भाग 10
वो मेरी सबसे अच्छी मित्र थी। कॉलेज के दिनों में हमारी मित्रता के चर्चे हुआ करते थे। अनिमा.....हाँ अनिमा नाम था उसका। हँसमुख व मिलनसार स्वभाव की अनिमा प्रारम्भ में जब कॉलेज में आी थी तब मैं उससे तथा वो मुझसे बिलकुल भी बातें नही करते थे। न जाने कैसे व कब वो मेरी प्रिय मित्रों में शुमार हो गयी थी। बल्कि सबसे अच्छी मित्र बन गयी।
तब वह स्पष्टवादी इतनी थी कि आपे इसी स्वभाव के कारण अक्सर उसका किसी न किसी से झगड़ा भी हो जाता था। किन्तु कॉलेज में मेरी व उसकी कभी भी अनबन नही हुई। हमारे विचारों में अच्छी तालमेल व समानता थी। जब कि हम दोनों आपस में मिलते, प्रत्येक मुद्दे पर ....प्रत्येक समस्या पर बात करते। विचारों का आदान-प्रदान करते।
इकहरे शरीर की लम्बी, सँवली रंगत व तीखे नयन-नक्श वाली अनिमा बुद्धिमान थी। कक्षा में उसकी मेधा के अनेक प्रशंसक भी थे। जिनका मत था कि पढ़-लिख कर अनिमा अवश्य किसी अच्छी नौकरी के लिए सलेक्ट कर ली जायेगी। वह प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती थी। जिसके लिए वह कठिन परिश्रम कर रही थी। सभी को विश्वास था कि वह अवश्य प्रसाशनिक सेवा या इसी के समकक्ष किसी नौकरी में चयनित हो जायेगी।
कॉलेज की शिक्षा पूरी होने के साथ ही साथ मेरा उसका साथ भी कम होते-होते धीरे-धीरे समाप्त हो गया था। विवाह पश्चात् मैं पडौना से कुशीनगर चली आयी। उसका विवाह तब तक नही हुआ था। मैं अपने पति अभय के साथ वैवाहिक जीवन में समायोजित होने का प्रयत्न कर रही थी। शनै-शनै मेरे दोनों बच्चे मेरी गोद में आ गए थे। घर की देखभाल व बच्चों के उत्तरदायित्व सम्हालते-सम्हालते मैं आत्मनिर्भर भी होना चहती थी, कारण मेरे बच्चे अब कुछ बड़े हो गए थे। घर में मेरे साथ अभय के माता-पिता थे, जो बच्चों को बहुत प्यार करते थे। बच्चों का मन भी उनके साथ खूब लगता था। मुझे विश्वास था कि मेरे दिन भर बाहर रहने पर बच्चे अपने दादा-दादी के पास आराम से रह लेंगे। उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ न होगी। एक और प्रमुख कारण भी था जिसके कारण मैं नौकरी करना चाहती थी, वो यह कि मेरे वैवाहिक जीवन में नीरसता भरती जा रही थी। बच्चों के बड़े हो जाने के कारण अब मेरे पास दिन में काफी समय भी बच रहा था, जिसमें मैं अपने लिए कुछ करना चाह रही थी। इस विषय पर मैं जब भी अभय से बात करती तो वो इसमें कोई विशेष रूचि नही दिखता। सब कुछ मेरी इच्छा पर है ’ कह कर अपना पीछा छुड़ा लेता।
मैं जानती थी कि नौकरी के लिए मेरा प्रयत्न करना उसे अच्छा नही लगता। जब भी मै पेपर में या नेट पर रिक्तियाँ देखती या आवेदन फार्म भरती किसी न किसी काम से मुझे बुला लेता। कोई काम न होने पर भी बहाना बनाकर खीज मुझ पर उतारता। फिर भी मैंने प्रयास करना नही छोड़ा। कई जगह साक्षत्कार दिए, लिखित परीक्षाएँ दीं।
मेरा प्रयास रंग लाया, और एक बड़ी निजी कम्पनी में मुझे नौकरी मिल गयी। मेरी नियुक्ति दिल्ली में हुई। यहाँ से इतनी दूर जाकर नौकरी करना मेरे लिए असम्भव-सा लग रहा था। कुशीनगर में उस कम्पनी की शाखा नही थी। छोटे शहरों में निजी कम्पनियाँ नही होतीं। नौकरी करने की उम्मीद टूटती जा रही थी। मैंने पता कि तो ज्ञात हुआ कि गोरखपुर में उस कम्पनी की शाखा थी। कुशीनगर से गोरखपुर प्रतिदिन नौकरी करने वाले आते-जाते रहते हैं।
