Unhi Rashto se Gujarate Hue - 21 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 21

Featured Books
Categories
Share

उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 21

भाग 21

इस समय शालिनी को महात्मा बुद्ध की वो पंक्तियाँ याद आने लगी हैं जब उनसे किसी ने पूछा कि " प्रेम और पसन्द में क्या अन्तर है? "

इसका सबसे सुन्दर उत्तर दिया है तथागत् ने " यदि तुम एक पुष्प को पसन्द करते हो तो तुम उसे तोड़कर अपने पास रखना चाहोगे। "

"........ लेकिन अगर उस पुष्प से प्रेम करते हो तो उसे तोड़ने बजाय तुम उसमें प्रतिदिन पानी डालोगे, ताकि वो पुष्प मुरझाने न पाये। " जिसने भी इस बात के रहस्य को समझ लिया समझो उसने जीवन का सार समझ लिया। शालिनी तथागत् की इन बातों को का अनुसरण करते हुए सभी प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ बस आगे बढ़ना चाहती है, और आगे बढ़ रही है।

इन उलझे प्रश्नों को वहीं छोड़कर समय भी आगे बढ़ता जा रहा है। नये दिन, नई रातें, नयी ऋतुयें आ रही हैं-जा रही हैं। शालिनी की सोच के अनुरूप सब कुछ ठीक ही चल रहा है। शालिनी ने अपनी बड़ी पुत्री का विवाह कर दिया है। विवाह की पूरी व्यवस्था राजेश्वर ने ही सम्हाली थी। पिता के समान उसने सम्पूर्ण दायित्व निभाया। शालिनी के साथ पग-पग पर खड़ा राजेश्वर को न किसी के विरोध की फिक्र थी, न ही अब किसी विरोधी पार्टी द्वारा दुष्प्रचार करने की। दृढ़ता के साथ वह प्रत्येक स्थान पर शालिनी के साथ खड़ा रहता। उसके हृदय में भी शालिनी के लिए विशिष्ट स्थान है। उसके हृदय के साफ्ट कार्नर में शालिनी का सदा रहेगी। शालिनी उसके लिए विशिष्ट थी और विशिष्ट रहेगी।

♦ ♦ ♦ ♦

अनिमा का विधिवत् विवाह विच्छेद हो गया। कानूनी रूप से वो अपने पति से अलग हो गयी थी। कोर्ट के फैसला उसके पक्ष में आया था। रहने के लिए घर का एक हिस्सा तथा जीविकोपार्जन के लिए उसे प्रतिमाह कोर्ट द्वारा निर्धारित धनराशि भी मिलेगी। अनिमा ने जब मुझे बताया तो मुझे यह सोचकर अच्छा लगा कि अनिमा को कठिनाईयों से छुटकारा मिल गया है। किन्तु मुझे उसके विवाह के टूटने का दुःख भी था।

" नीरू! अब मुझे शान्ति व सुकून का अनुभव हो रहा है। विवाह मेरे लिए बोझ बन गया था। " अनिमा ने कहा।

" इस कठिन समय में जो निर्णय तुमने ने लिया है वो उचित है। " मैंने उससे कहा।

सचमुच मुझे अच्छा लग रहा था कि अनिमा ने जो निर्णय लिया है वो सही है तथा इससे वो खुश है। अब उसे अपने जीवन को नये सिरे से व्यवस्थित करना होगा। अनिमा साहसी है वो इसे अवश्य कर लेगी।

नौकरी व घर के बीच मेरी दिनचर्या भी अब व्यवस्थित हो गयी थी। यदि कभी-कभी मुझे आने में विलम्ब हो जाती तो अभय अपने माता-पिता के साथ उसकी देखभाल करते। उनका इतना सहयोग मेरे लिए बहुत था। मेरी सैलरी के सहयोग से घर की सुख-सुविधाओं में भी बढ़ोत्तरी हो रही थी। अतः मेरी नौकरी पर अब किसी को आपत्ति न थी। भले ही मुझे सही समय पर कार्यालय पहुँचने के लिए घर से दो घंटे पूर्व घर से निकलना पड़ता था, तथा कार्यालय छूटने के दो घंटे के बाद घर पहुँचती थी। कारण कुशीनगर से गोरखपुर का सफर बस द्वारा दो घंटे में पूरा होता था। कठिन परिश्रम से मैं ये नौकरी कर रही थी। फिर भी मैं सन्तुष्ट थी।

समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था। समय के साथ बच्चे बड़े हो रहे थे। कई दिनों से मैं दीदी के घर जाने के लिए सोच रही थी किन्तु समय नही मिल पा रहा था। सप्ताह में एक दिन मिलने वाले अवकाश में घर के सप्ताह भर के शेष कार्य व अनेक उत्तरदायित्व पूरा करने में छुट्टियाँ समाप्त हो जातीं। अवकाश में मैं बच्चों के साथ घर में भी रहना चाहती थी। इतनी व्यस्तता में भी दीदी से भी मिलने के लिए समय अवश्य निकालूँगी। दीदी को तो आना ही नही है मेरे घर इस सच्चाई से मैं परिचित हूँ। समय निकालकर मैं ही उससे मिलने जाऊँगी।

दीदी मेरे घर नही आती...... वो मेरे बारे में क्या सोचती है, क्या नही? ......छोटी-छोटी इन बातों में मैं पड़ना नही जानती। मेरे मन में दीदी के लिए वही सम्मान आज भी ह,ै जो बचपन से था। विवाह के इतने वर्षों पश्चात् भी मेरी सोच में फर्क नही आया है, किन्तु दीदी अपने मन में मेरे प्रति द्वेष की भावना को लेकर अब तक चल रही है। कभी दीदी का कुक्षलक्षेम जानने की इच्छा होती है तो दीदी का हाल भी मैं माँ से ही पूछ लेती हूँ, इसका कारण यह है कि दीदी मुझसे ठीक से बात नही करती।

आज कई दिनों पश्चात् माँ का फोन आया है। माँ ने बताया कि " दीदी किसी बच्चे को गोद लेना चाहती है। वो कह रही थी कि अपने ससुराल के किसी बच्चे को नही बल्कि मायके पक्ष के किसी बच्चे को गोद लेना चाहती है । " माँ की बात मैं ध्यान से सुन रही थी। आश्चर्य चकित भी थी कि दीदी के साथ ये कैसी विडम्बनापूर्ण परिस्थितियाँ बन रही हैं। दीदी के जीवन का ये कौन-सा रूप सामने आ रहा है? दीदी के साथ हो रही इन विडम्बनाओं का उत्तरदायी कौन है? दीदी स्वंय है? नही? वो कब चाहती थी कि इस प्रकार का जीवन जीये? तो फिर कौन है दीदी की इस दुर्दशा का उत्तरदायी? अनेक प्रश्न मन में उठ रहे थे। यह मैं नही कह सकती कि इन प्रश्नों के उत्तर मुझे नही मिल रहे थे।

इसका उत्तरदायी दीदी नही है तो फिर क्या माँ बाबूजी का दोष है? नही.....कोई भी माता-पिता भला क्यों न चाहेंगे कि उसकी बेटी का भविष्य सुखी हो? वो अपनी ससुराल में अपने पति के साथ प्रसन्न रहे।

" तो क्या दीदी की इस दशा का कारण उसका अपना भाग्य है? " मैं कुछ भी तो समझ नही पा रही हूँ। दीदी के बारे में कोई भी विचार रखने में असमर्थ हूँ। किन्तु इतना स्पष्ट है कि इन सबकी उत्तरदायी दीदी नही है।

दीदी मायके के किस रिश्तेदार का बच्चा गोद लेना चाहेगी? उसके मायके में मैं और प्रांजल ही तो सगे रिश्तेदार हैं। मुझे और मेरे पति तो उसकी पसन्द के रिश्तेदारों की सूची में हैं ही नही। रहा भाई का प्रश्न तो मुझे लगता है कि वो क्यों अपने किसी बच्चे को गोद देना चाहेगा? उसके भी दो ही बच्चे हैं। उनमें से किसे दे देगा और किसे अपने पास रखेगा? और क्यों? वो प्रशासनिक अधिकारी है। किसी चीज का अभाव नही है उसे। तो वह अपने किसी बच्चे को क्यों गोद देना चाहेगा? भाई की इच्छा भाई ही जाने किन्तु मैं दीदी की पसन्द की सूची में रहूँ या न रहूँ, मुझे अपने दोनों बच्चे प्रिय हैं। उनमें से किसी को देने की मैं सोच भी नही सकती। दीदी मायके के ही किसी रिश्तेदार के बच्चे को गोद लेना चाहती है तो ये उसकी समस्या है। मैं क्यों सोचूँ और परेशान होऊँ? दीदी ने अपने व्यवहार से मुझसे इतनी दूरी बना ली है कि वो स्वंय मुझे कुछ कहने का अधिकार व मुझसे कुछ पूछने का अधिकार खो चुकी है।

