Unhi Rashto se Gujarate Hue - 19 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 19

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 19

भाग 19

आज लगभग एक माह के पश्चात् अनिमा कार्यालय में मुझे मिली । " तुम इतने लम्बे अवकाश पर थी। क्या हुआ सब ठीक तो है? " मैंने अनिमा से पूछा।

" कई दिन-और रातें उसकी यादों में रो-रो कर व्यतीत करने के पश्चात् एक दिन मुझमें वो साहस आ ही गया, कि मैं इन परिस्थितियों से मुठभेड़ करने में स्वंय को सक्षम पा रही थी।.........इतने दिन लग गये मुझे इन सबसे बाहर निकलने में । अन्ततः अब सब कुछ ठीक है। " अनिमा के चेहरे पर दुःख की हल्की-सी परछाँई तो थी किन्तु उससे गहरी मुस्कराहट थी।

" अब मैं उससे छुटकारा पाना चाहती थी। इसके लिए मैने वकील से सम्पर्क किया तथा साक्ष्यों के साथ उस पर प्रताड़ना तथा विवाहित पत्नी के रहते हुए किसी अन्य स्त्री से अवैध सम्बन्धों में लिप्तता की बात कहते हुए मैंने पारिवारिक न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दाखिल कर दिया है। " अनिमा बताती जा रही थी और मैं अनिमा की बातें ध्यान से सुन रही थी।

" उसे मुझसे ऐसी आशा न होगी, कि मैं स्वंय उससे छुटकारा पाना चाहती हूँ। वो मुझे अकेली, निरीह, अबला स्त्री समझता था। सोचता था कि मैं उसके समक्ष गिड़गिड़ाऊँगी, रोऊँगी। मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए ही उसने ये सब कुकृत्य किया है। मैंने जीविकोपार्जन के लिए उसके पैसों, प्रापर्टी, मकान सब पर आपना हिस्सा पाने का दावा प्रस्तुत किया है।..........

" मैं रह लूँगी.....खुशी-खुशी जी लूँगी उसके बिना। अनिमा की बातें मैं मन्त्रमुग्ध होकर सुन रही थी। अनिमा के साहस पर मन ही मन अभिभूत हो रही थी मैं।

अनिमा की बातें सुनकर मुझे महात्मा बुद्ध का वो संदेश याद आ गया जिसमें उन्होंने कहा कि " दुःख सत्य है, दुःख के कारण भी है। यदि कारण ही समाप्त हो जाये तो दुःख नियोक्त हो जायेगा, जैसे सूर्य के प्रकाश से अँधेरा।..........

.........मुक्ति का मार्ग है स्वंय को जगाना, विवेक को जगाना तथा पूर्ण ध्यान में लिप्त हो जाना। जिससे मनुष्य इस संसार को समझ सकता है। इसके दूसरे किनारे पर जाने के लिए अज्ञान व भ्रांति को मिटा कर ही पहुँचा जा सकता है। "

मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अनिमा ने तथागत् का मार्ग चुना है और यह मार्ग दुविधापूर्ण नही है। वह इस भवसागर के अन्तिम छोर ( मुक्ति का मार्ग ) तक पहुँचने के लिए सक्षम है। अनिमा ने तथागत् के बताये हुए मार्ग को चुनकर जीवन का सही मार्ग चुन लिया है।

समय व्यतीत होता जा रहा था। समय चक्र के अनुसार ऋतुयें भी परिवर्तित होती जा रही थीं। सच ही तो है, परिवर्तन सृष्टि के, संसार के तथा भावों के परिवर्तन का नियम है। सर्दियाँ समाप्त हो रही थीं। वसंत ऋतु आने की दस्तक दे रही थी। शनै -शनै कोहरे की ठंडी चादर हटाकर प्रकृति अंगड़ाईयाँ लेने हेतु आतुर हो रही थी। शुष्क हवाओं के प्रभाव से भूमि पर गिरे पत्ते इधर-उधर उड़ने के पश्चात् अपनी जड़ों के ही पास वापस चले आ रहे थे।

सच ही तो है जड़ों की तलाश कभी खत्म नही होती। मनुष्य हो या प्रकृति सभी अपनी जडों से प्रेम करते हैं। वो कहीं भी रहें, अन्ततः अपनी जड़ों पास आकर ही शान्ति प्राप्त करते हैं। पत्रविहीन टहनियों पर उग आयीं नयी कोंपलें, नव-पल्लव वसंत के आने का आगमन दे रहे थे। चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल का कूक से पूरा प्रकृति प्रदेश गुंजायमान हो रहा था। प्रकृति का ऐसा मनोरम दृश्य बड़े शहरों की अपेक्षा हरे-भरे परिवेश से घिरे छोटे शहरों व गाँवों में अधिक परिलक्षित होता है।