अतः मैंने एक प्रार्थना पत्र कम्पनी के मैनेजमेन्ट को लिखा तथा गोरखपुर शाखा में स्थानान्तरण करने का अनुरोध किया। जिसे मान लिया गया और मैंने गोरखपुर में नौकरी ज्वाइन कर ली। अब मैं घर व बच्चों के उत्तरदायित्व के साथ नौकरी भी करने लगी। यह नौकरी करने के लिए मैं इसलिए भी उत्सुक थी कि मेरे बच्चे अब बड़े हो रहे थे। अपना कार्य वे स्वंय कर सकते थे, दूसरे अभय के माता-पिता मेरे साथ थे।
मेरे घर आने तक वे घर व बच्चों की देखभाल करने में सक्षम थे। उनकी सहमति से ही मैं नौकरी करने के लिए स्वंय को तैयार कर पायी। नौकरी करते हुए मुझे तीन-चार दिन हो गये थे। मैं धीरे-धीरे आॅिफस के काम सीख रही थी। एक दिन लंच के लिए मैं कार्यालय से आॅफिस के कैंटी न की ओर जा रही थी कि पीछे से आवाज आयी, " नीरू.....नीरू..... " ये किसी महिला के स्वर थे। मैं यहाँ किसी के द्वारा अपना नाम सुनकर आश्चर्य से पलटकर पीछे देखा तो अनिमा खड़ी मुस्करा रही थी। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। अन्तराल पश्चात् अनिमा को देख रही थी। प्रथम दृष्टि में ही मैं अनिमा को पहचान गयी।
" अनिमा तुम....? तुम यहाँ कैसे ....? " मैंने अत्यन्त आश्चर्य व अपनत्व के साथ अनिमा से पूछा। दूसरे शहर के इस कार्यालय में विद्यार्थी जीवन की मेरी मित्र अनिमा मिल जायेगी, इस बात का मुझे यकीन नही हो रहा था।
" मैं यहाँ काम करती हूँ। " अनिमा ने कहा।
" किन्तु ये बताओ कि तुम यहाँ क्या कर रही हो। " अब अनिमा के आश्चर्य करने की बारी थी।
" मैंने भी बस दो-चार दिनों पहले ही ज्वाईन किया है। " मैंने अनिमा से कहा।
" ये तो बड़ी ही अच्छी बात बताई तुमने। " अनिमा ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा।
" चलो आखिर मैंने तुम्हें ढूँढ़ ही लिया। मैंने अनिमा से कहा। हम एक साथ खिलखिलाकर हँस पड़े।
अनिमा ओर मैं एक दूसरे का हाथ पकड़े देर तक खड़े बातें करते रहे। हमने साथ-साथ लंच किया। मध्यावकाश का समय समाप्त हो गया और कार्यालय के अवकाश के पश्चात् मिलने की बात कह कर हम अपने-अपने केबिन की ओर चले गये। शाम को अवकाश के पश्चात् मैं अनिमा से मिलने की प्रतीक्षा कर रही थी। कार्याल्य के काॅरीडोर मंे अनिमा आती दिखाई दी। नयी-नयी नौकरी व कार्यालय में अनिमा का मिल जाना मुझे राहत दे रहा था।
" और सुनाओ! क्या तुम्हारी ससुराल यहीं पर है। " कॉलेज के पश्चात् मैं अनिमा से प्रथम बार मिल रही थी। अतः मेरा यह प्रश्न स्वाभाविक था। मुझे उसके वैवाहिक जीवन के बारे में तथा उसे मेरे वैवाहिक जीवन के बारे में कोई जानकारी नही थी।
" हाँ..... मैं यही रहती हूँ। " अनिमा ने हँसते हुए कहा।
" अनिमा आज भी वैसी ही लग रही थी, जैसी कॉलेज के दिनों में लगती थी। हँसमुख व आकर्षक। इतनी लम्बी अवधि के पश्चात् भी अनिमा में सब कुछ वैसा ही था। जब कि मैं उसी की समवयस्क हूँ और मुझे लगता है मेरा आकर्षण अवश्य कुछ क्षीण हुआ है, वजन भी थोड़ा-सा बढ़ गया है।
" तुम्हारी भी ससुराल यहीं है क्या....? " अनिमा ने जानना चाहा।
" नही! ससुराल नही मात्र नौकरी ही यहाँ है। "
" तो किसके पास कहाँ रहती हो....? "
" कहीं नही रहती हूँ। " मैंने रहस्यमय वातावरण का सृजन करते हुए अनिमा को छेड़ते हुए कहा।
" क्या मतलब....? " अनिमा ने आश्चर्य से पूछा।
" प्रतिदिन कुशीनगर से यहाँ आती-जाती हूँ। " मैने सहजता से कहा।
