Unhi Rashto se Gujarate Hue - 22 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 22

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 22

भाग 22

आजकल प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त हो, नहा धोकर ताऊजी बाहर बारामदे में तख़्त पर बैठ जाते। वहीं चाय-नाश्ता इत्यादि करते हैं। वहीं बैठे-बैठे दोपहर का भोजन भी करते हैं। सड़क से आते-जाते लोगों को आवाज लगाकर पास बुलाकर हाल-चाल लेने के बहाने उनसे बातें करते हैं। पुराने दिनों की राजनीति की, सत्ता की, उनके उस जलवों की जो अब नही बची हैं, बातें करते हैं। यह सब करना उनका स्वभाव बन गया है। ऐसा इसलिए है कि अब वो अकेले पड़ने लगे हैं। अकेलापन उनको सालने लगा है। धीरे-धीरे सभी को पता चलने लगा कि ये हाल-चाल पूछने के बहाने अपना मनबहलाव करते हैं। अब अधिकांशतः लोग उनसे धीरे से कन्नी काटकर निकल लेते। बिरला ही कोई फँस जाता है व रूक जाता है। एकमात्र बेटे की भी उनसे नही बनती। अनजान लोगों को बुलाकर बातें करने का प्रयास करेंगे, किन्तु बाबूजी से इतनी नफरत की अवसर मिलते ही उनसे झगड़ने के अवसर तलाश लेंगे। पूरी शत्रुता हमारे परिवार से निभायेंगे। जब कि कुछेक नौकरों चाकरों के साथ उनके दिन कट रहे हैं।

मेरे मन मस्तिष्क में बचपन के उन दिनों की स्मृतियाँ अब भी शेष हैं, जब हम सब ताऊजी के परिवार के लोगों से बातें करना चाहते थे। हमारी इच्छा होती थी कि परिवार में वो बड़े हैं, उनका स्नेह हमें भी मिले, किन्तु वो हम लागों से कभी स्नेह से बातें नही करते। बल्कि उनके घर में कोई भी हम लोगों से बातें नही करता। ताऊजी ने भाई-भाई में नफरत की जो दीवार बना दी थी उसे उन्होंने कभी भी गिराने का प्रयत्न नही किया। उल्टा उस दीवार को और मजबूती प्रदान करते रहे। उनकी दुर्दशा के किस्से लोगों द्वारा हम तक पहुँचते हैं, तो हमें तकलीफ होती है। हमारे घर के वो बुजुर्ग हैं, उनकी ये दुर्दशा हमें तकलीफ देती है।

समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा है। कलैण्डर की तारीखें बदलती जा रही हैं। ऋतुयें भी परिवर्तित हो गयीं हैं। दीपावली का पर्व तीन दिनों के पश्चात् था। कार्यालय से हमें तीन दिनों का अवकाश मिला था। हमारे कार्यालय में अवकाश बहुधा कम ही होते हैं मात्र साप्ताहिक अवकाश को छोड़कर पर्वों के अवकाश यदाकदा ही होते हैं। मै शाम को कार्यालय से लौटी तो खूब प्रसन्न थी। मुझे घर में तीन दिनों तक बच्चों व अभय के साथ रहने का मौका मिलेगा।

घर की साफ-सफाई व आवश्यक काम, खरीदारी हमने पहले ही कर ली थी। मात्र पूजा का सामान लेना ही शेष रह गया था। आज धनतेरस का दिन था। घर के सभी काम हमने पहले ही दिन में कर लिए थे। इसका कारण यह था कि आज शाम को हम सबको बाजार जाना था। अभय से मैने बता दिया था कि हम सब को शाम को बाजार जाना है। दीपावली पर बच्चों के लिए कुछ आवश्यक वस्तुयें लेनी हैं। वह भी बच्चों के साथ तैयार रहे। दिन भर घर के काम करते-करते थक जाने के पश्चात् भी मैं उठ कर बाजार जाने के लिए किसी प्रकार तैयार हो गयी।

शरीर इतना थक गया था कि कहीं भी जाने की इच्छा नही हो रहा थी। फिर भी किसी प्रकार साहस कर उठ खड़ी हुई। अभय अब भी लेटा हुआ था। मेरे बार-बार कहने पर भी उस पर कोई प्रभाव नही पड़ रहा था। मैं कब से कह रही हूँ। अब उठो भी। शीघ्र घर आकर शाम के भोजन की व्यवस्था भी देखनी है। बच्चे भी थक कर सोने लगेंगे। अभय अब भी आँखें बन्द कर के लेटा था।

मेरी बातों का अभय पर कुछ प्रभाव न पडता देख मैंने पुनः अभय से कहा " अब उठो भी। मैं कब से कह रही हूँ। मेरा भी समय बरबाद हो रहा है। चलो उठो काम कर लेते हैं ।

