Circus - 13 in Hindi Moral Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | सर्कस - 13

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सर्कस - 13

                                                                                             सर्कस : १३

 

          आज तो मुझे छुट्टी थी, तीन महिने के बाद एक छुट्टी जादा दी जाती।  अरुणसर के साथ उस दिन मिटिंग रहती थी। अगले विभाग का चुनाव इस मिटिंग में किया जाएगा। पहले तीन महिने कैसे गुजर गए पता ही नही चला। मेकप की कला, वहाँ काम करनेवाले लोगों की मानसिकता इस बारे में अब थोडा बहुत जान गया था। स्टेज परफॉर्मन्स, डॉग शो के सब खेल मैं सीख गया। बारिश की वजह से शो में जादा भीड नही रहती थी। एक-दो बार तो इतनी बारिश आ गई की शो रद्द करना पडा। जुलै महिने में जो भी गाँव जाना चाहता, वह जा सकता था। घर जाने के लिए छुट्टीया मिल जाती। सर्कस के लोगों के लिए यह महिना आरामदायी था। बीच में पिताजी ओैर चाचाजी मुझसे मिलने आए थे। खत लिखने का सिलसिला तो जारी ही था। विनीत, राधा, भाई-बहन सबके खत आते-जाते रहते। एक बार अरुणसर के केबिन में रखे फोन से माँ, दादा-दादी से भी बात की थी। राधा ओैर मेरे खत की शृंखला हम दोनों को ओैर भी नजदिक ला रही थी। जिस दिन राधा का खत आता वह पुरा दिन जादुई ओैर रंगीन लगता। काम का टेंशन कम होने के कारण अब मैंने पढाई पर जादा ध्यान देना शुरू किया। सर्कस के ऑफिस में एक अकाऊटंट थे, उन्होने मुझे अकाउंट पढाना शुरू किया। पढाई में कुछ समस्या आ जाती तो मैं सीधा उनके पास चला जाता। उन्हे सब नेनेचाचा बुलाते थे। गोरे-चिट्टे, काम में परफेक्ट।  कोई भी आदमी कही गलती करे, तो पहले उसे नेनेचाचाजी की डाँट सुननी पडती फिर वह प्यार से गलती सुधारने का मोका देते। सब लोगों के उपर उनकी तीक्ष्ण नजर हमेशा रहती थी। उनसे किसीने भी, कोई भी मदत माँगी तो वह आदमी कभी खाली हाथ नही जाता। यहाँ के बच्चे, युवावर्ग के पढाई में कभी बाधा न आए इसके प्रती वह हमेशा जागरूक रहते थे।

      नेनेचाचाजी के बारें में बहुत सारी अफवाए फैली हुई थी। इंग्रज लोगों के खिलाफ काम करने के लिए उन्होने सर्कस का सहारा लिया। स्वातंत्रवीर सावरकर के वह अनुयायी थे। सर्कस के माध्यम से घुमते-फिरते गाव-गाव में गुप्त संदेश पहुचाने काम करते थे। भूमिगत कार्यकर्ते लोगों को संरक्षण देना, उनको जोकर के भेस या बाघ के हुलीए में छिपाकर पोलिस से बचाना, शस्त्र पहुँचाना ऐसे काम करते थे। एक एंगरेज की हत्या भी उन्होने की है ऐसी लोग बाते करते थे। स्वातंत्र तो भारतमाता को मिल गया लेकिन जिस सर्कस द्वारा जंग में हिस्सा लिया, उसके प्रती वह हमेशा कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जीवनभर सर्कस में रहने का निर्णय उन्होने लिया था। कॉलेज के दिनों में ही स्वातंत्र संग्राम में हिस्सा लेने के कारण उनकी शिक्षा भी अधुरी रह गई थी। खुद की जान का भरोसा नही था इसलिए शादी भी नही की थी। सर्कस में जो बच्चे है वह अपने ही मानकर वह चलते। उनके शिक्षा, आरोग्य पर ध्यान रखना, जब जरूरत पडे तब पैसों की मदद करना, समुपदेशन करना सब तरह की सहायता वह हमेशा करते रहते। छोटे बच्चों से उनको बडा लगाव था। निष्पाप बच्चे, मन के बडे सच्चे होते है, उनके संग रहते हुए हम भी एक निरामय जीवन का अनुभव करते है ऐसा उनका मानना था। पोषक आहार, कसरत, मेहनत, करने से जीवन का आनंद, यश तुम्हारे पैरों पर आकर गिरता है ऐसी बाते वह सबको बताते रहते। कोई भी क्षेत्र के बारे में उनसे पुछो, सब तरह की जानकारी उन्हे रहती थी। सर्कस का अविभाज्य बने नेनेचाचाजी सबके जीवन में किसी ना किसी रुप में समाए हुए, सर्कस का आधारस्तंभ थे। अरुणसर का बलाढ्य आधार, पिताजी जैसा स्नेह, सखा, सहकारी, दादाजी जिसको जिस रुप में वह भाते वह उसी रुप में रिश्ता बना लेते। जब मैंने दादाजी को खत लिखा तब नेनेचाचाजी के बारे में बहुत कुछ लिखा था, वह पढकर दादाजी ने जबाब में लिखा जब तुमसे मिलने आऊँगा तब उनसे जरूर मुलाकात करूँगा।

