कृष्नदास कलि जीति न्यौति नाहर पल दीयो। अतिथि धर्म प्रतिपाल प्रगट जस जग में लीयो॥ उदासीनता अवधि कनक कामिनि नहिं रातो। राम चरन मकरंद रहत निसि दिन मदमातो॥ गलतें गलित अमित गुन सदाचार सुठि नीति। दधीचि पाछे दूसरी (करी ) कृष्णदास कलि जीति॥१८५॥
महान् सिद्धसन्त पयहारी श्रीकृष्णदास जी जयपुरमें श्रीगलताजी की गद्दी पर विराजते थे। आप अनन्त दिव्य गुणों से सम्पन्न, बड़े सदाचारी और अच्छे नीतिज्ञ थे। श्रीदधीचिजी के बाद इस कलियुगमें उत्पन्न होकर कलिकाल के विकारों पर आपने विजय प्राप्त की। अतिथि के रूपमें प्राप्त सिंहको आपने न्यौता दिया और अपने शरीरमेंसे मांस काटकर उसे भोजन के लिये अर्पण किया। इस प्रकार विलक्षण रूपसे अतिथिधर्म का पालन करके आपने सुयश प्राप्त किया। आप वैराग्य की तो सीमा ही थे और कभी भी धन और स्त्रियों में आसक्त नहीं हुए। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों के परागमें आपका मन उसी प्रकार आनन्दित रहता था, जैसे पुष्परस को पाकर भ्रमर मतवाला हो जाता है।
एक बार पयहारी श्रीकृष्णदास जी महाराज अपनी गुफा में विराजमान थे, उसी समय द्वार पर एक सिंह आकर खड़ा हो गया। आपने विचार किया कि 'आज तो अतिथि-प्रभु पधारे हैं। उनके भोजन के लिये आपने अपनी जाँघ काटकर मांस सामने रख दिया और प्रार्थना की—'प्रभो ! भोजन कीजिये।' धर्म की बहुत बड़ी महिमा है और उसका पालन करना बहुत ही कठिन है। इनकी सच्ची धर्मनिष्ठा को देखकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी से नहीं रहा गया, उन्होंने प्रकट होकर दर्शन दिया; क्योंकि आपका भाव बिलकुल सत्य था। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन करके जाँघ का दुःख न जाने कहाँ चला गया। संसार में लोग अतिथि को अन्न-जल देने में ही कष्ट का अनुभव करते हैं, तब इस प्रकार अपने शरीर का दान कौन कर सकता है। आपके इस चरित्र को सुनकर लोगों के मनमें महान् आश्चर्य होता है।
भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है—
बैठे हैं गुफा में, देखि सिंह द्वार आय गयौ, लयौ यों बिचारि हो अतिथि आज आयौ है। दई जाँघ काटि डारि, कीजियै अहार अजू, महिमा अपार धर्म कठिन बतायौ है॥ दियौ दरसन आय, साँच में रह्यो न जाय, निपट सचाई, दुख जान्यौ न बिलायौ है। अन्न जल देबै ही कों झींखत जगत नर, करि कौन सकै जन मन भरमायौ है॥६१३॥
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कृष्नदास कलि जीति न्यौति नाहर पल दीयो। अतिथि धर्म प्रतिपाल प्रगट जस जग में लीयो॥ उदासीनता अवधि कनक कामिनि नहिं रातो। राम चरन मकरंद रहत निसि दिन मदमातो॥ गलतें गलित अमित गुन सदाचार सुठि नीति। दधीचि पाछे दूसरी (करी ) कृष्णदास कलि जीति॥१८५॥
महान् सिद्धसन्त पयहारी श्रीकृष्णदासजी जयपुरमें श्रीगलताजीकी गद्दीपर विराजते थे। आप अनन्त दिव्य गुणोंसे सम्पन्न, बड़े सदाचारी और अच्छे नीतिज्ञ थे। श्रीदधीचिजीके बाद इस कलियुगमें उत्पन्न होकर कलिकालके विकारोंपर आपने विजय प्राप्त की। अतिथिके रूपमें प्राप्त सिंहको आपने न्यौता दिया और अपने शरीरमेंसे मांस काटकर उसे भोजनके लिये अर्पण किया। इस प्रकार विलक्षण रूपसे अतिथिधर्मका पालन करके आपने सुयश प्राप्त किया। आप वैराग्यकी तो सीमा ही थे और कभी भी धन और स्त्रियों में आसक्त नहीं हुए। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंके परागमें आपका मन उसी प्रकार आनन्दित रहता था, जैसे पुष्परसको पाकर भ्रमर मतवाला हो जाता है।
एक बार पयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराज अपनी गुफामें विराजमान थे, उसी समय द्वारपर एक सिंह आकर खड़ा हो गया। आपने विचार किया कि 'आज तो अतिथि-प्रभु पधारे हैं। उनके भोजनके लिये आपने अपनी जाँघ काटकर मांस सामने रख दिया और प्रार्थना की—'प्रभो ! भोजन कीजिये।' धर्मकी बहुत बड़ी महिमा है और उसका पालन करना बहुत ही कठिन है। इनकी सच्ची धर्मनिष्ठाको देखकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीसे नहीं रहा गया, उन्होंने प्रकट होकर दर्शन दिया; क्योंकि आपका भाव बिलकुल सत्य था। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके जाँघका दुःख न जाने कहाँ चला गया। संसारमें लोग अतिथिको अन्न-जल देनेमें ही कष्टका अनुभव करते हैं, तब इस प्रकार अपने शरीरका दान कौन कर सकता है। आपके इस चरित्रको सुनकर लोगोंके मनमें महान् आश्चर्य होता है।
भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है—
बैठे हैं गुफा में, देखि सिंह द्वार आय गयौ, लयौ यों बिचारि हो अतिथि आज आयौ है। दई जाँघ काटि डारि, कीजियै अहार अजू, महिमा अपार धर्म कठिन बतायौ है॥ दियौ दरसन आय, साँच में रह्यो न जाय, निपट सचाई, दुख जान्यौ न बिलायौ है। अन्न जल देबै ही कों झींखत जगत नर, करि कौन सकै जन मन भरमायौ है॥६१३॥