Unhi Rashto se Gujarate Hue - 6 in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 6

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 6

भाग 6

समय व्यतीत होता जा रहा था। दीदी का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था। उन्होंने स्नातकोत्तर की कक्षा में प्रवेश ले लिया था। मेरा स्नातक पूरा होने वाला था। इन्द्रेश के चुनाव जीत जीने पर मेरे घर वालों की कोई प्रतिक्रिया न थी। हम सब जानते थे कि उसके चुनाव जीतने से ताऊजी के परिवार के लिए लोगांे के अहंकार व घंमड बढ़ने का एक और कारण मिला है। उनके दुव्र्यवहार, उनके लड़कों के घमंड में और वृद्धि होने जैसा है यह चुनाव।

अब ताऊजी के दरवाजे पर लोगों की भीड़ हर वक्त लगी रहती थी। छोटी जगहों पर किसी भी नेता को लोग शीघ्र ही अपना उद्धारक ही समझने लगते हैं। जीते हुए नेता को तो भगवान ही समझने लगते हैं। अनपढ़ और कम शिक्षित लोगों को बहलाना-फुसलाना अत्यन्त सरल होता है। राजनीति और धर्म दोनों ही लोगों की भावनाओं का लाभ उठाती हैं।

चुनाव जीतने के पश्चात् जब भी इन्दे्रश घर से बाहर निकलता ताऊजी के दरवाजे से इन्दे्रश की बड़ी गाड़ी के साथ कुछ और बड़ी गाड़ियाँ उसके चमचों की भी साथ-साथ चल पड़तीं। अब ताऊजी का परिवार सरकारी खर्चे पर लखनऊ, दिल्ली तो कभी-कभी विदेश भी घूमने जाता रहता। उनके मौज-मस्ती की चार्चाएँ उड़ते-उड़ते लोगों द्वारा हम तक भी आ जातीं।

पढ़ने-लिखने और शान्त रहने वाला हमारा परिवार अर्थात माँ व बाबूजी इन झमेलों से दूर रहकर अपने काम पर, अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए हमें समझाते रहते। भाई की इच्छा थी पढ़-लिखकर प्रशासनिक अधिकारी बनने की। उसके पढ़ने के लिए घर का वावातावरण शान्त रहे बाबूजी यही चाहते थे। प्रांतल भी एकाग्रचित्त होकर पढ़ता रहता। स्वभावतः किसी भी लड़ाई-झगड़ों से दूर रहने वाले मेरे बाबूजी ताऊजी के परिवार द्वारा की गयी किसी भी लड़ाई- झगड़े की कोशिश को अनसुना-अनदेखा कर देते। ताऊजी के परिवार की तरफ से जब भी ऐसा होता उस समय बाबूजी खातोश हो जाते उस खामोशी में हम सब बाबूजी के चेहरे पर पसरी पीड़ा को देखते ......महसूस करते।

स्नातक के पश्चात् भाई को प्रशासनिक सेवा की कोचिगं के लिए बाबूजी ने इलाहाबाद भेज दिया था। साथ ही दीदी के लिए योग्यवर तलाशने का काम भी बाबूजी कर रहे थे। उन्होंने अपने सभी जान-पहचान के लोगों से दीदी के लिए अच्छा वर देखने के लिए कह दिया था।

जहाँ-जहाँ पता चलता बाबूजी लड़का देखने जाते। एक दिन घर में भोजन-पकवान की विशेष तैयारियाँ चल रही थीं। माँ ने ड्राइंग रूम की सफाई व साज-सज्जा पहले से करवा ली थी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि दीदी को देखने के लिए लड़के वाले आ रहे हैं। माँ के कहने पर उस दिन मैं व दीदी कॉलेज नही गये। मध्यान्ह में एक सफेद रंग की बड़ी-सी गाड़ी दरवाजे पर आकर रूकी। उसमें से तीन-चार पुरूष व दो स्त्रियाँ बाहर निकलीं।

माँ व बाबूजी ने गेट पर जाकर उनका स्वागत् किया। उन्हें ड्राइंगरूम में लेकर आये। सभी बैठ कर आपस में औपचारिक बातें करने में व्यस्त हो गये। मैं ड्राइंगरूम के बगल के कमरे की खिड़की से झाँककर ड्राइंगरूम में देखने लगी। मैं उस लड़के को देखना चाहती थी जिससे दीदी का विवाह होना है। पापा ने आकर बताया था, कि लड़का भी आया है।

अनेक प्रकार से ताकझाँक करने के पश्चात् भी मुझे लड़का नही दिखाई दे रहा था। कि ड्राइंगरूम में तीन-चार पुरूष बैठे थे। मुझे यह समझ पाने में कठिनाई हो रही थी कि दीदी का होने वाला पति आखिर है कौन! मेरी कल्पनाओं में दीदी के होने वाले पति की जो छवि थी उसके अनुसार कोई भी नही दिख रहा था, या उस तक मेरी दृष्टि नही पहुँच पा रही थी। खिड़की से झाँक कर अपने हाने वाले बहनोई को पहचानने में मैं असफल रही।

थोड़ी देर में दीदी को मिठाई की ट्रे लेकर उनके सामने जाना था। इसके लिए दीदी का विशेष श्रृंगार किया गया था। यह सब काम करने के लिए माँ के मायके से मेरी मामी जी आयी हुई थीं। दीदी मिठाई की ट्रे लेकर ड्राईंग रूम में जाने के लिए तैयार हो गयी थी। कितनी सुन्दर लग रही थी दीदी। मामी जी से पूछकर मैं भी दीदी के साथ ड्राईंग रूम में गयी। मुझे मात्र अपने होने वाले जीजा को देखना था, इसीलिए मैं दीदी के साथ वहाँ जाने के उत्सुक थी।

" देख लो.......पसन्द कर लो सोमेश! तुम्हारी होने वाली बीवी। " उनमें से एक महिला ने दीदी की ओर देखते हुए जिस सोमेश नामक व्यक्ति की ओर संकेत किया, मेरी दृष्टि स्वतः उधर उठ गयी।

सोमेश को देखते ही मेरे ऊपर जैसे बिजली गिर गयी। दीदी के विवाह को लेकर मेरे मन में बना सारा का सारा उत्साह, जोश बर्फ की भाँति जम गया। सोमेश कही से भी लड़का नही लग रहा था। मैं सकते में थी। मुझे इन बातों का अधिक अनुभव तो नही था, किन्तु वो व्यक्ति सोमेश जिससे दीदी का विवाह होना था वो दीदी की उम्र से लगभग पन्द्रह वर्ष बड़ा लगा। सामने के सिर के बाल पूरी तरह उड़ चुके थे।

स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो वो व्यक्ति सोमेश एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था। उसके सामने बैठी दीदी किसी बच्ची-सी मासूम लग रही थी। मेरे मन में अनेक प्रश्न उठ रहे थे, उनमें एक यह था कि क्या इसे ही योग्य वर और योग्य वर की तलाश कहते है? माँ बाबूजी ने दीदी के लिए क्यों ऐसा वर ढूँढ़ा? सरकारी क्षेत्र के एक बड़े पद पर नौकरी करना ही सब कुछ है। भले ही वह वर व विवाह बेमेल ही क्यों न हो...?ं

भरपूर चाय-नाश्ता करने के पश्चात् वो लोग चले गये। साथ ही दीदी को पसन्द करते गये। लड़के सोमेश के चेहरे के भावों से मैंने अनुमान लगाया कि उसे दीदी बहुत अच्छी लगी। भला दीदी उसे अच्छी क्यों न लगती.......? दीदी किसे अच्छी नही लगेगी....? गेहुँआ रंग, कत्थई बड़ी आँखें, लम्बा कद, इकहरा शरीर और सबसे बढ़कर दीदी के चेहरे की सौम्यता, और भोलापन किसी को भी अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त था। मुझे नही ज्ञात था कि घर के बड़े क्या निर्णय लेंगे?

मेरा मन खिन्न था। धीरे-धीरे घर के लोगों अर्थात माँ-बाबूजी की आपसी बातचीत ़द्वारा ज्ञात हुआ कि वो व्यक्ति सोमेश सरकारी क्षेत्र के बड़े व पैसे वाले पद पर नौकरी करता है अतः वो ये रिश्ता करना चाहते हैं। तर्क यह भी कि पढ़ने, नौकरी करने, व प्रमोशन लेने के चक्कर में सोमेश ने समय से विवाह नही किया था इसीलिए उम्र कुछ अधिक निकल गयी है, शेष सब कुछ ठीक है।