      विचारों की शृंखला खतम होने का नाम नही ले रही थी, लेकिन मैं उठ गया। अगले तीन महिने बाद कॉलेज के प्रथम सत्र इम्तहान होनेवाले थे, तो तब मैं अल्मोडा जानेवाला था। कॉलेज इम्तहान के बाद दिवाली की तीन दिन छुट्टी अरुणसर ने पहले से ही मंजुर कर के रखी थी। वैसे देखा जाय तो दिवाली मतलब सर्कस के तेजी के दिन। दिवाली के वक्त घर आए मेहमानों को लेकर सर्कस देखने जाना यह तो सबका पसंददिदा प्रोग्राम था। तब किसी को छुट्टी नही मिलती, सिर्फ पाठशाला ओैर कॉलेज के इम्तहान के वक्त थोडी अडजेस्टमेंट की जाती, पर शोज शुरू ही रहते। जलदी-जलदी तैयार होकर मैं धीरज के साथ नाश्ते के लिए गया। धीरज का अगले महिने झुले का खेल समाप्त होकर बाद में उसे जानवरों के खेल प्रशिक्षण में चुना गया था। नाश्ता खतम करके धीरज कसरत सराव के लिए गया ओैर मैं अरुणसर के ऑफिस की तरफ मुडा। सर फोनपर किसी से बात कर रहे थे तो उन्होने मुझे कुर्सी के तरफ इशारा करते हुए बैठने के लिए कहा। अरुणसर का मेरे उपर पुरा ध्यान रहता है यह बात तो मैं जान चुका था। पहले दिन के स्टेज परफॉर्मन्स से लेकर नेनेचाचाजी से पढाई तक उन्हे सब पता था। कभी शब्दों से तारीफ करते तो कभी आँखों से प्रोत्साहन देते। बात खतम होने के बाद वह बोले “ हा श्रवण, कैसा है ? कैसे रहे यह तीन महिने ?” यह मिटिंग लगभग दो-ढाई घंटे चलती रहती तो बीच में राजू चाय-बिस्किट का ट्रे रखकर चला गया। यहाँ का अब तक का अनुभव तो अच्छाही था, मेरा ना किसी से झगडा था ना किसी के बारे में, मैं कभी उल्टा-सीधा बोलता था। मनुष्य का अनुभव अपने बरताव से अलग-अलग आता है, किसी ने कह दिया यह आदमी अच्छा नही है तो भी उसके अनुमान पर भरोसा करते हुए हमे गलत व्यवहार नही करना है, वैसा अनुभव अगर हमे भी आ गया तो ही यकीन करते हुए उस आदमी से दूर रहना है झगडना नही। किसी के भी सामने, किसी के बारें में बुरा नही बोलना है, पता नही सामनेवाला कब पलट जाय ओैर बात का बतंगड बना दे, संभलकर रहना ऐसी बाते दादाजी ने मुझे बताकर रखी थी। मैं कभी किसी के बारें में उल्टा-सीधा नही बोलता, किसी का मजाक नही उडाता यह बात सब जान गए तब से मेरे बारे में लोगों का सोचना आदरयुक्त हो गया। अपने मन की बात वह आसानी से मुझे बताने लगे ओैर दिल हलका करने लगे। यह बात अरुणसर जान गए थे।

