भाग 12
इस समय मेरी सारी जद्दोजहद बच्चों का भविष्य बनाने व अपनी गृहस्थी बचाने के लिए थी। प्रेम व आकर्षण मेरे जीवन से लुप्त हो गया था। माँ फोन करके बुलाती रहती। मैं मना कर देती। मेरी अस्वस्थता को देखते हुए अभय अब चाहते थे कि कभी-कभी मैं माँ के घर हो आऊँ। किन्तु अब मैं कहीं भी आना-जाना नही चाहती थी।
माँ के घर मुझे न भेजने वाले अभय अब चाहते थे कि एक बार मैं माँ के घर अवश्य हो आऊँ। उनका सोचना था कि स्थान परिवर्तन होने से मेरे स्वास्थ्य में भी परिवर्तन आयेगा। मैं पूर्णतः स्वस्थ हो जाऊँगी। अभय के बार-बार कहने पर मैं माँ के घर जाने को तैयार हुई। ऐसा हुआ भी माँ के घर आकर मुझे इस बार बहुत अच्छा लगा। अभय में मैंने उनका पुराना रूप देखा। सब कुछ बदला हुआ व नया लगा, अभय भी।
" इतने दिन हो गये बिटिया, तुम हम लोगों से मिलने क्यों नही आ रही थी? " माँ ने अत्यन्त स्नेह भरे शब्दों में उलाहना देते हुए कहा।
" माँ समय नही मिल पा रहा था। आॅफिस से छुट्टी नही मिल रही थी। " मैने माँ से कहा। माँ के चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे। वह मुकराती हुई घर के काम में लग गयीं।
मँ के घर न आने का कारण भी तो मात्र समयाभाव ही था। अन्यथा कुशीनगर से पडरौना की दूरी एक बड़े शहर के दो मुहल्लों जितनी ही थी, जहाँ प्रतिदिन एक बार आया-जाया जा सकता है। माँ के घर जाने पर इस बार मुझे कुछ भी पराया नही लगा। इसका कारण कदाचित् यही था कि अब मेरा अपना घर, अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व विकसित हो चुका था। माँ व माँ के घर की छाया से मैं बाहर आ चुकी थी। ऐसा ही होता है, जब बेटियाँ विदा होकर ससुराल जाती हैं। कुछ ही समय लगते हैं जब वो ससुराल के वातावरण में स्वंय का ढाल लेती हैं, या ससुराल का वातावरण अपने अनुरूप बना लेती हैं। ये चमत्कार बेटियाँ ही कर सकती हैं। इसीलिए बेटियों को , स्त्रियों को गृहलक्ष्मी कहा जाता है। ये विशेषता प्रकृति ने किसी और को नही मात्र स्त्री को दी है। दो दिन रहने के पश्चात् मैं माँ के घर से कुशीनगर आ गयी।
समय आगे बढ़ता जा रहा था। मेरे बच्चे बड़े हो रहे थे। जब सब कुछ आगे बढ़ रहा था तब मेरी उम्र भला वहीं कैसे रूकी रकती? मेरी भी उम्र बढ़ती जा रही थी। माँ पर भी उम्र का प्रभाव पड़ना लाज़िमी था और वो थोड़ी-बहुत अस्वस्थ रहने लगी थीं। एक दिन माँ का फोन आया। हम सब का कुशलक्षेम पूछने व अपना व बाबूजी का हाल बताने के पश्चात् पास-पड़ोस की बात चलने पर ताऊजी के घर का हाल बताने लगीं। ताऊजी के लिए जैसा हमने अनुमान लगाया था वैसा ही माँ ने बताया। ताऊजी के घर में आजकल पैसों की खूब बरसात हो रही है। इस बात का पता उन लोगों के बढ़ते ठाट-बाट से चलने लगा था। पैसा उनके पास पहले भी कम न था, अब और बढ़ता जा रहा था। उनके घर दो नयी लक्ज़री महंगी गाड़ियाँ और आ गयी थीं। जब कि पहले से गाड़ियाँ उनके पास थीं। अगला चुनाव होने में अभी एक वर्ष शेष था। माँ ने यह भी बताया कि किसा से पता चला है कि इधर इन्द्रेश का मधुमेह स्तर इतना बढ़ गया है कि उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा है। हमें यह तो पता था कि इन्दे्रश को मघुमेह की शिकायत है। जिसका उपचार चलता है। किन्तु इस बीमारी के कारण उसकी अस्वस्थता इतनी बढ़ जायेगी कि उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा। यह अनुमान हम लोगों को नही था।
