बाँहों के घेरे
“निलेश। मै जब तक तुम्हारे साथ रहती हूँ, स्वंय को एक स्त्री होने के भय और पाप से मुक्त समझती हूं।“
रात के नौ बज गये थे पार्क की बैंच पर बैठी हुई रंजना ने बैंच के सामने बिछी हरी घास पर बैठे हुए निलेश की और देखते हुये कहा जो उस समय आकाश की और एक टक देख रहा था, यूँ तो पार्क मै चारो और चाँदनी खिली हुई थी किन्तु छोटे छोटे बादलो के टुकडे इधर उधर बेपरवाह उड़ रहे थे, जब कभी बादलो का कोई टुकड़ा चन्द्रमा को ढक लेता है तो आकाश के तारे तेजी से चमकने लगते और जैसे हो बादल का वह टुकडा चन्द्रमा से दूर हटता तो चाँदनी बिखर जाती और तारे टिमटिमाने लगते है। आकाश में उड़ते हुए बादलो चन्द्रमा, तारे, और चाँदनी के इस खेल को निलेश कब से देख रहा था, रंजना को लगा नीलेश कही विचारो में गुम हो गया है अथवा यह रात उसे इतना भा गयी है कि वह उसी मै कही खो गया है, रंजना बेंच से उठी और नीलेश के सामने तीव्रता से किन्तु मुक्त भाव से आकर बैठ गयी और उसे पकड़ कर अपनेपन से झझकोर दिया।
“तुमने सुना मैने क्या कहा।“
“हाँ! सुना तो था लेकिन तुम्हारे शब्द नही याद है।“
“तो क्या हुआ अर्थ तो याद है न।“
“हाँ वह तो यही था न कि तुम मेरे साथ स्वंय को मुक्त समझती हूँ।“
“हाँ सब प्रकार के भय और बंधनों से मुक्त।“
“चलो अच्छा है।‘‘..................
“मै समझता हूँ समाज में स्त्री को भय और बंधनों से मुक्त रहने का प्राकृतिक अधिकार है, होना ही चाहियें।“
“अधिक दार्शनिक होने की आवश्यकता नही है, उधर देखे पार्क का चैकीदार हाथ में डंडा लेकर हमारी और ही आ रहा है।“ नीलेश ने पार्क में चारो और देखा सन्नाटा हो गया था एक- दो लोग थे किन्तु वे भी पार्क से बाहर जाने के लियें मुख्य द्वार की और कूच कर चुके थे केवल वही दोनो पार्क में बैठे थे।
“साहब पार्क को बन्द करने का समय हो गया है।“चैकीदार और नजदीक आते हुए विनम्रता से कहा।“
“हाँ ठीक है नीलेश ने कहा, दोनो उठकर खड़े हो गये और मुख्य द्वार से बाहर जाने के लियें चल पड़े।
मैत्री, सख्य, प्रेम- इनका विकास धीरे-धीरे ही होता है, किन्तु यह समगति से बढने वाला विकास नही है वरन यह सीढ़ियो की तरह बढ़ने वाले गति की तरह है, लगातार क्रमशः नए नए उच्चतर स्तर पर पहुंचने वाली। नीलेश और रंजना का परिचय यूँ तो पन्द्रह - सोलह वर्षो का था, जब दोनो के परिवार एक ही कालोनी में रहते थे।नीलेश के पिता का ट्रान्सफर इलाहाबाद हो गया था उस समय नीलेश आठ वर्ष का था और कक्षा तीन में उसका नाम उसी स्कूल में लिखवा दिया गया है, जिसमें ग्यारह वर्ष की रंजना कक्षा पाँच में पढ़ती थी, दोनो के परिवार एक दूसरे के पड़ोसी थे, और उनके बीच धीरे-धीरे रिश्तों की मिठास भी घुलने लगी थी। रंजना और नीलेश एक ही स्कूल मै थें तो एक साथ ही स्कूल बस से स्कूल आते-जाते थे किन्तु एक वर्ष के बाद रंजना जूनियर क्लासेज में पहुंच गयी थी इस कारण दोनो की स्कूल जाने की टाइमिंग बदल गयी थी और स्कूल बस भी किन्तु स्कूल से छुट्टी के बाद दोनो का खेलना-कूदना तब तक बना रहा जब तक नीलेश के पिता का पुनः ट्रान्सफर नही हो गया नीलेश जूनियर क्लासेज में पहुंच गया था और ग्यारह वर्ष का भी हो गया था, रंजना चैदह वर्ष की, दोनो के बचपन की यह सरल मैत्री धीरे-धीरे उन दोनो के जहन से समय के साथ - साथ विस्मृत हो गयी थी किन्तु मिटी नही थी और मिट नही भी सकती थी, बचपन के जीवन में हुआ मैत्री भाव सदैव स्थायी और प्रगाड़ बना ही रहता है।