      “ श्रवण, आशा करता हूँ तुम्हारा तीन महिनों का अनुभव अच्छा ही रहा होगा, लेकिन किसी विभाग में कुछ कमिया नजर आयी है ? तुम्हारे विचार से कुछ अलग योजनाए बननी चाहिये ? नई मेकप टेक्नॉलॉजी के बारे में कही कुछ पढा है क्या ? कहाँ हम समय बचा सकते है इस बारे में कुछ सुझाव है ? स्टेज परफॉर्मन्स में तुमने जो खेल सीखे, किए उसके सिवाय कुछ नई कल्पनाए सुझी है ? आगे कौनसा परफॉर्मन्स तुम करना चाहोगे ?”

     अरुणसर की प्रश्नावली सुनकर जरा झिझक गया। मैंने कहा “ सवाल तो आसान है लेकिन थोडा विचार करने के बाद एक-एक जबाब देता हूँ।”

   “ कोई बात नही, मेरा थोडा काम खतम करता हूँ तबतक तुम सोच लेना।” दस मिनिट के बाद हम फिरसे बाते करने लगे। “ सर मुझे जितना समझ आ गया है उतना बताता हूँ। मेकप डिपार्टमेंट में कुर्सिया ओैर आएने इसमें थोडा ताल-मेल बढाना चाहिए ऐसा मुझे लगता है। फेवरिझम इस बारे में भी विचार करने की जरूरत है। कुछ लोगों का मेकप अच्छे से किया जाता है तो कुछ लोगों का मेकप ऐसा-वैसा खतम कर देते है, कई लोगों को खुद मेकप करना जादा पसंद है तो उनको मेकप का अलग से सामान देना मुश्किल हो जाता है। मेकप करनेवाले चार लोगों के आस-पास अव्यवस्था फैलती है। कोई प्रयोग के कुछ मिनिटों पहले आता है ओैर जलदी मेकप की डिमांड करते है, ऐसे समय में जिसका मेकप शुरू है उसे हटाके, आए हुए लडके या लडकी का मेकप शुरू करना पडता है। तब तक दुसरे का किया हुआ मेकप सुखने लगता है ओैर मर्ज करना मुश्किल हो जाता है, फिरसे एक लेअर लगाना पडता है।”

    सर ने पुछा “ इस प्रश्न का कोई हल है तुम्हारे पास?”

   “ सर अगर सबको बेसिक मेकप सिखाया ओैर एक महिने का सामान उनके पास देकर रखा तो समय भी बच जाएगा ओैर वहाँ चार लोगों के उपर का प्रेशर भी कम हो जाएगा।”

   “ तुम्हारा यह कहना ठीक है लेकिन इस बात के उपर ओैर विचार करना जरूरी है। हर एक को बेसिक मेकप सिखाकर सामान उन्हे दिया फिर भी कोई गॅरंटी नही की पुरा  महिना वह सामान चला लेंगे, बीच में खतम हुआ तो फिरसे वह देना पडेगा क्युं की स्टेज पर प्रकाश योजना में मेकप अच्छे से दिख जाता है, ओैर एक बात सबको अलग मेकप का सामान देना मतलब उसकी छोटी डिब्बीया बनानी पडेगी, अपना सामान तो होलसेल से बडे-बडे कंटेनर में आता है। तो यहाँ आर्थिक नुकसान भी होगा। लेकिन तुम्हारी एक बात मान सकते है, बेसिक मेकप विभाग में होगा ओैर लिपस्टिक, आयमेकप अपना-अपना कर सकते है उस में कुछ खर्चा नही बढेगा ओैर मेकप विभाग का काम भी थोडा हलका हो जाएगा।”

    मेरा कहा सुनकर सरजी ने जो मार्ग निकाला, इससे जादा खुषी इस बात की हुई की मेरे विचारों पर उन्होने गौर किया। वास्तव में वह उपयोगी होगा या नही इस बारे में तो कुछ जानता नही था।