" अच्छा तुम्हारी ससुराल कुशीनगर में है। वहाँ से डेली पैसेन्ज़र बनी हुई हो। खूब परिश्रम कर रही हो। " उसने हँसते हुए कहा।
हमने ढेर सारी बातें की। समय का अभाव था, अतः शेष बातें अगले दिन करने के लिए छोड़ हम अपनी-अपनी राहों पर चल दिये।
अगले दिन अनिमा ने मेरे परिवार, मेरे दोनों बच्चों के बारे में पूछा। मैंने उसे अपने घर परिवार की जानकारी दी। जिसे वो मुस्करा कर सुनती रही। जब भी हम मिलते, जाने से पूर्व ’ कल मिलते हैं ’ कह कर विदा लेते। मेरा मन कार्यालय के कार्यों में लगने लगा था। अनिमा के कारण भी कार्यालय में मुझे अच्छा लगता। वहाँ का वातावरण कभी बोझिल नही लगता।
कुछ कार्यालय का माहौल था, तो कुछ अनिमा का साथ। पडरौना में सभी मेरी नौकरी के बारे मे जानकर प्रसन्न थे। मैं दीदी को भी बता दिया था साथ ही यह भी कि अनिमा भी इसी कार्यालय में काम कर रही है। मेरी बात सुन कर दीदी ने संक्षिप्त हाँ......हूँ कह कर फोन रख दिया। मैं अनिमा के बारे में......उसके साथ हो रही अपनी और उसकी बातें भी मैं दीदी को बताना चाहती थी।
आखिर दीदी भी तो कॉलेज के दिनों से अनिमा को जानती थी। दीदी भले ही हमसे सीनियर थी, किन्तु कॉलेज के दिनों में अनिमा उसकी भी मित्र थी। मैं दीदी से अनिमा की बातें कर कॉलेज के उन दिनों को याद करना चाहती थी, जब हम साथ-साथ रहते थे, हँसते थे, खेलते थे। किन्तु दीदी मुझसे सामान्य बातचीत करना भी पसन्द नही करती तो वो अनिमा या किसी और के विषय में मुझसे क्या बातें करेगी। अक्सर तो वो मेरा फोन नही उठाती। उठाती भी तो बात प्रारम्भ होने से पहले ही व्यस्तता का बहाना बना कर फोन रख देती।
मैं समझ नही पा रही थी कि दीदी मुझसे किस त्रुटि के कारण रूष्ट रहती है। मैं जानती थी कि दीदी अभय को पसन्द नही करती, किन्तु दीदी को ये समझना चाहिए कि उसके पसन्द करने या न करने से अभय की खूबियाँ कम तो नही हो जायेंगी? विवाह के इतने लम्बे समय के पश्चात् भी कभी अभय ने माँ-बाबूजी या दीदी के लिए कभी कोई दुर्भावनापूर्ण बात नही की। अब वो मेरा पति था। दीदी की इच्छा या अनिच्छा से कुछ भी नही होने वाला।
मुझे नौकरी करते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गये थे। माँ से फोन पर बातचीत होती रहती। वो मुझे पडरौना बुलाती रहतीं। समयाभाव के कारण मैं जा नही पाती। माँ के घर गये बहुत दिन हो गये थे। मेरी इच्छा भी थी कि मैं एक बार माँ के घर जाऊँ तथा सबसे मिलूँ। इस ग्रीष्मावकाश में मैं कार्यालय से किसी प्रकार दो दिन का अवकाश लेकर माँ-बाबूजी से मिलने गयी।
पडरौना में सब कुछ वैसा ही था जैसा विवाह के पूर्व था। यहाँ का सामाजिक वातावरण भी कुशीनगर जैसा ही है। छोटा शहर होने के कारण पास पड़ोस में सब एक दूसरे का जानते हैं, पहचानते हैं। एक दूसरे के दुःख-सुख में सम्मिलित होते हैं। घर के काम समाप्त कर महिलायें अब भी मोहल्लेदारी करती हैं। एक जगह किसी के भी घर के बाहर चबूतरे पर, लाॅन में, दालान में बैठ जाती हैं, तथा पास-पड़ोस की बहू-बेटियों की बुराई-भलाई अब भी करती हैं। एक- दूसरे से अपने घर के दुख-सुख बाँटती हैं। मैं समझती हूँ कि मुहल्लेदारी की यह परम्परा मानसिक व सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी परम्परा है। मैंने सुना है और देखा भी है कि बड़े शहरों में आस-पास के लोग एक दूसरे को पहचानते नही। घर