भाग 2
घरों की कच्ची-पक्की छतों और मड़ईयों पर फैली लौकी, कद्दू, तुरई की बेलें पीले, श्वेत फूलों से भर जातीं। उस समय सब्जियों के छोटे बतिया ( फल ) खुशियों की सौगात लाते प्रतीत होते। इसका कारण ये कि ये था कि ये उपजें बहुत लोगों की रोटी-रोजगार से जुड़ी होतीं। विशेषकर छोटे कृषकों की। छतों व मडईयों पर उगी इन सब्जियों को बेचकर वे कुछ पैसे कमा लेते।
सर्द ऋतु की गुनगुनी धूप में उपले पाथती औरतें कोई प्रेम गीत गुनगुना उठतीं। कभी-कभी विरह गीत भी.....और उनकी स्वरलहरियों से उदास वातावरण जीवन्त हो उठता। वसंत ऋतु की तो बात ही क्या थी। फरवरी माह प्रारम्भ होते ही दूर-दूर तक जहाँ भी दृष्टि जाती हरे-भरे खेतों में खिल उठीं पीली सरसों के फूलों से सृष्टि ऋृंगार कर उठती। सेमल के वृक्षों की टहनियाँ सहसा रक्ताभ पुष्पों से भर जातीं। स्थान-स्थान पर स्वतः उगे, वर्ष भर तिरस्कृत सेमल के वृक्षों के लाल पुष्प वसंत ऋतु में धरा रूपी सुन्दरी के माथे का श्रंगार करते प्रतीत होते, तथा वसंत की मादकता बढ़ाते हुए सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाते।
वसंत ऋतु में हम सब प्रातः अमराईयों से आती कोयल की कूक के स्वर से जागते। पडरौना की गर्मियों का मौसम तराई क्षेत्र होने के कारण देश के अन्य भागों की अपेक्षा कम गर्म होता। लोगों की लम्बी दोपहरी घरों के आँगन, बारामदों, वृक्षों की छाँव, बागों-उद्यानों में व्यतीत हो जाती। उस समय बिजली किसी-किसी के घर में ही होती थी। अतः सभी घरों में पंखे चलने का प्रश्न ही नही था, न आवश्यकता थी। गर्म दुपहरी में भी प्राकृतिक रूप से चलने वाली शीतल पुरवा हवायें छाँव में किसी पंखे व ए0सी0 की कृत्रिम हवा से कहीं अधिक शीतल व सुखद लगती थीं।
गर्मियों का अवकाश व्यतीत हो जाने के पश्चात् जुलाई माह में जब कॉलेज खुलता तब बारिश की ऋतु का प्रारम्भ हो चुका होता था। सृष्टि हरियाली का आवरण पहन लेती। पेड़-पौधे, नन्हीं घास, छोटे बिरवे सब बारिश में धुलकर नवीन हो जाते । इस समय भी कुछ ऐसा ही रंग सृष्टि ने बिखेर दिया था। आसमान में नन्हें बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े इस प्रकार उड़ रहे थे जैसे श्वेत खरगोश के बच्चे आकाश में क्रीड़ा़ कर रहे हों।
मैं सावन ऋतु में अपने चारों ओर बिखरी हरियाली और शीतल हवाओं का आनन्द लेती हुई चलती जा रही थी। दीदी भी मेरे साथ ही चल रही थी। दीदी का ध्यान खुशनुमा मौसम की ओर नही बल्कि कहीं और था। चेहरे पर उदासी के वही भाव थे। पूछने पर दीदी कुछ बताती भी तो नही। ’ कुछ नही कोई बात नही ’ कह कर मुझे चुप करा देती है। मैं विवश थी। न कुछ समझ पाती, न दीदी मुझसे कुछ बताती। मैंने भी दीदी को उसी नये रूप में स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया।
उजले, चंचल वे युवा दिन.........किसी परीन्दे की भाँति शीघ्रता से उड़ते चले जा रहे थे। इन दिनों मुझे सब कुछ अच्छा लगता। शीत ऋतु की गुलाबी धूप, फाल्गुन माह के इन्द्रधनुषी रंग, सरसों के खेतों से होकर आती वसंत की मादक हवायें, सावन के उड़ते बादल , बारिश में भीगता घर आँगन, आम और महुए की गन्ध में लिपटी गाँव की कच्ची सड़कें, यहाँ तक कि तीव्र गर्मी में खिलते गुलमोहर, पलाश व अमलतास के पुष्प.....सब कुछ। इन दिनों मुझे सब कुछ अच्छा लगता।
मैं सोचती कि जीवन यदि इतना खूबसूरत होता है तो लोग क्यों कहते हैं कि जीवन दुख देता है? कौन-सा दुख देता होगा जीवन....? .क्या दुख होता होगा जीवन में...? ये सब कुछ मेरी समझ से परे था। मैं समझना भी नही चाहती थी। समझने का प्रयास करूँं भी क्यों?........क्यों? जीवन की नकारात्मकता की ओर मैं क्यों आकृष्ट होऊ? होता होगा जीवन किसी अन्य के लिए पीड़ादायक, मैं क्यों उस बारे में सोचू?