" उफ् ये कैसी नई-नई बीमारी आ गयी है, जिसकी दवा हमेशा लेनी पड़ती है। लोग समझ भी नही पाते कि उन्हें ये बीमारी क्यों व कब हो गयी? बीमारी की गिरफ़्त में आने के पश्चात् ही इसका पता चल पाता है। जितने डाॅक्टर उतनी दवाईयाँ बताते हैं। इस बीमारी की सही दवा भी तो नही मिल पाती। जो मिलती भी है वो दवा नियमित लेने के पश्चात् भी यह बीमारी जड़ से ठीक नही होती। सुना है शरीर पर बुरा प्रभाव भी डालती है। " माँ बताती जा रही थीं।
" अरे! ये तो बड़ा दुखद समचार है। " भुक्तभोगी लोगों व पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर मुझे इस बीमारी के दुष्परिणामों के बारें में थोडी़-थोड़ी जानकारी हो गयी थी अतः इन्द्रेश से घृणा करने के पश्चात् भी मेरे मुँह से सहसा निकल गया।
" आपको कैसे पता चला माँ....? " मैंने पूछा।
" पड़ोस के विवाह समारोह में शालिनी मिली थी तो वो ही बता रही थी। परेशान दिख रही थी। कह रही थी कि उसका अधिकांश समय इन्द्रेश के पास अस्पताल में ही व्यतीत होता है। साथ ही यह भी कि डाॅक्टर बता रहे हैं कि उसे अभी ठीक होने में कुछ और समय लगेगा। " माँ ने कहा।
फोन रखने के पश्चात् मैं सोचने लगी कि मधुमेह के मरीज को थोडी-बहुत शारीरिक श्रम भी आवश्यक होता है, किन्तु इन्दे्रश बहुत आरामतलब हो गया था। पैदल बिलकुल नही चलता था। गाड़ी से ही चलता था। लोग बताते हैं कि मित्र-मण्डली के साथ वह माँस-मदिरा युक्त भोजन अधिक करने लगा था। जब कि उसे मधुमेह की शिकायत थी। डाॅक्टर ने उसे परहेज करने को बोला था। किन्तु वह भोग विलास करने वाला व्यक्ति था।
सत्ता पाने के पश्चात् उसके इस स्वभाव में और बढ़ोत्तरी हुई थी। उसे सादा खान-पान कहाँ अच्छा लगता? यही सब कारण है कि उसका मधुमेह इतना अधिक बढ़ कर गम्भीर स्तर पर पहुँच गया है। इसीलिए इन्द्रेश के स्वास्थ्य को लेकर शालिनी चिन्तित थी। कुछ दिनों पूर्व जब मैं माँ के घर गयी थी तो समय मिलने पर पास-पड़ोस के परिचितों से मिलने चली जाती थी। पास-पड़ोस के लोग भी मिलने-जुलने माँ के घर आते रहते थे।
बचपन से मैं जिनके आसपास रही वो अब कैसे हैं? जिनके साथ खेली, पढ़ी, खेल-खेल में नाक-झोंक करती, रूठती थी झगड़ती थी, वे सब अब बड़े होकर कैसे दिखते होंगे? उनके भी बच्चे हो गये होंगे। बचपन का बेफिक्र होकर बढ़ता ऊर्जावान शरीर, अब उत्तरदायित्व के बोझ तले कैसा दिखता होगा? कैसे दिखते होंगे वे? जब भी उन्हें या किसी नाते रिश्तेदार अथवा परिचित को देखने की इच्छा होती और मैं माँ के घर जाती तो उनसे मिलने अवश्य जाती।
मैं यही सोचती कि जीवन में फिर यह अवसर न जाने कब मिले? जब कि कुशीनगर व पडरौना के बीच मात्र एक घंटे की दूरी ही है। फिर भी मैं बहुत दिनों के पश्चात् वहाँ जा पाती। न जाने क्यों जब भी जाती अपने बचपन को जीने का मन होता। उन चार दिनों में मैं अभय के साथ सबसे मिलने व पडरौना के खेत व बाग भी घूमने गयी। माँ भी कभी-कभी साथ में चलतीं। माँ के घर रहते हुए उन चार दिनों में इन्दे्रश मुझे कभी नही दिखा। कारण ये था कि वो अपने घर के भीतर के लाॅन से ही गाड़ी में बैठता तथा बाहर निकल जाता।
