The lives of Bengali widows [Mais] of Vrindaban are improving in Hindi Magazine by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | संवर रहा है वृन्दाबन की बंगाली विधवाओं [माइयों]का जीवन

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संवर रहा है वृन्दाबन की बंगाली विधवाओं [माइयों]का जीवन

[नीलम कुलश्रेष्ठ ]

कहतें हैं लेखकों के काम की कीमत उनके मरने के, दुनियाँ से जाने के बाद पहचानी जाती है किन्तु मैं बेहद खुश हूँ, बेहद.क्योंकि मैंने वृन्दाबन की माइयों [बंगाली विधवाओं ] के दारुण व कठिनतम जीवन की समस्या को `धर्मयुग `पत्रिका जैसे सशक्त माध्यम से सन १९८० में राष्ट्रीय स्तर पर जोड़ा था. देश ने पहली बार इनकी समस्यायों को मेरे इस सर्वे से जाना था। हो सकता है मथुरा या वृन्दाबन के समाचार पत्रों में इनके विषय में तब कुछ प्रकाशित होता रहा हो किन्तु मेरा ये वृहद सर्वे एक शिलालेख था जिसने कृष्ण की नगरी के इस मार्मिक पहलु को उद्घाटित किया था.बहुत से पत्रकार वृन्दाबन दौड़ लिए थे, मैंने भी `मनोरमा `व गृहशोभा `के लिए लेख लिखे थे. बाद में किसी ने वृत्त चित्र बनाया था. कुछ एन जी ओ`ज ने भी इनके लिए काम करना आरम्भ कर दिया था.

सन १९८० में मैं वृन्दाबन के भक्ति सिक्त वातावरण में मदिरों की घंटियों को सुनती, उनके स्थापत्य को देखती घूम रही थी `जय राधे `के घोष दिल को सहला रहे थे उन गलियों में मटमैली सफ़ेद साड़ी में सिर मुड़ाये , माथे पर चन्दन का तिलक लगाए बंगाल के अपने घर से निकाल दी गईं ये विधवाएं मेरा ध्यान खींच रहीं थीं या कहना चाहिए मुझे को इतना सताता है कि वे घर से भाग जाएँ ?.नहीं तो क्यों वाराणसी, वृन्दाबन कुछ और दिखाई देना बंद हो गया था इनके चेहरे के दर्द के सिवाय.एक मैं ही नहीं हूँ संवेदनशील ह्रदय यहाँ आकर इनके कष्टमय जीवन को देखकर विचलित हो ही जातें हैं.एक प्रश्न हमेशा मेरे मन में कुलबुलाता है कि गरीब बंगाली समाज ही इतना क्रूर है कि अपने घर कि विधवाओं व उड़ीसा में मंदिरों में ये शरण लेतीं हैं?. हालाँकि और प्रदेशों की विधवाएं भी अब आने लगी है.जहाँ इनके शरीर का इतना शोषण होता है कि दीपा मेहता को `वारणसी में `वाटर फिल्म की शूटिंग नहीं करने दी जाती.विरोध करने वाले थे महंत व पण्डे यानी धर्म के ठेकेदार.यानि कि इनके शोषण का रास्ता धर्म से ही होकर जाता है.

नाम भी ये धार्मिक रख लेतीं हैं जैसे हरिप्रिया दासी, बिंदा दासी, गौरा दासी, नीला दासी, सोना दासी या सूर्यबाला दासी.अधिकतर ये राधे की भूमि में रहना चाहतीं हैं.इन्हें कोई मोटी तनख्वाह दे तब भी कंस की भूमि यानि मथुरा से भाग आतीं हैं .सूरज की किरणों के बावजूद ये अँधेरी सीलन भरी कोठरी में वृन्दाबन की गलियों में रहतीं हैं.इतना ही अँधेरा अभिशप्त जीवन इनका है. ये यहाँ के भजनाश्रम में भजन करके, कुछ रूपये कमातीं हैं.इससे जीवन यापन करतीं हैं.