पार्क से बाहर निकल कर उन्होने एक थ्री व्हीलर ली और हजरतगंज में काफी हाउस के सामने उतर गये रंजना नरही में एक हॉस्टल में रहती थी जबकि नीलेश भी वही थोडी दूर पर एक कमरे का स्वतंत्र मकान लेकर रहता था।
“रंजना देर तो बहुत हो चुकी है, यदि समय हो तो एक - एक काफी पीकर अपने-अपने ठिकानो की और चलते है।“
“आप तो जानते ही है आज के दिन हॉस्टल का मेस बन्द रहता और रात को देर से आने को छूट भी होती है।“
“फिर तो काफी के साथ कुछ खा भी सकते है, रोज - रोज रखे उसी टिफिन का खा कर मैं भी बोर हो जाता हूं।“
“सोच तो मै भी यही रही थी।‘
काफी हाऊस में दोनो एक टेबिल पर आमने सामने बैठ गये और वेटर को दो काफी के साथ दो बड़े बर्गर का आर्डर दे दिया गया।
हजरतगंज का काफी हाऊस लखनऊ के नागरिको के लिये जीवन की धुरी है, यह बात अलग है कि यंहा जीवन जिया नही जाता वहां केवल जीवन से विश्रान्ति की व्यवस्था है और जो उस जीवन के संचालन का नियमन करते है उनके लिये वह केवल एक स्वाभाविक कोना है। नीलेश जानता था कि रंजना का तीन वर्ष पहले अपने पति से तलाक हो चुका है परन्तु यह कारण पूछने का साहस उसे कभी नही हुआ, तलाक के पश्चात् उसके पति विदेश शायद यमन चला गया था और किसी एन्गलो इण्डियन महिला या पुरूष के साथ रहता है, रंजना तीन वर्ष से इसी हास्टल में रह रही है और इधर - उधर की छोटी नौकरी करके अपना जीवन जी रही है। काफी पीते पीते यह सब बाते उसके सामने चलचित्र की भांति घूम रही थी सहसा मेज को थपथपा कर रंजना ने उसे वापस अपनी दुनिया में लौटने का संकेत दिया।
“कहाँ खो गये थे नीलेश।“
“कही नही।“
“नीलेश मेरे बारे में सोचना बन्द करो और बताओ तुम्हारी थीसिस कंहा तक पहुंची।“
नीलेश स्थानीय नेशनल डिग्री कालेज में `दो वर्षो से अस्थाई रूप से सहायक लेक्चर था और पी0 एच0 डी0 भी कर रहा था और वह भी नरही मैं ही रह रहा था, और अचानक एक दिन उसकी मुलाकात रंजना से हो गयी थी। काफी हाऊस उनका उनका एक साथ काफी पीना अक्सर होता ही रहता था, शीघ्र ही वह उनकी फेवरेट जगह बन गयी थी।
“आपको तो मालूम ही है दो वर्षो मे मेरे दो पेपर पब्लिश हो चुके है और तीसरे की तैयारी चल रही है।“
“बहुत बढ़िया। मुझे भी कल से एक नौकरी की तलाश करनी है।“
“क्यूं क्या हुआ।“
“तीन दिन पहले मैने त्यागपत्र दे दिया।“
नीलेश जानता था कारण पूछने का कोई लाभ नही होगा पिछले दो वर्षो से उनकी यह तीसरी नौकरी थी जिसे तीन दिन पहले वह छोड़ चुकी थी।
नीलेश ने वेटर को बिल का भुगतान दिया और काफी हाऊस से दोनो बाहर निकल आये, नरही की और जाने वाली सड़क थोडी सुनसान हो गयी थी लगभग सभी दुकाने बन्द हो चुकी थी इक्का दुक्का मोटरसाइकिले और कारे आ जा रही थी वे दोनो पैदल ही अपने अपने ठिकानो की और चल पड़े।
थोडी देर दोनो चुप चाप चलते रहे रंजना समझ रही थी कि उसके त्यागपत्र से नीलेश तोड़ा व्यथित है इस कारण विषय बदलने के उद्देश्य से उसने कंहा।
“नीलेश सत्य को कटु क्यो कहते हैं, वह कटु कैसे हो सकता है, अग्रेजी में भी कहते है पेनफुल ट्रुथ ।“
“सत्य तथ्य का रचनात्मक या सृजनात्मक रूप है और सृजन सदा पेनफुल होता है।“
“आपकी बात बहुत महत्तवपूर्ण है परन्तु इसमें पेनफुल ट्रुथ की बात हल नहीं हुई।“