    “ सर, डॉग शो के लिए मेरे पास एक आइडिया है, जब हम छोटे थे तब चाचाजी के कुत्तों के साथ एक खेल खेलते थे। ताश के पत्तों का खेल था वह। एक पत्ता कुत्ते को दिखाकर, छोटे बच्चों के हाँथ में उस पत्ते के साथ बाकी पत्ते भी रख देते, उसे दिखाया हुआ पत्ता वह बराबर ढुँढ निकालता था। बाद में चाचाजी ने उसके बारे में की हुई ट्रिक बतायी, जो पत्ता कुत्ते को दिखाते थे उसपर थोडा इत्तर छिडका हुआ रहता था। उसे सुँघ लेने से वही पत्ता ढुँढ लेता। चाचाजी ने उसे यह ट्रिक सिखायी थी।”

    “ हाँ यह खेल तो अच्छा है। तुम विक्रमभाई से बात कर लेना। अब नए विभाग के बारे में बात करते है। कहाँ काम करना पसंद करोगे ?”

    “ आप ही बता दो सर।”

    “ मेरे हिसाब से अब तुम सिलाई विभाग में काम करोगे तो अच्छा रहेगा। बारिश के मौसम में उस विभाग में जादा काम रहता है। इस महिने में हर एक के लिए दो जोडी सर्कस के कपडे सिलाकर दिए जाते है। वही सालभर पहनने का नियम है। धंदा कम रहने की वजह से सर्कस कभी-कभी बंद रहती है तो इस समय लोग भी खाली बैठे रहते है। सब बाकी कामों का व्यवहार बारिश के महिने में शुरू रहता है, जैसे सिलाई, सारे मशीन्स की देखभाल, दुरुस्ती, पार्ट बिठाना, यह सब तुझे परफेक्ट आना चाहिये ऐसा जरूरी नही लेकिन वहाँ कैसे काम चलता है, कौन-कौन से काम रहते है, कौनसे प्रॉब्लेम्स आते है, एक ड्रेस सिलाने के पीछे कितनी मेहनत लगती है, उसके पीछे काम करनेवाली यंत्रणा, ड्रेस के डिझाईन्स, उसे पुरा करने के लिए लगनेवाला सामान यह सब देखके रखना। इसे तुम जान जाओगे तो आगे चलकर कोई तुम्हे फँसा नही पाएगा। इसके सिवाय तुम अब जानवरों को पानी देने का काम भी शुरू करो, आपस में पहचान होने का यही तरीका है। खाना-पीना देनेवाले लोगों को जानवर अच्छी तरह से याद रखते है ओैर दोस्ती भी करते है। बचपन में साइकिल पर भी कुछ करामत की होगी, अब वही स्टेज पर दिखाना भी तुम शुरू कर सकते हो। तुम्हारी पढाई कैसे चल रही है ?”

     “ पढाई तो अच्छे से चल रही है। नेनेचाचाजी इकॉनॉमिक्स, अकाऊंटस सिखाते है तो अब वह समझ में आने लगा है। बाकी विषय मैं पढकर समझ जाता हूं या नेनेचाचाजी से पुछता हूं।”

     “ गुड। कुछ लोगों से अनबन है ? कोई शिकायत है ? मानसिक रुप में कोई तकरार है?”

    “ नही सर, मेरी शरीरयष्टी देखकर कोई मुझसे पंगा नही लेता ओैर मैं भी ऐसी किसी से बात नही करता की सामनेवाले को दुःख पहुँचे। बाकी हमारा ग्रुप तो साथ में ही रहता है।”

    “ ठीक है, आज छुट्टी एन्जॉय करना ओैर कल से काम शुरू कर देना। अच्छी प्रगती कर रहे हो। बीच में फिर से तुम्हे बात करने के लिए बुला लुंगा।” अरुणसर से बाय कहते हुए मै बाहर आ गया। तब तक बाकी सब अपनी प्रॅक्टिस खतम कर के आ रहे थे, उनके साथ मैं भी चल पडा।

      खाना खाते वक्त अरुणसर से जो बात हो गई उसके उपर चर्चा चल रही थी। इस बार सिलाई विभाग में काम करना है यह बता दिया, तो पिंटू ने कहा “ हाँ यह तो सिलाई का सीजन है। हर एक को अपना काम संभालकर सिलाई विभाग में भी काम करना पडता है। दोसौ लोगों के तीन-तीन जोडी ड्रेस सिलने के लिए दो महिने दिन-रात सिलाई मशिन चलती रहती है।” सबने खाना खतम किया ओैर अपने-अपने काम में लग गए। धीरज देर से आया था तो उसका खाना अभी तक चल रहा था तो हम गपशप लगाते रहे।

