Swayamvadhu - 2 in Hindi Fiction Stories by Sayant books and stories PDF | स्वयंवधू - 2

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स्वयंवधू - 2

"...फिर से कहना?", मुझे एक पल के लिए अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ,
"अभी नहीं!", वह इतना शांत था जैसे कि वह इस जगह का मालिक हो।
(त-तुम! मैं जानती थी! मैं जानती थी! मुझे पता था ये मानसिक रूप से परेशान आदमी होगा!)
उसने वो दवाइयाँ मुझ कर फेंक दीं और वो वही उस कुर्सी पर जाकर बैठ गया।
(इस आदमी में रत्तीभर कि भी शर्म नहीं है। ऐसे ही बैठ गया?!)
दवाइयाँ मेरे हाथ में बड़ी लग रही थी।
थोड़ी देर बाद...
उसकी नज़र मुझ पर थी जैसे वो मुझसे कह रही थी कि इसे ले लो। मैं घबरा गयी, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मेरे पास एक तरीका था जिससे मैं इसे नकली रूप से ये ले सकती थी। मैंन गोली को दाँत के पीछे फंसा लिया और पानी का एक घूँट लिया और ऐसा किया जैसे मैं उसे पी रही थी। अचानक उसने मेरा मुंँह पकड़ लिया और तब तक बंद कर दिया जब तक मैंने उसे निगल नहीं लिया। पानी लगभग अटक गया था। मैं वहाँ साँस बटोरते हुए खाँस रही थी, वो मुझ पर व्यंग्यपूर्वक तरीके से हँसकर वापस अपनी जगह पर चला गया। मुझे धीरे-धीरे नींद आने लगी। मैं यहाँ ऐसे नहीं सो सकती थी, तो मैंने बाहर देखा...
बारिश बहुत तेज़ी से हो रही थी, "हाह! मौसम भी मेरा मज़ाक उड़ा रही है?", मैं अपने में बड़बड़ायी, इस हालत में बाहर एक कदम भी नहीं डाल सकते। (मैं ऐसे हालात में यहाँ से भागूँ कैसे?)
वो किताब पढ़ते हुए बोला,"अगर यहाँ से भागने कि सोच रही हो तो भूल जाओ।",
(इसे पता कैसे चला?) वह मुझे नहीं देख रहा था तो...कैसे? मैं दंग रह गई।
"म-मैं नहीं!", मैंने अंजान होकर कहा,
वो अपनी किताब बंदकर, "तुम्हारी लड़खड़ाती ज़बान सब बता रही है।",
"म-मेरी ज़-ज़बान कहाँ लड़ख-खड़ा रही है?", (ओह नहीं! मेरी ज़बान को अभी ही इतना नाचना था!)
"अहम! तुम्हारी तबियत ठीक लग रही है? यहाँ से भागने के बारे में सोच रही हो? फालतू के ख्याल छोड़ दो।", वह मुस्कुराता हुआ लग रहा था,
मैं नहीं जानती कि कैसे प्रतिक्रिया दूँ इसलिए मैं चुप रही। वो जा रहा था? मैं उसे ऐसे ही जाने नहीं दे सकती...
"रूको एक मिनट!",
वो मेरी तरफ मुड़ा और अपनी बेजान नज़रो से घूरकर मुझे घूरा।
(खुद पर काबू रखो वृषाली और बोल दो।) "म-मेरे (डरो मत बोलो!) डैडा और भाई के साथ क्या किया तुमने?",
(हाह...हाह! मैंने आखिर हिम्मत जुटा उससे पूछ ही लिया।)
"तुम-तुमने क्या किया?", मेरे आँसू अब बहना क्यों शुरू हो गए?
"आखिर क्या चाहिए तुम्हें हम आम लोंगो से?", मैंने उससे रोते हुए पूछा,
"मेरे सिर में चोट लगी...इतना कि मैं बेहोश हो जाऊँ? वो मेरी चिंता कर रहे होंगे और मैं यहाँ मूरत कि तरह पड़ी हुई हूँ। मैं क्या करूँ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा...", मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, मैं क्या करूँ, कैसे करूँ समझ नहीं आ रहा। वो कैसे होंगे, कही इसने कुछ उल्टा-सीधा ना हो गया हो! कही इसने कुछ....
(दवा ने शायद इसकी दिमाग में असर कर दिया है?)
(यही दिखाना ठीक होगा!)
"अगर तुम चाहती हो-",
सिसकना... सिसकना... सिसकना...
"तु-", सिसकना... सिसकना... सिसकना...
मैंने उसका कंधा पकड़ा और 'धप!' उसे हेडबोर्ड से चिपका दिया।
वो हिल गई!
