Unhi Rashto se Gujarate Hue - 25 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 25

Featured Books
Categories
Share

उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 25

भाग 25

मेरे साथ उसके सम्बन्ध अब मधुर नही रहे, अतः मेरे समक्ष प्रस्ताव रखने का प्रश्न ही नही उठता। यदि दीदी का ओर से ऐसा कोई प्रस्ताव आता भी है तो बच्चे पर मात्र मेरा अधिकार तो नही है? अभय क्यों चाहेगा अपने बच्चां को दीदी को सौंप, कर उनकी इच्छा पूरी करना? वो भी उस दीदी की जिसने अभय के साथ मेरे विवाह को लेकर मुझे मानसिक प्रताड़ना दी है। उम्र का इतनी सीढ़ियाँ चढ़ लेने बाद, दीदी के साथ रिश्तों में इतनी कड़वाहट घुलने के पश्चात्, दीदी के लिए मुझे अब कुछ नही सोचना। वो भी मात्र दीदी के पैसों व सम्पत्ति के लिए? कदापि नही। दीदी ने कभी मेरे बच्चों से मौसी जैसा स्नेह नही किया। बच्चे अब समझदार हो गए हैं। मेरे बताये बिना भी सब कुछ समझते हैं।

मेरे पास सब कुछ है। रहने को ठीक-ठाक घर, कुछ खेत व मेरे पति की सरकारी नौकरी। जिससे मेरा घर आराम से चलता है। मेरी व मेरे बच्चों की प्रत्येक आश्यकता पूरी हो जाती है। मैं प्रसन्न रहती हूँ। किसी प्रकार का अभाव जीवन में नही है। हाँ, दीदी की भाँति जीजा की ऊपरी कमाई के पैसे मेरे पास नही हैं, न ही दीदी की भाँति आवश्यकता से बड़ा घर। मुझे ऐसे पैसे नही चाहिए। न दीदी के घर जैसा घर बड़ा जिसे देखकर घबराहट होने लगे। मैं कहूँ या न कहूँ मेरे बच्चे मौसी के पास जायेंगे ही नही। ये विषय यहीं समाप्त कर मैं अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त हो गयी।

अनिमा आज कार्यालय में मिली। मिलती तो वो अक्सर ही है, किन्तु आज मैं जिस अनिमा से मिल रही थी वो एक अलग व बिलकुल नयी अनिमा थी। चेहरे पर नयी चमक, बातों में आत्मविश्वास व पुरूषों के प्रति कुछ विद्रोह भी। मै इस नई अनिमा मैं प्रथम बार मिल रही थी।

" क्या बात है? आज बहुत प्रसन्न व आकर्षक लग रही हो...? "

" मैं.....? अच्छा! ये तो मेरे लिए काम्पलीमेण्ट हैं। थैंक्स। " अनिमा ने स्टाईल मारते हुए कहा और खिलखिला कर हँस दी। अनिमा के चेहरे पर हँसी मुझे अच्छी लगी।

" इसका राज तो बताओ? " मैंने भी उसी स्टाईल से कहा

" ओ.....ओ......तो. राज ये है कि मुझे उस पुरूष से छुटकारा मिल गया है। अब मैं मुक्त हूँ.....जो चाहे कर सकती हूँ.......जो चाहे पा सकती हूँ.......जहाँ चाहे जाऊँ....रहूँ.....कोई रोकने-टोकने वाला नही है....। " अनिमा ने आसमान की ओर हाथ उठाया और दोनों बाहें फैला दी।

मैं नयी अनिमा को देखकर अचम्भित थी और प्रसन्न।

"तो क्या करना है आगे.....अब...? " मैंने उत्साहित अनिमा को देखकर कहा।

" बहुत कुछ सोचा है नीरू! मैं समाज सेवा करना चाहती हूँ। " वो बोल रही थी। उसकी दृष्टि विस्तृत नीले आसमान पर थी। कदाचित् वो अपनी कोई अधूरी इच्छा पूरी करना चाहती थी। उसके समक्ष अब विस्तृत, खुला नीला आसमान था, ओर वह अपने पंख फैला कर उड़ना चाहती थी। मैं उसकी बातें सुन रही थी तथा उसके लिए खुश थी।

