Unhi Rashto se Gujarate Hue - 27 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 27

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 27

भाग 27

" अच्छा! कहाँ मिला उसे ऐसा बच्चा....? " माँ उत्सुक थीं, जैसे सब कुछ शीघ्र जान लेना चाहती हों। मैंने भी माँ सब कुछ बताने के लिए ही फोन किया था।

" माँ अनिमा के कोई बच्चा नही था। विवाह-विच्छेद के पश्चात उसे अपने पति के मकान से हिस्सा और जीविकोपार्जन के लिए पैसे मिले थे। वो एक बच्चे की परिवरिश करने में सक्षम थी। अतः उसने एन0 जी0 ओ 0 के माध्यम से कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए एक अनाथ बच्चा गोद ले लिया है। " मैंने माँ का पूरी बात अच्छे ढंग से समझा दी। कारण मात्र यही था कि दीदी तक ये बात पहुँच जाये।

" अच्छा! ये तो बड़ी अच्छी बात बताई तुमने। " माँ की बातों से प्रतीत हुआ कि माँ अवश्य दीदी को ये बात बताकर उसे प्रोत्साहित करेंगी। माँ से बताने का मेरा उद्देश्य भी यही था।

कुछ दिनों के पश्चात् दीदी के विचार जानने के लिए मैंने माँ को फोन किया। माँ ने जो कुछ कुछ बताया उसका सार यह था कि माँ की बातों का दीदी पर कोई प्रभाव न पड़ा। न ही उसने उनकी बातों पर ध्यान दिया, न उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की। मैं सोच रही थी कि काश!दीदी इस समस्या पर काई ठोस व सकारात्मक निर्णय लेती। उसका अकेलापन बाँटने के लिए इस समय किसी नन्हें बच्चे की किलकारियाँ पर्याप्त थीं। दीदी के जीवन को एक उद्देश्य मिलता तथा किसी अनाथ बच्चे का भविष्य सुरक्षित होता। दीदी सही निर्णय लेने में सदैव उहापोह की स्थिति में रही है। उम्र का एक पड़ाव पार कर लेने के पश्चात् भी उसकी यह स्थिति बनी हुई है।

♦ ♦ ♦ ♦

यह वर्ष पुनः विधान सभा चुनाव का वर्ष था। दो चुनावों में विजय प्राप्त कर लेने के पश्चात् शालिनी यह तीसरा चुनाव लड़ रही थी। क्षेत्र में जनसम्पर्क अभियान पूर्व की भाँति ही चल रहा था। राजेश्वर पूर्व की भाँति उसका पूरा सहयोग कर रहा था। वह दिन-रात परिश्रम कर रहा था। जन समर्थन भी उसे मिल रहा था क्यों कि शालिनी की चुनाव सभाओं में जनता की भीड़ उमड़ रही थी। जिस शालिनी को पहली बार जनता के सामने जाकर बोलने में घबराहट होती थी, उसके मुँह से ठीक से शब्द नही निकल पाते थे.....उसे अब भाषण देने की कला बखूबी आ चुकी थी। कुशल वक्ता की भाँति बोलने लगी थी शालिनी। जनता की रगों पर हाथ रखना उसे आ गया था। कतिपय नेताओं की भाँति लच्छेदार भाषा से जनता को आकर्षित कर उनसे तालियों की गड़गड़ाहट निकलवाने की कला उसने सीख ली थी। मंच पर शालिनी के भाषणों को सुनकर व उसका आत्मविश्वास को देखकर राजेश्वर मंद-मंद मुस्कराता। एक माह तक प्रचार कार्य चला। सभी प्रत्याशियों ने क्षेत्र में अपनी-अपनी ताकत झोंक दी थी।

चुनाव का दिन था। शोर-शराबा, सरगर्मियाँ शान्त थीं। जनता ने सबकी बात सुनी तथा अब अपना नेता चुनने का निर्णय ले चुकी थी। पोलिंग बूथों पर वोट पड़ने लगे थे। चुनाव सम्पन्न हो गए। बस एक-दो सप्ताह के पश्चात् चुनाव परिणाम घोषित हो जायेंगे। चुनाव सम्पन्न होते ही शालिनी लखनऊ चली गयी। वहाँ वो प्रतीक्षा कर रहा थी चुनाव क्षेत्र के काम समाप्त कर राजेश्वर के आने की। चुनाव परिणाम को लेकर उसका मन व्याकुल हो रहा था। सफलता मिलेगी या असफलता इसी उहापोह में उसका मन अधीर हो रहा था। इस समय उसे सम्बल की आवश्यकता थी जो राजेश्वर के आने से ही सम्भव था। उसने राजेश्वर को फोन कर शीघ्र लखनऊ आने के लिए कहा। दो दिनों के पश्चात् राजेश्वर लखनऊ आ गया। राजेश्वर के आने से शालिनी का बोझिल मन हल्का अनुभव कर रहा था। चुनाव व चुनाव परिणाम का तनाव थोड़ा कम हुआ।