चैतन्य महाप्रभु ने राधा कृष्ण की भक्ति से भाव विह्वल होकर कोलकत्ता से नवदीप होते हुए वृन्दाबन आ गए थे.इस तुलसी वन में उन्होंने सारा जीवन बिताया था.इनके कारण बंगालियों के मन में वृन्दाबन के प्रति आकर्षण बढ़ा जो आज तक कायम है..बंगाल की कुछ विधवाओं ने कृष्ण और चैतन्य महाप्रभु की भूमि वृन्दाबन आना शुरू किया था.वे यहाँ छोटा मोटा काम करके या भीख मांगकर गुज़र कर रहीं थीं.श्री रामकरण जी बेरीवाला, दुर्गाप्रसाद जी बेरीवाला व गनपत राय जी चिड़ी वाले ने इन अबलाओं को सहारा देने का बीड़ा उठाया था.नवलगढ़ [राजस्थान ]के श्री जानकी पासद पटोदिया ने अपना सर्वस्व तीन लाख रुपया देकर इनकी देखभाल की थी व इन सब ने भजनाश्रम खुलवाया कि वहां ये भजन करके सम्मानजनक जीवन जी सकें, .जब ये रुपया समाप्त होने लगा तो उन्होंने इनसे अनुरोध किया कि ये बंगाल लौट जाएँ तब माइयों ने कहा कि ये जमुना का पानी पीकर जिंदा रह लेंगी लेकिन बंगाल नहीं लौटेंगी.यह खबर पटोदिया जी के सम्बन्धी रामसहाय जी को लगी तो उन्होंने इन्हें कोलकत्ता बुलवाकर आर्थिक सहयता दी व और लोगों से मदद दिलवाई.इस तरह से दो लाख रुपया इकठ्ठा हो गया था.

बाद में डालमियां व बिरला घरानों से मदद मिलती चली गई.भजनाश्रम के भूतपूर्व व्यवस्थापक श्री श्यामसुंदर पटोदिया ने मुझे ये जानकारी दी थी व बताया था, "अब तो भजनाश्रम की छ[; शाखाएं हैं.युवा माइयां तो घरों में काम करके पैसा कमा लेतीं हैं.लेकिन अधेड़ व वृद्धा मैयां गूंजते ढोल, मजीरों व खडताल से भजन करतीं हैं ;

"हरे रामा, हरे रामा, हरे रामा,  रामा रामा हरे हरे, 

हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे."

मंदिर के हौल में मूर्ति के सामने माइयों के दो समूह बैठे होतें हैं.एक बार एक समूह एक पंक्ति गाता है दूसरा दोहराता है.ये बात और है कि कुछ माइयां विरक्त सी उंघती रहतीं हैं.कुछ उबासी लेते हुए भजन करतीं हैं, कुछ कम्बल की ओट में सो जातीं हैं.

भजनाश्रम के वर्तमान व्यवस्थापक श्री पी.सीअग्रवाल ने तब बताया था, "वृन्दाबन, मथुरा व बरसाना में दो हज़ार से बारह सौ माइयां हमारे सातों भजनाश्रम में भजन करने आतीं हैं.एक महीने का यहाँ का खर्च पंद्रह सोलह लाख रुपया होता है ९८ वर्ष से भजनाश्रम की यही कार्य प्रणाली है.आज तक हमें सरकारी सहायता नहीं मिल सकी जो माइयों के आवास की व्यवस्था कर सकें."

इनकी दिनचर्या एक जैसी होती है.ये सुबह उठकर नहाकर गुरु जी का सफ़ेद या काला टीका लगाकर भजनाश्रम पहुंच जातीं हैं, यदि भजन करने से अनाज मिलाता है तो दो तीन दिनका इकठ्ठा करके उसे पिसवातीं हैं.चिलचिलाती धुप हो या कड़कती सर्दी या तेज़ बारिश या कोहरे भरी सुबह इन्हें हर हाल में पेट की खातिर भजनाश्रम पहुँचाना ही है.

कुछ विधवाएं सब्जी बेचतीं हैं या घरों में काम करतीं हैं.एक भीख माँगने वाली का जवाब था, "भजनाश्रम में भजन करने कौन जायेगा.? दो चार घंटा झूठा झूठा भजन करो तब भी पैसा कम मिलता है.हम तो गलियों में घूमकर राधे का भजन करता है."वृन्दाबन में ऐसी कितनी माइयां गोविन्द जी, रंग जी, शाह जी आदि मंदिरों में मिल जाएँगी."

वृन्दाबन में एक तंत्र देवदासी की तर्ज़ पर इन्हें सेवादासी की तरह धनी व सम्रद्ध तीर्थयात्रियों के लिए इन्हें सुलभ बनाता है.

यूनीफ़ेम व राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी पहले माइयों का सर्वे किया था.मोहिनी गिरी के प्रयासों से 26 वर्ष पहले यानी सन 1996 में अमर बाड़ी में `माई लेन` या `माँ धाम शेल्टर `में १२० माइयों से अधिक रहतीं हैं.जो सफ़ेद साड़ी त्याग कर रंगीन साड़ी पहनती हैं.बाल बढाकर एक मनुष्य की तरह जीवन जी रहीं हैं.

