Unhi Rashto se Gujarate Hue - 23 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 23

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 23

भाग 23

म्हिलाएँ घुटनों तक पानी में उतर कर सूर्यदेव को अर्पण के लिए प्रसाद के रूप में थोड़ी-थोड़ी वस्तुयें सुपली में लेकर डूबते सूर्य की पूजा करती हैं। उस समय अस्ताचलगामी सूर्य की सुनहरी किरणें सृष्टि पर अद्भुत सौन्दर्य बिखेरतीं है। मनोहर कार्तिक माह अपनी मनोहारी छटा के साथ उपस्थित रहता है। नदी के जल में उतर कर अर्घ देती महिलायें और अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें नदियों तालाबों के घाटों पर इन्द्रधनुषी छटा बिखेर देतीं। घाटों से लौट कर व्रती महिलायें घर में कोसी भरने की तैयारी करतीं।

कोसी भरना छठ पर्व का महत्वपूर्ण भाग है। कोसी मिट्टी का एक घड़ा होता है, जिसके चारों ओर मिट्टी के दीये बने रहते हैं। इसको घर में बने प्रसाद से भरा जाता है। किन्तु इसको भरने की एक अत्यन्त सुन्दर व श्रद्धापूर्ण प्रक्रिया होती है। इसमें उस गन्ने से जिसकी फुनगी में पत्ते लगे होते हैं, उनको पीले कपड़े से बाँध कर मण्डप बनाया जाता है। उस मण्डप के नीचे कोसी को रखकर उसमें घर के बने प्रसाद ठेकुआ, मीठी पुड़ी, कसार आदि तथा नये फल, सब्जियों से भरा जाता है। कोसी के चारों ओर बने दीयो में सरसों का तेल भर कर प्रज्ज्वलित किया जाता है। कोसी भरना इस व्रत की मुख्य प्रक्रिया है। अतः ये सारे कार्य यूँ ही नही हो जाते।

इसमें पास-पड़ोस की महिलाएँ कोसी भरवाने के लिए एक-दूसरे के घरों में एकत्र होती हैं। सभी महिलाएँ देवी गीत, छठ गीत गाती हैं। घर में किसी नये सदस्य के आने, नयी बहू के आने पर कोसी भरने की यह प्रक्रिया दरवाजे पर गाजे-बाजे बजने के साथ पूरी होती है। इस प्रकार पूरी रात मुहल्लों, काॅलोनियों में घर-घर कोसी भरने का उपक्रम चलता है। व्रती महिलाओं के झुण्ड प्रत्येक घरों में जाकर छठ गीत गाते हुए सबकी कोसियां भरवाती हैं। इस प्रकार मंगल गीत तथा सबके सहयोग से कोसी भरने का कार्य पूरा होता है। यह पर्व सामाजिक समरसता व मेलजोल का पर्व है।

अगले दिन पुनः भोर में घर के सभी सदस्य उठकर घर की व्रती महिलाओं का सहयोग करते हैं। क्यों कि आज ये महिलायें उगते सूर्य की पूजा करेंगी। व्रती महिलायें डाले में सभी सामग्री भर कर उसमें दीया जला कर, सुपली में भी पूजा हेतु सभी सामग्री भर कर डाले को पीले कपड़े में बाँध कर श्रद्धापूर्वक सिर पर रख कर घाट पर जाते। इस कार्य में घर के सभी सदस्य सहयोग करते। यह व्रत हमें यह शिक्षा देता प्रतीत होता है कि हमें अपने आसपास की नदियों, तालाबों व जल के अन्य स्रोतों को स्वच्छ व संरक्षित रखना चाहिए।

यह व्रत हमें प्रकृति से जोड़ता है। उससे प्रेम करना सिखाता है। सामूहिक पूजा पद्धति का यह पर्व हमें सामाजिक समरसता को बनाये रखने के लिए पे्ररित करता है। एक-दूसरे के सहयोग के बिना डाला छठ का पर्व सम्पूर्ण नही होता। सुना है बड़े शहरों में सभी सुख-सुविधायें होते हुए, भीड़ के रहते हुए भी आदमी अकेलेपन की समस्या से जूझ रहा है। अकेलेपन की यह समस्या निराशा, घबराहट, अवसाद आदि अनेक बीमारियों को जन्म दे रही है।

