Fagun ke Mausam - 7 in Hindi Fiction Stories by शिखा श्रीवास्तव books and stories PDF | फागुन के मौसम - भाग 7

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फागुन के मौसम - भाग 7

राघव अभी कार से उतरा ही था कि नंदिनी जी ने उसके पास आते हुए कहा, "बेटा, तुम्हें मौसी ने आश्रम में बुलाया है।"

"कोई ख़ास बात है क्या माँ?"

"अब ये तो वहीं जाकर पता चलेगा बेटा।"

"अच्छा, आओ बैठो।" राघव ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा तो नंदिनी जी अंदर बैठते हुए बोलीं, "मैंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था बेटा कि हम किराए के एक कमरे वाले छोटे से मकान से निकलकर अपने स्वयं के इतने अच्छे घर में रहने लगेंगे और एक दिन तुम अपनी कार में मुझे बैठाकर कहीं ले जाओगे।
हमारे इस अच्छे दिन के पीछे तुम्हारी मौसी का भी कम योगदान नहीं है।"

"मैं जानता हूँ माँ, इसलिए तो मैं उनका इतना सम्मान करता हूँ।" राघव ने ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए कहा तो नंदिनी जी की आँखों के आगे पच्चीस वर्ष पूर्व की स्मृतियां सजीव हो उठीं जब अचानक एक दुर्घटना में अपने पति को खोने के बाद तीन वर्ष के राघव को गोद में लिए वो इस बड़ी सी दुनिया में पूरी तरह बेसहारा हो चुकी थीं।

मायके से लेकर ससुराल तक कहीं से कोई इस दुःखद समय में उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया।
उनके पति एक निजी फर्म में मामूली सी नौकरी करते थे इसलिए वहाँ से भी नंदिनी जी को कोई ख़ास मदद नहीं मिली, ऊपर से वो बस काम चलाने भर ही मामूली पढ़ना-लिखना जानती थीं जिसके कारण उन्हें कोई ढंग की नौकरी मिलना भी असंभव ही था।

इस परिस्थिति में जब अपने बेटे की परवरिश करने के लिए मजदूरी करने के इरादे से वो घर से निकलीं तब एक पड़ोसी ने उन्हें 'अपराजिता निकेतन' जाने का सुझाव दिया।

अपराजिता निकेतन एक नारी संस्थान था जिसकी संचालिका दिव्या जी थीं।
दिव्या जी ने बेघर-बेसहारा स्त्रियों की सहायता के उद्देश्य से इस संस्थान की नींव रखी थी।

इस निकेतन में रहने वाली लाचार, बेबस महिलाओं के लिए ये जगह किसी सिद्ध पीठ जैसे आश्रम के ही समान थी इसलिए वो सब इसे आश्रम ही कहा करती थीं।

दिव्या जी न सिर्फ यहाँ आने वाली महिलाओं के सिर पर छत देती थीं, वरन उनकी योग्यता और रुचि अनुसार उन्हें काम दिलवाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने में भी सहयोग करती थीं।

जिन महिलाओं के साथ उनके छोटे बच्चे भी होते थे उनके लिए भी इस आश्रम में विशेष व्यवस्था थी।

दस वर्ष तक के सभी बच्चे यहाँ अपनी माँ के साथ उनके कमरे में ही रहते थे लेकिन दस वर्ष के बाद बेटों को इसी आश्रम के परिसर में बने हुए दूसरे मकान में रहने भेज दिया जाता था जिससे किशोर बालकों के हर समय आस-पास होने के कारण आश्रम की महिलाओं को भी असुविधा न हो और बच्चे अपनी माँ की आँखों के सामने भी रहें।

जिन महिलाओं की कमाई इतनी नहीं हो पाती थी कि वो अपने बच्चे की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठा सके उनके लिए बारहवीं तक की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था भी दिव्या जी अपने संस्थान के माध्यम से करती थीं, साथ ही उनकी पूरी कोशिश रहती थी कि बारहवीं के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए बच्चों को स्कॉलरशिप या एजुकेशन लोन मिल सके लेकिन जिन बच्चों को ये सुविधा भी नहीं मिल पाती थी उनकी पढ़ाई का दायित्व एक बार फिर दिव्या जी उठाती थीं लेकिन इस शर्त पर कि नौकरी लगने के बाद वो कॉलेज की फ़ीस में लगे हुए आश्रम के पैसे वापस कर देंगे ताकि वो पैसे एक बार फिर ज़रूरतमंद महिलाओं और बच्चों के काम आ सकें।

इस आश्रम में आसरा पाने वाली कई महिलाएं आज समाज में सम्मानित जीवन जी रही थीं और कितने ही बच्चे अपने-अपने क्षेत्र में एक सफ़ल मुकाम बनाने में कामयाब हो चुके थे।
साथ ही अपनी जिम्मेदारी समझते हुए वो सब आश्रम के फंड में सुविधानुसार आर्थिक योगदान देना भी नहीं भूलते थे जिसके कारण आश्रम की व्यवस्था सुचारु रूप से चलती आ रही थी।

इन सबकी कामयाबी और ख़ुशी से खिला हुआ चेहरा दिव्या जी के लिए मानों साक्षात ईश्वर का आशीर्वाद था।