मोहिनी जी ने अपने वक्तव्य में कहा भी था कि ये प्रयास समुद्र में बूँद के बराबर है.बात अब सच साबित हो गई है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को इस समस्या का सर्वे कराना पड़ रहा था .

एक महिला एडवोकेट इंदिरा शानी ने वृन्दाबन की इन विधवाओं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ` माइयां `कहा जाता है, की दारुण स्थितियों को देखकर सुप्रीम कोर्ट में एक पिटीशन ज़ारी किया था.

९ मई २०१२ को देश की सर्वोच्च सत्ता सुप्रीम कोर्ट ने एक अभूतपूर्ण निर्णय लिया, यानि  लोगों का एक पेनल नियुक्त किया जो कि आठ सप्ताह में यानि २५ जुलाई तक वृन्दाबन की बंगाली विधवाओं की आर्थिक, सामजिक दुर्दशा का शोध करके अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा. श्री डी.के. जैन की बेंच ने ये निर्णय लिया है.इस पेनल के प्रमुख होंगे जिला मथुरा के कानूनी सेवा प्राधिकरण के चेयरमेन इसके सदस्य हैं नेशनल वीमेन कमीशन की सदस्य, मथुरा के जिला कलेक्टर, जिला स्वास्थ्य अधिकारी, मथुरा के वरिष्ठ पुलिस ऑफिसर.

ये पेनल वृन्दाबन में रहने वाली विधवाओं के नाम, पता, वे कहाँ की हैं, वृन्दाबन में बसने का कारण, उनके पति का नाम इत्यादि की सूची बनाएगा.मीडिया बहुत दिनों से ये बात उछाल रहा है कि यहाँ आने वाली विधवाओं की जितनी संख्या बढ़ती जा रही है उतना ही देह व्यापार बढ़ रहा है, उतने ही वृन्दाबन व मथुरा में अबोर्शन करवाने वाले क्लीनिक भी बढ़ रहे है.सुप्रीम कोर्ट ने कड़े निदेश दिए हैं कि ऐसे क्लीनिक्स पर कड़ी कार्यवाही की जाएगी.

पेनल ने जो रिपोर्ट दे उससे विह्वल होकर सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत ही सरकार को रिपोर्ट दी। सरकार ने सुलभ इंटरनेशनल यानि कि देश की सबसे समर्थ एन जी ओ के संस्थापक स्वर्गीय आदरणीय श्री बिन्देश्वर पाठक जी से अनुरोध किया कि वे वृन्दाबन जाकर माइयों की हालत देखें व इनके जीवन को सुधारें। इनकी इतनी दुर्दश की तो पाठक जी ने कल्पना भी नहीं की थी इसलिए इन्होने तुरंत ही1000 रूपये की राशि प्रति माह इन्हें देने की व्यवस्था की। जो स्त्रियां पति के मरने के बाद जलकर सती नहीं हुईं थीं लेकिन अधमरा जीवन जी रहीं थीं सबसे बड़ी बात ये है कि इन्हें कोई रोज़गार सिखाकर इन्हें पैरों पर खड़े करने की कोशिश की जा रही है।

.सुलभ इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन द्वारा इनके लिए सन 2013 में इनके कृष्ण से होली खेलने के व्यवस्था की गई।धीरे धीरे इनके लिए रहने केलिए आश्रम खोले गए। ये बाल बढ़ाने लगीं व रंगीन साड़ी पहनने लगीं। सफ़ेद रंग जो मृत होने का अभी प्रतीक है धीरे धीरे इनके जीवन से विदा लेने लगा। इनके जीवन में बिन्देश्वर पाठक जी ने ख़ुशी के दिये दीपावली मनाने के स्वरुप में जला दिए हैं।

वृन्दाबन में एक एन जी ओ `फ्रेंड्स ऑफ़ वृन्दाबन `के साथ अन्य एन जी ओ `ज पर्यावरण सरंक्षण व सफाई के साथ माइयों के लिए काम कर रही है. पहले जब ये मैयां सुनतीं थीं कि इनके जीवन पर `वाटर `या रेनबो `फिल्म बनीं हैं तो वो झुँझलातीं थीं ." फ़िल्म बनाने से हमारा कष्ट दूर नहीं होगा -----मरने से ही हमें मुक्ति मिलेगी."

बहुत से लोगों के विशेष रूप से सुलभ इंटरनेशनल के कारण इनकी दुनियां बदलती जा रही है। मेरी जैसी लेखिका के लिए ये एक बड़ा संतोष भी है जिसने इनकी दारुण, करुणामयी समस्या को भारत भर को दिखाने के लिए नींव में पहले शिलालेख के रूप में एक सर्वे के रूप में लिखा था.

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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

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