वह दिन भी आ गया जिस दिन चुनाव परिणाम घोषित होने वाले थे। सभी की दृष्टि सुबह से ही टी0वी0 पर चिपकी हुई थीं। शालिनी का मन नही लग रहा था। शालिनी से मिलकर, उसे समझाकर राजेश्वर कुशीनगर चला गया था। आज शाम तक कुशीनगर का चुनाव का परिणाम भी घोषित हो जायेगा । उसने जब तक चुनाव परिणाम घोषित न हो जायें, शालिनी को कुशीनगर आने से मना कर दिया था। राजेश्वर सुबह आठ बजे से ही कुशीनगर में शालिनी का प्रतिनिधि बनकर मतगणना केन्द्र पर पहुँच गया था। जनता में उत्सुकता का संचार करते हुए रेडियो व टी0वी पर आने लगे थे। किस क्षेत्र से कौन-सा प्रत्यासी आगे चल रहा है और कौन-सा पीछे इसकी जानकारी सामने आने लगी थी। दोपहर से जीते व हारे हुए प्रत्याशियों की भी स्थिति भी एक-एक कर स्पष्ट होने लगी थी। न जाने किस भय से शालिनी का मन चुनाव परिणाम जानने को उत्सुक नही हो रहा था। रह-रह कर उसका मन आशंकित हो रहा था। बच्चे टी0वी0 से चिपके हुए लगातार चुनाव परिणामों पर दृष्टि रखे हुए थे। वह दूसरे कमरे में चुपचाप अकेली बैठी बच्चों की बातें सुन रही थी।

" माँ आपकी पार्टी के अनेक प्रत्याशी या तो हार रहे हैं या पीछे चल रहे हैं। कुछ ही जीत रहे हैं। " बेटे के स्वर उसके कानों में पड़े। किन्तु उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की।

शालिनी ने राजेश्वर को फोन कर स्थिति जानने का प्रयत्न किया।

" अभी स्थिति स्पष्ट नही है। बाद में फोन करता हूँ। " कह कर राजेश्वर ने फोन रख दिया।

राजेश्वर व्यस्त था। शोर-शराबे में बातें ठीक से स्पष्ट नही हो पा रही थीं। कुछ देर में कुछ कहे बिना बच्चों ने टी0वी0 बन्द कर दिया। शालिनी ने अनुमान लगाया कि कदाचित् वो मतगणना में पीछे चल रही है। आशा-निराशा के भँवर में झूल रही शालिनी को कुछ ही देर में ये ज्ञात हो गया कि इस बार वो चुनाव हार गयी है। दो चुनाव जीतने के पश्चात् तीसरा चुनाव शालिनी हार चुकी थी। अपने हृदय का ये बात वो समझा नही पा रही थी कि जीत की परम्परा सदा के लिए नही होती है। जीवन जीत-हार, सफलता-असफलता के मोतियों से गुँथा हुआ एक हार है। जिसे प्रत्येक परिस्थितियों में पहनकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। वो राजेश्वर की प्रतीक्षा करने लगी। उसी शाम फ्लाईट से राजेश्वर शालिनी के पास पहुँच चुका था। वो जानता था कि ऐसी परिस्थितियों में शालिनी स्वंय को सम्हाल नही पाती।

अपने कक्ष में शालनी उदास व खामोश बैठी थी। शाम के आठ बज रहे थे। पूरी सृष्टि पर अँधेरा उतर आया था। अँधेरा तो शालिनी के कक्ष में भी उतर आया था। उसने शाम को कक्ष की बत्ती जो नही जलाई थी। उसी समय राजेश्वर ने कमरे में प्रवेश किया और बत्ती जलाने के लिए स्विच आॅन कर दिया। पूरा कक्ष प्रकाश से भर गया। शालिनी राजेश्वर का देखती रही। उसके होठों से शब्द नही निकल पा रहे थे। कुछ ही क्षणें में वह उठी और राजेश्वर की बाँहों में समा गयी। राजेश्वर की बलिष्ठ भुजाओं ने उसे पूर्णतः अपने दामन में समेट लिया था। शालिनी की हार के अनेक कारण तलाशे जा रहे थे। जिनमें पहला यह था कि पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नही था। वरिष्ठ नेताओं ने जनता के हित की अनदेखी की। दूसरा यह था कि राष्ट्रीय नेताओं की छवि इधर धूमिल हुई हैं। हाल के वर्षों में वो विवादों में रहे। शालिनी की हार का तीसरा कारण भी तलाशा गया। वो कारण था राजेश्वर के साथ उसके सम्बन्धों अफवाह या कह सकते हैं राजेश्वर से सम्बन्धों की चर्चा का शालिनी के विधान सभा क्षेत्र में फैल जाना। ये अफवाह भले ही किसी विरोधी नेता द्वारा फैलायी गयी थी, किन्तु कहीें न कहीं इसमें सच्चाई भी थी।