मुझे रोने कि आवाज़ चिढ़ दिला रही थी,
(देखते है ये इस वृषा को कैसे झेलती है?)
उसका मुँह अपनी ओर खींचकर, "अगर अपने परिवारवालों कि सलामती चाहती हो चुप हो जाओ! वर्ना...", वो शांत होने कि कोशिश कर रही थी पर हो नहीं पा रही थी।
(वृषाली चुप हो जाओ! चुप हो जाओ! चुप हो जाओ! क्या तुम्हें अपने परिवार से प्यार नहीं!!) मैं जितना कोशिश कर रही थी उतना रो रही थी!
(चुप हो जाओ!... नहीं हो रहा!)
(ऐसे चलता रहा था तो पहला शिकार इसी बच्ची का होगा।) "अगर तुमने कल तक खुद को नहीं संभाला तो भूल जाना...तुम्हारा कोई भाई भी था।", (आह! मेरे शब्द कोई मतलब नहीं बना रहे है।)
जो भी हो, मैं उसे डरा कर वहाँ से जाने लगा...
(क्या!?) ज़्यादा डरो मत वृषाली तुम जो सामान्य तौर पर करती हो वो करो। गहरी साँस ले, "म-मैं तैयार हूँ! भाई-",
ये सुनकर जाता हुआ मैं रूक गया।
(इसकी आवाज़ अचानक इतनी स्थिर कैसे हो गई? मुझे चौंकना नहीं चाहिए।)
मैं बिना मुड़े, "अच्छा! तो पहला काम, जल्दी से ठीक हो या...", मैं कमरे से बाहर आ गया,
बाहर आकर फोन में, "दवा, क्या भावनाएँ बदल सकती है?",
"नहीं!", डाॅक्टर ने कहा, "पर लगता है उसका जादू-", 'कट!'
वो बेवजह कि बाते कर रही थी-
"...हाह! दाईमाँँ इसका ख्याल रखिएगा।",
"वृषा अब तो कुछ खा लो...और आराम कर लो। मुझे तुम्हारी चिंता सताएँ जा रही है।", दाईमाँ ने कहा,
"जी दाईमाँ।"
दूसरे दिन से वृषाली अपने स्वास्थ की चिंता करने लगी, और ठीक भी होने लगी।
(मेरे पास और कोई चारा नहीं!)
मैंने खुद पर काम करना शुरू किया और स्वस्थ होने लगी। उस बात को तीन-चार दिन हो गए। मुझे डर था कही उसने अपनी पागलपंति में कुछ ऊपर-नीचे तो नहीं कर दिया...हम उस दिन के बाद अब तक नहीं मिले। मैं इसी कमरे में कैद थी, मेरा बाहर जाना भी मना था।
(आज का नाश्ता भी मैंने इसी चार दीवारी में खाया।)
यहाँ मेरे लिए साँस लेना भी मुश्किल था, पर मुझे जीना होगा। अपने परिवार के लिए!
(कमज़ोर मत पड़ना वृषाली। तुम कर सकती हो!) इसी तरह खुद को दिलासा देकर दिन काट रही थी।
ऐसा नहीं था यहाँ मुझे प्रताड़ित किया जाता था...मेरा कमरा रोज़ साफ़ होता था, मेरे कपड़े रोज़ धुले हुए आते थे, मेरे लिए तीन वक्त का खाना वक्त से आता था वो भी पौष्टिक और मेरे स्वाद के अनुसार। सभी मेरे पसंद की थी, जिसने मुझे सोच में डाल दिया था कि ये संयोग होने के लिए ये संयोग के परे था। इतने संयोग हर घंटे नहीं होते। मुझे बहुत अजीब लग रहा था। मैंने उससे उस दिन के बाद से आज तक ना बात की ना उससे मिली, उससे पूछने के लिए मेरे पास बहुत सवाल थे, पर मौके एक नहीं थे।
(वृषा...यहीं नाम कहा था दाईमाँ ने? ये आदमी- हैरानी की बात है ये आदमी जितना डरावना है उतना नर्म दिल भी लग रहा था। आखिर ये चाहता क्या है?)
क्योंकि दूसरे ही दिन उसने भाई और डैडा कि तस्वीरें भेजी जिसमें वे घर में सही-सलामत थे।
"हाह!", मैंने लंबी साँस ली,
(आखिर इस आदमी कि परेशानी क्या है? आह...बहुत वक्त हो गया है मुझे ऐसे मानसिक प्रताड़ित हुए। उसे भी उतना-)
"...ली!"
"वृषाली!",
"ह-हाँ!", मैं चौंक गई!