मैं और दीदी कॉलेज से घर व घर से कॉलेज आते-जाते अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहते। मैं दीदी के आस-पास रहती। आखिर क्यों न रहूँ? दीदी मेरी आदर्श हैं। मैं दीदी के पदचिन्हों पर चलना चाहती हूँ। दीदी के व्यक्तित्व का ऐसा कोई हिस्सा नही है, जो मुझे अच्छा न लगता हो। दीदी का बाह्नय रूप तो अच्छा है ही.....इसके अतिरिक्त दीदी में घर के कार्यों को सीखने की ललक, पढ़ने में मेधावी, सबसे मधुर वाणी में बोलना ये दीदी के व्यक्तित्व के ऐसे गुण हैं जो सभी में नही होते। जो भी उसके सानिंध्य में होता, वो उसकी प्रशंसा करता। उसकी शालीनता व समझदारी सभी को अच्छी लगती।
दीदी मुझे बहुत अच्छी लगती। मैं उसके जैसा बनना चाहती हँू। वो सब कुछ मैं करना चाहती हूँ जो दीदी करती हैं। उनके बालों का वो स्टाईल, जिसमें कभी बालों को समेटकर सीधे-से पोनीटेल के रूप में बाँध लेना, तो कभी यूँ ही कंधे तक बालों को खुला छोड़ देना। नीली चेक की बलबाॅटम पर गोल कट का कुर्ता, या चूड़ीदार के साथ घुटने तक लम्बा कुर्ता या कभी सलवार के साथ फुल साईज लम्बा कुर्ता।
दीदी की प्रत्येक बातों की, फैशन की, उनके जैसा दिखने की, पढ़ाई में भी उनके जैसा अग्रणी रहने की.... मैं नकल करने का प्रयत्न करती। ......किन्तु इन दिनों दीदी के चेहरे पर पसरी उदासी मुझे तनिक भी अच्छी न लगती। मुझे तो हँसती-चहकती दीदी ही अच्छी लगती है, जो आजकल कहीं गुम हो गयी थी।
माँ दिन भर घर के कार्यों में व्यस्त रहतीं। उन्होंने कदाचित् इस ओर ध्यान नही दिया कि उनकी बेटी आजकल क्यों उदास रहती है......क्यों उदिग्न रहती है? उन्हें सभी बच्चों की देखभाल के साथ घर के कार्य भी करने होते। फिर यह सोच कि लड़कियों को खाने-पीने, रहने-पढ़ने के लिए सभी सुविधायें मिल रही हैं, तो उन्हें जीवन में और क्या चाहिए? क्या कमी हो सकती है? क्या परेशानी हो सकती है? कुछ भी नही। इसलिए माँ दीदी की ओर से निश्चिन्त थीं। मुझे भी इतना क्या सोचना? क्यों मैं दीदी में आये इस परिवर्तन गम्भीरता से देख रही हूँ? मैं बेवजह ही चिन्तित हो रही हूँ। ये भी सम्भावना है कि दीदी में आये इस परिवर्तन का कोई विशेष कारण न हो। मैं ही बेवजह चिन्ता कर रही हूँ। किन्तु दीदी को इस प्रकार उदिग्न व उदास देखकर मुझे अच्छा नही लगता।
माँ के दिनभर व्यस्त रहने व बच्चों में आये इन छोटे-छोटे परिवर्तनों को न देख पाने का एक कारण यह भी था कि पडरौना का यह मकान बड़ा था। इस मकान की देखभाल, साफ-सफाई में ही माँ का अधिकांश समय व्यतीत हो जाता। घर के अधिकांश कार्य माँ को ही करने होते।
अब जब कि हम कुछ बड़े हो गये थे। काम करने लायक हो गये थे, माँ का कुछ हाथ बँटा देते थे, किन्तु घर-गृहस्थी की धुरी माँ ही थीं। घर चलाने का पूरा उत्तरदायित्व माँ का था। बाबूजी अधिवक्ता थे तथा दिन भर कोर्ट में मुवक्किलों के साथ व्यस्त रहते तथा शाम को घर आकर चाय पीने के पश्चात् बाहर के कमरे में बने अपने काम करने के कक्ष में बैठते क्यों कि शाम को भी उनसे मिलने-जुलने वाले आते रहते।