बाबूजी केे अनुसार सरकारी नौकरी करने वाले लड़के असानी से नही मिलते। माँ को लड़का पसन्द नही था। किन्तु बाबूजी का विरोध न तो उन्होंने कभी किया है न अब करेंगी। उनके लिए सबसे पहले बाबूजी की खुशी व विचार मायने रखते हंै। बाबूजी के विचारों से माँ की असहमति का तो प्रश्न ही नही उठता। कुछ ही दिनों में ज्ञात हो गया कि दीदी का विवाह सोमेश से ही होगा। घर में दीदी के विवाह की तैयारियाँ होने लगी। धीरे-धीरे चारों ओर खुशियों का वातावरण निर्मित होने लगा। मानव का स्वभाव है वातावरण के अनुसार स्वंय को समायोजित कर लेने का। हम भी उससे परे नही थे। दीदी के विवाह की तैयारियों में हम भी सम्मिलित हो गए।

मुझे अच्छा नही लगता दीदी का ये रिश्ता। यह एक बेमेल विवाह था। मैंने सुना था कि बेमेल विवाह की अनेक दुश्वारियाँ होती हैं। मेरे मन में दीदी और सोमेश की उम्र के अन्तर को लेकर संशय बना रहता। एक दिन मैंने दीदी से पूछा, " क्या तुम्हे पसन्द है ये रिश्ता? "

" हाँ मुझे पसन्द हैं ये रिश्ता। इसलिए पसन्द है क्यों कि वो लड़का एक पावरफुल व पैसे वाले पद पर है। दूसरे, जिस परिवार से वह ताल्लुक रखता है वो लोग भी ऊँची पहुँच वाले हैं। मैं ऐसे ही परिवार में जाना चाहती हूँ। " दीदी ने स्पष्ट और दृढ़ शब्दों में कहा।

" किन्तु दीदी...." मैं सोमेश की उम्र को लेकर दीदी से कुछ कहना चाहती थी।

" नही नीरू....कुछ नही। मैं अपना जीवन किसी सशक्त व्यक्ति के हाथों को सौंपना चाहती हूँ। " दीदी ने दृढ़ता से कहा।

" क्यों दीदी...क्यों ? क्या औरत इतनी कमजोर है कि वो अपने जीने के लिए, अपने अस्तित्व के लिये किसी और का संबल ले? " मैंने दीदी को समझाना चाहा।

" ये सब कहने की बातें हैं नीरू! इन्द्रेश ने मेरे साथ अभद्रता करना चाहा। मैं बाबूजी से नही कह पायी। क्यांे..? क्यों कि मैं जानती थी कि ऐसा करने से मात्र मेरे परिवार का ही अपमान होगा। सोमेश को कोई कुछ नही कहेगा। मेरे व मेरे परिवार के साथ कोई खड़ा नज़र नही आयेगा। बातें एक से दूसरे तक पहुँचेगी तरह-तरह की बातें होंगी।

यह भी सम्भव है कि मुझे ही दोषी ठहरा दिया जाये। बातें चाहे जितनी भी बड़ी-बड़ी व आदर्श की कोई कर ले, स्त्रियों के लिए हमारे समाज की मानसिकता में कोई फर्क नही आया है। अभद्रता, हिंसा, शोषण, बलात्कार स्त्रियों के साथ होता है, इन सबके विरोध करने पर अपमानित भी स्त्रियाँ ही होती हंै। उनके साथ न्याय कहाँ हो पाता है? न्याय के लिए आवाज उठाने पर समाज उनका जीना दूभर कर देता है।

वहीं पुरूष स्त्रियों के साथ अन्याय व सब कुछ कर के भी इस समाज में सीना तानकर चलता है। पुरूषत्व का दंभ भरता हुआ, अपने कृत्य पर ज़रा भी शर्मिन्दा नही होता। अपना फ्रस्टेशन पत्नी को गालियाँ देकर, मारपीट कर निकालता है। स्त्रियों की दशा परिवर्तित होने में अभी समय लगेगा नीरू। कितना समय लगेगा कुछ कह नही सकती। अपना अधिकार पाने के लिए स्त्रियों को संघर्ष करना होगा। उनके संघर्ष का पथ अभी लम्बा है।