" मैं समाज में तिरस्कृत लोगों के लिए कुछ करना चाहती हूँ। वृद्धाश्रमों में जीवन के अन्तिम दिन काट रहे वृद्ध हों या वो परित्यक्त महिलायें जो पति द्वारा छोड़ दिये जाने के पश्चात् माता-पिता पर आश्रित हैं और जीविकोपार्जन के लिए मोहताज हैं। मैं उनके स्वावलम्बन के लिए कुछ करना चाहती हूँ। " अनिमा की बातें मैं ध्यान से सुन रही थी मेरी पूरी शुभकामनायें अनिमा के साथ थीं।

अपने लड़खड़ाते जीवन को अनिमा ने साहस, धैर्य व बुद्धिमत्ता से सम्हाल कर व्यवस्थित मार्ग की ओर अग्रसर कर रही थी। जीवन के मार्ग कभी धूप कभी छाँव में आगे बढ़ते जा रहे थे। अभय का व्यवहार मेरे प्रति परिवर्तित हो रहा था। हमेशा उखड़ा-उखड़ा-सा रहने वाला अभय अब मुझसे मृदु भाषा में बातें करता। घर के कार्यों में मेरे साथ सहयोग करता। मेरी प्रशंसा करता। बदले हुए अभय को देखकर मैं संतुष्ट थी......प्रसन्न थी। अभय को किसी प्रकार दीदी की इस इच्छा का कि वह अपने भाई या बहन में से ही किसी के बच्चे को गोद लेना चाहती है, पता चल गया था। आखिर पता कैसे न चलता? अभय जीजा के कुछ दूर के रिश्ते का भाई ही तो है।

♦ ♦ ♦ ♦

एक दिन शाम को कार्यालय से लौटने के पश्चात् अभय ने मुझसे पूछ ही लिया कि, " सुना है तुम्हारी दीदी बच्चा एडाॅप्ट करना चाहती है। " प्रत्युत्तर की आशा में अभय मेरी ओर देखने लगा। मैं चुप थी।

" सुना है मेरे बच्चों के लिए भी इच्छा प्रकट की है उसने? " प्रत्युत्तर के लिए वह पुनः मेरी ओर देखने लगा। मै। निरूत्तर थी।

" तुम्हारे पास उसकी ओर से प्रस्ताव आ चुका होगा या हो सकता है अब आ रहा हो। उससे बोल देना उसके साथ मेरा कोई रिश्ता नही है। " अभय ने अपने चेहरे पर घृण के भाव लाते हुए कहा। इस विषय पर इस समय कुछ भी बोल कर मैं अपने वैवाहिक जीवन में अशान्ति नही घोलना चाहती थी। मेरे लिए चुप रहना ही बेहतर विकल्प था। वैसे भी अभय कुछ ग़लत नही कह रहा था। अतः मैं चुप भी।

" अब तक मेरे प्रति जो व्यवहार था उसका आगे भी वो वैसा ही रखे। मुझे उससे कोई अन्तर नही पड़ने वाला। मेरे पास अपने बच्चों के लिए बहुत है। अपना पैसा अपने पास रखे। अपने पैसों से किसी और को क्रय करे। " अभय की बात अनुचित नही थी। उसकी भावनाओं को बार-बार दीदी ने चोट पहुँचाई है। अपने पैसों से, माँ के घर अपनी बातें मनवा कर, अपना प्रभुत्व बनाकर अभय का अपमान करती रही है। अभय की बातें उचित थीं, सत्य थी।

