हें प्याज और हरी मिर्च के पराँठे बहुत पसंद हैं तो वही बनाएँ हैं", विलसिया बोली...
"सच में! काकी! इस घर में आकर मुझे किसी की कमी महसूस नहीं होती,माँ जैसी विलसिया काकी मिल गई है,चाचा जी जैसे बाबूजी और दादाजी तो हैं ही दादाजी जैसे,तुम सब मुझे कितना प्यार करते हो", प्रत्यन्चा बोली...
"बिटिया! जो अच्छा होता है ना उसे सारी दुनिया अच्छी ही नज़र आती है,तुम अच्छी हो इसलिए तुम हम सबही के बारें में ऐसन सोचती हो और फिर तुम हो भी तो कित्ती प्यारी,ये ही से सबही तुम्हें प्यार करते हैं", विलसिया काकी बोली...
"भाई! क्या बातें चल रहीं हैं,जरा हम भी तो सुने",भागीरथ जी डाइनिंग टेबल की ओर आते हुए बोले...
"कुछ नहीं दादाजी! मैं काकी से कह रही थी कि इस उम्र में इतना काम करना इनकी सेहद के लिए ठीक नहीं है",प्रत्यन्चा बोली...
"बेटा! बस एक दो दिनों की बात और है फिर धनुष घर आ जाऐगा तो ये दिक्कत भी खतम हो जाऐगी", भागीरथ जी बोले...
"जी! चलिए! नाश्ता कीजिए,मैं आपकी प्लेट में नाश्ता परोसती हूँ",
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा भागीरथ जी की प्लेट में नाश्ता परोसने लगी,तब तक तेजपाल जी भी वहाँ आ गए,फिर दोनों ने नाश्ता किया,उन दोनों के नाश्ता करने के बाद प्रत्यन्चा ने भी जल्दी से नाश्ता किया और जब वो अस्पताल जाने लगी तो विलसिया उससे बोली....
"बिटिया! दोपहर को तुम यहाँ मत आना,हम खाना बनवाकर पुरातन के हाथ से भिजवा देगें"
"ठीक है काकी!"
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा भागीरथ जी के साथ अस्पताल आ गई,उसने वहाँ आकर देखा तो धनुष गुस्से में नर्स को बातें सुना रहा था,तब भागीरथ जी ने नर्स से पूछा कि क्या हुआ,धनुष इतना गुस्सा क्यों कर रहा है,तब नर्स उनसे बोली....
"दीवान साहब! मैं नाश्ते में दलिया लाई थी,लेकिन आपके पोते ने उसे चखे बिना ही फर्श पर उठाकर फेंक दिया,बोले कि मैं ऐसा नाश्ता नहीं करूँगा"
नर्स की बात सुनकर भागीरथ जी धनुष से बोले...
"तूने ऐसा क्यों किया धनुष!"
"जी! मैं ऐसा बेस्वाद नाश्ता नहीं कर सकता,उसे देखकर ही मुझे उबकाई आ रही थी",धनुष बोला...
"तो क्या बीमार इन्सान के लिए छप्पन भोग परोसे अस्पताल वाले",प्रत्यन्चा गुस्से से बोल उठी...
"जब मेरे और दादाजी के बीच बात हो रही है ,तो तुम क्यों बोल रही हो हम दोनों के बीच में",धनुष प्रत्यन्चा से बोला...
"मैं भला क्यों ना बोलूँ बीच में,अन्न का इस तरह से अपमान करना क्या अच्छी बात है,नहीं खाना था तो आराम से मना कर देते,किसी और मरीज के काम आ जाता वो दलिया, उसे यूँ फर्श में फेंकने की क्या जरूरत थी,मुफ्त का मिल रहा है ना खाने को, इसलिए कदर नहीं है खाने की",प्रत्यन्चा धनुष से बोली...
"ऐ...लड़की ज्यादा बातें सुनाने की जरूरत नहीं है,तेरी कमाई नहीं खा रहा हूँ,जो तू इतना बोल रही है", धनुष गुस्से से बोला...
"माना मेरी कमाई नहीं खा रहे हैं आप,लेकिन किसी ना किसी की तो कमाई खा ही रहे हैं,यूँ बिस्तर में बैंठे बैंठे मिल रहा है ना खाने को इसलिए इतने दिमाग़ खराब हैं",प्रत्यन्चा गुस्से से बोली...