डाला छठ और इसी प्रकार के अन्य लोक पर्व हमारे समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। यह परम्परा आगे भी चलनी चाहिए। और इस परम्परा के वाहक हम ही तो हैं। हम अर्थात आगे आने वाली नयी पीढ़ी। मैं भी इस व्रत को रखती हूँ। बचपन से माँ को जिस प्रकार श्रद्धा और शुचिता के साथ यह व्रत रखते हुए देखती थी, ठीक उसी प्रकार मैं भी रखती हूँ। अनिमा भी यह व्रत रखती है, श्लोक की दीर्घायु व सफलता की कामना के लिए।

केलवा के पात पर उगेलन सुरजदेव झंाके झूके

हे करेलू छठ बरतिया से झंाके झूके

हम तोसे पूछीं बरतिया ये बरतिया जे केकरा लागे

तू करेलू छठ बरतिया जे केकरा लागे

हमरो जे बेटिया कवन ऐसन बेटिया के उनके लागै

हम करेली छठ बरतिया के उनके लागे

नारियल के पात पर उगेलन सुरूजदेव ढंाके-झूके

हे करेलू छठ बरतिया के ढंाके झूके

तू करेलू छठ बरतिया के........

हम तोसे पूछीं बरतिया ई बरतिया जे केकरा लागे

तू करेलू छठ बरतिया के केकरा लागे

हमरो जे बेटवा कवन ऐसन बेटवा के उनके लागे

हम करेली छठ बरतिया से उनके लागे

अमरूदिया के पात पर...........

छठ के मीठे गीतों की स्वरलहरियाँ तीन दिनों तक वातावरण में गूँजती रहती हैं। पकवानों व नये फल, सब्जियों की सुगन्ध से वातावरण मह-मह कर महकता रहता है। अत में पास-पड़ोस में घर-घर प्रसाद वितरण के साथ इस पर्व का समापन होता है। देवी से इस प्रार्थना के साथ कि सभी कुशल मंगल रहें। अगले वर्ष सभी मिलजुल कर पुनः यह व्रत करें।

जैसे-जैसे जीवन के दिन व्यतीत होते जा रहे हैं, मैं यह अनुभव कर रही हूँ कि अभय में अब समय के साथ परिवर्तन, उसके व्यवहार में परिपक्ता आती जा रही है। यह परिवर्तन बढ़ती उम्र का भी हो सकता है।

जो भी हो अब अभय मेरा बहुत ध्यान रखता है। मेरे लिए फल आदि स्वंय बाजार से लेकर आता है। मेरे स्वास्थय का ध्यान रखता है। मेरा हाल पूछता है। बच्चों की कोई बात हो, कोई समस्या हो, मेरे साथ सलाह-मश्वरा करता है। मेरे विचारों का प्रमुखता देता है। बच्चों की शिक्षा, उनके करियर, उनके कॉलेज आदि विषयों पर मेरे विचारों को ध्याान में रखते हुए उसने मेरी बेटी का एडमिशन दिल्ली एक प्रतिष्ठित कॉलेज में करा दिया।

बेटी अपनी रूचि के अनुसार और अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रही है, यह सोचकर हम संतुष्ट थे। मेरा बेटा भी इस वर्ष इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेगा। वह भी मैनेजमेन्ट की शिक्षा प्राप्त करना चाहता है, इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के साथ ही साथ वह इसके लिए भी तैयारी कर रहा है।

उम्र के इस पड़ाव पर आकर मै इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगी हूँ कि वैवाहिक जीवन के कुछ वर्षों, यही कोई पाँच-सात वर्षों के पश्चात् वैवाहिक जीवन में नीरसता की एक अवधि आती है। जिसमें सामंजस्य बैठाने की आवश्यकता पड़ती है। पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति अनेक भ्रम, छल-छलावा, आदि दिग्भ्रमित करते हैं। इस कठिन अवधि में ही यदि पति-पत्नी एक दूसरे के साथ थोड़ा संयम, कुछ समझदारी और एक दूसरे को स्पेस देते हुए जीवन की गाड़ी को आगे खींचे तो पति-पत्नी के मध्य दूरियाँ कम हो जायेंगी तथा वैवाहिक जीवन सफलता की ओर बढ़ने लगेगा। अनेक विवाह टूटने से बच जायेंगे।

कदाचित् दोनों के मध्य यदाकदा धैर्य की कमी हो जाती है और वैवाहिक जीवन कठिनाईयों के दौर से गुज़रने लगता है। मेरे वैवाहिक जीवन जीवन में भी कम कठिनाईयाँ नही आयीं। परिस्थितियों से भागने के स्थान पर मैंने उनका दृढ़ता से सामना किया। अभय को अन्ततः अपनी कमियों व त्रुटियों का अहसास हुआ है। यद्यपि मैं जानती हूँ कि कोई भी सम्पूर्ण व गुणों से परिपूर्ण नही होता तथापि हमारी सफलता इसी में है कि कमियों के साथ निर्वाह करते हुए, यदि सम्भव हो तो उसे दूर करते हुए, जीवन को सकारात्मक ढंग से जीयें, स्वंय को परिपूर्ण बनायें।