मैं अपने सवालों के ख्यालों में खोई हुई थी तभी दाईमाँ वहाँ आई और मैंने ध्यान भी नहीं दिया।
"क्या सोच रही थी?" दाईमाँ ने पूछा,
(मेरी गर्दन कट जाएगी अगर मैंने कहा मैं इनके सरदार को तड़पा-तड़पाकर मारने के बारे में सोच रही थी।)
मैं हँसकर, " हे,हे,हे... कु-कुछ नहीं! बस ठीक होते हुए मौसम का मज़ा ले रही थी? वैसे भी इस चार दीवारी में करने के लिए और कुछ नहीं है ना।",
"बँद खिड़की से? बड़ी ही डरावनी प्यारी सी हँसी है तुम्हारी।", दाईमाँ कि टिप्पणी ऐसी ही खतरनाक होती थी, निर्दोष निगाह और धारदार ज़ुबा- दाईमाँ की ज़बा,
"धन्यवाद?", और इससे ज़्यादा क्या कह सकती थी?
"तुम अब बिना सहारे के चल पा रही होगी?", दाईमाँ ने पूछा,
"जी।", मैंने कहा,
"तुम्हारी चोट भी अपनी रफ्तार से ठीक हो रही है। खिड़की खोल लो, अच्छी हवा चल रही है।",
"जी।", मैंने खिड़की खोली।
"थोड़ी देर बाद एक सहायक आएगी और तुम्हें उसके साथ नीचे आ जाना है।", दाईमाँ ने निर्देश दिए ,
"जी।", और मुझे उसका पालन करना होगा।
इशश.....मुझे ऐसी ज़िंदगी से नफ़रत हो रही थी। वो वहाँ से चले गई।
खिड़की के पास खड़े होकर मैं बाहर कि तरफ देखकर यही सोच रही थी कि आखिर ये किस तरह का मज़ाक चल रहा था मेरे साथ?
मैंने जब कल पहली बार कमरे के बाहर देखा तो मुझे पता चला कि मैं पहली मंजिल में थी। (यहाँ से कूदने का भी फायदा नहीं। एक दो हड्डी टूटने के अलावा कुछ नहीं होगा, क्या फायदा?)
थोड़ी देर बाद मेरे दरवाज़े पर दाईमाँ के कहे अनुसार एक सहायक आया,
"वक्त हो गया है।", सहायक ने कहा,
"जी।", कह मैं उसके साथ जाने लगी,
रास्ते में उसके साथ जाते हुए मैंने देखा कि ये घर काफी बड़ा था,
(मेरा अंदाज़ा सही था। ये काफी महँगा सरफिरा लगता है?)
और मेरे कमरे के बगल दो और कमरे थे।
(बस ये कमरा उसका ना हो!)
मैं सहायक जी के साथ नीचे उतर रही थी, तब उसकी शक्ल देखकर मुझे बहुत ज़रूरी बात याद आई और वो ये थी कि, ये पूरा घर उस आदमी का था! मैं उससे मिलना चाहती थी लेकिन उसी वक्त उससे पूरे समय दूर भी रहना चाहती थी।
उसे देखकर,
(क्या मुझे कुछ कहना चाहिए?)
"अच्छा हुआ तुम आ गई। आओ वृषा के सामने बैठ जाओ!", दाईमाँ रसोई से बाहर आते हुए कहा,
(तो यह पक्का वृषा है...अरर्ग! इसका नाम मेरे जैसा क्यों है?)
मेरा सीधा जाकर उसके सामने जा बैठना ठीक नहीं, बेवकूफ दिखना ही ठीक होगा।
"कौन 'वृषा'?", मैंने ऐसे ही पूछा,
सब मुझे घूरे जा रहे थे जैसे मैंने किसी का खून कर दिया हो।
"मैं हूँ वो खुशनसीब, अब बैठ।", उसने मेरी तरफ देखा भी नहीं,
मैं चुपचाप सीधा उसके सामने वाली कुर्सी में जाकर बैठ गई। वो अपना कुछ काम कर रहा था। मैं वही बैठी थी।
"मैं जानता हूँ मैं बहुत अच्छा दिखता हूँ पर क्या तुम इसे रोक सकती हो?", उसने तो पहले बिना देखे मेरे ऊपर गलत इल्ज़ाम लगाया और अब खुद को खूबसूरत बता रहा था? वह अपने आप में इतना मगन था...(मुँह मिया मिट्ठू!)