माँ ने यह भी बताया कि दीदी का मकान बनकर तैयार हो चुका है। अगले सप्ताह गृह प्रवेश करने के पश्चात् वो उसमें रहने लगेगी। साथ ही यह भी कि मकान बनवाने में काम का बोझ बढ़ जाने के कारण दामाद जी आजकल कुछ अस्वस्थ चल रहे हैं। उनके स्वास्थ्य को लेकर दीदी आजकल डाॅक्टरों के चक्कर लगाती रहती है। माँ से बातें कर मुझे सबका हालचाल मिल जाता है किन्तु दीदी कर तरफ से परेशान मन को थोड़ी शान्ति मिली, कि दीदी आने मकान में शिफ्ट हो जायेगी। साथ ही जीजा के स्वास्थ्य का लेकर थोड़ी चिन्ता भी हुई ।

दीदी अभी अपने भविष्य की योजनायें बना ही रही थी कि उसके ऊपर, उसके ही क्यों हम सबके ऊपर दुःखों का आसमान गिर पड़ा। जीजा के सहसा निधन की खबर हम सबके लिए स्तब्धकारी घटना थी। इस दुःख की घड़ी में हम सब दीदी के पास कुछ दिनों तक रूके रहे। रो-रोकर उसका बुरा हाल था। किसी के समझाने से भी उसके आँसू थम नही रहे थे। उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी थी। हम कितने दिनों तक उसके पास रूक पाते? एक न एक दिन सबको अपने-अपने काम अपनी-अपनी घर गृहस्थी में लौटना ही था। दीदी से पुनः शीघ्र आने का वादा कर धीरे-धीरे सब चले गए। सबके चले जाने के पश्चात् भी मैं रूकी रही। संसार के रीति-रिवाज, रंग-ढंग देखकर इतना तो समझ ही गयी कि कुछ दिनों तक दीदी के पास लोग आते-जाते रहेंगे। आगे का सफर दीदी को अकले अपने साहस व सकारात्मक सोच के साथ तय करना है। एक दो दिनों तक रूकने के पश्चात् मैं भी आकर अपनी घर गृहस्थी, नौकरी की दिनचर्या आदि में व्यस्त हो गयी। इसके पश्चात् भी मैं समय निकाल कर दीदी के पास जाती रहती, यह सोच कर कि दीदी अकेले रहती है, उसके पास आने-जाने से उसे अकेलेपन दूर होगा। दुःख की अनुभूति कम होगी। किन्तु मैंने ये अनुभव किया कि मेरे जाने या न जाने से दीदी पर बहुत फर्क नही पड़ता। वह बहुत प्रसन्न न होती। मै समझ गयी कि मेरे जाने या न जाने से दीदी पर कोई अन्तर पड़ने वाला न था।

माँ पर उम्र का प्रभाव पड़ने लगा था। उनकी शारीरिक सक्रियता कम होने लगी थी। भाई नौकरी तथा पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण पडरौना कम ही आ पाता है। बाबूजी माँ का बहुत ध्यान रखते हैं। अन्ततः वे एक-दूसरे के लिए जीवन साथी के साथ-साथ माता-पिता, बच्चे सब कुछ बन गए हैं। ऐसा होता है पति-पत्नी का सम्बन्ध। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उम्र की एक अवस्था पार कर लेने के पश्चात् पति-पत्नी अपने सम्बन्धों में अपने प्रियजनों के सम्बन्ध भी सृजित कर लेते हैं। वे एक दूसरे के लिए बेटा बन जाते हैं, बेटी बन जाते हैं, बच्चे बन जाते हैं माता-पिता बन जाते हैं। उस अवस्था में उन्हें किसी और की आवश्यकता नही रह जाती। उन्हें आवश्यकता होती है तो मात्र सम्मान की और थोड़े से देखभाल की। ऐसी ही होती है सभी की वृद्धावस्था। थोड़ी-सी लापरवाही, थोडा-सा हठ, कुछ रूठने-मनाने की दरकार, छोटे बच्चांे के सभी लक्षण वृद्धावस्था में मिलने लगते हैं। जो भी हो माँ के स्वास्थ्य की चिन्ता मुझे होने लगी थी। यद्यपि बाबूजी माँ का पूरा ध्यान रखते। उन्हें समय पर चिकित्सक को दिखाने, दवा लाने, समय-समय पर दवा देने का काम भी करते। क्यों कि माँ को अक्सर स्मरण नही रहता कि उन्हें दवा कब लेनी है। मैं लगभग प्रतिदिन फोन कर के उनका और बाबूजी का हालचाल पूछती। अब फोन पर बातें कर ऐसा प्रतीत होता कि माँ कुछ ऊँचा सुनने लगी हैं। यह बात मैं माँ को बता कर उनकी चिन्ता बढ़ाना नही चाहती थी। यही सोचा था कि कभी पडरौना जाऊँगी तो बाबूजी से कहँूगी कि माँ को कान के चिकित्सक को भी दिखा दें। चिन्ता तो मुझे बाबूजी के स्वास्थ्य को लेकर भी होने लगी हैं। आखिर वे भी तो उसी अवस्था से गुज़र रहे हैं। उम्र में माँ से कुछ बड़े। घर के मुखिया हैं। इसीलिए अपनी तकलीफें छुपाकर स्वंय को मजबूत दिखाने का प्रयास करते हैं।