अभय से मेरे विवाह को लेकर मेरे व दीदी के मध्य बहनों वाला वो स्नेह गुम होता जा रहा था, जो बचपन से हमारे बीच था। दीदी से जब भी मुलाकात होती उसमें मैं पहले-सा स्नेह, अपनापन ढूँढ़ती, जो मुझे नही मिलता। औपचारिक हालचाल के अतिरिक्त वो मुझसे कोई बातचीत नही करती। मैं उसकी नाराज़गी का कारण नही समझ पाती।
मैंने अपनी इच्छा से तो उसके रिश्तेदार अभय से विवाह नही किया था? अभय के साथ ही माँ-बाबूजी की भी यही इच्छा थी कि अभय से मेरा विवाह हो। यदि अभय उन्हें अच्छा नही लगता तो वे चाहते तो उसे मना भी कर सकते थे, क्यों कि मैंने कभी नही कहा कि मैं अभय से ही विवाह करूँगी। अभय ने भी मुझसे विवाह की इच्छा मात्र प्रकट की थी किसी प्रकार का हठ नही किया था।
दीदी इस सच्चाई से भली प्रकार परिचित है, फिर भी फिर भी मेरे विवाह को प्रेम विवाह मानकर मुझसे नाराज़ रहती है। वह अभय से बात नही करती। जो भी हो दीदी के लिए मेरे मन में कोई कटुता नही है। दीदी ने ही मुझसे ये दूरियां बना रखी हैं। उसके मन में मेरे विवाह को लेकर कोई नाराज़गी है या उसने मन में किसी प्रकार की अन्य हीन भावना की ग्रन्थि पाल रखी है, ये मुझे नही मालूम।
सर्दियों के दिन आ गये थे। सिहरन भरी हवाएँ अच्छी लग रही थीं। सर्दियों का मौसम प्ररम्भ से ही मुझे अच्छा लगता है। दूर-दूर तक कोहरे की झीनी चादर ओढ़े सृष्टि प्रातः सूरज की हल्की गर्माहट में आँखें खोलती है। कितना मनोरम दृश्य होता है वह, जब पूर्व दिशा से सूर्य का गुलाबी गोला कोहरे का आवरण हटाते हुए शनैः-शनैः ऊपर उठता है। धरती पर सर्वत्र बिखरी मोतियों सदृश्य ओस की बूँदों से नर्म दूब ऋंगार कर उठती है। पत्तों की सरसराहट के संगीत से अंगड़ाई लेकर सर्द सुबह जाग उठती है। एक दिन माँ का फोन आया। सबका कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् माँ ने बताया कि इन्दे्रश का स्वास्थ्य खराब हो गया है।
उसका मधुमेह का स्तर बहुत बढ़ गया है। कदाचित् उसकी किडनी प्रभावित हो गयी है। उसकी डायलिसिस की जा रही है। वह अस्पताल से अभी तक घर नही आया है। घर के लोग दौड़ भाग कर रहे हैं। उसे लेकर दिल्ली के एक अस्पताल गये हैं। किडनियाँ बदली जायेंगी। शालिनी का रो- रो कर बुरा हाल है। कह रही थी कि न जाने कौन सी ग़लती उससे हो गयी है कि ऊपर वाले ने उसे इतनी बड़ी सजा दी है।
माँ की बातें सुन कर मैं आवाक रह गयी। मन पीड़ा से भी गया। नयी-नयी बीमारियाँ, नये-नये शब्द जिनसे मैं परिचित नही थी, वो सुनने को मिल रहे हैं। परिचित तो माँ भी नही थीं। उन्होंने जैसा सुना वैसा मुझे बता दिया। डायबिटीज.....किडनी.....डायलिसिस......उफ्फ् ये कैसा नया समय आ रहा है साथ ही नयी बीमारियाँ भी आ रही हैं। मन न जाने कैसा हो रहा था। कसैला.....कसैला-सा......।
" आपको कहाँ मिली थी शालिनी.....? " मैंने माँ ने पूछा।
" ये बातें कहीं छुपती हैं भला ? इन्दे्रश की अस्वस्थता की ख़बर सबको पहले से थी। हम लोगों को तो अब दूसरे लोगों से पता चला है। सब उसे लेकर दिल्ली जा रहे थे। मन नही माना। मेरा मन उसे देखने को हो रहा था। बहुत दिन हो गये थे इन्द्रेश को देखे हुए। इसलिए बड़े भाई ( ताऊजी ) के घर चली गयी। " माँ ने कहा। माँ दुःख की इस घड़ी में ताऊजी के घर गयी थीं जानकर मुझे अच्छा लगा। माँ ने तो अपनी ओर से अच्छा किया किन्तु.......
