King Bali in Hindi Mythological Stories by Renu books and stories PDF | राजा बलि

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राजा बलि

जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्यधनादिभिः ।
यद् यस्य न भवेत्स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः ॥
(सुन्दर कुल में जन्म, अच्छे कर्म, युवावस्था, सुन्दर रूप, अर्थकरी विद्या, बड़ा भारी ऐश्वर्य, विपुल धन आदि वस्तुओं को प्राप्त करके जिसे अभिमान न हो- भगवान् कहते हैं—उस पर मेरा परम अनुग्रह समझना चाहिये।)

प्रह्लादजी के पुत्र विरोचन और विरोचन जी के पुत्र लोकविख्यात दानिशिरोमणि महाराज बलि हुए। दैत्यकुल में उत्पन्न होने पर भी ये अपने पितामह के समान भगवद्भक्त, दानियों में अग्रणी और प्रात:स्मरणीय चिरजीवियों में गिने जाते हैं। इन्होंने अपने पराक्रम से दैत्य, दानव, मनुष्य और देवताओं तक को जीत लिया। ये तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी थे। इन्द्र स्वर्ग लोक के सिंहासन से उतार दिये गये, सर्वत्र महाराज बलि का ही राज्य था। ये बड़े ब्रह्मण्य, धर्मात्मा और साधुसेवी थे। देवताओं ने भगवान्‌ से प्रार्थना की। देवताओं की माता अदिति ने एक घोर व्रत किया, उससे सन्तुष्ट होकर भगवान्‌ ने अदिति को वरदान दिया कि मैं तुम्हारे यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हूँगा। तभी मैं तुम्हारे पुत्रों का संकट दूर करूंगा।’

कालान्तर में भगवान्‌ ने अदिति के यहाँ अवतार धारण किया। भगवान्‌ का यह मंगलविग्रह बहुत छोटा था, इससे आप वामन कहलाये और इन्द्र के छोटे भाई होने से आपकी ‘उपेन्द्र’ संज्ञा हुई। सब देवता प्रसन्न हुए कि हमारा गया हुआ ऐश्वर्य फिर प्राप्त होगा।

महाराज बलि तीनों लोकों के स्वामी बनकर निश्चिन्त हो यज्ञ कर रहे थे। वामन भगवान् ब्रह्मचारी का वेष धारण करके महाराज बलि के यज्ञमण्डप में गये। बलि ने वामन ब्रह्मचारी का शास्त्रविधि से पूजन किया, अर्थ्य-पाद्य देकर गोदान;के अनन्तर महाराज ने कहा— आप सुपात्र ब्रह्मचारी हैं, मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ; आपको जो भी अच्छा लगे वह माँग लीजिये। आपके माँगने पर मैं सब कुछ दे सकता हूँ, नि:संकोच होकर आप माँगें। मेरे यहाँ से कोई ब्राह्मण विमुख होकर नहीं जाता।’

वामन भगवान् बोले—‘मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं, मैं तो आपसे केवल तीन पग पृथ्वी चाहता हूँ, जिस पर मैं बैठ सकू। अधिक की मुझे इच्छा नहीं है। बलि ने बहुत समझाया कि 'कल्पवृक्ष के नीचे आकर भी आप एक दिन का अन्न ही चाहते हैं। मैं त्रिलोकी का स्वामी हूँ, कुछ और माँगिये।’ राजा के बहुत कहने पर भी वामन भगवान्‌ ने कुछ नहीं माँगा। वे तीन पग पृथ्वी पर ही अड़े रहे। अन्त में राजा ने कहा—‘अच्छा दूंगा।’

इस पर बलि के कुलगुरु भगवान् शुक्राचार्य ने उन्हें समझाया कि—‘ये वामन वेषधारी साक्षात् भगवान् हैं, तीन पग में तीनों लोकों को नाप लेंगे। तुझे श्रीहीन बना देंगे। ऐसे दान से क्या लाभ ! तुम कह दो कि मैं नहीं दूंगा।’

बलि ने कहा—‘प्रथम तो किसी बात को कहकर फिर पलट जाना बड़ा पाप है, इसके अतिरिक्त मान लिया ये ब्राह्मण न होकर साक्षात् भगवान् ही हैं, तब तो और भी उत्तम है। मैं भगवान्‌ की प्रसन्नता के लिये ही यज्ञ कर रहा हूँ, यदि साक्षात् भगवान् मेरी वस्तु को ग्रहण करने आ गये हैं तो मेरा अहोभाग्य है! जो कह दिया है उसे मैं अवश्य करूंगा।’

इस पर क्रुद्ध होकर गुरु ने उन्हें शाप दिया, तो भी वे अपने निश्चय से विचलित नहीं हुए। वामन रूपधारी वे भगवान् तो थे ही। उन्होंने एक पग में पृथ्वी और दूसरे में स्वर्ग नाप लिया, तीसरे के बदले में बलि को बाँध लिया। बलि तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनके सैनिक तथा जाति वाले तो क्रुद्ध भी हुए, किंतु बलि ने सबको समझाते हुए भगवान्‌ से कहा—‘ब्रह्मन् ! दातव्य वस्तु से वस्तु का दाता बड़ा होता है, अत: तीसरे पैर में आप मेरे शरीर को ले लीजिये।

महाराज बलि के ऐसे अपूर्व त्याग को देखने ब्रह्मादि समस्त देवता वहाँ आ गये। ब्रह्माजी ने भगवान्‌ से पूछा—‘भगवन् ! शुभ कार्य का फल तो शुभ ही होना चाहिये। इसने यज्ञ किया, दान दिया, फिर भी यह बाँधा क्यों गया?’ इस पर भगवान्‌ ने कहा—‘ब्रह्मन् ! जिसपर मैं कृपा करता हूँ, उसका पहले तो मैं धन हर लेता हूँ, पीछे चाहे उसे सम्पूर्ण सम्पत्ति सौंप दें। यह तो मेरी कृपा है। बलि मेरा परम भक्त है, इसकी दुर्गति कभी न होगी। देवताओं के भी ऐश्वर्य से दुर्लभ मैं इसे पाताल का ऐश्वर्य दूंगा। एक बार इसकी इन्द्र बनने की इच्छा हुई थी, उसे पूरा करके मैं इसे अपने धाम में ले जाऊँगा।’

महाराज बलि के त्याग और धैर्य को देखकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और बोले—‘राजन् ! तुम जो चाहो वह वरदान मुझसे माँग लो।।

बलि ने कहा—‘भगवन् ! मुझे सांसारिक वस्तुओं की तो आवश्यकता है नहीं, मैं तो आपको चाहता हूँ। आप सदा मेरे द्वार पर रहें, यही मेरी इच्छा है।’

भगवान् हँसे और सोचने लगे—‘हम समझते थे हमने इसे बाँधा है। किंतु इसने उलटे हमही को बाँध लिया। भगवान् तो सदा अपने भक्तों की प्रेमरज्जु में बँधे ही हुए हैं। उन्होंने कहा—‘आज से मैं सदा तुम्हारे द्वार पर द्वारपाल बनकर रहूँगा।’

भगवान्‌ का आशीर्वाद पाकर बलि प्रसन्नतापूर्वक सुतल लोक में चले गये, गदापाणि भगवान् आज तक उनके दरवाजे पर एकरूप से द्वारपाल बने हुए खड़े हैं। यह है भगवान्‌ की भक्तवत्सलता का नमूना और यह है भक्तों के सर्वस्वत्याग का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण!