रक्तिम ने होंठ चबाकर सिर झुका लिया और धीमी आवाज में बोला, "जानता हूँ, मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं वनिता। तुम इतने अमीर घराने से हो और मैं..."
"रक्तिम और कुछ मत कहो..." कहते हुए वनिता ने उसके कंधे पर सिर टिका दिया।
रक्तिम ने कुछ नहीं कहा। वनिता भी कुछ नहीं बोली। ख़ामोशी ने जो कहना था, कह दिया था।
उस दिन के बाद से इसी तरह सबसे छुपकर उनकी मुलाक़ातें होती रहीं। गुज़रते वक्त ने दिलों के बीच की दूरी पाट दी। मगर हैसियत का फ़ासला अब भी दोनों के दरमियान दीवार बनकर खड़ा था। वनिता जानती थी कि इसी फ़ासले की वजह से रक्तिम कभी अपने रिश्तों के भविष्य को लेकर उससे कोई बात नहीं करता। बस उसके साथ आज के पलों को जीता है।
कॉलेज का आखिरी साल भी बीत गया। वो फेयरवेल का दिन था। बिछड़ने के पहले मुलाक़ातों का दौर चल रहा था। वनिता बेचैन हो रही थी। उसकी नज़रें रक्तिम पर टिकी थी, जो दोस्तों से घिरा उसे ही देख रहा था। उसकी आँखों में एक सूनापन वनिता महसूस कर सकती थी।
सहेलियाँ वनिता को खींचकर स्टेज पर ले गई और गाने की फ़रमाइश करने लगी। वनिता ने गाना गाकर समा बांध दिया -
दिल जो न कह सका, वही राज-ए-दिल कहने की रात आई...
जितनी देर वह गाती रही, रक्तिम की निगाहें उस पर जमी रही। वनिता उसकी आँखों में उभरते सवाल पढ़ रही थी। इस दौरान वह ठान चुकी थी कि आज वह अपने दिल की बात रक्तिम से कह देगी। साल भर की उनकी करीबी भी जुबान की ख़ामोशी तोड़ नहीं पाई थी। आज वो ये ख़ामोशी तोड़ देना चाहती थी।
फेयरवेल पार्टी खत्म हुई। सब घर लौटने के लिए पार्टी हॉल से बाहर निकलने लगे। उस वक्त वनिता की निगाहें रक्तिम को तलाश रही थी, मगर वह कहीं नज़र नहीं आ रहा था। अपनी सहेलियों के साथ वो कॉलेज गेट की तरफ चल पड़ी। मगर फिर जाने क्या हुआ कि उसके पांव ठिठक गये। उसने सहेलियों से कहा कि वो लोग जायें, उसे रुकना पड़ेगा। ड्राइवर के आने में टाइम है। वे चली गईं। उसने ड्राइवर को कॉल करके कह दिया कि उसे टाइम लगेगा।
धीरे-धीरे कॉलेज खाली होने लगा। कॉलेज के सुनसान कैंपस में उसने ऊँचे दरख्तों के नीचे खुद को अकेला पाया। उसे लगा था कि रक्तिम भी उसे तलाशेगा, मगर वो कहीं नहीं था। वो भारी मन से लौटने लगी, तभी किसी ने उसका दुपट्टा थाम लिया। वह पलटी और एक दरख़्त के पीछे से रक्तिम बाहर आया।
"मुझे ही ढूंढ रही थी ना!"
"हाँ!"
"क्यों?"
"कुछ कहना था तुमसे।"
"क्या?"
"वही, जो दिल न कह सका।"
"क्या? दिल क्या न कह सका..."
"यही कि तुम मुझे अपने सपनों में शामिल कर लो, अपनी ज़िन्दगी में शामिल कर लो।"
"वनिता!"
"रक्तिम!" वनिता रक्तिम के सीने से जा लगी, "खुद को बहुत संभाला, पर अब रहा नहीं जाता तुम बिन। नहीं रह सकती तुमसे दूर...मुझे कभी खुद से दूर मत करना रक्तिम...कभी नहीं!"
"क्या कहना चाह रही हो वनिता!"
"मुझसे शादी कर लो रक्तिम।"
"वनिता!"