     “ इस विभाग के शरद दर्जी मुख्य है। उनके यहाँ बहुत लोग काम करते है। शरदजी के बारे में तुम्हे रात को बताउंगा।” धीरज ने कहा। हम वहाँ से जा ही रहे थे तो मन्या दौडते हुए आया ओैर कहा “ श्रव्या, अभी तुम्हे कुछ काम नही है ना ? जॉनभाई को कोई मदत के लिए चाहिए, उनके गाडी का एक पार्ट गॅरेज से लेकर आना है तुम जाओगे क्या उनके साथ?” हाँ चलो कहते हुए मैं, मन्या के साथ जॉनभाई के यहाँ गया। इतने दिन में जॉनभाई के साथ थोडी बहुत पहचान तो हो गई थी, मुझे देखते ही उन्होने दुर से ही हाथ हिलाया ओैर बाइक के पास आने का इशारा किया। बाइक से हम दोनों शहर की तरफ निकले। जीप स्टंट खेल की बारी आने से पहले वापिस आना था इसलिए जॉनभाई फास्ट बाइक चला रहे थे। बहुत दिन के बाद बाहर के माहोल में आने के कारण कुछ खुला-खुला महसुस कर रहा था। हमेशा का बंधन भरा जीवन कही उब जाता है फिर दो दिन खुले आसमान के नीचे, बिना बंधन के जीना सुखकर मालूम होता है, लेकिन दो दिन बाद अपना काम शुरू होना ही चाहिए अन्यथा आलस से भी जीना दुश्वार हो जाता है। ध्येय के बिना आलस मतलब एक मानसिक बिमारी की शुरुवात, फिर डिप्रेशन, गुस्सा इसके भाईबन्द बन जाते है। काम करनेवाले आदमी के आसपास कभी नैराश्य नही आता। खुब काम या पढाई करने के बाद एक-दो दिन की छुट्टी तो बनती है। मन में विचार चलते रहे ओैर आँखे शहर का नजारा देखती रही। सामानों से सजे दुकान, भीड में खोए रास्ते, गाडीयों का शोरगुल, बच्चों को पाठशाला लेकर जानेवाले माँ-पिताजी यह सब देखकर अच्छा लग रहा था। अचानक मेरी माँ की याद आ गई। पाठशाला ना जाने के लिए, किए हुए लाख बहाने याद आए ओैर मन में हँसी फुट गई। कितना निरामय जीवन था वह।

     बाइक एक गॅरेज के पास रुक गई। जॉनभाई ने बाइक एक बाजू में लगायी ओैर हम अंदर चले गए। वहाँ बैठे एक आदमी ने कहा “ आइये जॉनभाई, आपकी बॅटरी रिपेअर हो गई है।” उससे हँसकर बात करते उन्होने मेरी भी पहचान करा दी ओैर बोले “ श्रवण, ये है चौहान गॅरेज के मालिक।”

     “ जॉनभाई, लडका तो बडे घर का लगता है, कहाँ से हो बेटा?” मैने अपना परिचय बता दिया। जॉनभाई ने भी अब मुझे गौर से देखा, शायद पहले मेरी तरफ ठीक से ध्यान नही गया होगा। वह दोनो पार्ट ठीक से देखने लगे। कुछ देर बाद पार्ट लेकर हम वहाँ से निकल गए। “ श्रवण, चलो सामने के हॉटल में डोसा खाते है, अपने सर्कस के रसोईघर में ऐसा डोसा मिलना मुश्किल है।” वह पार्ट बाइक के करिअर को कसकर बाँध दिया ओैर चौहानचाचा को बताकर सामनेवाले हॉटल में चले गए। ऑर्डर देकर गप्पे लगाने शुरू किए।

