Unhi Rashto se Gujarate Hue - 26 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 26

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 26

भाग 26

" मैंने एक एन0 जी0 ओ0 की सदस्यता ग्रहण कर ली है। शाम को कार्यालय व घर के कार्य के पश्चात् जो भी समय बचता है, निर्धन-अनाथ बच्चों को पढ़ाती हूँ। उनकी आर्थिक मदद करती हूँ। पुस्तकें, काॅपियाँ, कपड़े, इत्यादि जो भी बन पड़ता है, उनकी सहायता कर देती हूँ। मन को बड़ी शान्ति मिलती हैं। सच कहूँ तो उनकी मदद होती है या नही, ये तो मैं नही जानती किन्तु ऐसा कर के मुझे बड़ी खुशी मिलती है। ये सब मैं अपनी खुशी के लिए कर रही हूँ। " अनिमा की बातें मैं मनोयोग से सुन रही थी।

अनिमा अपनी ही धुन में कहती जा रही थी। जिसे सुनकर मेरी प्रसन्नता की सीमा न थी। ऐसा इसलिए था कि अनिमा ने अपने मन की संतुष्टि व खुशी की राहें ढूँढ ली थीं।

" बहुत अच्छा लग रहा है अनिमा तुम्हारी बातें सुनकर। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं जानती हूँ कि तुम प्रारम्भ से ही एक सशक्त महिला थीं। कॉलेज के दिनों में तुम्हारे साहस व समझदारी के चर्चे थे। समय परीक्षा लेता है और उस परीक्षा में तुम खरी उतरी। तुम हम सब के लिए प्रेरणा स्रोत हो अनिमा। "

" बस.....बस नीरू बहुत प्रशंसा न करो मेरी, नही तो बिगड़ जाऊँगी। " कहकर अनिमा हँस पड़ी।

" तुमसे एक आवश्यक विचार-विमर्श करना है। किन्तु वो फोन पर नही हो पायेगा। आॅफिस में मिलने पर बताऊँगी। " अनिमा ने कहा। उससे मिलने का वादा कर मैंने बात समाप्त की। अनिमा से बातें कर मैं अपने जीवन के प्रति भी संतुष्टि का अनुभव कर रही थी। किन्तु मैं स्वंय से संतुष्ट नही हूँ। क्यों कि अनिमा ने जो कार्य किया है, जीवन को सकारात्मक दृष्टि से देखा है, समस्याओं का जिस प्रकार निदान किया है, वह कोई अदम्य साहस वाली लड़की ही कर सकती है। कदाचित् मैं भी नही।

समय व्यतीत होता जा रहा था। हम समय के साथ चलें या न चलें समय अपनी गति से आगे बढ़ जाता है। वह अपने साथ चलने के लिए किसी की प्रतीक्षा नही करता। समय आगे बढ़ता जा रहा था। अनिमा मिलती रहती। कभी हम कार्यालय में मिलते, तो कभी एक साथ लंच करते। अनिमा ने अपना जीवन अपनी इच्छानुसार सही ढंग से व्यवस्थित कर लिया था। दिन भर कार्यालय में तथा शाम को छोटे बच्चों के साथ उसका मन खूब लग रहा था। प्रसन्नता उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखती। दिन व्यतीत होते जा रहे थे। एक वर्ष होने वाले थे। अनिमा बताती कि आजकल वह नीले नभ में उड़ते किसी पक्षी की भाँति उन्मुक्त अनुभव कर रही है। सामने खुला आसमान और बस....उड़ते चले जाना है। न कोई बन्धन, न कोई अवरोध।

♦ ♦ ♦ ♦

आज कई दिनों पश्चात् अनिमा मिली।

" कहाँ व्यस्त थी? आॅफिस में भी नही दिख रही थीं। मैं कई दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी। " मिलते ही मैंने अनिमा से कहा।

" मैं एक अति आवश्यक कार्य में व्यस्त थी। "

" किस आवश्यक कार्य में...? क्या मुझे नही बताओगी? " मैंने हँसते हुए कहा।

" तुमसे बताये बिना कहाँ जाऊँगी...? " उसने भी हँसते हुए मेरी बात का उत्तर दिया। आज अनिमा की मुस्कराहट मुझे अत्यन्त उजली लगी। मैं उसे व उसके चेहरे पर खिली प्रसन्नता देखती रह गयी, तथा अनुमान लगाया कि अवश्य कोई सुखद बात होगी।

" मैंने एक नन्हा-मुन्ना बच्चा गोद लिया है। " कह कर अनिमा मुस्करा कर मेरी ओर देखने लगी। उसकी बात सुनकर मैं चैक पड़ी।