मैं दीदी को भले ही कुछ न कहूँ, किन्तु अभय को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है। अभय इस तथ्य से परिचित है कि पैसों के प्रभाव पर दीदी ने माँ के घर भी अपना प्रभुत्व बनाकर रखा था। माँ के घर भी उसकी बातें सुनी जातीं थीं, मानी जाती थीं। मुझे कोई आपत्ति न थी कि उसकी बातें सुनी जायें, मानी जायें, किन्तु मेरे व अभय के लिए दीदी कुछ अनर्गल कहती थी, तो उस समय माँ-बाबूजी की चुप्पी मुझे पीड़ा देती थी। अभय मेरी विवशता देखता रहता था। किन्तु कुछ बोलता नही था। मेरे व मेरे मायके वालों के बीच में वो बोलना नही चाहता था।

दीदी की वर्तमान समस्या बच्चे को गोद लेने की थी, जिसका हल नही निकल पा रहा था। समय व्यतीत होता जा रहा था। मेरे परिवार में यद्यपि सब कुछ ठीक था.....सही चल रहा था, किन्तु दीदी की समस्या सोचकर मेरा मन कभी-कभी व्यथित हो जाता। कैसे रहती होगी दीदी...पैसे व प्रापर्टी के साथ अकेली? दीदी बचपन से अन्तर्मुखी स्वभाव की थी। शीघ्र सबसे घुलमिल नही पाती थी। मिलनसार स्वभाव की नही थी। नाते-रिश्तेदारों में अधिक उठना-बैठना भी नही था उसका। कि यदि कभी मन उदास हो तो किसी के घर जाकर दो घड़ी बैठ ले, तो मन हल्का हो जाये।

खुले स्वभाव की मैं भी अधिक न थी। फिर भी कॉलेज के समय में मेरी अनेक मित्र थीं, तथा इस समय भी कुछेक नाते रिश्तेदार मेरे निकट हैं। मैं इस तथ्य से भी परिचित हूँ कि ये अपने नाते-रिश्तेदार दुःख-सुख में किसी समस्या का समाधान लेकर उपस्थित नही होने वाले। कदापि नही। जिस प्रकार अपने-अपने सुखों का आनन्द सभी लोग स्वंय उठाते हैं, उसी प्रकार अपना-अपना दुःख भी सबको स्वंय भोगना होगा। इस समय मुझे महात्मा बुद्ध के कहे गये महान शब्द याद आने लगे-

" जो अच्छा लगे उसे ग्रहण करो जो बुरा लगे उसका त्याग करो। चाहे वो विचार हों, कर्म हों, मनुष्य हों या धर्म हों। जो मनुष्य होने पर सवाल करे वो मार्ग छोड़ा जा सकता है। हम न नास्तिक हैं न आस्तिक, हम तो केवल वास्तविक हैं। " तथागत् के कहे गए इन शब्दों में जीवन का सत्य व गहराई समाहित है।

आज मेरे अवकाश का दिन है। घर के सभी रोजमर्रा के काम हो चुके हैं। मेरे पास कुछ समय है जिसमें कुछ सार्थक किया जा सके और मेरा मन बौद्ध मन्दिर जाने का हो रहा है। अभय से कहकर मैं जाने को तत्पर हुई ही थी कि-

" मैं भी तुम्हारे साथ चल रहा हूँ। " पीछे से अभय के स्वर सुनकर मैं रूक गयी।

विवाह के इतने वर्या व्यतीत हो जाने के पश्चात् अभय मेरे साथ पहली बार बौद्ध मन्दिर जाना चाहता है तो मुझे तो रूकना ही था। मन में प्रसन्न्ता की एक लहर-सी दौड़ गयी। यूँ तो मैं अकेले अनकों बार तथागत् के दर्शनों के लिए गयी हूँ किन्तु अभय के साथ आज पहली बार जा रही हूँ यह मेरे जीवन के अविस्मरणीय क्षणों में से एक क्षण होगा। अभय ने शीघ्रता से कपड़े बदले। बच्चों को आवश्यक दिशा निर्देश देने के उपरान्त मेरे साथ चल पड़ा। हम पैदल ही बौद्ध परिपथ से होते हुए बौद्ध मन्दिर के प्रागंण की ओर बढ़ चले।