इन चर्चाओं पर चर्चा करने से पूर्व यह मंथन भी आवश्यक था कि शालिनी को यहाँ तक.....इन परिस्थितियों तक पहुँचाने वाले तत्व.....लोग कौन-कौन से थे? ताऊजी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा......शालिनी के प्रति उनका उपेक्षित व्यवहार......उसके अधिकारों से उसे वंचित रखने का उसके परिवार वालों का षड़यंत्र या अन्य कारण...? अन्य कारण कदापि नही, मात्र यही कारण है शालिनी जैसी घरेलू, सीधी-सादी, सरल स्त्री यह मार्ग चुनने को विवश हुई। इस मार्ग पर वह इतना आगे बढ़ गयी है कि वहाँ से पलट कर वापस आना अब असंभव है। वह जानती है कि राजनीति का मार्ग जिस पर वह चल पड़ी है उसका यू टर्न नही होता। अभी वह कुछ समय तक चुप रह कह कर राजनीति की दिशा व दशा देखेगी। तत्पश्चात् वह जनता में जाकर अगले चुनाव के लिए अपना प्रचार व जनसम्पर्क अभियान प्रारम्भ करेगी। साथ ही यह भी कि इस बार किस पार्टी के विजय की सम्भावना है। राजेश्वर के साथ वो यह तय करेगी कि अगला चुनाव इसी पार्टी के झंडे तले लड़ना है या किसी और पार्टी से लड़ना है।

" मन की शान्ति ही सबसे बड़ा धन है। " तथागत् के कहे गए ये महान शब्द मेरे मन में गुँजित होने लगे हैं। शालिनी ने अपना सबसे बड़ा धन अपने मन की शान्ति की तलाश कर ली थी। उसने राजनीति और राजेश्वर को चुन लिया था। अनिमा भी अपना सबसे बड़ा धन अपने मन की शान्ति की प्राप्त कर चुकी थी। वो उसी मार्ग पर आगे बढ़ रही थी। मन ही मन सबकी विवेचना कर रही थी मैं। सहसा ख्याल आया, मैं कौन होती हूँ इन सबके बारे में सोचने वाली....इनके जीवन की विवेचना करने वाली? मेरे भीतर बैठी स्त्री ने कहा, " तू एक स्त्री है। स्त्री होने के कारण इनके दुःख-सुख, भय-साहस, सफलता-असफलता, संवेदना सबसे जुड़ी हो। हाँ! मैं स्त्री हूँ और अपने दायित्वों से विलग नही रह सकती। मुझे इनकी विवेचना करने का पूरा अधिकार है। " यह सोच कर मैं स्वंय पर मुस्करा पड़ी।

♦ ♦ ♦ ♦

कार्यालय में लंच के समय अनिमा से मेरी मुलाकात बहुधा होती रहती। निराशा का अँधेरा उसके जीवन से छँट चुका था। वो प्रसन्न दिखती। अपने बेटे श्लोक की बातें, उसकी बालसुलभ चंचलता का वर्णन करते न थकती। श्लोक के बचपन के साथ वह अपना अधूरा जीवन भी पूर्णता के साथ जी रही थी। अनिमा के साहस भरे निर्णय पर कभी-कभी मुझे रश्क होता। यदि अनिमा के स्थान पर मैं होती तो क्या पति को छोड़कर जीवन में अकेले रहने या कुछ अन्य निर्णय यथा श्लोक को गोद लेने का या अनेक ऐसे निर्णय जो उसने लिए और वो सब सर्वथा उचित थे, क्या ऐसे निर्णय मैं ले पाती....? कदाचित् नही। मैं इतनी साहसी नही थी। मुझमें यदि इतना साहस होता तो मैं मेरे विवाह के निर्णय लेने व उसके पश्चात् खामोशी अख्तियार कर लेने के लिए माँ- बाबूजी का प्रतिरोध करती। दीदी का करती जो मेेरे वैवाहिक जीवन को दूषित करती रही। अनेक जगहों पर अभय का प्रतिरोध नही किया जिसने मेरी कोई ग़लती न होते हुए भी मुझ पर अपना फ्रस्टेशन निकालता रहा। मेरे मायके वालों द्वारा किए गये दुव्र्यवहार की सजा मुझे देता रहा। मैं अनिमा के जैसी साहसी नही हूँ। जो भी हो सबके जीवन की परिस्थितियाँ और समस्यायें भिन्न-भिन्न होती हैं। उनका समाधान भी उसी अनुरूप होता है। मैंने भी तदनुरूप उन समस्याओं के हल का मार्ग निकाला होगा।