"मेरा परिवार...वे कैसे हैं?", मैंने सवाल किया,
उसने अपना काम करना बंद कर दिया और गहरी नज़रों से देखते हुए कहा, "वे तुम्हारे बिना भी अच्छे हैं।",
उसने मेरे चेहरे पर कुछ तस्वीरें और चश्मा फेंक दिया। मैंने उन्हें उठाया और चश्मा पहना, उस समय मुझे अपमानित महसूस करते हुए रोने का मन हुआ।
(क्या?) मैंने देखा कि मेरा परिवार आराम से घर में रह रहे थे और तनावमुक्त दिख रहे थे। इन सभी में जो तारीख और समय लिखा गया था, वह महज दो दिन पहले की थी।
(वे मेरे बिना खुश लग रहे थे। अभी लगता है कि वे सही थे कि मैं उनके लिए बोझ हूँ।)
'मोटी भैंस!',
'कलंक! घर में मनहूसियत फैला रही है!',
'इसमे तो मेरा पूरा घर समा जाएगा।',
'बस दो बच्चे काफी थे। तुम पैदा ना होती तो ज़्यादा अच्छा रहता।'...
बच्चन के सारे ताने सुनाई दे रहे थे।
"क्षमा करें, क्या मुझे बाद में खाने की अनुमति है? मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है।", मैं यथासंभव अपने आँसू रोकने की कोशिश कर रही थी,
दाईमाँ जल्दी से रसोई से आई और चिंतित होकर पूछा, "हे भगवान! अचानक क्या हो गया?", वह बुखार या किसी और चीज़ की जाँच कर रही थी जो मुझे तकलीफ दे रही थी, बिल्कुल मम्मा की तरह... (इश! मैं रोने वाली हूँ।)
"मैं ठीक हूँ, बस अचानक हल्का सिरदर्द महसूस हो रहा है।", मैं उठी,
"बस बैठो और खाओ। अगर तुम जाना चाहती हो तो जो भी परोसा जाए वह सब खाओ फिर जाओ।", वह आँखों से बहुत गंभीर था।
मैं बैठी और खाना परोसा गया। यह स्वादिष्ट और पौष्टिक लग रहा था।
मैंने जैसे ही एक निवाला लिया... अप! मैं बाथरूम की ओर भागी! मैंने सुबह से जो कुछ भी खाया था, सब उगल दिया। फिर भी मेरा शरीर, मेरी आंत को बाहर निकालने पर आमादा था। कमज़ोर पैरों के साथ वॉशबेसिन के पास गयी, अपना चेहरा धोया और वही फर्श पर बैठ गयी। मुझे साँस लेने में दिक्कत हो रही थी, मैं ज़ोर-ज़ोर से हाँफते हुए साँस लेने की कोशिश कर रही थी और रो रही थी।
(मैंने किसी के साथ ऐसा क्या किया कि मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है?)
मैं ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी और जल्दबाज़ी में दरवाज़ा बंद करना भूल गई, कहीं मेरी आवाज़ बाहर ना चले जाए इसलिए मैं किसी तरह रेंग-रेंगकर शॉवर एरिया तक गई और शॉवर खोल दिया। शॉवर से बहते पानी मुझे इतनी ज़ोर से मुक्का मारा जैसे वहाँ मुझे वास्तविकता ने मारा, (मेरा परिवार मेरे बिना अधिक खुश है।) मुझे बस वो तस्वीरें दिखाई दे रही थी।
मुझे नहीं पता कि उन्हें मेरे बिना खुश देखकर मैं स्वार्थी हो रही थी या नहीं, लेकिन मुझे बहुत बुरा लगा। मैं हमेशा चाहती थी कि वे खुश रहें और मैं खुद भी उनके तनाव को कम करने के लिए हर संभव प्रयास करती थी, अंततः जब वे खुश दिखे तो मैं रो रही थी? मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं दुनिया की सबसे बड़ी स्वार्थी बेटी थी जिसे अपने माता-पिता की खुशी तक बर्दाश्त नहीं हो रही थी। (मैं सच में एक कलंक हूँ!)