    “ कितने दिन के बाद तुमसे मिलना हुआ, सर्कस के माहोल में एक बात तो अच्छी रहती है, हम भले अपना काम भला, इधर-उधर देखने को जादा समय ही नही मिलता। अपने घर को कैसे, एक बुजुर्ग आदमी सब रिश्तो को बाँध के रखता है वैसे अरुणसर सब के उपर ध्यान रखते है।” मैं सिर्फ सुनने का काम कर रहा था, इस विषय पर बात करने की ना उम्र थी ना तजुरबा। जॉनभाई के ध्यान में यह बात आ गई, फिर वह मेरे घर के लोगों के बारे में, पढाई के बारे में बात करने लगे। गपशप में डोसा कॉफी खतम कर दी। हम दोनों, एक बात समझ गए थे की अपनी वेव्हलेंग्थ मिलती है। अभी तक मेरे यहाँ के जीवन में यह तिसरी व्यक्ती थी की जिससे मेरा मेल जम गया था। अरुणसर, धीरज ओैर अब जॉनभाई। बाकी सब तो दोस्त थे। बॅटरी लेकर हम सर्कस पहुँच गए। जीप में बॅटरी बिठाने के लिए मदद की ओैर हाथ साफसुफ करते मैं बाहर आया।

     थोडा टाइम था तो अपने कमरे के ओर बढा। थोडा सामान ठीक करना था, कुछ चीजे खतम हुई थी तो वह भी लानी थी। पढाई के एक-दो कठीन भाग पढने ओैर समझने थे। पहले सामान की लिस्ट बनाकर फिर पढने बैठ गया। पढाई के बाद खाना खाकर सो गया। पता नही कितनी देर आँख लग गई। पहला शो खतम होने के बाद का शोरगुल सुनाई दे रहा था। मैं भी अब तरोताजा महसुस करने लगा। चिन्या के साथ रसोईघर पहुँचा। बहुत दिनों बाद गोदाक्का ने मिसलपाव बनाया था, ओैर गोदाक्का से ठीक से बात भी नही हो पाई थी तो उसी के पास बैठकर गपशप लगाते मैं खाने लगा। गोदाक्का कह रही थी “ श्रवण, हमारे जमाने में शाम के सात बजने से पहले घर वापिस आना पडता था। अगर कॉलेज के बाद टायपिंग क्लास के लिए देर हो जाती तो पहले ही दादाजी से अनुमती लेनी पडती, लेकिन अगर कही भी उनको शक आ गया तो वह खुद लेने आते थे।” गोदाक्का के बात करने के विषय कहाँ शुरू होते थे ओैर कहाँ खतम यह आज तक कोई नही जान सका। उसमें से एक धागा पकडकर मैने पुछा “ गोदाक्का, तुम कॉलेज तक पढी हो ? तो फिर यहाँ खाना क्युँ बना रही हो ? तुम्हारे जमाने में तो दसवी तक पढाई मतलब सरकारी नौकरी पक्की।”