"तुझसे कहा ना कि तू चुप कर,फिर क्यों बोले जा रही है इतना", धनुष बोला...
"गलत क्या कह रही है,सही ही तो कह रही है",भागीरथ जी प्रत्यन्चा का पक्ष लेते हुए बोले...
"आप ने ही इसे सिर पर चढ़ा रखा है,वरना ये इतना ना बोल पाती मेरे सामने",धनुष ने भागीरथ जी से कहा..
"बोलूँगी....खूब बोलूँगी,आप क्या कोई तोप हैं,जो मैं आपके सामने चुप हो जाऊँ",प्रत्यन्चा गुस्से से बोली...
"बेटी! रहने दे,क्यों अपना दिमाग़ खराब कर रही है,तू ही चुप हो जा",भागीरथ जी प्रत्यन्चा से बोले...
इसके बाद प्रत्यन्चा चुप होकर अपने बिस्तर पर जाकर बैठ गई,तब नर्स भागीरथ जी के पास आकर बोली...
"अब मैं इन्हें खाली पेट दवा कैंसे दूँ"
"अब आप इसी से पूछ लीजिए,हम कुछ नहीं कह सकते इस मामले में", भागीरथ जी बोले...
और फिर नर्स भी बेचारी क्या करती,वो भी कमरे से बाहर चली गई,लेकिन धनुष का दवाई खाना भी जरूरी था,इसलिए प्रत्यन्चा उसका उपाय ढूढ़ने लगी और फिर वो कुछ देर के लिए बाहर चली गई और जब वो बाहर से वापस लौटी तो उसके हाथ में एक ट्रे थी,जिस पर एक बड़ी सी कटोरी थी जो एक प्लेट से ढ़की हुई थी, प्रत्यन्चा ने वो ट्रे लाकर धनुष के खाने की छोटी सी टेबल पर रख दी और उससे बोली...
"लीजिए! खा लीजिए! आप कुछ खाऐगे नहीं तो फिर दवा नहीं खा सकते और जब दवा नहीं खा पाऐगें तो ठीक कैंसे होगें और अगर ठीक ना हुए तो फिर शराब भी नहीं पी पाऐगे और शराब पीना तो आपके लिए बहुत जरूरी है"
"फिर से शुरु हो गई तुम्हारी बकवास",धनुष गुस्से से बोला....
"लीजिए! नहीं बोलती मैं,अब चुपचाप खा लीजिए इसे",प्रत्यन्चा बोली...
"क्या है इसमें",धनुष ने पूछा...
"मूँग की दाल और दलिए की बनी खिचडी़ है,आपको पसन्द आऐगी,अभी अस्पताल की रसोई से बनाकर ला रही हूंँ मैं इसे,वो तो अस्पताल दादाजी का है इसलिए मुझे रसोई में घुसने दिया गया वरना आज तो आप भूखे ही बैठे रहते",प्रत्यन्चा बोली...
"बेटी! अगर तुम बनाकर लाई हो ,तो जरूर ये स्वादिष्ट होगी,अब हम दोनों का मुँह क्या देख रहा है,खा ले जल्दी से और इसके बाद दवा भी तो खानी है तुझे",भागीरथ जी बोले....
फिर धनुष ने कटोरी की प्लेट हटाई तो खिचड़ी का हुलिया देखकर उसका खाने को जी कर गया और वो उसे बाएँ हाथ से खाने की कोशिश करने लगा,खिचड़ी गरम भी थी इसलिए वो उसे फूँक फूँककर खाने की कोशिश करने लगा,लेकिन बाएँ हाथ से खिचड़ी खाने में उसे दिक्कत हो रही थी,कल तो चीले थे इसलिए उसने वे आसानी से बाएँ हाथ से खा लिए थे,लेकिन खिचड़ी थोड़ी पतली भी थी जो खाते वक्त टपक रही थी, धनुष का ये सब तमाशा प्रत्यन्चा देख रही थी,उसे पता था कि धनुष मदद माँगने से तो रहा,इसलिए वो खुद ही उसके पास जाकर बोली....
"लाइए! मैं खिलाती हूँ"
और फिर प्रत्यन्चा धनुष को अपने हाथ से मूँग की दाल और दलिए की बनी खिचड़ी खिलाने लगी....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....