"ऐसे बच्चे को तो पैदा होते साथ मर जाना चाहिए था!", मैं बहुत बुरी तरह रो रही थी,
मुझे फिर से उल्टी आने जैसा महसूस हुआ लेकिन इस बार यह मेरी जिंदगी थी। पानी की प्रत्येक बूँद मेरे लिए आलोचना के समान थी। "काश मैं उस दिन मर जाती...",
रोते हुए मुझे अपना बचपन याद आ गया। वह अन्य बच्चों से कुछ अलग नहीं था, सिवाय मेरी एलर्जी और कमज़ोरियों के। मैं हमेशा एक औसत बच्ची थी, मुझमें कोई प्रतिभा नहीं थी, मेरी शक्ल भी औसत थी और मेरी लंबाई भी औसत से कम थी, और मुझमें मेरी उम्र की अन्य लड़कियों की तरह कोई प्रतिभा नहीं थी, सिवाय इसके कि मैं खाना बना सकती थी। मैंने अपनी परीक्षा बड़ी मुश्किल से पास की... मेरे ग्रेड के साथ नौकरी की तलाश कठिन होता। जो होता अच्छे के लिए होता है अगर मैं वहीं रहती तो उनके लिए एक और अतिरिक्त मुँह का अलावा कुछ और नहीं होती। अच्छा ही हुआ उन्हें उस विषैले परिवार के एक बच्चे से मुक्ति मिली।
ऐसा सोचकर मुझे संतुष्टि का अहसास हुआ लेकिन फिर भी दुख था.....मैं पूरी तरह पानी में भीग गई थी और बहुत ठंड महसूस कर रही थी, यह मौसम की वजह से नहीं बल्कि अकेलेपन की वजह से था। "वृषाली तुम बहुत भाग्यशाली लड़की हो जो अपने परिवार को तुमसे आज़ादी दे पाई। वे उन बच्चों के साथ ठीक रहेंगे जो मेरे विपरीत, अपने लिए लड़ सकते हैं।",
मैं वहाँ बहते पानी से अपने मन और आत्मा को थोड़ी और ठंडक पहुँचाने के लिए शॉवर में थी, लेकिन मैं वहाँ इतने लंबे समय तक थी कि पानी की बूंदें अंदर तक बिजली की तरह चुभ रही थी। (पानी भी मेरी दुश्मन है।) यह दर्दनाक था और मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा था इसलिए मैंने बाहर जाने का तय किया। मैंने खुद को मजबूरन शॉवर बँद करने को कहा और उठने की कोशिश की, लेकिन मुँह के बल गिर पड़ी।
केर-चक! दरवाज़ा बँद होने की आवाज़,
मेरे पैर सुन्न हो गये थे। मेरा सिर दर्द से कराह रहा था, एक पल आराम करने के बाद मैंने दूसरी बार खड़े होने की कोशिश की, इस बार मैं खड़ी हो सकी मेरे कपड़ो से पानी टपक रहा था। मैंने थोड़ा बाहर झाँका, दरवाज़ा बँद था। मैंने अपने सारे कपड़े उतार दिए और ऊपर से दो-तीन डब्बे पानी डाल मैं तौलिये लपेट बाहर आने लगी तब मुझे खिड़की याद आई... वो भी बँद था...? पर मुझे इसे बँद करता हुआ याद नहीं था। मैंने अपने कपड़े बदले और सीधा लड़खड़ाते हुए बिस्तर पर लेट गई।
दूसरे दिन, मैं पक्षियों के ज़ोर से चहचहाने की आवाज़ से जागी। मेरे बाल सूखे थे और मैं चादर से ढकी हुई थी। मुझे याद नहीं कि मैंने अपने बाल सुखाये थे या खुद को ढका था?
खट-खट दरवाज़े पर कोई सहायक थे,
"सर ने आपको आपकी दवाइयों के साथ नीचे बुलाया है।",
"बस दस मिनट में आई।", मैंने उनसे कहा और वो वहाँ से चले गए।
मैंने शीशे में अपना चेहरा देखा, (शुक्र है ऊपरवाले का सिलाई ठीक लग रही है।)
मैंने अपने दाँत साफ किये, कंघी करने की कोशिश की लेकिन दर्द पहले जैसा ही था। मैंने बस हाथ से थोड़ा सा ब्रश किया और ऐसे ही छोड़ दिया क्योंकि मुझे बाल बाँधने की अनुमति नहीं थी।
मैं नीचे गयी जहाँ डॉक्टर ने मेरा स्वागत किया और एक छोटी सी नज़र में उन्होंने मुझसे पूछा, "क्या तुमने इसे गीला कर दिया था?",
मैंं हैरान और डरी हुई थी, बस सिर हिला दिया। उसने आह भरी, "तुम्हारी सूजी हुई आँखों का कारण? क्या तुम रोई? सर क्या आपने इसे रुलाया?", वह उसे घूर रही थी जबकि वह लैपटॉप पर था और उसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर रहा था।
उसने उसे सीधे-सीधे गाली दी, "तुम्हें चीजों को हल्के ढंग से संभालना सीखना होगा! सब कुछ हाथापाई और लात-घूंसे से नहीं होता। संचार-कम्यूनिकेशन नाम की भी कोई चीज़ होती है, आपको उस पर काम करना चाहिए!",
(क्या उसने अभी अपना संबोधन बदल दिया है?)
