Unhi Rashto se Gujarate Hue - 18 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 18

Featured Books
Categories
Share

उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 18

भाग 18

" क्यों....? हमारे पास अपनी पर्याप्त ज़मीन कुशीनगर में हैं। अब नया प्लाट लेने की आवश्यकता क्यों..? " शालिनी ने उत्सुकतावश पूछा।

" आवश्यकता अभी नही, आगे पड़ेगी। जमीन लेने की ही नही, उस पर मकान बनवाने की भी आवश्यकता पड़ेगी। " राजेश्वर ने कहा। शालिनी उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती रही।

" लखनऊ में तो कोई जमीन नही है आपकी, यहाँ भी आपका आना-जाना लगा रहाता है। आगे भी लगा रहेगा, इसलिए यहा एक अपना मकान आवश्यक है। " शालिनी को प्रश्नवाचक दृष्टि से अपनी ओर देखता हुआ पाकर राजेश्वर ने कहा।

राजेश्वर की बातें सुनकर शालिनी ने फिर कुछ भी पूछने की आवश्यकता नही समझी। वो जानती है कि राजेश्वर की बातें यूँ ही नही होतीं। वो किसी भी वस्तुस्थिति को सोच-समझ कर, दूरदृष्टि के साथ उस पर विचार रखता है। उसकी बातें अर्थपूर्ण व भविष्य में दूरगामी परिणाम देने वाली होती हैं।

" अब तो आपका लखनऊ आना-जाना लगा रहेगा। वहाँ रहने व रूकने में दिक्कत होगी। कब तक सरकार द्वारा दिये गये दारूलशफा के क्वार्टर में रहियेगा। बच्चे बड़े हो जायेंगे तो अवकाश में वो भी आया करेंगे। आराम से अपने घर में रहेंगे। जब इच्छा होगी आप भी यहाँ आकर बच्चों के साथ हवा-पानी बदल लिया करेंगी। " जमीन खरीदने की बात से शालिनी के चेहरे पर उभर आये व्याकुलता के भावों को देखकर राजेश्वर ने स्थिति स्पष्ट की।

शालिनी को राजेश्वर की सलाह ठीक लगी। उसने अच्छी सोसाईटी वाली काॅलोनी व सुरक्षित स्थान पर प्लाट देखने के लिए राजेश्वर से कह दिया। शीघ्र ही राजेश्वर की सुरक्षित व अच्छी लोकेशन में एक प्लाट ढँूढ़ लिया। शुभ मुहुर्त देखकर शीघ्र ही शालिनी ने उस ज़मीन की रजिस्ट्री करा ली। मकान के लिए नक्शा इत्यादि राजेश्वर ने पास करवा लिया।

एक वर्ष के अन्दर शालिनी की ज़मीन पर मकान बनने का कार्य प्राररम्भ हो गया। कुशीनगर में उसके ससुराल के घर में किसी को यह बात ज्ञात नही थी कि शालिनी लखनऊ में अपना मकान बनवा रही है। शालिनी उन्हें बताये भी तो कैसे जब वो उससे बातचीत करना पसन्द नही करते? उसे देखते ही उन सबके चेहरों पर घृणा के भाव ऐसे प्रकट होते हैं कि यदि उन्हें अवसर मिले तो वे शालिनी का न जाने कितना अहित कर डालें। वो जानती है कि यदि राजेश्वर उसके साथ न होता तो वे अब तक उसे व उसके बच्चों को दर-दर की ठोकरें खाने पर विवश कर चुके होते।

समय शनैः-शनैः व्यतीत होता जा रहा था। एक दिन शालिनी के पास पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का फोन आया कि, " मन्त्रियों के कुछ रिक्त पदों की पूर्ति होनी है। आपके नाम पर भी चर्चा सम्भव है। आप लखनऊ आ कर मीटिंग में मुझसे मिलिए। "

" ठीक है। मैं अवश्य आऊँगी। " कह कर शालिनी ने फोन रख दिया।

तत्पश्चात् शालिनी ने राजेश्वर को तुरन्त फोन मिलाया। पार्टी अध्यक्ष द्वारा कही गयी बातों से उसे अवगत् कराया। राजेश्वर ने कुछ ही देर में आने का आश्वासन दिया। इस बीच शालिनी के हृदय की धड़कनंे बढ़ती जा रही थीं। वह सोच रही थी कि यदि उसे मन्त्री पद मिला तो वह कैसे काम करेगी...? उसे इस काम का कोई अनुभव भी नही है। फिर यह सोचकर मुस्करा पड़ी कि उसे तो सिर्फ बुलाया गया है। मन्त्री पद इतनी सरलता से उसे कहाँ मिलने वाला है। उस पद की लालसा भी नही है। जीवन में कभी वह राजनीति में भी आएगी ये तो नही सोचा था उसने। परिस्थितियाँ उसे राजनीति में खींच लायी।