बाबूजी सचमुच हम नयी पीढ़ी के बच्चों के लिए उदाहरण हैं। इस अवस्था में भी प्रातः उठकर नियमित रूप से दो किलोमीटरपैदल भ्रमण करने निकलते हैं। चाहे जितनी भी व्यस्तता हो यह क्रम उनका टूटता नही है। हल्के व्यायाम व योग करना भी उनकी दिनचर्या में सम्मिलित हैं। घर-बाहर के सभी काम स्वंय करते है। बचपन से ही मैं उन्हें इसी प्रकार नियमित दिनचर्या का पालन करते हुए देख रही हूँ। प्रारम्भ से ही बाबूजी को मैंने नियमित, अल्प व सादा भोजन करते हुए देखा है। वे प्रारम्भ से ही ऊर्जावान व छरहरे शरीर के थे। अब भी उन्होंने अपने वजन पर नियंत्रण रखा हुआ है। बाबूजी की नियमित दिनचर्या से हम सभी भाई-बहन प्रभावित व प्रेरित हैं। किन्तु हम प्रयत्न करके भी बाबूजी की भाँति स्वास्थ्य के सख्त नियमों का पालन नही कर पाते। बाबूजी के अनुरूप दिनचर्या हम भी रखना चाहते हैं। किन्तु दो-चार दिनों से पालन करने के पश्चात् सब कुछ अनियमित हो जाता है। बाबूजी हम सबके आदर्श हैं। हम उनके जैसा शान्त, समझदार व एक योगी-सा जीवन जीना चाहते हैं किन्तु हो नही पाता। अनेक प्रयत्न करके भी हम असंयमित, अनियमित हो ही जाते। बाबूजी को हमने सादा, संयमित, धीरज व धैर्य से भरा जीवन जीते देख है। जब कि इसके ठीक विपरीत ताऊजी का वजन अपने शरीर की लम्बाई अनुपात में काफी अधिक व पेट भी बाहर की ओर निकला था। कारण ताऊजी शारीरिक श्रम बिलकुल भी नही करते थे। चलते भी गाड़ी से ही है। प्रतीत होता है, पैदल वो मात्र घर के भीतर ही चलते हैं।

राजेश्वर के बारे में शनै-शनै कुशीनगर में अफवाहों की हवा उड़ने लगी है। लोग कहते हैं कि उसका अधिकांश समय लखनऊ में शालिनी के पास व्यतीत होने लगा है। धीरे-धीरे ये बात ताऊजी तक भी पहुँच चुकी है। यूँ भी छोटी जग़हों पर ये बातें अधिक दिनों तक छिपी नही रह पातीं। ताऊजी पर अब उम्र के प्रभाव के कारण शारीरिक सक्रियता कम हो चुकी हैं। ऊपर से सत्ता और शक्ति के छिन जाने पर अब उनके आसपास के चाटुकारों की भीड़ जो एक आवाज पर कुछ भी करने को दौड़ पड़ती थी दूर जा चुकी है। वो अब शालिनी का कुछ भी नही कर सकते। चन्दे्रश भी अपनी सीमायें जानता है, ये भी कि शालिनी उनकी पहुँच से दूर जा चुकी है। उस पर किसी की हनक और धौंस नही चलने वाली नही है। इसलिए सब कुछ जानकर भी चुप रहता है। घर में भी कोई ताऊजी की बात नही सुनता, न उनकी सलाह मानता है। चन्दे्रश और उसकी पत्नी के अक्सर ताऊजी से ऊँचे स्वर बहस करने व झगड़ने की आवाजें माँ को सुनायी देती हैं। ताऊजी के काँपते स्वर, उनकी धीमी पड़ती जाती आवाजें, ताऊजी की बढ़ती उम्र व उनके निष्क्रिय होते जा रहे शरीर की ओर इंगित करते। मुख्य बात यह है कि अब उनके पास सत्ता व शक्ति नही है जिसके सहारे वो अब तक सब पर रौब जामाते आये हैं। यही शिक्षा उन्हांेने अपने बच्चों को दी है। जो बोया है उसे काटना ही पड़ेगा।