दाईमाँ अंदर आई,
"क्या तुम्हारा अभी-अभी ब्रेकअप हुआ है?", जैसे ही वह आई उन्होंने उस पर बमबारी कर दी,
"खा-", मैं बस अपनी हँसी दबा ली, यह बहुत खतरनाक था! "अहम! हर्म्मम...हर्म्मम...", उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर आगे बोले,
"नहीं! मुझे एक महीने पहले ही छोड़ दिया गया था...", उसने रोती हुई आवाज़ में कहा जो बहुत मज़ेदार थी, इस बार मैंने कोई आवाज़ नहीं की।
फिर उन्होंने मेरी जाँच की और कुछ मलहम दिए, मेरी दवाइयाँ बदली और मैं जाने के लिए तैयार, तभी सवाल फिर से उठा, "आँखों में सूजन का कारण क्या है?",
मैं हकला रही थी, कोई कारण नहीं बता पा रही थी और बेचैनी महसूस कर रही थी। यह काफी लंबा था और और भी लंबा होता जा रहा था, "क्या कुछ असहज महसूस हुआ?", डॉक्टर ने पूछा,
"या अपने परिवार को याद कर रही हो?", दाईमाँ ने पूछा,
सीधा दुखती नस पर वार!
मैंने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण किया और यह कहकर इनकार कर दिया, "श-शायद मेरी ए-एलर्जी में से एक? पता नहीं।", मैंने तो बस इसे नजरअंदाज करने को कहा था लेकिन स्थिति और गंभीर हो गई, "ऐसा नहीं हो सकता! तुम्हारा रोज़ाना का खाना, कपड़े, पीने का पानी सब कुछ सावधानी के साथ अच्छी तरह से तैयार किया जाता है, तो ऐसा होना असंभव है।",
"क्या इसने नई एलर्जी विकसित कर ली हैं?", दाईमाँ ने पूछा,
"ऐसा हो सकता है। मैंने अच्छी तरह से जाँच की है।", वह डॉक्टर ज़्यादा गंभीर थी,
(अब मैं स्वीकार नहीं कर सकती कि मैं रोयी...) मैं बस घबरा कर हँस पड़ी, उस समय मैं यही कर सकती थी।
"मुझे तुम्हारी अच्छी तरह से जाँच करनी होगी!", वह मुझे एक पागल वैज्ञानिक की तरह लग रही थी जो मुझे कभी भी चीर डालने को तैयार थी,
"बस, अब तुम्हारी बकवास बहुत हो गई! क्या तुम यह देखकर नहीं बता सकते कि वह रोई थी?", वह हम पर चिल्लाया, "मेरी एक मीटिंग है। दाईमाँ, मुझे पाँच मिनट में अपनी कॉफी अपनी डेस्क पर चाहिए।", और ऊपर चला गया,
(वाह! यह तो बहुत असभ्य था।)
मैंने सोचा कि वे मुझसे और पूछताछ करेंगे, लेकिन वे रुक गए और अपने-अपने काम पर चले गए और मुझे राहत मिली।
"हाह!", मैंने राहत की साँस ली,
(अनुभवहीन।) वृषा अपने काम पर चला गया।
मैं नाश्ते के बाद अपने कमरे में गई, अपनी दवाइयाँ लीं और मरहम लगायी, लेकिन अभी भी बहुत दर्द हो रहा था।
कुछ ही दिनों में दर्द कम हो गया। इन कुछ दिनों में मैंने दाईमाँ के कामों में उनका हाथ बटाना शुरू कर दिया। मुझे लगा कि उन्होंने मुझे उस कमरे में बँद और नज़रबंद रहते ऊबते और परेशान होते हुए देखा होगा। वास्तव में मैं ऊबी नहीं रही थी, बल्कि मम्मा-डैडा को याद करते-करते डिप्रेस महसूस कर रही थी।
मैं आभारी थी कि मुझे यहाँ नज़रअंदाज नहीं किया जाता, मेरे साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। (लेकिन उन्होंने मेरा अपहरण किसलिए किया अभी तक का पता नहीं चला?)