     “ तुम्हे कैसे पता है हमारे जमाने में क्या होता था ? हाँ तुम्हारे घरवालों से पता होगा। तो मैं क्या कह रही थी, मुझे तो कॉलेज में डाला गया। नौकरी के लिए टायपिंग क्लास भी लगाया, लेकिन अचानक मेरे पिताजी चल बसे ओैर पुरे घर के हालात बिघड गए। छोटी बिमारी का बहाना हुआ ओैर घर का कमानेवाला गुजर गया। दादाजी इस घटना से बिलबिला उठे। माँ की हालत भी देखी नही जा रही थी। चार बच्चे, दादाजी के खेती का छोटा तुकडा इसमें अब कैसे गुजारा होगा यह समझ नही आ रहा था। भगवान की दया से पिताजी के जगह मेरे बडे भाई को नौकरी मिल गई ओैर हम खाने के लिए तो मौताद नही हुए। मुझे भी कही ना कही छोटी नौकरी तो मिल ही जाती लेकिन दादाजी ने मेरी ओैर बहन की शादी करने की जिद ठान ली। घर का भार अपने आँखों के सामने कम हो जाए तो अच्छा है यह बात उनके मन में बैठ गई थी। बुढापे में मेरी माँ का हाल ना हो जाए इसलिए उन्होने अपना घर ओैर खेती उसके नाम कर दिया था। सबसे छोटी बहन छटवी कक्षा में पढ रही थी तो हम सब भाई-बहन से शपथ दी की उसको सब मिलकर बहुत अच्छे से पढाएँगे। दादाजी के निर्णय ओैर कालमापन में कोई गलती नही थी लेकिन हम दो बहने बली का बकरा बन गए। नोकरी के भरोसे रहते परिवार की ठीकसे देखभाल नही होती ऐसे माननेवाले खेती ओैर व्यवसाय के उपर भरोसा रखनेवाले परिवार में मेरी शादी करा दी। हमारे परिवार का हित देखते हुए दादाजी ने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया ओैर मन में शांती लिए स्वर्गलोक सिधार गए। सब कुछ अच्छे से चल रहा था। मैं पढी-लिखी थी इसलिए पती के व्यवसाय में हाथ बटाने लगी फिर बच्चे हो गए। संसार बहुत अच्छा चल रहा था, ओैर एक दिन अचानक सब बिखर गया। हमारा गाँव एक नदी के किनारे बसा हुआ था। बारिश के मौसम में नदी का बाँध टुट गया ओैर पुरे गाव में बाढ आ गई। रात का समय था, किसी को कुछ समझ में आए उससे पहले लोग बहने लगे। जानवरों का तो हाल ही मत पुछो। घरदार गिरने लगे, हर कोई खुदको बचाने की कोशिश में था, खुद को सुरक्षित करने के बाद लोग दुसरों की तरफ मदद का हाथ बढाने लगे। रातोरात मेरा गाव भारत की नक्शा से गायब हो गया। मैं कमनसिब तीन दिन पेड पर अटकी रही फिर चौथे दिन सुरक्षा दल ने मुझे वहाँ से निकाला। मेरा पुरा परिवार बह गया था। सरकार ने जो लोग बचे थे उनके लिए फिलहाल साधे छोटे मकान बनाकर देने का फैसला किया लेकिन मकान बनने तक तुम कहा रहोगी ऐसे पुछा गया तो मेरे पास मायके जाने के अलावा कोई चारा नही बचा। मायके में थोडे दिन तो अच्छे से गुजरे, लेकिन हमेशा के लिए मैं यहाँ रहेगी तो कैसे यह डर शायद भाई ओैर भाभी को सताने लगा। उनका मेरे प्रति रवैया बदलने लगा, माँ के हाथ में भी कुछ नही था अब बुढापा तो उन्ही के सहारे काटना था। माँ के नाम पर घर ओैर खेती थी इसलिए कम से कम वह दोनो उसकी देखभाल तो कर रहे थे। दादाजी का निर्णय सही था। मेरा भी स्वभाव मानी, वातावरण में बदलाव नजर आते ही घर से बाहर निकल कर अपने बलबुते पर जीने की मैने ठान ली। पढाई ग्यारवी तक की थी लेकिन अब दुनिया बहुत आगे जा चुकी थी, मेरी पढाई अब किसी काम की नही रही फिर शादी के कॉंट्रॅक्ट लेनेवाले के यहाँ काम मिल गया। वहाँ खाना पकाने के लोगों में शामिल हो गई। फिर कई साल बाद अरुणसर से मुलाकात हो गई ओैर उन्होने सर्कस के रसोईघर सँभालने की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर सोंप दी। गाँव में मकान भी बन गया, दो कमरे मेरे लिए खाली रखकर बाकी किराए पर दे दिया। किराएदार भी अच्छा है। यह सब अरुणसर की कृपा।”

      गोदाक्का की कहानी सुनकर मैं तो सुन्न हो गया। दुनिया का कोई भी अनुभव मेरे पास नही था, सिर्फ ध्येय, आकांक्षा के परिपूर्ती हेतु घरौंदे से निकला हुआ सब से अनजान मैं अब दुनिया क्या चीज है यह देखने, सुनने लगा था। दुःख में कणखरता दिखाने वाली गोदाक्का समाज से लढी ओैर अपनी जिंदगी अच्छे से गुजारी। आगे चलकर इसकी जिम्मेदारी लेने वाला हूँ यह बात ध्यान में रखकर मैंने उसकी आँखे पोंछी ओैर कहा “ आपका यह पोता कभी साथ नही छोडेगा।” यह शब्द सुनकर आनंद, हर्ष ओैर खोई हुई ममताभरी उसकी आँखे सजल हो गई। मेरे माथेपर हाँथ फेरते हुए कहा “ हाँ रे तू तो मेरा पोता है। जीवनभर सुखी रहना ओैर सबके मन की बात जानकर उनकी सहायता करना।” ऐसा कहते हुए वह अंदर चली गई। अब दोनों में एक रिश्ता बन गया था। गोदाक्का की कहानी सब जानते थे ओैर उसे सब लोग अपने उम्र के हिसाब से प्यार, दोस्ती देते थे। स्टेज पर खेल शुरू थे ओैर जगत में भी खेल शुरू थे। शून्य मन से मैं पेड के नीचे बैठा रहा।