छोटे शहरांे, कस्बों की यही विशेषतायें होती हैं कि यहाँ अधिकांश स्थानों पर आने-जाने के लिए किसी साधन की आवश्यकता नही पड़ती हैं, क्यों कि छोटे-से स्थान के घेरे में यह शहर विकसित हो जाते हैं। सीमित जनसंख्या के कारण सड़कों पर गाड़ियाँ कम होती हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान तक बहुधा पैदल पहुँचा जा सकता है। गाड़ियों, टैªफिक के शोर व प्रदूषण से मुक्त ऐसा ही अद्भुत स्थान है कुशीनगर। यहाँ चारों ओर शान्ति व आध्यात्म पसरी दिखाई देती है। ऐसा हो भी क्यों न? आखिर यहाँ तथागत् ने निर्वाण प्राप्त कर अमरता का संदेश दिया था।

अब से पूर्व कई बार मैं इस स्थान पर आ चुकी हूँ, किन्तु आज अभय के साथ आकर सब कुछ नया व अच्छा लग रहा है। कुछ ही समय में हम मन्दिर के भव्य मुख्य गेट से प्रांगण में प्रवेश कर रहे थे। गेट के बाहर कतारबद्ध ढंग से कुछ दुकानें लगी थीं, जिनमें बुद्ध के जीवन से सम्बिन्धत साहित्य, चित्र, कलाकृतियाँ, मूर्तियाँ आदि सजी हुई थीं। इन्हें देखकर सहसा बौद्धकालीन भव्यता का आभास होता था।

मुख्य गेट से प्रांगण में प्रवेश करते ही ठीक सामने जापानी व तिब्बती कला को समेटे हुए भव्य विशाल स्तूप था जिसमें विश्राम मुद्रा में तथागत् की अद्भुत मूर्ति अवस्थित है। मरे साथ अभय भी उधर ही बढ़ चला। स्तूप की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अभय ने मेरा हाथ थाम लिया। शान्त करवट मुद्रा में लेटे हुए तथागत् के चरणों में मैं अभय के साथ बैठ गयी। बौद्ध भिक्खु उन्हें चवँर डुला रहे थे।

अत्यन्त शान्त व शीतल वातावरण था जिसकी अनुभूति मैं अन्तःस्थल तक कर रही थी। कदाचित् ऐसी ही अनुभूति अभय भी कर रहा था क्यों कि उसके चेहरे पर असीम सुख व शान्ति थी तथा वह खामोश था गहन चिन्तन-मनन की मुद्रा में। वहाँ बैठने के उपरान्त हम निर्वाण वृक्ष, विशाल आध्यात्मिक घंटे से होते हुए अनेक दर्शनीय, पूजनीय स्थलों को देखते हुए हम दूसरे स्तूप के दर्शन करने गए। शान्त व तपश्चर्या की मुद्रा में बैठे बुद्ध की मूर्ति का देखकर हम अभिभूत थे।

ये स्तूप भी आध्यात्मिक भव्यता में किसी प्रकार कम न था, पहले के स्तूप से अपेक्षाकृत छोटा था। स्तूप से आगे बढ़ने पर प्रागंण के पिछले हिस्से में व्यवस्थित रूप से दूर-दूर तक फैले थे बौद्धकालीन भव्यता के अवशेष। ये खण्डहर अपने मौलिक स्वरूप में थें। व्यवस्थित इसलिए थे कि उस समय नगरीय सभ्यता पूर्णतः विकसित थी। ये खण्डहर मात्र खण्डहर नही हैं इनमें है सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्कि रूप से विकसित एक सशक्त कालखण्ड। बौद्ध भिक्खुओं के लिए सभा कक्ष, रहने के कक्ष, रसोईघर, स्नानागार, सड़कें, जल निकासी के लिए व्यवस्थित नालियाँ इत्यादि सभी के अवशेष एक विकसित सभ्यता की गाथा कह रहे थे।