बाबूजी की व्यस्तता के कारण माँ के ऊपर घर व बच्चों का पूरा उत्तरदायित्व था। दो मंजिलों का यह बड़ा-सा मकान जिसके एक हिस्से में पापा का तथा दूसरे हिस्से में पापा के बड़े भाई अर्थात ताऊजी का परिवार रहता था। हमारे तथा ताऊजी के घरों के हिस्से बीच में दीवार बनाकर अलग कर दिये गये थे। कभी ये घर एक बड़ा-सा एक घर रहा होगा। कदाचित् दादा जी के समय, जब वो जीवित रहे होंगे।
दोनों घरों की बड़ी छत अब भी एक ही थी। किन्तु छत के नीचे के मकान के दो हिस्से हो गए हैं। ताऊजी के दो बेटे थे। बेटी नही थी। दोनो बेटे हमारी उम्र से कुछ बड़े थे। वे भी पडरौना के उस समय के एक मात्र इण्टर कॉलेज उदितनारायण इण्टर कॉलेज में पढ़ते थे। आते-जाते कभी कॉलेज में तो कभी मार्ग में वे दिखाई देते किन्तु हमें देखकर भी हमें पहचानते नही।
ताऊजी के परिवार के लोगों से हमारे परिवार की बातचीत नही होती थी। उनके घर की बातें, हालचाल बस इधर-उधर से कहीं से पता चल जाती थीं। जब हमने इण्टर की कक्षा उत्तीर्ण कर उदितनारायण डिग्री कॉलेज में स्नातक की शिक्षा के लिए प्रवेश लिया तो ताऊजी के लड़के हमें वहाँ दिखाई नही देते। बाद में पता चला कि उन्होंने इण्टरमीडिएट से पहले ही पढ़ाई छोड़ दी है।
ठीक ही था। आखिर वे और पढ़कर करते भी क्या.....उनके अनुसार पढ़ाई मात्र नौकरी करने के लिए की जाती है। उन्हें नौकरी करनी नही थी। उनकी रूचि भी राजनीति में ही थी। ताऊजी के कारण उन्होंने राजनीति की शक्ति का सुख बचपन से उठाया था। अतः राजनीति ही उनका परिवारिक व्यवसाय था, जो उन्हें करना था।
उन दिनों हम सर्दियों की दोपहर तथा गर्मियों की शाम का अधिकांश समय छत पर व्यतीत किया करते थे। हम ही क्यों अधिकांश घरों के लोग ऐसा ही करते। सभी के अपने घर होते थे, जो ठीकठाक बड़े होते थे। सबकी अपनी छतें होती थीं। सभी की शाम और दिन ऐसे ही व्यतीत होते थे। आज की भाँति फ्लैट कल्चर विकसित नही हुआ था। खुले घर होते थे तब।
गर्मियों की शाम जब कभी पुरवाई चलती तो हम ऐसे मनोरम मौसम में नीचे नही जाना चाहते, तथा अपने-अपने बिछौने डालकर छत पर ही सो जाते। मैं और दीदी आसमान में तारों में विभिन्न आकृतियाँ बनाते हुए देर तक जागते रहते। चलते हुए तारे........टूटते हुए तारे.....तारों से जगमग आकाश का विशाल परिदृश्य देखते-देखते हम न जाने कब हमारी आँख लग जाती।