आगे समय व परिस्थितियाँ उसे जहाँ ले जाएंगी, परिस्थितियों के वशीभूत उसे जाना ही होगा। उसने सुना है कि मन्त्री पद पाने के लिए नेता जोड-तोड़ का सहारा लेते हैं। लामबन्दी की प्रक्रिया चलती है। वो अभी नयी है। उसके नाम से बहुत सारे लोग परिचित भी न होंगे। वो भी तो अभी बहुत कम लोगों को जानती है। उसके नाम का समर्थन कौन करेगा..? उसका चयन कैसे हो पाएगा? शालिनी पुनः अपनी सोच पर मुस्करा पड़ी। जो होगा सो देख जायेगा, यह सोच कर राजेश्वर की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ ही देर में उसके कक्ष के दरवाजे पर दस्तक हुई। राजेश्वर आ गया था।

अब राजेश्वर सीधे शालिनी के कक्ष में आ जाता है। पहले की भाँति उसे इस घर के किसी सदस्य से पूछने की आवश्यकता नही पड़ती क्योंकि इस घर में अब शालिनी के साथ-साथ उससे भी कोई बात नही करता। जब कि राजेश्वर के सामने पड़ जाने पर आज भी इन्द्रेश के पिता का अभिवादन करना नही भूलता। किन्तु वो उसके अभिवादन का उत्तर देना आवश्यक नही समझते। जो भी वो उसके अभिन्न मित्र इन्द्रेश की पत्नी शालिनी व उसके बच्चों को जीवन की इस कठिन घड़ी में अकेला नही छोड़ सकता। शालिनी भी घर वालों की परवाह किए बिना उसे सीधे अपने कक्ष में बुला लेती है।

आज राजेश्वर के चेहरे पर प्रसन्नता स्पष्ट दिख रही थी। उसे देखकर शालिनी झेंप गयी। शालिनी ने राजेश्वर को पार्टी अध्यक्ष कर पूरी बात तथा वो तिथि भी उसे बताई जिस तिथि को उसे लखनऊ जाना था। तय समय पर शालिनी राजेश्वर के साथ लखनऊ पहुँच गयी। वहाँ से वह मीटिंग वाले स्थान पर निश्चित समय पर पहुँच गयी। मीटिंग वाला हाॅल खाली-सा था। एक-दो विधायकों को जिन्हें वह पहचानती नही थी, के अतिरिक्त कोई नही आया था। वह राजेश्वर के साथ किनारे लगे सोफे पर बैठ पार्टी अध्यक्ष के आने की प्रतीक्षा करने लगी। इतने में एक आदमी जो पार्टी का कार्यकत्र्ता लग रहा था भीतर के कक्ष से आया तथा शालिनी से आकर बताया कि उसे पार्टी अध्यक्ष ने भीतर के कक्ष मे ंबुलाया है। वो राजेश्वर के साथ उस कक्ष में गयी। कक्ष में पार्टी अध्यक्ष के अतिरिक्त कोई नही था। शालिनी उनका संकेत पाते ही सातने रखी कुर्सी पर सकुचाती हुई बैठ गयी।

" आप ने अपने प्रतिद्वन्दी को काफी अधिक मतों से पराजित किया है। ये बहुत अच्छी बात है। " अध्यक्ष जी ने बातों का आरम्भ करते हुए कहा। शालिनी ध्यानपूर्वक उनकी बातें सुन रही थी।

चन्द क्षणों में वे अपनी बातों का रूख पलटते हुए पार्टी के नियमों व नीतियों की चर्चा करने लगे। बातें वे गम्भीर विषय पर कर रहे थे किन्तु एकटक दृष्टि शालिनी के चेहरे पर ठहरी हुई थी। शालिनी नासमझ बच्ची नही थी, जो उनके दृष्टि के भाव न समझ पाती।

" कुछ पद राज्य मन्त्रियों के और भरे जाने हैं......" वे अर्थपूर्ण दृष्टि से शालिनी को देखते जा रहे थे।

" ........तो आप का नाम भी चल रहा है। " शालिनी चुपचाप उनकी बातें सुन रही थी।

" ......तो ऐसे तो मन्त्री का पद मिलता नही है। इसके लिए अनेक लोग जोड़-तोड़, जुगाड़ लगा रहे हैं। आपको तो सब पता ही है......" वे शालिनी की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देख रहे थे। उनकी दृष्टि का अर्थ शालिनी कुछ-कुछ समझ भी रही थी। बस पूरा अर्थ समझना शेष था। जो उनकी पूरी बातों के साथ सम्भव था।

" आप मन्त्री पद के लिए एक बार भी मुझसे नही मिलीं।.......यदि मेरी ओर से फोन न जाता तो, आप आज भी मुझसे मिलने न आतीं। " शालिनी खामोश थी। उसे उनकी बातों का कुछ भी उत्तर नही सूझ रहा था।

" आपको मैंने टिकट लेने आने के क्रम में पार्टी मुख्यालय में एक-दो बार देखा था, तब से ही मिलने की इच्छा थी......."।

" चलिए अच्छा हुआ आज मुलाकात व परिचय भी हो गया।......तो आप अपने क्षेत्र की प्रगति का काम लेकर, समस्यायंेे लेकर मुझसे मिलती रहिए। " अध्यक्ष की बात समाप्त हो गयी थी। वो वहाँ से उठ कर बाहर के हाॅल में जाकर अन्य विधायकों के साथ मीटिंग में तल्लीन हो गए। साथ ही शालिनी को भी मीटिंग में आने का संकेत किया।

शालिनी राजेश्वर के साथ अध्यक्ष के कमरे से बाहर आयी तथा हाॅल के एक कोने में सोफे पर बैठ गयी। राजेश्वर की खामोशी देखकर शालिनी समझ गयी कि उसके मन में भी वही कुछ चल रहा है जो स्वंय वो सोच रही है। अध्यक्ष मीटिंग में विधायकों को बहुत अच्छी-अच्छी बातों के साथ सम्बोधित कर रहे थे, " कि क्षेत्र में जाकर कैसे काम करना है......जनता की समस्याओं को कैसे दूर करना है.......कैसे उनके दुःख-सुख में खड़ा होना है, जिससे क्षेत्र की प्रत्येक जनता को लगे कि विद्यायक जी सिर्फ उसी के अपने हैं। आप काम करें या न करें यह महत्वपूर्ण नही है। महत्वपूर्ण यह है कि जनता को लगे कि काम हो रहा है। इन सबका अर्थ यह होना चाहिए कि जनता आपको अगली बार भी वोट दे। "

उनकी बातें सुनकर शालिनी का मन खिन्न हो रहा था। कितनी निम्न कोटि की सोच है अध्यक्ष जी की। जनता की सेवा न करो ?। सेवा का दिखावा करो। जो कुछ भी करो, वोट के लिए। जनता को बेवकूफ बनाओ और उसे पता भी न चले। अध्यक्ष ने किस प्रकार मन्त्री पद की बात कह कर झूठ का सहारा ले कर उसे बुलाया तथा उससे मिलते रहने के लिए कहा। यहाँ कोई मन्त्री पद की बात व चर्चा नही हो रही है। उसकी बातें कितनी खोखली व नकली लग रही हैं। क्या यही राजनीति व राजनीति का स्तर है? अध्यक्ष बोलते जा रहे थे और उनकी बातें शालिनी के सिर के ऊपर से गुज़रती जा रही थीं।

" मुझे मन्त्री पर नही चाहिए। " रास्ते में बड़बड़ाते हुए शालिनी ने राजेश्वर से कहा।

" आपको मन्त्री पद मिलेगा भी नही। इस समय अध्यक्ष जिससे प्रसन्न हो जायेगा, उसे मन्त्री पद देगा। ये अलग बात है कि वो प्रसन्न किस बात से होता है.....पैसे से या किसी और चीज से। " राजेश्वर ने तल्ख लहजे़ में कहा।

राजनीति नही जानती थी शालिनी, किन्तु इतना तो समझ ही गयी कि राजनति की राहें अब स्वच्छ व सरल नही रह गयी हैं। राजनीति की राहें राजनीति भरी हैं। छल-कपट, धोखा का समावेश उसमें हो चुका है, और अच्छी तरह हो चुका है। राजनीति का मार्ग उसने चन्दे्रश की विरासत के तौर पर सम्हाला है। वह जनता के लिए कुछ करना चाहती है। राजनीति को सेवा का आवरण पहना कर मात्र वोट लेने के लिए जनता की भावनाओं के साथ खेलना नही चाहती। उसे कोई पद नही चाहिए। कहीं नही जाना उसे। उसे बस अपने क्षेत्र की जनता के लिए काम करना है। उनके दुःख-सुख में खड़े होना है। शालिनी की राजनीति का यही ध्येेय है।