हम दोनों उन खण्डहरों में बैठकर उस युग की अनुभूति कर रहे थे। तत्कालीन पूरा का पूरा शहर मानों मेरी आँखें के समक्ष सजीव हो रहा था। एक भव्य, जीवन्त शहर। जिसमें चलते-फिरते सीधे-सरल लोग कहीं हाट- बाजार में खरीदारी करते दिख रहे थे, तो कहीं भिक्खुओं की बातों का श्रवण कर रहे थे। प्रतीत हो रहा है इसी स्थान से कुछ दूर महात्मा बुद्ध बटवृक्ष के नीचे तपश्चर्या में लीन बैठे हैं।

सब कुछ मेरे नेत्रों के समक्ष जीवन्त हो रहा है। जो अद्भुत अनुभूति आज मुझे हो रही है वो अब से पूर्व नही हुई। जब कि आज से पूर्व कई बार मैं यहाँ आ चुकी हूँ। मन द्रवित व पीड़ा से भर जा रहा है यह सोचकर कि उस समय किस प्रकार कृशकाय तथागत् मावन व मानवता की भलाई व उन्हें बोधि प्रदान करने के लिए इस वटवृक्ष के नीचे नेत्र बन्द कर ध्यान में लीन बैठे होंगे। सम्पूर्ण मानव जाति को एक ही जाति मानव जाति रूप में देखने व समझने की भावना के साथ बैठे महान मानव महात्मा बुद्ध के लिए हृदय भर आ रहा था।

अभय तो खामोशी से सब कुछ देख रहा था। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह भी भाव विभोर है तथा इस महान भूमि पर गौरवान्वित होकर उसकी अलौकिकता में खो-सा गया है। सत्य, अहिंसा व प्रेम का संदेश चहुँ ओर गुँजायमान हो रहा था। हमारा पूरा दिन बौद्ध परिसर में व्यतीत हो गया। साँझ ढलने लगी। मैं अभय के साथ घर की ओर वापस उन्ही मार्गों से चलकर आने लगी जिन मार्गों से चलकर वहाँ तक गयी थी। प्रेम......प्रेम......प्रेम...सर्वत्र यही शब्द गुँजायमान हो रहा था। मानव का मानव से प्रेम.....मानव का जीवों से प्रेम.......मानव से प्रेम, जात-पात से ऊपर मानव मात्र से प्रेम। यही तो था उनका संदेश। निर्धन-सम्पन्न, ऊँच-नीच से प्रेम, जीव जन्तुओं के प्रति अहिंसा के संदेश से ओत-प्रोत पूरा परिपथ। शाम ढ़लने से पूर्व हम घर आ गये।

आज अनिमा का फोन आया। उसके स्वर में अभूतपूर्व उत्साह और खनक थी। जिससे स्पष्ट था कि वो प्रसन्न है।

" क्या बात है.....आज बड़ी प्रसन्न लग रही हो? " मैंने कहा।

" बिलकुल सह कहा तुमने। " उसने उसी प्रकार प्रसन्नता में कहा।

" मुझसे साझा नही करोगी अपनी प्रसन्नता? "

" हाँ......हाँ.....क्यों नही? इसीलिए तो फोन किया। तुम्हारे अतिरिक्त मुझे और कौन समझ सकता है, जिससे मैं अपनी प्रसन्न्ता साझा कर सकती हूँ? "

" ये तो बड़ी अच्छी बात है। सुनकर मुझे अच्छा लगा। मैंने अनिमा से कुछ हास्य के मूड में कहा।