“हाँ शायद नही हुई।“ थोड़ा ठहर कर।
“एक उदहारण से देखें, मान लीजियें ‘क ‘ख’ से प्रेम करता है यह तथ्य है आप बड़ी आसानी से या सहजता से यह सत्य कह सकते है कि ‘क’ ‘ख’ से प्रेम करता है क्योकि आप का कोई लगाव न तो ‘क’ से है और न ही ‘ख’ से है किन्तु सोचो कि “मै तुमसे प्रेम करता हूं” इस सत्य को कहना कितना कठिन है, यह कह पाना व्यक्ति का सृजनही तो है।“
नीलेश सांस लेने के लिये ठहर गया रंजना जो तीन चार कदम आगे बढ़ चुकी थी नीलेश को ठहरा हुआ देखकर वापस आकर सामने खड़ी हो गयी।
“क्या हुआ तुम रुक क्यो हो गये।“
“मै सोचता हूं सृजन स्वंय मै एक शक्ति है।“
“हाँ है तो।“
“मुझे कुछ कुछ याद आ रहा है आपने एक बार बताया था कि कालेज के समय आप नाटको में भाग लेती थी।“
“मै नाटको में भाग नही उनका निर्देशन करती थी, मेरी रूची निर्देशन में ही है।“
“तो फिर आप निर्देशन को ही अपनी आजीविका का साधन क्यो नही बनाती। रोज-रोज की नौकरी ढूंढने की क्या आवश्यकता है।“
रंजना स्तब्ध होकर ठहर सी गयी अपलक एक टक नीलेश की और देखती हुई, जैसे आग की लौ आलोक विखेरती है उससे हम आलोक को विकसित होते हुए देखते है यदि व्यक्ति की तुलना इस आग की लौ से करें तो यही ध्वनित होता है कि उसमें कुछ उत्सृष्ट होता है और फैलता है किन्तु रंजना मानो शीतल आलोक से घिरी हुई उसके आवेष्टन में सीचीं हुई, अलग, दूर और अस्पृश्य खड़ी थी।
नीलेश ने रंजना को एक बार सिर से पैर तक देखा इसे घूरना नही कहा जा सकता आज की तिथि में यह अशिष्ट है लेकिन एक ऐसी पारखी दृष्टि भी होती है जिसे घूरना कदापि नही कहा जा सकता जो अशिष्ट भी नही है बल्कि सौन्दर्य का नैवेद्य मानी जा सकती है। नीलेश ने सोचा जो स्त्री उसके साथ इतनी सहज और सरल है उसकी चर्चा आस पास ऐसे ही नही होती। उनमे कुछ तो है जिसका उन्मेष जीवन का उन्मेष है जिसे जान सकना ही एक महान अनुभूति है फिर वह जानना चाहे दुखद चाहे सुखद हो।
“मै निर्देशन का व्योसायिक प्रयोग करने की कला को नही जानती।“
“मै समझ सकता हूं, सृजन कला भी है और उपास्ना भी किन्तु यह चुनाव कठिन है जबकी नौकरी एक आसान चुनाव हो सकती है।“
“कठिन रास्ते का चुनाव कर पाने का अब कोई साहस नही रहा।“
“एक बार प्रयास तो करो।“
“नाटक के लिये पात्र मेरा मतलब है कलाकार कहाँ से लाऊगी कालेज के समय सब कुछ रेडीमेड उपलब्ध था।“
“मेरे कालेज मे ऐसे बहुत से लड़के लड़कियां है जो अभिनय कर सकते है किन्तु उन्हे प्लेटफार्म उपलब्ध नही होता।“
“और रिर्हसल के लिये स्थान।“
“है न रवीन्द्रालय।“
“मै कौन सी स्थापित निर्देशिका हूँ जिसे रवीन्द्रालय जैसा नाट्य थियेटर मिल जायेगा।“
“रवीन्द्रालय जैसे प्रतिष्ठित नाट्य थियेटर को भी तुम्हारे जैसी नवोदित और प्रतिभाशाली निर्देशको की आवश्यकता रहती है।“
“और आज के फिल्मो के जमाने में हमारे नाटको के टिकट कौन खरीदेगा।“
“प्ररम्भ के कुछ शो में समस्या हो सकती है किन्तु लखनऊ एक सांस्कृतिक नगरी है यहां नाटको के शौकीनो की कमी नही होनी चाहियें।“