" क्या....? .क्या...? तुमने बच्चा गोद ले लिया? " मुझे जैसे विश्वास नही हो रहा था और मैं दुबारा पूछकर आश्वस्त होना चाह रही थी।

" हाँ....भई। और उसी कार्य में व्यस्त थी।......कानूनी रूप से बच्चे को गोद लिया है। उसी कार्य की औपचारिकताओं, अनेक सरकारी पेपर्स व कानूनी प्रक्रिया पूरी करने में व्यस्त थी। अब श्लोक मेरा बेटा है। " एक गहरी साँस लेते हुए अनिमा ने अपनी बात पूरी की।

" ये बहुत अच्छा समाचार तुमने दिया है अनिमा। इस समय मेरी प्रसन्नता का अनुमान तुम नही लगा सकती। मैं तुम्हारे लिए अत्यन्त प्रसन्न हूँ। " मैंने अनिमा से कहा।

" जानती हूँ, इसीलिए ये समाचार सबसे पहले तुमसे साझा किया है। " अनिमा ने मुस्कराते हुए कहा।

" तुम्हे ये बच्चा मिला कहाँ? मेरा मतलब किसका है...? " मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

" ये एक अनाथ बच्चा है। इसके माता-पिता की मृत्यु किसी दुर्घटना में हो गयी थी। मेरे एन0 जी0 ओ0 के लोगों को पता चला तो वो उसे ले आये। वे इस बच्चे को किसी सही व्यक्ति को गोद देना चाहते थे। उनके द्वारा जैसे ही मुझे ये बात ज्ञात हुई मैंने उसे गोद लेने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी।.......उसे लेने के लिए अनेक लोग प्रयासरत् थे। किन्तु कोई सन्तान न होने के कारण प्राथमिकता मुझे मिली। " अनिमा किसी विजेता की भाँति बता रही थी। प्रसन्न भी बहुत थी। जीवन का एक बड़ा व सही निर्णय लिया था उसने। वह सचमुच विजेता थी। जीवन की कठिनाईयों के प्रति, अपने अधिकारों को पाने के लिए जो संघर्ष किया था उसने, उसमें विजय प्राप्त की है उसने।

" शीघ्र ही किसी अवकाश में या कार्यालय से ही किसी दिन तुम्हारे घर, मैं तुम्हारे बेटे से मिलने आऊँगी। " मैंने अनिमा से कहा।

" मुझे बहुत अच्छा लगेगा। तुम्हारा आशीष उसे मिलना ही चाहिए। " अनिमा ने खुश होते हुए कहा।

" मेरी ब्लेसिंग हमेशा से तुम्हारे लिए थी, अब तुम्हारे बेटे के लिए भी है। "

" कितना बड़ा है तुम्हारा बेटा? " मैंने अनिमा से पूछा।

" लगभग एक वर्ष का है। अच्छा ये बताओ श्लोक नाम कैसा है? " बच्चों की भाँति उत्साहित होते हुए अनिमा ने पूछा।

" बहुत ही अर्थपूर्ण व खूबसूरत नाम तुमने चुना है अपने बेटे के लिए। " अनिमा मुस्करा पड़ी।

" जब से मेरा विवाह हुआ है नीरू तब से मेरे घर वालों ने मुझसे मात्र औपचारिक सम्बन्ध रखा है। बेटी से रिश्ता विवाह तक था।.......विवाहित जीवन में जब चीजें कुछ ठीक थीं, तब मेरा हाल-चाल पूछते थे। कभी-कभी तीज-त्योहार में मुझे बुलाते भी थे।......जब से मेरे सम्बन्ध मेरे पति से खराब होने लगे तब से उन्होंने मुझसे सम्बन्ध रखना ही छोड़ दिया। मैं ही कभी-कभी फोन कर के अपनी पीड़ा व परेशानियाँ बताती, जिसे वे सुनकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते। मेरे मायके में मेरे मात-पिता तीन भाई व भाभियाँ सभी हैं, किन्तु मेरे बुरे समय का साथी कोई नही है।.......अब मैंने उनसे कुछ भी कहना छोड़ दिया है। विवाह-विच्छेद से लेकर अकेलेपन की पीड़ा सब कुछ मैंने स्वंय सहन किया है।.....श्लोक को गोद लिया है, ये बात बताना मैं उन्हें आवश्यक नही समझती। " अनिमा रूक-रूक कर अपनी बात कहती जा रही थी। मुझे उसकी साफ़गोई अच्छी लग रही थी। अब तक अनिमा के चेहरे पर फैली प्रसन्नता का स्थान विषाद की रेखाओं ने ले लिया था।