♦ ♦ ♦ ♦

अनिमा का पति उसे छोड़ कर दूसरी औरत के साथ कहीं और रहने चला गया है। अनिमा आज बहुत परेशान थी।

" क्यों किया उसने ऐसा? " अनिमा की बात सुनकर मुझे भी आश्चर्य हो रहा था कि आपसी खटपट तो पति पत्नी में होती रहती है। किन्तु इतना कठोर निर्णय लेना और किसी के जीवन के साथ खेलना। ये किसी भी स्त्री के लिए असहनीय है।

" वह पहले से ही किसी उस स्त्री के सम्पर्क में था। इसीलिए मुझे प्रताड़ित किया करता था। उसे प्रसन्न करने के लिए मैं स्वंय में ही कमी ढूँढ रही थी। उस कमी को दूर करने की कोशिश कर रही थी। वो तो बाद पता चला कि वह किसी अन्य औरत के साथ प्रेम की पीगंे बढ़ाये हुए है। " मैं अनिमा की बातें सुन रही थी। मुझे उसकी बातों से पीड़ा हो रही थी।

" मैं तो यही समझ रही थी कि यह सब विवाह के कुछ वर्षों के पश्चात् वैवाहिक जीवन में आयी स्वाभाविक निरसता है, जो कुछ समय बाद स्वतः ठीक हो जायेगी............

" ...मैं सहन करती जा रही थी। मुझे बिलकुल भी आभास नही था कि वो किसी अन्य औरत के सम्पर्क में है। " अनिमा अपनी पीडा़ व्यक्त करती जा रही थी। बोलते-बोलते वो रूआँसी हो चली थी।

" छोड़ो ऐसे आदमी के साथ भी क्या रहना। क्यों बेहाल हुई जा रही है उसके लिए...? " मैंने आवेश में कहा। कहने को तो मैंने कह दिया किन्तु इस तथ्य से भालिभाँति परिचित थी कि कहना आसान है किन्तु ऐसी परिस्थितियाँ जिसके समक्ष आती हैं वही उसकी पीड़ा समझ सकता है। इतना आसान नही है किसी भी स्त्री के लिए वैवाहिक रिश्तों की डोर को सरलता से तोड़ देना। एक बार हम यह साहस कर भी लें तो क्या हमारा समाज एक स्त्री को उन रिश्तों से बाहर निकलने देगा? घूरती दृष्टि, ताने व चरित्र पर आरोप लगा-लगा कर मार डालेगा। अनिमा इसी कठिन दौर से गुज़र रही थी।

" तो क्या करूँ मैं अब। " अनिमा की पलकों पर रूके अश्रु बाहर निकल पड़े। उसने उन अश्रुओं को हथेलियों से पोंछने का प्रयत्न किया फिर भी वो अश्रु उसके चेहरे से चिपके रहे।

" वो इन्ज्वाय कर रहा है तो तुम उसके लिए रो रही हो? क्यों..? किसलिए....? तुम उससे कमतर तो नही हो? पढ़ी-लिखी हो, स्वावलम्बी हो, साहसी हो। इस प्रकार रोना तुम्हे शोभा नही देता। तुम उन स्त्रियों के लिए आदर्श स्थापित करो जो पतियों की प्रताड़ना सहन करने के लिए विवश है, क्यों कि वे श्सिक्षित नही हैं...स्वावलम्बी नही हैं। " मैंने अनिमा से कहा।

अनिमा को समझाने के पश्चात् मैं सोचने लगी कि मैंने कुछ ग़लत तो नही कहा? अनिमा कैसे जियेगी अपनी पूरी ज़िन्दगी अकेले? जिस औरत ने अपना पूरा जीवन अपने पति और परिवार के लिए समर्पित कर दिया हो, उसके पास जीने के लिए अब शेष क्या रह जाता है? कौन-सा लक्ष्य है उसके समक्ष जिसके लिए वो जीना चाहेगी? किस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वो ज़िन्दा रहेगी?

समझाने को तो मैंने अनिमा को समझा दिया किन्तु मैं जानती थी कि उसका जीवन कठिनाई के दौर पर चल पड़ा है। यह स्थिति सचमुच पीड़ादायक है। इस बीच कई दिन हो गए अनिमा मुझे दिखाई नही दी। कार्यालय में पूछा तो पता चला कि वह अवकाश पर है। उसका हाल पूछने के लिए फोन मिलाया तो उसने बताया कि चिन्ता की कोई बात नही। वह सब कुछ ठीक कर रही है। कुछ दिनों में सब ठीक हो जायेगा। कार्यालय आने पर सभी बातें बताऊँगी। अनिमा की बातों में आत्मविश्वास देखकर मुझे अच्छा लगा।