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शालिनी ने अपनी ससुराल आना पूरी तरह छोड़ दिया था। वह कुशीनगर आती किराये के गेस्ट हाऊस में रूकती। राजेश्वर के साथ चुनाव क्षेत्र में जाकर लोगों से सम्पर्क करती तथा लखनऊ चली जाती। अगला आम चुनाव आने वाला था। मैं समझती हँू कि समय की तीव्र गति का अनुमान नेताओं को इसी बात से लग जाया करता होगा कि देखते ही देखते ही पाँच वर्ष कितनी शीघ्र व्यतीत हो जाते है। वो अपनी जीत का आनन्द ठीक से उठा भी नही पाते और अगला चुनाव आ जाता है। शालिनी को इस बार भी टिकट मिलना निश्चित था। वो पूरी ताकत के साथ क्षेत्र के विकास कार्यों व जनता की समस्याओं का निवारण करने में लग गया थी। उद्देश्य यह था कि जनता उसके कार्यों से संतुष्ट रहे। वह सतत् जनसम्पर्क बनाये हुए थी।

काम के बढ़ जाने के कारण या और न जाने कौन-सा कारण था कि राजेश्वर अस्वस्थ हो गया। वो लखनऊ आ नही पा रहा था। उसकी अस्वस्थता इतनी बढ़ गयी थी कि कुशीनगर में रहते हुए भी शालिनी के चुनाव क्षेत्र में नही जा पा रहा था। शालिनी ने पता किया तो ज्ञात हुआ कि वो दुबर्लता के कारण चलने-फिरने में भी असमर्थ है तथा बिस्तर पर पड़ा रहता है।

चुनाव प्रचार के लिए यही सही समय था, और ऐेसे अवसर पर राजेश्वर का अस्वस्थ हो जाना शालिनी के लिए अत्यन्त चिन्ता की बात थी। वह जानती है कि यदि इस समय शिथिलता बरती गयी तो इसका प्रभाव चुनाव परिणाम पर पड़ सकता है। यही सोच कर शालिनी अन्य कार्यकर्ताओं के साथ चुनाव प्रचार कर रही थी। किन्तु उसे राजेश्वर की कमी हर समय महसूस होती। राजेश्वर की अस्वस्थता के बारे में सोचकर इन्देश की अस्वस्थता का स्मरण हो जाता, और एक अनजाने भय से उसका हृदय काँप उठता। किसी न किसी को भेजकर वो राजेश्वर का हालचाल लेती रहती। शालिनी कभी भी राजेश्वर के घर नही गयी। उसकी पत्नी व परिवार से नही मिली। वह उन सबके समक्ष जाना नही चाहती।

वह राजेश्वर व उसके साथ अपने विशेष सम्बन्धों को निजता के दायरे में रखना चाहती है। उस पर किसी की दृष्टि पड़ने देना नही चाहती। फिर भी उस पर और राजेश्वर की मित्रता को न जाने किसकी नज़र लग गयी। दो माह हो गये राजेश्वर को देखे हुए। शालिनी का मन अशान्त रहने लगा है। लखनऊ से आज वह कुशीनगर आ गई। हमेशा की तरह इस बार भी गेस्ट हाऊस में रूक गई। शालिनी कुशीनगर आ तो गई, किन्तु उसका मन चुनाव क्षेत्र में जाने का नही हो रहा था। इसका कारण राजेश्वर था। अधिकाशंतः राजेश्वर के साथ के साथ ही वह क्षेत्र में चुनाव प्रचार के लिए जाती थी।

अब राजेश्वर के बिना अकेले जाने की उसकी इच्छा नही होती। राजेश्वर की स्मृतियाँ बार-बार आकर उसे घेर ले रही थीं। राजेश्वर के बारे में सोच-सोच कर मन व्याकुल हो रहा था। उसकी कमी उसे बेहद महसूस हो रही है।

आज गेस्ट हाऊस के कमरे में उसका मन नही लग रहा था, इसलिए वह बाहर आ गयी। कदाचित् बाहर खुली हवा में रहने के पश्चात् उसके मन को कुछ शान्ति मिल सके। वह बाहर निकली व पैदल ही चलने लगी। चलते-चलते उसके कदम स्वतः न जाने कहाँ जा रहे थे। कुछ दूर चलने के पश्चात् सामने था, उसका जाना-पहचाना बौद्ध परिनिर्वाण स्थल। तो वह अनजाने ही पुनः इस महान स्थली पर आ गयी थी, जिसकी उसे इस समय अत्यन्त आवश्यकता थी।