     कुछ देर बाद देसाईसर वहाँ आ गए ओैर अरुणसर का बुलावा देकर दुसरी तरफ चले गए। एक अजीब अवस्था में ही मैने ऑफिस में प्रवेश किया।

     “ श्रवण, क्या हो गया ? खिडकी से देखा तो उदास मन से तुम पेड के नीचे बैठे दिखाई दिए।” उनकी प्यार भरी बातों से मुझे अचानक रोना आ गया।

     “ चाचाजी, इस दुनिया में कोई सुखी नही है क्या ? हर एक आदमी दुःख की जंजिरों से जखडा हुआ मालूम पड रहा है।”

      चाचाजी ने मुझे गले से लगाया ओैर कहा “ श्रवण, जीवन में दुःख है वैसे सुख भी है, सिर्फ फर्क इतना की वह आते-जाते रहते है। भगवान किसी को खाली हाथ नही भेजता। अपने घर में भी ऐसी घटनाए घटती रहती है। किसी को घर के लोग सँभाल लेते है, तो किसी को बाहरवाले अपनाते है। दुःखी है इसलिए बिना कुछ किए खाली नही बैठ सकते, उसमें से सब आगे निकलने की कोशिश करते रहते है। सब से अच्छी बात यह है दुःख की, की वह सुख का आनंद क्या होता है यह बात समझाता है। बिना दुःख के तुम सुख अनुभव नही कर पाओगे। सब ठीक से चल रहा है, तो मन अपने ही जाल में फँस जाता है ओैर खयाली दुःखों की अनुभूती निर्माण करने लगता है। इससे अच्छा व्यक्ती को हमेशा कल्पनाशील, आशावादी, प्रयत्नशील होना चाहिए। दुसरों के दुःख-दर्द समझकर उनकी मदद करनी चाहिए। सर्कस ही क्या जगत का हर आदमी मतलब एक किताब है। हर एक की उसकी अपनी कहानी है। अभी तुम छोटे हो। इतनी बातें दिल पर मत ले लेना। लोग हार ना मानकर लढ रहे है ओैर तुम सुनकर रो रहे हो ? तुम उनका साथी बनना।”

     “ आपकी बात सही है चाचाजी अब मैं अपने मन पर काबू रखूँगा ओैर सबकी मदद भी करूँगा।” अब चाय का समय तो था नही फिर भी सर ने चाय मँगायी। वह पीने के बाद मन थोडा शांत हो गया।

      “ सर, मैं जरा घुमके आता हूं।”

      “ ठीक है, पर जादा देर मत करना।” मै हाँ कहते हुए वहाँ से निकल गया। दूर तक अकेला ही घुमता रहा। मन में विचार चलने लगे। दादाजी रामायण, महाभारत की जो कथाए सुनाते थे तो वह भी तो दुःखभरी थी। तब भी जीवन में समस्या रहती थी अब भी रहती है ओैर आगे भी रहेगी। जो जैसा है वैसा ही जीवन हमे जीना पडेगा। जीवन बेहतर बनाने की कोशिश तो करते ही रहेंगे हालात में जीना है या हालात से लढकर जीना है यह तो हम पर निर्भर है। मन थोडा अब शांत होने लगा। कही तो राधा की याद मन में उल्हास का तरंग लेकर आयी ओैर आनंद का अहसास दिलाने लगी। वापिस आकर देखा तो अरुणसर ऑफिस के खिडकी में खडे रहकर मेरी ही राह देख रहे थे। उनकी तरफ हाथ हिलाया ओैर मैं कमरे की तरफ बढा।

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