" माँ! ताऊजी के घर के लोगों का व्यवहार आपके साथ कैसा था...? " मैंने माँ से पूछा। मैं जानती थी कि ताऊजी के घर के लोग ऐसे अवसरों पर भी इष्र्या करना नही छोड़ते। अतः उत्सुकतावश मैंने पूछा।
" इस विपत्ति की घड़ी में भी सब खिंचे-खिंचे से थे। बस! शालिनी का व्यवहार मधुर था। वह सबका कुशल क्षेम पूछ रही थी। पूरे समय बड़े अपनत्व से बातें करती रही। न जाने किस बात की सजा भोग रही है बेचारी। उसका मासूम चेहरा देख कर बड़ी दया आ रही थी। " माँ ने दुखी स्वर में कहा।
" तीन छोटे बच्चे जिन्हें इस समय पिता का स्नेह चाहिए, वो इससे वंचित हैं। पिता रूग्णावस्था में पड़ा है। पति की चिन्ता के बोझ तले दबी शालिनी पर पति की देखभाल के साथ घर व बच्चों का पूरा उत्तरदायित्व आ गया है। शालिनी के लिए मन दुखी हो रहा था। कुछ देर बैठने के उपरान्त मैं घर चली आयी। " माँ बताती जा रही थीं। मैं माँ की बात सुन रही थी। मन न जाने कैसा कड़वा होता जा रहा था।
" वे लोग इन्दे्रश को लेकर दिल्ली चले गये हैं। " माँ ने अपनी बात पूरी की।
कुछ दिनों के पश्चात् ज्ञात हुआ कि दिल्ली से इन्द्रेश को किसी अन्य अस्पताल में लेकर जा रहे हैं। कहाँ...? ये किसी को बताया नही है। उड़ती-उड़ती बात थी कि कदाचित् कलकत्ता। राजनैतिक कारणों से बातें छिपायी जा रही है। पार्टी के अन्दरूनी विरोधियों द्वारा इन्द्रेश की अस्वस्थता को उजागर कर उसका टिकट कटवा कर कहीं किसी और को टिकट न दिलवा दिया जाये। बस, इसी कारण इन्देश की अस्वस्थता को छुपाकर उसका इलाज कराया जा रहा है।
सब कुछ छुपाकर किया जा रहा है। किन्तु ये बातें छुप नही सकतीं। सभी को ज्ञात है कि इन्दे्रश की बीमारी गम्भीर अवस्था में है। इस बीमारी की सही दवा का व सही उपचार कहीं भी अब तक उपलब्ध नही है। ताऊजी व चन्दे्रश आदि पुनः टिकट पाने के लिए कुशीनगर व लखनऊ के बीच दौड़-़भाग कर रहे हैं। इस समय इन्दे्रश के साथ अस्पताल में मात्र शालिनी और उसका छोटा भाई है। सभी घर वाले उसे अस्पताल में छोड़कर वापस आ गये हैं।
राजनीति ने ताऊजी के मन में सत्ता का ऐसा नशा उत्पन्न कर दिया है कि जो बेटा इस समय गम्भीर बीमारी से जूझ रहा है उसकी देखभाल करने के स्थान पर उसके नाम पर टिकट पाने का जी-तोड़ प्रयास करने में व्यस्त हैं। ताऊजी के पास बेटे के लिए समय नही है। उधर इन्द्रेश की किडनी ट्रान्सप्लांट के लिए चिकित्सक प्रयत्न कर रहे हैं। कहाँ और किस अस्पताल में यह किसी का नही मालूम। माँ कहती है कि ताऊजी शायद ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि कहीं कोई राजनैतिक विरोधी चन्दे्रश के स्वास्थ्य के बारे में बताकर उसका टिकट न कटवा दे। माँ -बाबूजी द्वारा समय-समय पर मुझे पडरौना के नाते-रिश्तेदारों की कुशलक्षेम......समचार मिलता रहता है।
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