एक दिन आलू छीलते समय मेरी नज़र एक फाइल पर पड़ी, यह मिस्टर बिजलानी की हेल्थ रिपोर्ट थी। मैंने अपनी नज़रें हर जगह दौड़ाईं, कोई भी आसपास नहीं था इसलिए मैंने उस पर एक नज़र डाली। वास्तव में यह सबसे ख़राब स्वास्थ्य रिपोर्ट थी! पाचन संबंधी समस्याएँ, हृदय रोग का खतरा, उच्च रक्तचाप, टाइप-2 डायबिटीज का खतरा से लेकर बेहोश होकर अस्पताल में भर्ती होने की कगार पर आ रुका।
दाईमाँ कहीं से अचानक आ गई और शिकायत करने लगे कि वह हमेशा काम करता रहता हैं और अपना स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखता तथा परवाह नहीं करता।
उस समय मैं उनके साथ आसानी से दो या अधिक बातचीत करने में सक्षम थी, "मैं इसे समझा-समझाकर थक गई हूँ पर यह बच्चा अपने स्वास्थ्य को गंभीरता से ले ही नहीं रहा! तुम ही बताओ अब मुझे क्या करना चाहिए वृषाली?",
"अब मैं क्या कह सकती हूँ? शायद उनकी माँ उन्हें सुधार- मेरा मतलब समझा सकती है।", मैंने लगभग उसका अपमान कर दिया,
वह बहुत दुखी लग रही थी, "क्या हुआ दाईमाँ? अगर मैंने कुछ गलत कहा तो मुझे माफ कर-",
उन्होंने मुझे बीच में रोका और कहा, "तुम्हारी गलती नहीं है। बस...चावल हो गया होगा तुम ज़रा देख लोगी?",
"जी।", मैंने चावल देख, "अभी थोड़ा और बचा है?", मैं किचन से चिल्लाकर बाहर गई,
"अच्छा तुम अब आराम करो बाकि और लोग है।", मैंने हाँ में सिर हिलाया और चले गई।
मैंने उन्हें पहले कभी इतना दुखी नहीं देखा था। अगले दिन मेरी सिलाई खुली, मेरे माथे के बीचों-बीच कटे का निशान था। मुझे निशान कम करने के लिए कुछ मलहम दिया गया था लेकिन यह अंततः निशान छोड़ देगा।
(अब उससे पूछने का समय आ गया है।)
अब मैं ही थी जो दाईमाँ या उसके अन्य शेफ के स्थान पर भोजन बना रही थी क्योंकि वह रेस्तरां शैली का खाना पसंद नहीं करते (और आज यह मेरा पहला दिन है। मैं बस आशा करती हूँ कि वह मुझे नहीं बेचेगा।)
मैंने दोपहर का भोजन तैयार किया- चावल, मूली, सजनाफली, ढेर सारी इमली और बैंगन के साथ सांभर और भिंडी फ्राई थी। यह भोजन योजना संतुलित थी और ठीक उसी समय पर परोसी गई थी जब उसकी मीटिंग खत्म होगी और वह मेरे निशान की जाँच करने नीचे आएगा। अब यह दाईमाँ का काम था कि उसे यह दोपहर का भोजन खिलाए।
कर-चक! दरवाज़ा खुला,
खट! और बँद।
अब समय आ गया था कि दाईमाँ उसे बैठा दे। उस समय मैं अपने कमरे में थी और दस मिनट बाद नीचे गयी, जहाँ उसे बैठने के लिए मजबूर किया गया। मैं उसके सामने में बैठी थी। पहले तो उसने गुस्से से खाने को सूँघा, फिर एक बच्चे की तरह अपनी उँगलियों से सब कुछ चखा, फिर उसने पहला निवाला लिया, फिर दूसरा, फिर तीसरा, फिर फोन बज उठा, लेकिन उसने उसे बँद कर पूरा खाना खत्म कर उठा। मुझे संतुष्टि का अहसास हुआ कि उसने अपना पूरा खाना खाया। मैंने भी खाना खाया और फिर दवा लेने के लिए ऊपर चली गयी।
(अच्छा था कि हमने उसे पहले फल खिला दिया था।)
उस खुश दाईमाँ को देखकर मुझे मम्मा की याद आ गई, वह हमेशा दाईमाँ की तरह गले लगाकर मेरी तारीफ करती थी। मुझे रोने का मन हुआ। (यदि मम्मा ने मुझे इस तरह गले लगाया होता और उस गधे को नहीं तो वह अगले दो दिनों तक नाराज़ रहता जब तक कि मम्मा उसे गले नहीं लगा लेती और मुझे डांटती नहीं। ऐसी मूर्खतापूर्ण सोच, लेकिन कीमती।) मेरी आँखे नम हो गई थी। मैं पिछले बीस दिनों से इसके लिए तरस रही थी। मुझे पता था सब कीमती है पर अनुभव ऐसे होगा सोचे ना था।
अगले तीन-चार दिनों तक वृषा ने मेरे द्वारा बनाया हुआ भोजन खाया।
एक दिन दाईमाँ किसी काम से बाहर गई थी तो मैंं उसे बुलाने ऊपर गई। (क्योंकि किसीसे कहने की मेरी हिम्मत नहीं हुई थी।)
मैंने अपने कमरे के बगल वाले दरवाजे़ पर दस्तक दी, कोई जवाब नहीं...
(यदि उसने जवाब नहीं दिया तो बस अंदर चले जाना, शायद वह बेहोश हो गया हो?) दाईमाँ ने कहा था,
खट-खट!
कोई जबाव नहीं।
खट-खट!!
फिद कोई जबाव नहीं।
खट-खट!!!