के बड़े बुजुर्ग अपने घर में बन्द होकर पड़े रहते हैं। इस प्रकार का जीवन उन्हें अकेलेपन से होने वाली अनेक बीमारियों से ग्रसित कर देता है। यद्यपि पडरौना जनसंख्या व क्षेत्रफल की दृष्टि कुशीनगर से कुछ बड़ा है। मुझे लगता है कि आबादी व क्षेत्रफल की दृष्टि से पडरौना कुशीनगर से बड़ा है। जिसका कारण यह है कि पडरौना राजे-रजवाड़ों का स्टेट रहा है। यहाँ का मुख्य आकर्षण राजाओं के ऊँचे व रंग-बिरंगे महलों की वो ऋंखला है, जो एक बड़े क्षेत्र में विस्तृत है। यहाँ के महल अत्यन्त भव्य व कलात्मक ढंग से बने हैं जो यहाँ की समृद्ध परम्परा को जीवन्त करते हैं।
देश को स्वतंत्र हुए तीन दशक हो गयें हैं। राजतन्त्र समाप्त हो गया है, किन्तु यहाँ की जनता अब भी राजाओं के किस्से, उनकी भव्य परम्पराओं के चर्चे इस प्रकार करती है जैसे अभी ये कल की ही बातें हों। बच्चे और युवा तो नही किन्तु अन्य बहुत लोगों ने जिसने यहाँ की राजशाही देखी है, वे यहाँ के राजाओं, राजपरिवारों के किस्से अत्यन्त रोचक ढंग से सुनाते हैं।
यहाँ की लोग सम्मान के साथ उस राज क्षेत्र व महलों को कोठा दरबार कहते हैं। यह एक अत्यन्त मनोरम दर्शनीय स्थल है। बचपन में हम कभी अपने घर के बड़े लोगों के साथ तो कभी कॉलेज की सहेलियों के साथ कोठा दरबार घूमने खूब जाया करते थे। दूर-दूर तक फैले व्यवथित ढंग से बने राजाओं के महल, रानियों के सैरगाह हेतु बने बाग़-बगीचे, बड़ा व सीढ़ीदार तालाब जो अत्यन्त आकर्षण लगते हैं। यहाँ के तालाब के इर्द-गिर्द अब छठ माई का बड़ा व भव्य मेला लगता है।
दीवानों-सिपहसालारों की हवेलियाँ, हाथी-घोडे़ रखने-बाँधने के हथसाल सब अपने अतीत की भव्यता को स्वंय में समेटे हुए शनैः-शनैः खण्डहर होते जा रहे हैं। लोग कहते हैं कि पडरौना राजघराने का सम्बन्ध नेपाल के राजघराने से भी रहा है। मुझे लगता कि पडरौना का गौरवमयी इतिहास व ऐतिहासिक राजभवन जनता के दर्शनार्थ पर्यटन क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाना चाहिए था, किन्तु अब तक ऐसा नही हो पाया है।
यही नही, यहाँ बड़े-बड़े व्यवसायिक घरानों की हवेलियाँ, भव्य मन्दिर-अट्टालिकायें, फार्म हाऊस, बाजार, चीनी मिल, अनेक फैक्ट्रियाँ इसे भव्य व आकर्षक बनाती हैं। भारत-नेपाल की सीमा के तराई क्षेत्र में बसा पडरौना हर-भरा व विकासशील क्षेत्र है। नेपाल सीमा से सटे अनेक गाँव खिरकिया, बगहां, भैरवां, सिंधुआ स्थान, बेलवां आदि अनेक सीमावर्ती गाँव भारत-नेपाल की भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान आदि को एक दूसरे से साझा करते हुए दोनों देशों की एकता का प्रतीक बने हैं।
इन्हें भी विकास की दरकार है, किन्तु अब तक उपेक्षित हैं। मैंने अभय से कहा कि मैं इन स्थानों का पुनः देखना चाहती हूँ, जहाँ बचपन में परिवार के साथ घूमने-पिकनिक मनाने हम सब जाया करते थे। मैं पडरौना पुनः घूमना चाहती हूँ। अभय सहर्ष तैयार हो गये। अभय के साथ उन सभी स्थानों में मैं घूमती रही जहाँ बचपन में स्कूल की मित्रों के साथ घूमा-फिरा करती थी। अभय उन जगहों को देखकर बहुत खुश हो रहे थे।
" पडरौना इतना खूबसूरत है। इतने अच्छे-अच्छे दर्शनीय स्थल उपेक्षित पड़े हैं। बहुत अच्छी जगह है। " अभय ने मेरे तमाम चित्र उन स्थलों पर मेरे साथ कैमरे में कैद किये।
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