एक वो भी समय था जब दिव्या जी अक्सर ईश्वर को कोसा करती थीं कि उन्होंने बस उसकी झोली में अपार संपत्ति डाल दी लेकिन उनका वो परिवार ही उनसे छीन लिया जिसके साथ वो इस संपत्ति का उपभोग कर सकती थीं लेकिन अब अपनी संपत्ति के इस सदुपयोग से उन्हें जो संतुष्टि मिल रही थी उसके बाद उनके मन का घाव भी धीरे-धीरे भरने लगा था।

अपने हालातों से मजबूर नंदिनी जी जब अपराजिता निकेतन के दफ़्तर में पहुँचीं तब दिव्या जी ने उन्हें ढांढ़स बँधाते हुए आश्रम की रसोई में काम करने के लिए रख लिया।

राघव, जो पहली मुलाकात से ही उन्हें मौसी कहकर संबोधित किया करता था उसकी शुरुआती पढ़ाई की जिम्मेदारी भी उन्होंने सहर्ष उठा ली।

दिव्या जी और आश्रम की अन्य महिलाओं से मिले हुए सहयोग की बदौलत धीरे-धीरे नंदिनी जी ने पढ़ना-लिखना भी शुरू किया, और फिर एक दिन अपनी लगन और मेहनत की बदौलत वो आश्रम में दिव्या जी की मुख्य सहायिका के रूप में काम करने लगीं।

अब उन्हें जो वेतन मिल रहा था उससे उन्होंने राघव को शहर के बड़े स्कूल में पढ़ाने की इच्छा ज़ाहिर की तो दिव्या जी ने भी उन्हें भरोसा दिलाया कि उनका बेटा इस लायक है कि उस पर वो अपने गाढ़े मेहनत की कमाई खर्च कर सकती हैं।

और आज जब राघव अपनी माँ के साथ-साथ दिव्या जी के विश्वास पर भी खरा उतरा था तब उसके साथ आश्रम जाते हुए नंदिनी जी के मन में अपार संतोष का भाव उमड़ पड़ा था।
**********

राघव और नंदिनी जी जब दिव्या जी के कक्ष में पहुँचे तब राघव ने दिव्या जी के पैर छूते हुए कहा, "आप कैसी हैं मौसी?"

"बस थोड़ी बूढ़ी हो गयी हूँ बेटा, बाकी सब ठीक है।"

दिव्या जी के मज़ाकिया स्वभाव से भलीभाँति परिचित राघव उनके इस उत्तर पर मुस्कुराने लगा तो दिव्या जी बोलीं, "ये मुस्कुराना छोड़ो और काम की बात सुनो।"

"आप बस आज्ञा कीजिये मौसी।"

"राघव बेटा, पंद्रह दिन के बाद हमारे इस आश्रम को पैंतीस वर्ष पूरे हो जायेंगे।
आश्रम की पच्चीसवीं वर्षगाँठ तो हम कुछ ख़ासस ढंग से मना नहीं पाये थे लेकिन इस बार मेरे साथ-साथ यहाँ रहने वाले सभी लोगों की इच्छा है कि हम इस दिन पर एक शानदार जश्न मनायें।"

"ठीक है मौसी, आप बस बताइये मुझे क्या करना होगा? मेरे लिए भी ये बहुत ख़ुशी और गर्व की बात है कि एक तो मैं इस आश्रम से जुड़ा हुआ हूँ और दूसरा कि आपने अपने इस बेटे को किसी लायक समझकर उसे अपनी सेवा में बुलाया।"

"राघव बेटा, तुम तो हो ही गर्व करने के लायक। मैं बस ये कह रही थी कि पिछली बार तुमने जिस इवेंट कम्पनी को अपने गेम की लॉन्च पार्टी का दायित्व सौंपा था अगर वो हमारे लिए उसी तरह का कोई इवेंट ऑर्गनाइज कर दे तो कैसा रहेगा?"

"बहुत ही अच्छा रहेगा मौसी। मैं हर्षित से कह दूँगा कि वो इवेंट मैनेज़र से मिलकर एक अच्छा सा एडवरटाइजमेंट भी तैयार कर दे ताकि इस आश्रम से जुड़े हुए बहुत सारे लोग जो अब यहाँ नहीं रहते हैं उन तक भी इस इवेंट की जानकारी पहुँच सके।
फिर अगर वो आना चाहेंगे तो आ जायेंगे और सब साथ मिलकर इस दिन का जश्न मनाते हुए इसे और यादगार बना देंगे।"

"ये तो बहुत ही अच्छा विचार है बेटा। तुम इवेंट मैनेज़र को बता देना कि वो सारा आयोजन यहीं आश्रम परिसर में करें।"

"ठीक है मौसी, आप बिलकुल फ़िक्र मत कीजिये।"

"नहीं, अब कोई फ़िक्र नहीं है बेटा। जुग-जुग जियो तुम और दिन-प्रतिदिन ऐसे ही खूब तरक्की करो।" दिव्या जी ने स्नेह से आशीर्वाद भरा हुआ हाथ राघव के सिर पर रखते हुए कहा तो नंदिनी जी ने एक बार फिर मन ही मन अपने ईश्वर के प्रति आभार प्रकट किया और अगले दिन समय पर दफ़्तर आने की बात कहकर वो राघव के साथ अपने घर के लिए निकल गयीं।
क्रमशः