" सुख के ये पल जो तुम्हारे जीवन में आये हैं बस तुम उन्हें अपने आँचल में समेट लो। ये तुम्हारे साहस व परिश्रम का प्रतिफल हैं, किसी का दिया उपहार नही। तुम्हें अपनी विगत् स्मृतियों की पीड़ा से बाहर निकलना होगा। तुमने अपने उज्ज्वल भविष्य की नींव स्वंय रखी है। अतः अब सब कुछ विस्मृत कर बस आगे बढ़ती जाओ। " मैंने समझाते हुए अनिमा से कहा।

" नीरू! मैं अपने जीवन में अब संतुष्टि व प्रसन्न्ता का अनुभव कर रही हूँ। बस कभी-कभी अपनों के स्नेह का स्पर्श पाकर पीड़ा छलक उठती है। " अनिमा ने कहा। मैं मुस्करा पड़ी।

" हाँ अनिमा सही कहा तुमने। " मैंने कहा।

" जानती हो नीरू, श्लोक घर में है। उसकी देखभाल के लिए मैंने एक माता जी को घर में रखा है। वो ही दिन भर श्लोक की देखभाल करती हैं। मेरे साथ ही रहती हैं। उन्हें रहने के लिए एक कमरा दे दिया है। बड़ी भली महिला हैं। उनके बेटे-बहू ने घर से निकाल दिया है। उन्हें मेरा आसरा मिल गया और श्लोक की देखभाल के लिए मुझे उनका। " अनिमा बताती चली जा रही थी।

" जो अच्छे काम करते हैं, उनकी सहायता ऊपर वाला अवश्य करता है। " मैंने अनिमा से कहा। अनिमा मुस्करा पड़ी।

" एक मुहावरा प्रचलन में है, जहाँ चाह वहाँ राह। यह वाक्य अनुभवी लोगों ने यूँ ही नही कहा है। इसके गहरे अर्थ हैं। इस मुहावरे का सही दृष्टान्त तुम हो। " मैंने कहा।

" नही, ऐसा नही है। " संकोचवश अनिमा की दृष्टि झुक गयी।

(  )

ताऊ जी नही रहे। फोन द्वारा माँ से सुनते ही मैं स्तब्ध रह गयी।

" कब माँ! कब हुआ....? " मैंने माँ से पूछा।

" आज प्रातः चार बजे। " मैंने कार्यालय की घड़ी पर दृष्टि डाली। ग्यारह बजने वाले थे।

" कौन-कौन आ गया माँ? " पास-पड़ोस के कुछ लोगों के अतिरिक्त कोई नाते-रिश्तेदार अभी दिख नही रहा है।

" इन्दे्रश के निधन की सूचना नौकरों द्वारा भी न भेजने वाले घर के लोगों ने चन्द्रेश को यह समाचार देने के लिए भेजा। अपने दबंगई के डण्डे से पूरे घर को हाँकने वाले ताऊ जी ही जब नही रहे तो हो सकता है चन्दे्रश ने स्वंय यह निर्णय लिया हो कि चाचा जी को भी इस गाढ़े समय में बुला लिया जाये। " माँ की बातें सुनकर इस दःुख की घड़ी में भी मैं मुस्करा पड़ी।

माँ सही कह रही थीं। जब ये लोग पद और प्रतिष्ठा के दौर में थे तो माँ-बाबूजी के अपमान और तिरस्कार का कोई भी अवसर नही छोड़ते थे। आज पद-प्रतिष्ठा ढलने जाने के पश्चात्, जब इनके चाटुकार-चापलूस तितर-बितर हो गये हैं, तब बाबूजी की याद आयी है।

कार्यालय से मुझे अवकाश नही मिल पाया। इच्छा होते हुए भी मैं ताऊजी के अन्तिम दर्शन को न जा पायी। माँ से फोन द्वारा वहाँ का हालचाल मिलता रहा। माँ से ये जानकर मुझे और भी आश्चर्य हुआ कि शालिनी को ताऊ जी के निधन की सूचना नही दी गयी। छोटी जगहों पर ये बातें छुपकर तो रहती नही। पास-पड़ोस से किसी ने शालिनी को बताया और शालिनी हवाई यात्रा कर शवयात्रा निकलने से पूर्व तीसरे पहर तक वहाँ पहुँच गयी।

