Unhi Rashto se Gujarate Hue - 20 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 20

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 20

भाग 20

" तुम्हारे लक्षण ठीक नही है। इन्द्रेश के जाने के बाद तुम हमारे वश में नही हो। मनमौजी हो गयी हो। तुम हमारे घर में नही रह सकती। हमारा घर तुरन्त खाली करो । हमारा तुमसे कोई नाता नही। " उसकी सास ने ससुर के सुर में सुर मिलाते हुए कहा।

" ऐसा क्या कर दिया है मैंने जो आप लोग मुझ पर यह झूठा आरोप लगा रहे हैं। मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रहे हैं। " शालिनी रूआँसी हो गयी।

" हम पर प्रताड़ना का झूठा आरोप लगा रही हो तो हम आज से ही तुम्हंे अपनी सम्पत्ति से बेदखल करते हैं। " क्षण भर की देरी किए बिना उसकी सास ने कहा ।

" क्यों.....? क्या इसलिए कि मेरे पति के स्थान पर पार्टी ने मुझे टिकट दिया? यह मेरा अधिकार था। ......और इसलिए कि जनता ने मुझे चुना.... आप लोग मुझे सम्पत्ति से बेदखल करेंगे? "

" मैंने कौन-सा ग़लत कार्य किया है? क्या पति का उत्तराधिकार प्राप्त करना एक पत्नी और उसके बच्चों के लिए अपराध है? जब से पार्टी ने टिकट दिया है तब से आप लोग मुझसे बात नही करते, मेरे बच्चों का तिरस्कार करते हैं। मैं जानती नही हूत्र क्या कि मेरी अनुपस्थिति में मेरे बच्चों के साथ नौकरों के बच्चों से भी बदतर व्यवहार करते हैं। घर में सब कुछ रहते हुए भी, नौकरों-चाकरों के होते हुए भी उन्हें समय पर भोजन तक नही दिया जाता। कुछ बोलती नही तो क्या समझती भी नही। " शालिनी आवेश में बोलती चली जा रही थी। हृदय के भीतर का भरा आक्रोश आज वह बाहर निकाल देना चाह रही थी। शालिनी के बोलते ही वहाँ सन्नाटा छा गया। सबने खामोशी की चादर ओढ़ ली तथा वहाँ से चले गए। शालिनी भी वहाँ से कमरे में आकर लेट गयी, तथा इन्द्रेश को याद कर रोने लगी। ।

शाम का शालिनी ने राजेश्वर को फोन कर आज घर में हुई झगड़े की घटना की जानकारी दी। दूसरे दिन राजेश्वर आया और उसने शालिनी को बताया कि आगे क्या होगा इस बात का अनुमान उसे था, इसीलिए बच्चों का एडमिशन उसने लखनऊ में कराया है। इन्द्रेश के माता-पिता को वो भी उतना ही समझता है जितना इन्दे्रश समझता था। वे कौन-सा कदम कब उठायेंगे इस बात का अनुमान उसे रहता है। उसने वकील से बात कर ली है। उसने शालिनी को ढाड़स बधाँया कि उसके हिस्से का एक भी जमीन का टुकड़ा वो हड़प न कर पायेंगे। उसने शालिनी को समझाते हुए कहा कि आप निश्चिन्त रहें। इस समय बच्चों की शिक्षा और भविष्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है। राजेश्वर की बातें सुनकर शालिनी के व्याकुल मन को बड़ी शान्ति और शक्ति मिली। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि अब वो अबला और अकेली नही है। राजेश्वर के होने से वह स्वंय को सुरक्षित अनुभव करती है। जैसा कि राजेश्वर ने कहा है शालिनी घर में बिखरी अपनी वस्तुओं को धीरे-धीरे समेटने लगी थी तथा उन्हें अपने कमरे में व्यवस्थित ढंग से सहेज कर रखने लगी थी। राजेश्वर ने बता दिया है कि बच्चों के साथ उसे भी लखनऊ रहना पड़ेगा। शालिनी ने भी मन बना लिया है कि इस घर से, इन नकली नाते-रिश्तों से दूर जाने का। यहाँ का बोझिल वातावरण उसे रास नही आ रहा है। बच्चे भी सहमें-सहमें रहते हैं।

अब वो लखनऊ में रहेगी तथा वहीं से अपने चुनाव क्षेत्र में जाकर काम करेगी। कुछ परेशानियाँ तथा भागदैड़ अवश्य बढ़ जायेगी, किन्तु शान्ति से वह जी तो सकेगी। उसने देखा है कि उसके आसपास के विधायक और सांसद अपने परिवार के साथ लखनऊ, दिल्ली में शिफ्ट हो गये हैं। वहीं से अपने चुनाव क्षेत्र में आते-जाते रहते हैं, वहाँ का काम करते हैं, जनता की समस्यायें सुनते हैं। वहीं से समस्याओं का निवारण करते हैं। यदि वो ऐसा कर सकते हैं तो शालिनी क्यों नही....? कुछ दिनों के अन्दर वो बच्चों के साथ लखनऊ आ गयी। वह अपने साथ मात्र आवश्यक वस्तुओं को लायी। शेष सभी वस्तुओं को अपने कमरे में रख कर ताला लगा दिया।