कुशीनगर के आसपास के क्षत्रों में मौसम कुछ अधिक ही मनोरम हो जाता हैं। हिमालय की तराई क्षेत्र में बसा यह क्षेत्र प्राकृतिक सम्पदा और सौन्दर्य से भरपूर है ही साथ ही आध्यात्मिक वातावरण का भी सृजन करता है। विकास के नये-नये सोपान तलाशता यह क्षेत्र प्राचीन नैतिक मूल्यों व परम्पराओं का संरंक्षण करने के साथ आध्ुनिकता को भी समेटता जा रहा है। प्राकृतिक सौन्दर्य और शान्ति का अद्भुत सम्मिश्रण इस क्षेत्र में देखने को मिलता है।

सर्दी कम हुई और मौसम कुछ खुला तो शालिनी ने अपने चुनाव क्षेत्र में भ्रमण करना चाहा। राजनीति में जनता से जुड़ कर रहना और संवाद बनाये रखना अति आवश्यक था। उसने राजेश्वर को फोन कर दिया, तथा आने का समय बता दिया। वह जानती थी कि राजेश्वर समय पर आ जायेगा। नियत समय पर शालिनी राजेश्वर के साथ चुनाव क्षेत्र के लिए निकल पड़ी। गाड़ी राजेश्वर चला रहा था। पीछे की सीट पर बैठी शालिनी राजेश्वर की ओर ही देख रही थी। राजेश्वर का पूरा ध्यान गाड़ी चलाने पर केन्द्रित था।

राजेश्वर को देखकर शालिनी मन ही मन सोच रही थी कि राजेश्वर से न जाने किस जन्म का रिश्ता है, जो ये उस पर पूरी तरह समर्पित है। ये कैसा बन्धन है उसका मेरे साथ..........मेरे बुलाने पर सब कुछ छोड़ कर चला आता है। मैं क्या हूँ? एक सामान्य स्त्री के अतिरिक्त कुछ भी तो नही? वो मुझसे क्या पाता है, न पैसे न वो सब कुछ जो एक पुरूष किसी स्त्री से पाता है? स्त्री-पुरूष के जिन सम्बन्धों की बात दुनिया करती है शारीरिक सम्बन्धों की, तो ऐसा कुछ भी तो नही है उनके बीच। राजेश्वर और उसके मध्य ये कैसा रिश्ता है? ये शालिनी समझ नही पाती। राजेश्वर जब शालिनी के पास नही होता है तब भी, प्रज्येक क्षण उसके पास रहता है।

अब न जाने क्यों शालिनी राजेश्वर के बारे में सोचने लगी है। जब भी वो उससे मिलने आता है, घर में सभी उसे उपेक्षा से देखते हैं और कसैला-सा मुँह बनाते हैं। शालिनी को राजेश्वर के लिए बहुत तकलीफ होती है। आपस में कानाफूसी अवश्य करते हैं, किन्तु उसके समक्ष कोई कुछ भी नही कह पाता। कोई कुछ भी कहे या समझे राजेश्वर शालिनी की आवश्यकता है, आवश्यकता से अधिक उसका जीवन है, उसका सुख-चैन है, उसकी नीदें है। उसके लिए हर समय उपस्थित रहता है। यही उसके लिए पर्याप्त है।

आज यदि राजेश्वर उसके साथ न होता तो कदाचित् वह अपने तीनों बच्चों के साथ दर-दर की ठोकरें खा रही होती। यह भी सम्भव था कि उसके ससुराल के लोग उसे अनुपयोगी मानते हुए उसे व उसके बच्चों को सम्पत्ति से ही बेदखल कर देते। क्यों कि इन्द्रेश के निधन के पश्चात् शालिनी का देवर चन्द्रेश जिस प्रकार उसकी व उसके बच्चों की उपेक्षा कर रहा था, उससे सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता था कि उन लोगों के मन में क्या चल रहा था? शालिनी के ससुर पूरी तरह चन्द्रेश के साथ थे। राजेश्वर के आने से शालिनी के जीवन की परिस्थितियाँ पूरी तरह परिवर्तित हो गयी थीं। सकारात्मक हो गयी थीं। उसके पक्ष में हो गयी थीं।