अनिमा और मेरी आयु लगभग समान थी। यही कोई चालीस के पार। मेरे चेहरे पर अब उम्र ने अपने चिन्ह छोड़ने प्रारम्भ कर दिए हैं। विवाह विच्छेद के पश्चात् अनिमा और भी आकर्षक लग रही है। उसके सौन्दर्य को जैसे ताज़ा खुली हवा मिली और वो खिल उठा हो। वह तनाव मुक्त थी, अतः कार्यालय के कार्यों में उसका मन भी खूब लग रहा था। नौकरी में मुझसे वरिष्ठ थी ही अतः उसका प्रमोशन हो गया। तदनुसार उसकी सैलरी बढ़ चुकी थी। अनिमा को तनाव देने वाला कोई कारक उसके जीवन में न था। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। देखते-देखते एक वर्ष व्यतीत को गया। अनिमा पर मुझे रश्क ही नही गर्व भी था।

अनिमा आज कई दिनों के पश्चात् मुझे कार्यालय में लंच के समय मिली। कुशलक्षेम के आदान-प्रदान के पश्चात् उसने मुझसे कुछ कहा। उसके स्वर इतने धीमे थे कि मैं ठीक से सुन नही पायी।

" क्या कहा अनिमा....? फिर से बालो मैं सुन नही पायी। " मैंने उससे कहा।

मेंरी बात सुनकर उसके चेहरे पर संकोच के भाव आ गए।

" बात क्या है बताओगी....? " मेरे पूछने के पश्चात् भी वह खामोश थी।

" घर में सब कुछ कुशल-मंगल है....? उसे खामोश देखकर मैंने पुनः पूछा।

" हमारे कार्यालय के स्टाफ में जो नये लड़के आये हैं न......? " उसने आगे कुछ नही कहा। उसकी बातें मेरी समझ से बाहर थीं।

" क्या....? कौन से लड़के....? " मैंने पुनः प्रश्न किया।

" अरे भाई! छः - सात माह पूर्व जो नये अप्वाइंटमेण्ट हुए हैं कार्यालय में वो लड़के। " उसने समझाते हुए कहा।

" हाँ.......हाँ.....। " अनिमा की बात मुझे अब समझ में आ रही थी।

" तो नये स्टाफ का क्या हुआ, क्या निकाल दिए जा रहे हैं? " मैंने हँसते हुए कहा।

" नही......नही....ऐसा कुछ नही है। " अनिमा ने कहा।

" तो फिर...? "

" उनमें एक नया लड़का आया है। जिसका नाम नीलाभ है। याद आया तुम्हें.....? "

" कौन...? " मैंने अपने स्मरण शक्ति पर बल देते हुए कहा। इस समय मुझे नीलाभ नाम का लड़का याद नही आ रहा था।

" वही...दुबला-पतला, लम्बा गौर वर्ण का नीलाभ जो देखने में ठीक-ठाक लगता है। " अनिमा ने मुझे उसकी पहचान बताते हुए कहा।

" हाँ.....हाँ....अब समझ गयी। " मैंने उसे आश्वस्त करते हुए।

" वो नीलाभ मुझसे आजकल बातें करने के प्रयास में रहता है। मेरे ही सेक्सन में है। दिनभर मुझे देखता रहता है। " अनिमा ने मुझसे झिझकते हुए कहा।

"ओहो....तो आजकल तुम्हें एक फैन मिल गया है। मैंने हँसते हुए कहा।

" नही यार! वो मेरा फैन नही है, न मुझे फैन की आवश्यकता है। " अनिमा ने उपेक्षा से कहा।

" तो फिर क्या है, जो तुम्हे देखता रहता है? तुम्हारा प्रेमी तो नही निकल आया है वो? " कहकर मैं पुनः हँस पड़ी।