घर में न तो किसी से बच्चों को साथ लेकर जाने का कारण पूछा, न तो उसका हाल। घर की दहलीज से बाहर पैर रखते ही शालिनी ने प्रण किया कि आज वो यह घर अवश्य छोड़ रही है, किन्तु इस घर पर अपना अधिकार नही। वो कुशीनगर से बाहर जा रही है अपने क्षेत्र से नही। राजेश्वर भी उसके साथ लखनऊ आया। उसे शालिनी के साथ आना ही था। बच्चों स्कूल आने -जाने की व्यवस्था कर के घर में आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था करने में उसे लगभग उसे पन्द्रह दिन लग गए।

शालिनी जानती है कि राजेश्वर का अपना परिवार है। उसकी पत्नी है, बच्चे हैं जो उसकी राह देख रहे होंगे। वो कुशीगनर में अकले उसके बिना रहते हैं। शालिनी राजेश्वर के परिवार से आज तक मिली नही है, किन्तु वह जानती है कि उसके परिवार में उसकी पत्नी, दो बच्चों के अतिरिक्त उसके माता-पिता हैं। राजेश्वर के बिना वो और उनके बिना राजेश्वर कैसे रहता होगा? सोच कर शालिनी का मन भावुक होने लगा। वह राजेश्वर के प्रति मन ही मन कृतज्ञ होने लगी। लखनऊ में सब कुछ व्यवस्थित होकर कुशीनगर चला गया। जाते-जाते शालिनी को ढाढ़स बँधा गया कि घबराने की आवश्यकता नही है। नौकर-चाकर सब विश्वसनीय हैं। कोई आवश्यकता हो तो तुरन्त फोन कीजिएगा। मैं शीघ्र आऊँगा। राजेश्वर के इन शब्दों से शालिनी को बड़ी राहत मिली। उसे अब बच्चों के साथ अकेले रहने का साहस करना हा़ेगा। बच्चों के भविष्य के लिए उसे उन्हें स्वच्छ, गृह कलेश, घरेलू कलह की घटिया राजनीति से दूर रहने का वातावरण देना होगा। अच्छे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करेंगे तो भविष्य के लिए परिणाम अच्छा होगा। इसके लिए शालिनी ने स्वंय के भीतर से साहसी बनाना प्रारम्भ कर दिया।

अब कठिनाईयाँ अधिक नही हंै। शालिनी ने वो दिन भी देखे हैं, जब इन्दे्रश को लेकर बड़े-बड़े शहरों के अस्पतालों के चक्कर अकेले लगा रही थी। पूरे डेढ़ वर्ष अपने बच्चों से दूर रही। फिर भी वो इन्द्रेश का बचा न सकी। उने इन्द्रेश का डायलिसिस की पीड़ा सहते हुए देखा। इन्द्रेश को उठाना-बैठाना, नहलाना-धुलाना, समय-समय पर दवायें, भोजन आदि देना, सब कुछ अकेले ही तो किया था उसने। अन्ततः वो इन्दे्रश को बचा न सकी। किडनी प्रत्यारोपड़ के दौरान इन्दे्रश चल बसा। और तो और इन्दे्रश के निर्जीव शरीर को लेकर दिल्ली से कुशीनगर भी अकेले ही आयी। उन कठिनाईयों के समक्ष ये कठिनाईयाँ तो कुछ भी नही। उसने माँ को फोन कर पूरी स्थिति से अवगत् करा दिया। माँ ने कहा कि जब भी वह लखनऊ से कुशीनगर आये उन्हें फोन कर बात द,े जिससे वो एक-दो दिन पहले किसी को लखनऊ भेज सकें। जिससे बच्चो की शिक्षा प्रभावित न हो। शालिनी के लिए इससे अच्छी बात और क्या होगी कि माँ के घर से उसे इतना सहयोग मिल रहा है। माँ का इतना सहयोग उसके लिए बहुत बड़ा सहयोग है। बड़ी तसल्ली मिली उसे माँ के इस सहयोग से। इन्दे्रश की अस्वस्थता में भी माँ ने उसके छोटे भाई को डेढ़ वर्ष तक शालिनी के साथ रहने दिया था। विवाहित पुत्री को पीहर से इतना सहयोग कहाँ मिलता है।