"हाँ रक्तिम! मैं यही चाहती हूँ।"
"वनिता! तुम्हारी और मेरी हैसियत में बहुत बड़ा फ़र्क है और अभी मैं अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ हूँ। मैं कैसे तुम्हें अच्छी ज़िन्दगी दे पाऊंगा।"
"हम दोनों मिलकर अपनी ज़िन्दगी बनायेंगे रक्तिम। तुम साथ हो, तो मैं हर हाल में ख़ुश रहूंगी।"
"पर मैं किस मुँह से तुम्हारे पापा से तुम्हारा हाथ मांगू।"
"मैं उनसे बात करूंगी। वो मेरी बात कभी नहीं टालेंगे। उनकी इकलौती बेटी जो ठहरी। उन्होंने मुझे माँ और बाप दोनों का प्यार दिया है, हर अराजू पूरी की है, तो ये अराजू क्यों पूरी नहीं करेंगे।"
उस दिन के बाद वनिता पिता से बात करने का मौका तलाशने लगी। कभी मौका ही नहीं मिलता और जब मिलता, तो हौसला साथ नहीं देता। दिन इसी तरह गुज़र रहे थे। रक्तिम से मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ गया था। किसी न किसी बहाने वो उससे मिल ही लेती। उनकी क़रीबी हर गुज़रते दिन के साथ बढ़ती जा रही थी और फ़ासले मिटते जा रहे थे। वनिता को महसूस होने लगा कि अब उसे पापा से बात करनी ही होगी।
एक रात डिनर टेबल पर वनिता ने अपने पिता को रक्तिम के बारे में बता दिया। पिता पहले हैरान हुए, फिर नाराज़। उनकी हैसियत का फ़र्क तो था ही। उसे नज़रंदाज़ करते, तो ये बात भी अहम थी कि रक्तिम अब तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ था।
"अभी शादी की जल्दी क्या है वनिता। आगे की पढ़ाई करो, अपना भविष्य सवारों...प्यार का भूत जैसे चढ़ा है, वैसे ही एक दिन उतर जायेगा।" पिता ने उसे समझाने की कोशिश की।
"पापा मेरा इरादा पक्का है। मैं उसे खोना नहीं चाहती।"
"अगर ये डर है, तो उस प्यार को तुम्हें और वक्त देना चाहिए। जुम्मा जुम्मा चार दिन हुए हैं तुम्हें, इतनी जल्दी प्यार की परख नहीं होती।"
"मैं उसे परख चुकी हूँ पापा। अब आप भी परख लीजिये।" वनिता ने जब पूरे आत्मविश्वास से ये बात कही, तो पिता के पास कोई चारा नहीं रहा।
"ठीक है! कल ले आओ उसे मेरे पास।"
वनिता ख़ुश हो गई।
रक्तिम जब वनिता के पिता के सामने आया, तो उन्होंने उससे एक सवाल पूछा, "अपनी हैसियत और हमारी हैसियत का फ़ासला देख रहे हो।"
"जी सर!"
"इसके बावजूद वनिता से शादी करना चाहते हो।"
"मेरे सपने आपकी हैसियत से बड़े हैं सर!"
रक्तिम चला गया और वनिता के पिता उसकी कही बात का मतलब सोचते रह गये। वे अब भी इस शादी के लिए राज़ी नहीं थे। मगर उस रात वनिता ने कुछ ऐसी बात बताई कि उनके पास वनिता की शादी के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा।
"आप मुझे शादी करके अपना घर संसार बसाकर सुख से ज़िन्दगी जीते देखना चाहते हैं या ज़िन्दगी भर बिन ब्याही माँ के रूप में समाज के ताने सुनते देखना चाहते हैं।"
जल्द ही वनिता और रक्तिम की शादी हो गई। वनिता के पिता ने रक्तिम को उसका बिजनेस जमाने में हर तरह से मदद की। रक्तिम अपना बिजनेस जमाकर उसी शहर में सेटल हो गया। उसकी माँ बनारस में ही रही, उन्हें वही शहर रूचता था। वनिता ने रक्तिम के साथ मिलकर अपनी छोटी-सी दुनिया सजा ली, जहाँ वो दो थे और उनका प्यार।
रक्तिम के प्यार में डूबे छ: महीने कैसे गुज़रे, वनिता को पता ही नहीं चला। उसकी ज़िन्दगी का दायरा रक्तिम की बाहों के इर्दगिर्द सिमट गया था। इन छः महीनों में उसे लगा, मानो दुनिया की सारी खुशियाँ उसे मिल गई हों। वह दिन भर तिनका-तिनका जोड़कर अपने प्यार का घोंसला सजाने में लगी रहती और रक्तिम ऊँची उड़ान भरने के लिए जी-तोड़ मेहनत में लगा रहता। शाम को जब दोनों पंछी अपने प्यार के घोंसले में सुकून के पल गुज़ारते, तो उन्हें ज़िन्दगी बेहद हसीन लगती।
वनिता का आंठवां महीना चल रहा था। उन दिनों उसे रक्तिम के साथ की ज्यादा ज़रूरत महसूस होने लगी थी। मगर रक्तिम पहले से कहीं ज्यादा व्यस्त हो चला था। सुबह वह जल्दी घर से निकलता और रात को देर से लौटता। वनिता पूछती, तो जवाब मिलता - "काम का प्रेशर है।"
एक रात रक्तिम घर लौटा और वनिता ने उसके देर से घर आने की शिकायत की, तो उसने कहा, "वनिता! इस समय ऑफिस में बहुत काम है। हमारे कई प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं। ऐसे में तुम्हारा सही तरीके से ख़याल रख पाना मेरे लिए पॉसिबल नहीं है। अभी तुम्हारी जो हालत है, उसमें तुम्हें अपने पापा के घर चले जाना चाहिए।"
रक्तिम की ये बात वनिता चुभ गई और अगले ही दिन वो गुस्से में अपने पिता के घर रहने चली गई। रक्तिम दो-तीन दिन में उससे मिलने जाता। धीरे-धीरे ये दो-तीन दिन हफ्तों में बदलने लगे।
वनिता को रक्तिम के व्यवहार में बदलाव नज़र आने लगा था। वह उसके साथ भी होता, तब भी या तो काम में लगा रहता या फोन पर। एक रात जाने क्या हुआ कि वनिता रक्तिम के ऑफिस चली गई। पता चला, वो घर लौट गया है, जबकि उसने उसे बताया था कि वो ऑफिस में है। वह घर पहुँची और अपने पास की एक्स्ट्रा चाभी से दरवाज़ा खोलकर घर में दाखिल हुई। उस रात उसने जो नज़ारा देखा, उसने उसका दिल ही नहीं घर भी तोड़ दिया।
क्रमश:
क्या देखा था वनिता ने? जानने के लिए पढ़िए अगला भाग।