मेरे इतना कहते ही अभय ने शीघ्र अपने नेत्र खोल दिये। " मेरा तो जीवन ही बरबाद है। मैं अपना रोना कहाँ रोऊँ.....? तुम्हारे तो घंटे दो घंटे बरबाद हो रहे हैं, जिनका रोना तुुम मुझसे रोने लगी। " कहकर वो दूसरी ओर मुँह घुमाकर कर सो गया।

उसकी बात सुनकर मैं स्तब्ध रह गयी। बहुत देर तक इस सोच में बैठी रही कि मैं गलत कहाँ पर हूँ? बच्चे भी बाजार जाने के लिए तैयार बैठे थे। घर में सहसा आ गए इस तनाव भरे वातावरण में मेरा मुझे देख रह थे। बोल कुछ भी नही पा रहे थे। मेरे मन में यही इच्छा हो रही कि जी भर कर रोऊँ। किन्तु माँ के दिये संस्कार कि शुभ समय में रोना अच्छा नही होता, मैंने अपनी आहत भावनाओं को मन के भीतर दबा कर, अश्रुओं को नेत्रों में ही सहेज लिया। माँ हमेशा बताया करती थी कि इन बातों का ध्यान घर की गृहणियों को सदा रखना चाहिए कि शुभ काम के समय घर में यदि कोई बुरा भी कह दे, तो उसकी बातों को हृदय से नही लगाना चाहिए और अपना कर्म करना चाहिए।

यह समय भी एक शुभ पर्व का है और मैंने माँ की बात को अनुपालन करते हुए गृह कलह की पूरी तरह अनदेखी करते हुए उठी और बच्चों को लेकर बाजार गयी। बच्चों की पसन्द की चीजें, कपड़े, मिठाईयाँ, पूजन सामग्री, अभय के माता-पिता की आवश्यकता की तथा खाने-पीने की वस्तुयें लेकर मैं घर आ गयी। तब तक अभय उठ चुका था। मुझे व बच्चों को सामान लादे हुए घर के बाहर रिक्शे से उतरते देख आगे बढ़कर सामान के थैले मेरे हाथों से ले लिया।

उसके चेहरे पर शर्मिन्दगी के भाव थे, किन्तु बोला कुछ नही। पुरूष है न? पुरूषत्व का अहं उसकी प्रत्येक भावना से बड़ा है। मेरे कठिन परिश्रम व अच्छाईयों की प्रशंसा करना उसके लिए सबसे कठिन है। ऐसा करने से उसके पुरूषत्व को चोट पहुँचती है। मैं अपना कर्तव्य किसी प्रशंसा की आशा में पूर्ण नही करती हूँ। बल्कि अपने बच्चों व परिवार की प्रसन्नता मेरा लक्ष्य है। मै। जो कुछ भी करती हूँ वो अपने परिवार के लिए करती हूँ।

अभय का व्यवहार मेरे प्रति प्रारम्भ से ही ऐसा ही रहा है। किन्तु पीड़ा तो तब होती है, जब मेरे घर वाले कहते हैं कि मैंने और अभय ने एक दूसरे से प्रेम विवाह किया है। तो क्या ही प्रेम विवाह है? इस विवाह से तो प्रेम ही विलुप्त है। मैंने तो सुना था कि प्रेम में प्रेमी एक दूसरे की भावनायें समझते हैं। एक दूसरे की प्रसन्नता व दुःख की अनुभूति शब्दों में व्यक्त किये बिना समझ लेते हैं। अभय ने तो कभी भी मेरी भावनाएँ, मेरी इच्छा नही समझीं।

भले ही उसने घृणा नही की है मुझसे, किन्तु विवाह के पश्चात् कभी प्रेम की अभिव्यक्ति भी नही की है। जीवन ऐसे चलता जा रहा है, जैसे हम एक दूसरे के साथ रह रहे हैं, किन्तु एक-दूसरे को जानते नही हंै....समझते नही हैं। समय के साथ एक-एक दिन कटता चला जा रहा है। साथ रहते-रहते दिन, महीने, वर्ष व्यतीत होते जा रहे हैं और हम एक-दूसरे को समझ नही पाये हैं। मेरा विवाह वो विवाह है जो न तो प्रेम विवाह की श्रेणी में आता है और न परम्परागत् विवाह की श्रेणी में। जो भी है, समय व्यतीत होता जा रहा है। अभय के साथ मेरी गृहस्थी की गाड़ी चलती जा रही है।