"बस बहुत हुआ! मैं अंदर आ रही हूँ!",
मैंने दरवाज़ा पूरा खोला और अन्दर चली गयी। कोई नहीं था। वहाँ मैंने कोने में फाइलों के ठीक ऊपर पानी से भरा एक गिलास देखा, जहाँ से वह किसी भी क्षण गिर सकता था। मैं जल्दी से अंदर गई और उसे उठा लिया, तभी मैंने देखा कि मैं लाइब्रेरी के बीच में थी। (वाह! क्या लाइब्रेरी ऐसा ही होता है?) वह किताबों से भरा था, मैं किताबों के पास गयी, अधिकतम किताबें व्यापार और विपणन से संबंधित थीं।
मैं किताबों में खोयी हुई थी। तभी अचानक मुझे अपने दाहिने कंधे पर कुछ महसूस हुआ, मैं डर के मारे उछल पड़ी और गिलास भी मेरे हाथ से उछल गया और पानी मेरे ऊपर, छाती पर गिर गया। मुझे पहनने के लिए केवल काला या सफेद रंग के टी-शर्ट दिया जाता था। मेरी बदकिस्मती में यह भी शामिल था कि मैंने सफेद और चमकीली नीली ब्रा पहना था जो सूखने पर तो ठीक था, पर अब यह मेरे लिए विनाशकारी स्थिति था। मैं झटके से सुन्न हो गयी और खुद को हाथों से ढाककर बिना सोचे-समझे डर के मारे पीछे हटने लगी। तभी वह तेज़ी से मेरी ओर बढ़ा, मैं घबराकर और पीछे होटने लगी। फिर मैं किताबों के ढेर से जा टकराई! वह ढेर मुझसे अधिक ऊँची थी, वह मेरी ओर गिरने लगा। मैं पीछे हटने लगी पर काफी देर हो गई थी, तब उसने मुझे हाथ से खींचा। उसने मुझे खुद से चिपका लिया और वह सामान ज़ोर की 'धड़ाम!' के साथ गिर गया, उस शोर से पूरा कमरा भर गया। मेरा दिल बहुत तेज़ी से धड़क रहा था, फिर उसने मुझे छोड़ दिया। मैंने अभी भी अपने हाथों से अपना सामने का हिस्सा ढक रखा था, तभी हमने इस दिशा में कुछ कदमों की आवाज़ सुनी, मैं घबरा गयी।
उसने कहा, "अंदर मत आना।", पर बहुत देर हो गई थी, लोग अंदर आए थे। वो तो भला हो उसके अपराधिक अनुभव का जिससे उसने सही वक्त पर मुझे सोफे के पीछे अपने कोट के साथ फेक दिया। मैंने कोट पहना और वह सबको अपने साथ ले गया, कुछ देर बातचीत करने के बाद वह अंदर आया और बोला, "जब तक मैं अंदर ना आ जाऊँ, बाहर मत निकलना। अगर कोई और खटखटाए तो अनदेखा कर देना...आ-?", उसने मुझे हाथों से पकड़ा और ऊपर की शेल्फ पर रखी नीली किताब निकाली। उस तरफ का दरवाज़ा खुला था जहाँ मैंने अभी-अभी किताबों का ढेर गिराया था। उसने मुझे अपना फोन दिया और चेताया, "मेरा विश्वास करो। अगर तुम अपने परिवार को कष्ट में नहीं देखना चाहती।", वो कमरे को बंदकर चला गया।
मैं उस कमरे में थी जिसका आकार इस घर में मौजूद कमरे के आधे आकार का था। यह मेरे कमरे जितना ही आरामदायक था, प्रकाश भी उतना उज्ज्वल था। मैंने उसका फ़ोन देखा तो डेढ़ बज रहे थे।(हालाँकि उसने मुझे धमकाया था लेकिन वह किसी बात से डर रहा था।)
वहाँ मैंने देखा कि एक हेयर ड्रायर रखा था तो मैंने अपने कपड़े सुखा दिए। मैं दुविधा में बिस्तर पर लेटी थी कि इसे खोलूँ या नहीं।
(क्या वह मेरी परीक्षा ले रहा है या वह... मेरी परीक्षा ले रहा है?)
ढाई बजे मैंने इसे खोलने का निर्णय लिया!
(ओह! सिग्नल काम कर रहा है!)
(इस द्वीप में यह एक बहुत ही दुर्लभ घटना है, चौबीस घंटे बिजली और चौबीस घंटे हर जगह अच्छा इंटरनेट कनेक्शन।)
स्क्रीन पर पहली चीज़ जो दिखाई दी वह यह थी कि विकिपीडिया पर इस आदमी का प्रोफ़ाइल दिखाया गया था। लिखा था-
'वृषा बिजलानी, बिजलानी फ़ूडज़ के इकलौते बेटे और एकमात्र उत्तराधिकारी...'