पडरौना के होली जैसी होली मैं अब तक कहीं नही देखी। प्रकृति और मनुष्य के मध्य सामंजस्य बैठाता हुआ ये पर्व पूर्वाचंल का अत्यन्त खूबसूरत पर्व था। फागुन माह के वो दिन जब सर्दियाँ ढलान पर होती। किसी युवती के पायल की रून-झुन सी खनक हवाओं में घुलने लगती। वसंत पंचमी को गाँव, मुहल्लों, चैराहों, बाजारों आदि सार्वजनिक स्थानों सम्मत के रूप में पूजा कर अरंडी की बड़ी-सी टहनी गाड़ी जाती। उसी स्थान पर होली तक सभी के सहयोग से लकड़ियाँ इकट्ठी होती रहतीं।
बच्चे घरों से मांग-मांग कर लकड़ियाँ, उपले, कंडे आदि लाते तथा होली की सम्मत में डालते। साथ ही होली के गीत भी गाते। होली के कई दिनों पूर्व से ही नन्हें हुरियारों की टोलियाँ प्रतिदिन शाम को लकड़ियाँ मांगने निकलती। सुबह-शाम अमराईयों से आती हुई कोयल की कूक मानोे होली आने का संदेश देती प्रतीत होती। आम की मंजरियों और महुए की सुगंध से हवाएँ महक उठतीं।
दूर-दूर तक फैले गेहूँ के खेतों में झूमती हरी बालियों में संग सरसों के पीले पुष्प लहलहा उठते। ऐसा प्रतीत होता जैसे रातों- रात किसी ने धरती पर बिछी हरी कालीन को पीले पुष्पों से सुसज्जित कर दिया हो। सडकों, मेड़ों पर पंक्तिबद्ध रूप से स्वतः उग आये सेमल, पलाश, गुलमोहर के वृक्ष फूलों से भर जाते। ये उपेक्षित वृक्ष धरती पर एक अवर्णनीय छँटा बिखेरते। होली में हुरियारों की टोलियाँ जब फाग गाते हुए निकलती और घर-घर, दरवाजे-दरवाजे जाकर बड़े-बुजुर्गों का अर्शीवाद लेतीं, सब एक दूसरे से गले मिलते तो ये पर्व समरसता का पर्व बन जाता।
ये हुरियारे छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब, जात-पात किसी बात का फर्क नही करते। घर-घर बनते पकवानों गुझिये, मालपुये आदि की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित हो उठता। इधर की प्रथा के अनुसार प्रथम होली मनाने विवाह के पश्चात् जब लड़कियाँ मायके में आतीं उस समय होली के रंगों में मिलन और विरह का रंग भी घुल जाता। माँ के घर में रह रहीं बेटियों के लिए फागुन की हवायें शुष्क लगतीं तो ससुराल में नव विवाहित युवतियों को वसंत की मादकता भरी प्रतीत होतीं।
गोरिया करी के श्रंगार
अंगना में पीसेली हरदिया
कहवाँं के बाटे सिल-सिलबटिया
कहवाँ के हरदी पुरान हो
गोरिया करी के श्रंगार......
नइहरे के हउए सिल-सिलबटिया
ससुरा के हरदी पुरान हो
गोरिया करि के श्रंगार
अंगना में पीसेली हरदिया......
हुरियारों द्वारा गये गीत में व्यक्त विरह और मिलन के भाव हृदय में उतर जाते। उनकी स्वारलहरियाँ देर तक हवा में तैरती रहतीं। होरियारों की टोलियों द्वारा नर्तन और गायन होली पर्व की की समृद्ध परम्परा का प्रतीक है। यह परम्परा जीवित रहनी चाहिए। जीवित रहेगी भी या नही कभी-कभी मन में यह आश्ंाका उत्पन्न होती। ऐसी आशंका का कारण यह था कि नयी पीढ़ी इन परम्पराओं को दूर से देखती, इसका अनन्द लेती है। किन्तु इस कला को सीखने या इसमें प्रतिभाग करने के प्रति उदासीन लगती। जो भी हो, यह परम्परा बची रहेगी या विलुप्त हो जायेगी, यह समय के गर्भ में है।