ये पर्व के दिन थे। इन लम्हों को मैं घरेलू कलह में व्यर्थ करना नही चाहती थी। और मैंने यही किया। अभय पर निर्भर नही रही। मैंने स्वंय आगे बढ़ कर सब कुछ किया। बच्चों के साथ प्रसन्न मन से दीपावली का पर्व मनाया। बच्चों के साथ कुछ पटाखे, फूलझड़ियाँ भी छोड़ी। प्रकाश का पर्व बीत गया। प्रकाश के कुछ पलों को अपने जीवन में भी भर लिया है। उन पलों का नाम भी मैंने रख लिए हैं। उनके नाम हैं आत्मविश्वास व आत्मनिर्भरता के पलों का प्रकाश। इस दीपावली में मैंने उन्हें अपने लिए सुरक्षित कर लिया है।

अनिमा मेरी प्रेरणा स्रोत है। उसे कठिनाईयों से संघर्ष करते व उनसे बाहर निकलते देख मैं बहुत कुछ सीख रही हूँ। स्त्री को समाज में कैसे रहना हैं? पुरूषों के वर्चस्ववादी समाज में अपना स्थान बनाना, जीने के लिए, अस्तित्व के लिए, लड़ने की कला मैंने अनिमा से सीखी हैं। जब से अनिमा अपने वैवाहिक बन्धन के बोझ से मुक्त हुई है, तब से उसका शारीरिक सौन्दर्य बढ़ा है और उसके व्यक्तित्व में निखार आया है। चिन्ता विमुक्त होकर जीने का कुछ तो सकारात्मक प्रभाव शरीर व स्वास्थ्य पर पड़ता ही है। अब अनिमा से जब भी मिलती है, हँसती मुस्कराती हुई मिलती है।

" मैंने एक एन0 जी0 ओ0 ज्वाईन कर लिया है जो निर्धन बच्चों को शिक्षित करने का काम करती है। " एक दिन अनिमा ने अपनी प्रसन्नता साझा करते हुए मुझसे कहा।

" अच्छा वो कबसे....? कब समय निकाल लेती हो ये सब करने के लिए.....? " मैंने प्रसन्न होते हुए पूछा

" शाम को। घर जाकर मेरे पास कोई विशेष काम तो होता नही है करने को। मेरे पास एक एन0 जी0 ओ0 का प्रस्ताव आया और मैं उससे जुड़ गयी। एक्चुअली मैंने ही उनसे सम्पर्क कर उनसे जुड़ने में अपनी रूचि दिखाई थी। "

" ये तो अच्छी बात है। इनका काम कैसे होता है? " मैंने पूछा।

" ये निर्धन व अनाथ बच्चों चिन्हित कर उन्हें सहारा देते हैं। साथ ही शिक्षित भी करते हैं। यह सब करने के लिए शहर में कई स्थानों पर इन्होंने केन्द्र बनाये है। "

" अच्छा ये तो बड़ा ही नेक काम है। मुझे बहुत ही प्रसन्न्ता हो रही है अनिमा कि तुम एक अच्छी संस्था से जुड़ी हो। " मैंने कहा। "

" एक केन्द्र मैंने अपने घर के बाहरी कक्ष में बनवा दिया है। शाम को कुछ बच्चे आ जाते हैं। उन्हें शिक्षित करती हँू, उने बातें करती हूँ, उनके साथ हँसती खिलखिलाती हूँ, उनके साथ अपना बचपन को पुनः जी लेती हूँ। " अनिमा की बातें मैं ध्यान से सुन रही थी।

मुझे अच्छा लगा, अनिमा का जीवन गति पा रहा है। अनिमा के जीवन में आये उतार-चढ़ावों को देखकर मैं सोच रह थी कि औरतें नाहक दासता की जंजीरों में स्वंय को जकड़ लेती हैं, तथा घिसटते हुए जीवन व्यतीत करती हैं। अपने उत्पीड़न के प्रति थोड़ा-सा प्रतिरोध के स्वर तो उठायें, थोड़ा साहस तो करें...उनकी स्थिति क्यों नही सुधरेगी? स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए, उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए और कौन-सा मसीहा आकाश से उतरकर आने वाला है? कोई नही.....उन्हें अपनी दयनीय स्थिति को स्वंय ही सुधारना होगा।

आखिर उनकी स्वतंत्रता व अधिकारों के मार्ग में कौन अवरोध उत्पन्न कर रहा है? अनिमा को देखकर मैंने यही समझा और जाना कि महिलाये जब तक स्वंय नही चाहेंगी.....स्वंय नही जागरूक होंगी तब तक उनकी स्थिति में सुधार नही होगा। अनिमा की सहायता किसी ने नही की है। उसने स्वंय अपना मार्ग बनाया है। अनिमा की भाँति ही प्रत्येक स्त्री को अपना मार्ग बनाना चाहिए।