तीन माह हो गये शालिनी का लखनऊ आये हुए। इस बीच राजेश्वर दो-तीन बार उससे मिलने लखनऊ आ चुका है। ओह! राजेश्वर ने तो उसके जीवन में जगह बना ली है। जीवन में ही क्यों उसकी साँसों में बसने लगा है वो। न जाने क्या होता जा रहा है शालिनी को? क्यों उसकी प्रतीक्षा करती रहती है। समक्ष न होने पर भी उसे चारांे ओर राजेश्वर दिखाई देता है। शालिनी जानती है कि राजेश्वर कर अपना परिवार है। सीधी-सादी घरेलू पत्नी। यद्यपि शालिनी ने उन्हें देख तो नही है। किन्तु सुना है कि वो एक कुलीन महिला हैं। उनके प्रति सम्मान के साथ-साथ ईष्र्या का मिला जुला भाव भी उसके मन में है। सम्मान इसलिए कि वो राजेश्वर की पत्नी हैं। ईष्र्या भी इसीलिए कि वो राजेश्वर की पत्नी हैं। उस राजेश्वर की जिसके कारण शालिनी का लड़खड़ाता जीवन सम्हल गया। इतने सुशील, सभ्य, आकर्षक, बुद्धिमान पुरूष की वो पत्नी हैं। जो शालिनी को भी भाने लगा है।

गति के पंखों पर सवार होकर समय उड़ता चली जा रहा था। एक दिन राजेश्वर ने फोन कर शालिनी को बताया कि इन्द्रेश के पिताजी का फोन उसके पास आया था। वो पूछ रहे कि " शालिनी कहाँ है? बच्चों के साथ कहीं और मकान लेकर तो नही रहने लगी है? अपने चुनाव क्षेत्र में दो बार आयी, किन्तु घर नही आयी। " मैंने उनसे कहा कि मै नही बता सकता कि वो कहाँ है?

" मेरे बारे में जानना चाहते थे तो सीधे मुझसे पूछ सकते थे। " शालिनी ने राजेश्वर से कहा।

" मैंने यही कहा कि आप उन्हीं से बात कीजिएगा। उनके बारे में कुछ भी मुझसे क्यों? राजेश्वर की बात सुन कर शालिनी को अच्छा लगा।

" मुझसे क्यों पूछेंगे? किस मुँह से पूछेंगे? मेरा दुःख-सुख कभी पूछा है, मेरी खोज-खबर, कभी ली है, जो अब पूछेंगे? शालिनी ने कहा।

शालिनी ने लखनऊ से कुशीनगर के बीच अपने जीवन को सीमित कर लिया था। सीमित क्यों? ये तो उसके जीवन का विस्तार था। जिसमें वो अपने परिवार के साथ राजेश्वर को पा रही थी। राजेश्वर उसके समीप आ रहा था और वो राजेवर के। जब राजेश्वर उसके समीप होता है तो वो उसके अतिरिक्त कुछ और सोच नही पाती। राजेश्वर उसके अस्तित्व में समाहित हो गया था, न जाने कब और कैसे? वह ये सब जानना भी नही चाहती। बस सब कुछ अच्छा लग रहा है। राजेश्वर के होने से सब कुछ है, और उसका जीवन संतृप्त है। समय व्यतीत होता जा रहा है। शालिनी शालिनी को अब रातनीति की कुछ-कुछ समझ आने लगी थी। वह राजनीति की अच्छाईयाँ व दाँव-पेच समझने लगी है। रजेश्वर ने भी तो उसकी काफी सहायता की है राजनीति के अखाड़े की कुश्ती व नूराकुश्ती को समझने में। राजेश्वर कुशीनगर व लखनऊ के बीच सामंजस्य स्थापित करने में सफल था। जब भी आवश्यकता होती शालिनी के लिए उपलब्ध रहता। अब शालिनी अगला चुनाव भी लड़ने की तैयारी में थी। उसने माँ से कह कर भाई को कुछ दिनों के लिए बुला लिया था।