शीत ऋतु जा रही है। वसंत ने अपने आने की दस्तक दे दी है। इस वसंत ऋतु में शालिनी एक अनोखा आकर्षण अनुभव कर रही है। ऐसा आकर्षण जिसकी अनुभूति अब से पूर्व कभी भी न हुई हो। नवीन पल्लवों से ऋंगार करते वृक्ष उसे अच्छे लग रहे हैं। रंगबिरंगे पुष्प उसे आकर्षित करने लगे हैं। कोयल की कूक और पक्षियों की चहचहाहट के साथ वह भी खिलखिलाना चाहती है। सरसों के पीले पुष्पों से भरे खेतों में किसी नवयौवना की भाँति हवाओं संग दौड़ना चाहती है। किन्तु यह सब वो अकेले नही करना चाहती। वह चाहती है कि उसकी खुशियों में उसके साथ राजेश्वर भी सम्मिलित रहे।

न जाने कैसा परिवर्तन लेकर आयी है ये वसंत ऋतु? सभी जग़ह उसे राजेश्वर दिखाई देने लगा है। पैंतिस वर्ष की तीन बच्चों की माँ है शालिनी। इस उम्र में उसे न जाने क्या होता जा रहा है? ये कैसी अनुभूति हो रही है। दिनों दिन स्वंय का राजेश्वर के समीप पा रही है। जब वो सामने होता है तो वह उससे काम के अतिरिक्त कोई बात नही करती। बस चुपके से दृष्टि बचाकर देख लिया करती है।

कितना आकर्षक लगने लगा है राजेश्वर आजकल। लम्बा ऊँचा कद, गौर वर्ण, नीली जीन्स पर लम्बा कुर्ता और कंधे पर सामने की ओर लटकता नीली किनारियों वाला सफेद अंगोछा। राजेश्वर न जाने कब से इन्द्रेश का खास मित्र था, उसे नही ज्ञात है । जब वो उससे दूर चला जाता है तब उसकी स्मृतियों में खो जाती है। पहले भी वो उसके घर आता था। अधिकांशतः इन्द्रेश के साथ रहता था। किन्तु उसने राजेश्वर की ओर कभी ध्यान नही दिया। उसे ऐसी आवश्यकता भी नही पड़ी कि राजेश्वर या वो एक दूसरे से परिचित हों।

राजेश्वर का व्यक्तित्व इन्दे्रश के व्यक्त्वि से कितना भिन्न है। राजेश्वर को कभी भी किसी से ऊँची आवाज में बातें करते नही देखा उसने। दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना उसके स्वभाव में है। राजनीति की समझ इन्द्रेश से अधिक राजेश्वर में है। एक गम्भीर समझ जो बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को धूल चटा दे। आखिर शालिनी को उसने सही समय व सही ढंग से किन-किन मुसीबतों से निकाला है। आज यदि शालिनी सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई आगे बढ़ रही है, तो ये राजेश्वर की योजना का ही परिणाम है। उसके कारण ही वह स्वंय के भीतर एक साहसी महिला का प्रतिबिम्ब पा रही है।

राजेश्वर के साथ वो अपने चुनाव क्षेत्र में पहुँच गयी। जनता के साथ उसकी मीटिंग की तैयारी राजेश्वर ने पहले से करवा रखी थी। सारा दिन वो जनता से मिलती रही। उनकी समस्याओं का सुनती रही, उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए भी राजेश्वर के साथ अनेक योजनायें बर्नाईं। शाम तक क्षेत्र में काम करने के पश्चात् वो घर लौट आयी। घर आकर बच्चों के साथ व्यस्त हो गयी। राजेश्वर के न रहने पर भी उसकी स्मृतियाँ गाहे-बगाहे उसके समक्ष चली आती हैं। जिनसे दूर जाना कठिन हो जाता है। शालिनी जानती है कि वो पैंतिस वर्षीय, विधवा, तीन बच्चों की माँ है। राजेश्वर के बारे में कुछ भी सोचने का उसे कोई अधिकार नही है। अधिकार ही नही यह एक प्रकार का .... है। ये बात वो कभी नही भूलती।