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दीपावली का पर्व अपनी सुखद स्मृतियाँ छोड़कर जा चुका था। मौसम परिवर्तित हो रहा था। हवाओं में ठंडक के रूप में हल्की-सी खनक व्याप्त होती जा रही है। एक खूबसूरत-सा मौसम था वो। हाँ, खूबसूरत-सा पर्वों जैसा मौसम। क्यों कि दीपावली का पर्व समाप्त हो जाने के पश्चात् शीघ्र ही एक पर्व का और आना शेष था। पूर्वोत्तर भारत का बहुत बड़ा, भव्य पर्व। हाँ, छठ का पर्व, जिसे दीपावली के छः दिनों के पश्चात् मनाया जाता है। रोजी-रोटी कमाने बाहर गये घर के सदस्य सबके साथ छठ मनाने अपने-अपने घरों को लौट कर अवश्य आते हैं।

सौभाग्यवती स्त्रियाँ पति, बच्चों व परिवार की कुशलता, सुख व समृद्धि के लिए डाला छठ का व्रत रखती हैं। इस पर्व की तैयारियाँ दीपावली की तैयारियों के साथ ही साथ प्रारम्भ हो जाती हैं। तीन दिनों तक मनाया जाने वाला ये पर्व और उसका व्रत माँ और दादी को करते हुए बचपन से मैंने देखा है।

इतनी शुचिता, इतना कठिन व मन्नतों वाला व्रत माँ और दादी कितने समपर्ण भाव से मुस्कराते हुए करती थीं। माँ और दादी ही क्यों पडरौना के प्रत्येक घर की विवाहित महिलायें छठ व्रत को रखती थीं। गोरखपुर, कुशीनगर, पडरौना ही नही पूरा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल और अब तो पूरे भारतवर्ष में इस पर्व को पूर्ण शुचिता, श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। व्रत के पहले दिन भोर में उठकर माँ नहाय-खाय के साथ व्रत का प्रारम्भ कर देती थीं। घर में कई दिनों पूर्व गेहूँ को धो कर छत पर सुखाया जाता।

व्रत के सभी कर्यों में इतनी शुद्धता रहती थी कि माँ किसी न किसी को प्रसाद बनाने के लिए छत पर सूख रहे धुले गेहूँओं की रखवाली के लिए बैठाये रखतीं कि कोई चिड़िया उसे जूठा न कर दे। शुद्धता के साथ चावल व गेहूँ को पिसवाया जाता। उस दिन शाम से ही घर में प्रसाद के रूप में अनेक पकवान बनते। ठेकुआ, मीठी पूडियाँ, चावल के लड्डू, कसार आदि पकवानों की महक से वातावरण मह-मह कर महक उठता। माँ उस दिन व्रत रहतीं।

शाम को तीने के चावल की जो कि फलाहारी चावल होता है उसकी मात्र एक बार खीर खाकर तीन दिनों का व्रत रखतीं। सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण बात ये थी कि व्रत रखने के पश्चात् इन तीनों दिनों में भी माँ पूजा के कार्यों के साथ ही घर के सभी कार्य भी करतीं। माँ ही क्यों ऐसा सभी महिलायें करती हैं। व्रत का अर्थ यह नही है कि इसके कारण घर में किसी को कष्ट पहुँचे। व्रत तो सबकी प्रसन्न्ता के लिए रखे जाते हैं। ऐसा माँ का मानना था।

छठ पर्व प्रकृति और मानव के सम्बन्धों से जुड़ा अद्भुत पर्व है। इस पर्व में उस समय उगने वाले सभी नये फलों व सब्जियों से देवी की अराधना होती है। नये गन्ने, केले, नीबू, अदरख, नयी हल्दी, नये सिंघाड़े, मूली, आँवला, शकरकंद, अनार, अन्नानास आदि उस ऋतु में उगने वाली सभी नई सब्जियाँ, नये फल पहली बार देवी को अर्पित किये जाते हैं। यह एक बहुत ही अच्छी परम्परा है। नई फसल काटने व प्रयोग करने से पूर्व उसकी अराधना होना हमारे कृषि प्रधान देश की सदियों पुरानी परम्परा है। जो छठ पर्व के साथ आज भी जीवित है, फलफूल रही है।

यह पर्व प्रकृति की अराधना का पर्व है। व्रत के दूसरे दिन शाम को व्रती महिलायें डूबते सूर्य को अर्घ देने अपने आसपास की नदियों व तालाबों के घाटों पर जाती हैं। उस समय नदियों, तालाबों घाटों पर सौभाग्य प्रतीकों के साथ श्रृंगार कर सजी-सँवरी व्रती महिलाओं को देखकर हमारा हृदय गौरवान्वित हो उठता है। रंग-बिरंगे नये वस्त्रों में सुसज्जित महिलाएँ, बच्चे, पुरूष हाथों में सुपली, सिर पर प्रसाद भरा डाला दउरा उठाये घाटों पर आते हैं।