चुनाव को दृष्टि में रखे हुए शालिनी का अधिकांश समय कुशीनगर में व्यतीत होने लगा। राजेश्वर भी शालिनी के साथ चुनाव प्रचार व जनसम्पर्क के कार्यों में लगा रहता। वो उसका प्रतिनिधि बनकर जनता के सम्पर्क में रहता, उनके काम करवाता, उनके दुःख-सुख में खड़ा रहता। गाँव में सड़कें, बिजली, सिंचाईं के लिए जल, शिक्षा तथा अस्पताल में बीमारों के लिए समुचित मात्रा में दवाईयाँ, डाॅक्टर आदि की सुविधा जैसे अनेक कार्य उसने करवाये। ग़रीब घरों की बेटियों के विवाह में अर्थिक मदद वो शालिनी का प्रतिनिधि बनकर करता रहा। गाँव के लोग शालिनी के कार्य से प्रसन्न थे। शालिनी भलिभाँति जानती थी कि यह सब राजेश्वर के कारण सम्भव हो पाया है। इस बार का चुनाव भी शालिनी ने जीत लिया। दूसरी बार विधायक बनने पर गाँव में निकलने वाले विजय जुलूस में उसने राजेश्वर को भी अपने बराबर स्थान देना चाहा किन्तु वो पीछे चला गया। राजेश्वर ने इन्द्रेश के साथ भी इस क्षेत्र में काम किया था। वो जानता था कि शालिनी चाहे जितनी भी राजनीति की समझ रखती हो, इस क्षेत्र में अभी वो परिपक्व नही है। उसके साथ खड़े होने पर यदि विपक्ष ने उसके साथ शालिनी के ग़लत सम्बन्धों को राजनैतिक मुद्दा बनाते हुए इसे अफवाह के रूप में जनता में प्रसारित कर दिया तो गाँव की जनता इसे ग़लत समझेगी। इससे शालिनी की छवि को चोट पहुँचेगी। शालिनी के विरोधियों के हाथ एक अर्नगल मुद्दा लग जायेगा। उसकी मुश्किलें बढ़ जायेंगी। जो भी हो राजेश्वर को शालिनी का साथ देना ही है। वो उसे कभी भी अकेला नही छोड़ सकता। शालिनी की विजय से शालिनी से कहीं अधिक राजेश्वर प्रसन्न था। इस बार शालिनी को मन्त्री पद दिलाने के लिए उसने स्वंय प्रयत्न करने की सोची। शालिनी को वह इस भाग-दौड़ से दूर रखना चाहता था। किन्तु अपने इस उद्देश्य में वह सफल नही हुआ। उसे राजनीति का यह सूत्र समझ में नही आया कि प्रथम बार ही चुनाव जीतने पर कोई किस प्रकार मन्त्री पद तक पहुँच जाता है। सत्ता के गलियारों में दौड़-भाग करना छोड़ दिया राजेश्वर ने। शालिनी को भी इस सच्चाई से अवगत् करा दिया। जनता की सेवा, शालिनी का साथ, उसके घर परिवार की देखभाल करने तक राजेश्वर ने स्वंय को सीमित कर लिया था। अपने जीवन से संतुष्ट राजेश्वर व शालिनी एकदुसरे की बाँहें पकड़े जीवन पथ परचले जा रहे थे।

बच्चे बड़े होते जा रहे थे। युवावस्था की ओर अग्रसर। शालिनी के बच्चे राजेश्वर को चाचाजी कहकर बुलाते। राजेश्वर भी उन्हें पितातुल्य स्नेह देता। इस बीच राजेश्वर ने अपने पुत्र व पुत्री का विवाह किया। शालिनी ने उसके दोनों बच्चों के लिए उपहार भेजे। अपने दोनों बच्चों को उसने कुशीनगर में राजेश्वर के घर विवाह समारोह में भेजा। स्वंय नही गयी। क्षेत्रीय विधायक की उपस्थिति का उसके बच्चों द्वारा प्रतिनिधित्व करना उचित था। आखिर वो राजेश्वर के परिवार के समक्ष जाती भी तो कैसे जाती? उसकी पत्नी की दृष्टि का समना वो कैसे करती? वो समझ नही पा रही है कि क्यों वो राजेश्वर के परिवार के समक्ष जाना नही चाहती? क्यों.....आखिर क्यों....? क्यों राजेश्वर के परिवार से दूरी बनाये रखना चाहती है? क्या छुपाना चाहती है उसकी पत्नी व उसके परिवार से? राजेश्वर के साथ गहराते अपने रिश्ते को वह उसके परिवार से ही नही बल्कि दुनिया से छुपायें रखना चाहती है। राजेश्वर जब भी शालिनी के पास लखनऊ आता होगा तो अपनी पत्नी से, परिवार से दो-दो सप्ताह दूर रहता है, तब अपने परिवार व पत्नी को क्या बताता होगा? इतने दिनो तक वह कहाँ रहता है? कहाँ जाता है? शालिनी ने उससे आज तक ने प्रश्न नही पूछा। किन्तु ये प्रश्न तो हैं। उसकी पत्नी के समक्ष और शालिनी के समक्ष भी। इस बारे में शालिनी ने उससे न तो कुछ पूछा और न ही राजेश्वर ने कुछ बताया। उसके परिवार में ये प्रश्न उठते हैं कि नही? यदि उठते हैं तो उन प्रश्नों के क्या उत्तर देता होगा राजेश्वर? दस वर्ष से अधिक हो गये राजेश्वर को उसके जीवन में आये हुए। अब तो वह शालिनी के परिवार का हिस्सा बन चुका है। अतः ये प्रश्न अब शालिनी के मन में उठते अवश्य हैं किन्तु बेमानी हो चले हैं। शालिनी के लिए उसके कोई मायने नही हैं।