किन्तु राजेश्वर की यादों का वो क्या करे। कैसे उसके व्यक्त्वि का अनेक विशयताओं को वा विस्मृत करे। राजेश्वर उसके जीवन के साथ ही साथ उसके मन में भी समाहति होता जा रहा है। कैसे......क्यों....? उसने कभी भी राजेश्वर को अपने पास लाने का प्रयत्न किया, किन्तु यह सब कैसे होता जा रहा है? क्या यह सब अनैतिक नही है? हमारे समाज में एक विधवा इस प्रकार कैसे सोच सकती है? किन्तु अपने हृदय का क्या करे शालिनी? वह क्यों आजकल उसके नियंत्रण में नही है.....? क्यों....? ।

वसंत ऋतु आयी है तो चली भी जाएगी। ऋतुयें ठहरती नही। न जीवन में न प्रकृति में। किन्तु अपने चिन्ह अवश्य छोड़ जाती हैं। जीवन में भी, प्रकृति में भी। दिन व्यतीत होते जा रहे हैं। वसंत ऋतु का उन्माद पूरी सृष्टि पर फैल गया था। एक दिन राजेश्वर शालिनी के घर आया। वह उसके कमरे में आकर बैठ गया। उसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो किसी उधेड़बुन में है। होठों पर खामोशी किन्तु आँखों में बहुत सारी बातें थी जिन्हें वह कहना चाह रहा था किन्तु वह प्रारम्भ कहाँ से और कैसे करे? वह क्या सोच रहा है.....शालिनी समझ नही पा रही थी?

" इस सत्र में बच्चों का नामांकन लखनऊ के किसी स्कूल में कराना रहेगा। इसके लिए आप तैयार रहिएगा। " शालिनी पूछना चाहती थी क्यों किन्तु आज तक उसने राजेश्वर के किसी निर्णय पर प्रश्न नही उठाया तो अब क्यों उठाएगी?

राजेश्वर ने अब तक उसके लिए जो भी निर्णय लिया है उसका परिणाम शालिनी के लिए सदैव अच्छा रहा। राजेश्वर की बातों में काई न कोई गूढ़ सच्चाई छिपी है जो समय आने पर स्पष्ट हो जाएगी। कुड सोच समझ कर ही उसने इतना बड़ा निर्णय लिया है। उसमें अवश्य बच्चों का हित छुपा होगा। फरवरी माह समाप्त होने वाला था। मात्र एक माह रह गया था, नये सत्र के प्रारम्भ होने में किन्तु नामांकन तो अभी से करा लेना ठीक रहेगा। अच्छे स्कूलों में नामांकन प्रक्रिया जनवरी में ही पूरी हो गयी होगी। लखनऊ के अच्छे स्कूलों में अब नामाकंन होना मुश्किल है। शालिनी मार्च में लखनऊ गयी, यह सोच कि कदाचित् लखनऊ के किसी अच्छे स्कूल में बच्चो के लिए खाली सीटें मिल जायें। शालिनी के आश्चर्य की सीमा न रही जब उसने देखा कि उससे पहले ही राजेश्वर में एक अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में बच्चों का नामांकन करा चुका था।

" इस स्कूल में एडमिशन तो बड़ी मुश्किल से मिलता है। " शालिनी ने राजेश्वर से कहा।

" कोई मुश्किल नही हुई। " राजेश्वर ने आराम से कहा।

शालिनी व राजेश्वर ने मिलकर बच्चों के लिए पुस्तकें, यूनीफार्म, कापियाँ, बैग इत्यादि खरीदे। उनके विद्यालय जाने की पूरी तैयारी कर शालिनी लखनऊ से कुशीनगर आ गयी। उसने लखनऊ के घर की देखभाल व काम में सहयोग के लिए कुशीनगर से लाकर एक विश्वास पात्र परिचारक रख लिया था।

कुशीनगर आकर शालिनी ने बच्चों के सामानों की पैकिंग प्रारम्भ कर दी। उसे बच्चों को लेकर लखनऊ जाने में एक माह शेष है। आराम से सभी तैयारियाँ पूरी हो जायेंगी। दो-चार दिन ही व्यतीत हुए थे कि एक दिन चन्द्रेश की पत्नी शालिनीइसे बिना किसी बात के झगड़ने लगी शालिनी चुप रह कर झगड़े को टाल देना चाहती थी। उसके साथ चन्द्रेश भी खड़ा हो गया, और शालिनी को अपशब्द बोलने लगा। उसे चुप देख उसके सास-श्वसुर भी उस पर हाबी होने लगे। ससुर ने उसे घर खाली करने का आदेश ही सुना दिया। शालिनी उनके इस व्यवहार पर हतप्रभ थी।