इस विवाह के लिए मैं मना भी कर सकती हूँ। हो सकता है बाबूजी मान भी जायें। कम उम्र का कोई अन्य लड़का ढूँढ़ भी दें। तो क्या होगा? विवाह कर मुझे उसके घर जाना ही होगा। उसकी आज्ञा का पालन करना ही होगा। उसकी खुशी के लिए यदि मैं उसकी अधिनता स्वीकार कर सकती हूँ, तो यह कार्य मैं माँ- बाबूजी की खुशी के लिए क्यों न करूँ...? मेरी सेवा से मेरा पति खुश हा,े न हो, किन्तु सोमेश से विवाह करने से मेरे बाबूजी तो खुश रहेंगे। " दीदी की बात सुन कर मैं उनकी और प्रशंसक होती जा रही थी।

दीदी ने स्नातकोत्तर की परीक्षा दी और उनका विवाह हो गया। मंै प्रारम्भ से दीदी के साथ रही थी। हम घर में तो साथ रहते ही थे, विद्यालय भी साथ-साथ आना-जाना.........यहाँ तक कि घर में दीदी जहाँ जाती छत पर व बाहर लाॅन में कहीं भी तो मैं भी उनके साथ रहती। अक्सर ऐसा होता है कि सगे भाई-बहनों में भी उतनी निकटता नही रहती, जितनी मेरे व दीदी के मध्य थी। मेरी जिस बहन के साथ मेरा दिन-रात का साथ हो, उठना-बैठना हो, उसके विचारों के साथ तालमेल हो, भावनात्मक लगाव हो.....।

.उसके ससुराल चले जाने के पश्चात् दिन-रात, प्रत्येक क्षण उसकी स्मृतियाँ आनी स्वाभाविक थीं। दीदी के ससुराल चले जाने के पश्चात् मुझे अकेलेपन की गहरी अनुभूति होने लगी। ऊपर से दीदी के साथ घटी घटना के कारण मुझे अपने घर में ही असुरक्षा की भावना महसूस होने लगी थी। ये चीजें मुझे मानसिक दबाव दे रही थीं, परेशान कर रही थीं। घर में किसी से भी अपनी व्यथा कह नही पाती। आखिर कहूँ भी तो किससे।

एक माँ ही तो थीं, जिनसे मै कुछ कह सकती थी किन्तु भय यह था कि माँ मेरे मन की बात समझ पायेंगी या नही? मेरी सीधी व सरल माँ जो आजकल के समय के साथ समाज में उपजी घृणित मनोवृत्तियों की समझ शायद ही रखती हों, वे मुझे समझ भी पायेंगी या नही? माँ जिनका किसी भी समस्या, किसी भी विषय पर अपना कोई विचार नही था, जो स्वंय बाबूजी की विचारगामिनी, पथगामिनी थीं।

मेरी इस समस्या को वो किस अर्थ में लेगीं, कुछ कहा नही जा सकता। यह भी आशंका थी कि मेरी समस्या समझने के स्थान पर माँ मुझे ही दोषी न मानने लगें। यदि कहीं भावावेश में मैं दीदी के साथ हुई दुर्घटना का उल्लेख कर बैठी तो कहीं वे दीदी को ही कटघरे में न खड़ा कर दें? विवाह पश्चात् दीदी की छवि को मैं धूमिल करना नही चाहती थी।

मेरी माँ बहुत अच्छी हैं। सीधी, सरल, संवेदनशील, व परोपकारी......संसार की सबसे अच्छी माँ। किन्तु हैं तो वो इसी समाज का अंग जो पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों के प्रति दोहरी मानसिकता रखता है। घर में मैं सहमी-सहमी रहती। माँ अपने घरेलू कार्यों में व्यस्त रहती। मैं चुपचाप अपनी पढ़ाई के अतिरिक्त माँ का सहयोग करती। कभी-कभी हम सबसे मिलने दीदी आती, एक-दो दिन रहती और चली जाती। दीदी जब भी आती, मुझे बहुत अच्छा लगता। उन एक-दो दिनों में दीदी के साथ मै पुराने दिनों को जी लेती। दीदी चली जाती और मैं पुनः उनके आने की प्रतीक्षा करने में दिन व्यतीत करने लगती।

कभी-कभी मैं सोचती दीदी ने ठीक ही किया सोमेश के साथ विवाह की अपनी सहमति देकर। अच्छा हैं उसका विवाह हो गया। जिस प्रकार अकेलेपन व तनाव से इस समय मैं गुजर रही हूँ, उसे गुज़रना नही पड़ा। वो यहाँ से चली गयी। एक दिन प्रत्येक लड़की को अपने माता-पिता के घर से जाना ही पड़ता है।