उसने अपने ससुर के अन्तिम दशन किए और चली आयी। वहाँ उपस्थित लोगों को ये बात पता चली कि शालिनी को बुलाया नही गया फिर भी यहाँ आकर उसने मानव धर्म का पालन किया है। शालिनी के इस कदम की भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी। सबकी आलोचना का केन्द्र ताऊ जी के परिवार का शेष बचखुचा परिवार था। माँ से शालिनी के इस अच्छे कदम से जानकार पाकर मुझे अच्छा लगा। शालिनी उनके दुख में सम्मिलित हुई और वहाँ से गोरखपुर एअरपोर्ट के लिए रवाना हो गयी। उसे शीघ्र लखनऊ पहुँचना था, जहाँ बच्चे उसकी प्रशंसा कर रहे थे।

ताऊजी के परिवार का राजनैतिक भविष्य अब शालिनी तक सिमट गया था। शालिनी के साथ किया गया दुव्र्यवहार उनके राजनैतिक भाविष्य की ताबूत में अन्तिम कील साबित हुआ। शालिनी का दुखी हृदय, टूटा मन चाहे जो भी हो जाये अब उनसे रिश्ता जोड़ने के लिए तैयार न था। उसने राजेश्वर के सम्बल के साथ अपनी अलग दुनिया बसा ली थी। उस दुनिया में राजेश्वर अपने परिवार व शालिनी के साथ था तो शालिनी राजेश्वर के साथ थी। शालिनी ने अन्ततः अपनी दुविधा व उहापोह की सोच पर विजय पाते हुए राजेश्वर का साथ स्वीकार कर लिया था। मन ही मन ईश्वर से व राजेश्वर की पत्नी से इस त्रुटि या कह सकते हैं प्रेम सम्बन्ध के लिए क्षमा मांग ली थी। राजेश्वर पूरी तरह स्वस्थ व पूरी तरह शालिनी का हो गया था। शालिनी राजेश्वर को उसके अपने परिवारिक दायित्वों को निभाने के लिए भी आगाह करती रहती। राजेेश्वर अपने दूसरे परिवार अर्थात शालिनी के परिवार के प्रति अपने समर्पण में कोई कमी न आने देता।

♦ ♦ ♦ ♦

समय व्यतीत होता जा रहा था। ऋतुयें आतीं अपना समय चक्र पूरा करतीं व चली जातीं। कभी पतझण तो कभी वसंत, कभी जून की तपती गर्मी तो कभी सावन की फुहारें। कुछ ऐसी ही ऋतुयें शालिनी के जीवन में भी थीं। विगत् स्मृतियाँ गाहे-बगाहे आतीं। पतझड़ व तपती गर्मी की अनुभूति करा कर उसे अकेलेपन की अवस्था में छोड़कर वापस चली जातीं। उन दुखद ऋतुओं के प्रभाव से राजेश्वर उसे बाहर लेकर आता। उसे सावन और वसंत की सुखद ऋतुओं के लोक में लेकर जाता। कभी-कभी शालिनी सोचती क्या ये ग़लत है? उसकी अन्तरात्मा से आवाज आती, नही! कदापि नही, राजेश्वर उसे भी अच्छा लगता है। न जाने कब कहाँ से राजेश्वर उसके जीवन में प्रवेश कर गया? राजेश्वर को उस तक पहुँचाने का श्रेय वह अपनी ससुराल वालों विशेषकर अपनी सास व ससुर को देगी। उनके कारण ही राजेश्वर उसके जीवन में आया। वे लोग न शालिनी का तिरस्कार करते न संवेदनावश राजेश्वर को उसकी मदद करने की आवश्यकता पड़ती। अपने विरोध ससुराल वालों का उसने मन ही मन धन्यवाद दिया।

मैं माँ से अनिमा के बारे में भी बातें करती रहती। उसके जीवन में आ रही जटिलताओं के बारे में माँ को बताया था तथा यह भी कि किस प्रकार वो उन कठिनाईयों से संघर्ष कर रही है।

" माँ अनिमा ने अपने जीवन में एक साहस भरा सही निर्णय लिया हैं। " एक दिन माँ से फोन पर मैंने बताया।

" कौन सा निर्णय ? " माँ ने उत्सुकता से पूछा।

" माँ आप तो जानती हैं कि उसका पति उसे प्रताड़ित करता था, मारता था। अतः उसे विवाह-विच्छेद का सहारा लेना पड़ा। "

" हाँ.....हाँ....अब क्या हुआ उसे? "

" माँ! उसने एक अनाथ बच्चे को गोद ले लिया है। इस समय एकदम सही निर्णय लिया है उसने। " मैने माँ बताया।