अनेक बार यहाँ आने के पश्चात् भी यह स्थान उसे आज नया लग रहा था व ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे वह उसे अपने पास बुला रहा है। उसके कदम बस उधर ही बढ़ते चले जा रहे थे। न जाने क्यों.....? किसकी तलाश में....? कदाचित् शान्ति की तलाश में....। चलते-चलते वह बौद्ध मन्दिर में पहुँच गयी। उसके सामने थे बौद्ध स्तूप, अनेक बौद्ध मन्दिर और दूर-दूर तक फैले बौद्धकालीन खण्डहर, जिनमें तथागत्-सी असीम शान्ति व प्रेम पसरा हुआ प्रतीत हो रहा था।

वह जाकर बुद्ध के चरणों में बैठ गई और उसी शान्ति का अनुभव करने लगी जो यहाँ के वातावरण में व्याप्त था। मन में किसी प्रकार की व्याकुलता शेष न थी, था तो बस सबके लिए प्रेम व शान्ति का भाव। शालिनी देर तक खण्डहरों में बैठी शान्ति का अनुभव करती रही। हरियाली से समृद्ध प्रकृति का मनोहारी दृश्य दूर-दूर तक फैला था। शालिनी को न यहाँ से जाने की चिन्ता थी न समय का अनुमान। क्षितिज से साँझ उतरने लगी थी। वृक्षो से होती हुई प्रकृति पर अपने मनोहरी आँचल को फैलाने लगी थी।

चारों ओर का हराभरा परिदृश्य साँझ के साथ मिलकर और मनोहारी हो गया था। अँधेरा घिरने से पूर्व उसे लौटना था। वह उठ खड़ी हुई। प्राचीन अवशेषों से बाहर निकल मन्दिरों के समूह के पास से गुज़रते हुए उसने देखा कि अनेक बौद्ध भिक्षु अपनी सांध्यकालीन चर्या व पूजन-अर्चन हेतु इधर-उधर आ-जा रहे हैं। उनके चेहरे पर फैली असीम शान्ति मानों यह कह रही हो कि मन्दिर से बाहर की आभासी, क्षणभंगुर दुनिया के लोगों आप यहाँ आओ, जीवन में स्थायीत्व व जीवन का सही अर्थ समझो। आओ! तथागत् के चरणों में आओ।

गेस्ट हाऊस में आकर शालिनी अपने नेत्र बन्द कर देर तक बैठी रही और उसी शान्ति का अनुभव करती रही। उसे बार-बार तथागत् के शब्द याद आ रहे थे-

" कोई मेरा बुरा करे वो कर्म उसका, मैं किसी का बुरा न करूँ वो धर्म मेरा। " तथागत् के इन शब्दों के अर्थ ने उसके समक्ष खड़े अनेक प्रश्नों के जैसे समाधान प्रस्तुत कर दिये हों।

तत्पश्चात् उठकर शालिनी ने अपने लिए एक कप काॅफी बनाई। उसे रजेश्वर के स्वास्थ्य की चिन्ता होने लगी। उसे राजेश्वर से बातें करने की इच्छा हो रही थी। उसका हाल जानने की इच्दा हो रही थी। किन्तु यह सोचकर फोन नही किया कि घर में यदि किसी और ने फोन उठा लिया तो वह क्या कहेगी?.....वो राजेश्वर की कौन है?.....क्यों उससें बातें करना चाहती है? अनेक प्रश्न उठ खड़े होंगे। उन प्रश्नों से वो कैसे भाग सकेगी? उन प्ररूनों के उत्तर उसके पास नही हैं। उसने मन को समझा लिया और राजेश्वर को फोन करने का विचार त्याग दिया।

कक्ष की दीवार पर लगी घड़ी की सुई टक-टक करती हुई समय को आगे बढ़ा रही थी। रात्रि के नौ बजने वाले थे। उसने बेल बजाकर काॅरीडोर में आराम कर रहे नौकर को बुलाकर भोजन बनाने के लिए कहा। सुबह से उसने कुछ नही खाया था और उसे भूख लग रही थी। वह भोजन बनने की प्रतीक्षा कर ही रही थी कि सहसा फोन की घंटी बजी। उसने उठाया और देखा तो राजेश्वर का फोन था।