वे दोनो बिजली के प्रकाश से कुछ बच कर अंधेरे में खड़े थे जिस कारण रंजना का माथा और आखे अंधेरे में थी बाकी चेहरे पर आडा प्रकाश पड़ रहा था जिससे नाक, ओठ और ठोड़ी की आकार रेखा सुनहली होकर उभर आयी थी और इसी स्वर्णाभ और निश्चलता पर नीलेश का कौतुहल आकर टिक गया था। कहते है आँखें आत्मा के झरोखे है, झरोखे बन्द भी हो सकते है, परन्तु ओठो की कोर एक ऐसा सूचक है। जो कभी चुकता नहीः और इन्ही की और नीलेश अपलक मुक्त किन्तु विनम्र भाव से देखता रहा, जैसे वक्त ठहर सा गया हो, बगल से गुजरती हुई एक कार के तेज हॉर्न से दोनो पुनः वास्तविक दुनिया मे लौट आये।
“आप एक बार पुनः विचार कर ले, हम इस पर फिर बात करेगें।“
“कब” रंजना से उत्साह से पूछा।
“कल शाम को तीन बजे बेगम हजरत महल पार्क में।“
“और सात बजे की काफी, काफी हाऊस में मेरे ओर से होगी नीलेश।“
“फिर तय रहा। चलो चलते है।“
वे अपने-अपने कमरो में पहुंचे तो रात के ग्यारह बज चुके थे।
रंजना समय से कुछ पहले पहुंच गयी थी बेगम हजरत महल पार्क मे धूप पसरी हुई थी इक्का-दुक्का लोग और कुछ बच्चे छाँव की तलाश कर इधर उधर बैठे हुए थे, पार्क के बाहर दो-तीन आइस्क्रीम बेचने वाले भी खड़े थे ग्राहको की प्रतीक्षा करते हुए दो बच्चे झूला झूल रहे थे जो पसीने से तर-बतर हो रहे थे, रंजना ने अपने बैठने के लिय गुलमोहर के एक पेड़ की तलाश की और उसी के छाँव मे बैठ गयी, अपनी घड़ी की और देखा अभी तीन बजने में बीस मीनट बाकी थे, पेड़ो की छाया लम्बी होने लगी थी, पार्क मे अकेला बैठना सरल नही था समय पास करने के उद्देश्य से रंजना ने पास में खेल रहे दो बच्चो को अपने पास बुलाने की कोशिश की किन्तु सफलता नही मिली तो हार कर चुपचाप बैठ गयी और इधर उधर देखने लगी कुछ विशेष और नया दिखाई नही दिया पार्क का मुख्स प्रवेश द्वार उसके पीछे था और वह जंहा बैठी थी वहां से ठीक दिखाई नही दे रहा था उसने अपने बैठने की स्थित में सुधार किया और इस प्रकार बैठ गयी कि पार्क का मुख्य द्वार स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे और नीलेश को वह दूर से ही देख लें।
नीलेश ने कोई विलम्ब नही किया था, वह नियत समय पर पार्क पहुंच गया था रंजना ने उसे देख लिया और तुरन्त पीछे की और घूम कर बैठ गयी जिससे नीलेश को यह आभास न हो सके कि वह काफी देर से उसकी प्रतीक्षा में बैताब होकर बैठी है। रंजना को खोजने में नीलेश को अधिक समय नही लगा, पार्क में प्रवेश कर उसके इधर-उधर दृष्ट दौड़ाई ही थी कि रंजना दिख गयी वह धीरे-धीरे बिना कोई पदचाप किये रंजना की और बढ़ गया और नजदीक पहुंच कर ठीक उसके पीछे धीरे से चुप-चाप बैठ गया कि रंजना को कोई आभास नही हुआ कि कोई ठीक उसके पीछे आकर बैठ गया है थोडी देर तो रंजना यूँ ही बैठी रही किन्तु जब किसी के आने का कोई संकेत उसे नही मिला तो उसने पीछे मुड़ देखा।
और सहसा उसके मुंह से निकल गया “अरे आप कब आये।“
“बस अभी मै आपको सरप्राइज देना चाहता था और इस कारण तुम्हारे पीछे चुपचाप बैठ गया था ।“
“और मैने आपको पार्क के प्रवेश द्वार पर ही अन्दर आते हुए देख लिया था।“
“और मुझे देखने के बाद आप पीछे मुड़ कर बैठ गयी थी।“
“और नही तो क्या, मै देखना चाहती थी कि आपको मुझे खोजने में कितना वक्त लगता है।“
“इस पूरे पार्क में आप सबसे अलग है मैने दूर से ही पहचान लिया था।“
“आप के बैग में क्या है।“
“बस आपके चुनाव के लिये हिन्दी के चुने हुए नाटको की किताबें लाया था।“
रंजना ने नीलेश के बैग से एक-एक कर तीनो किताबे निकाली जय शंकर प्रसाद का लिखा हुआ नाटक ‘धुव स्वामिवी’, तथा मोहन राकेश के लिखे हुए दो नाटको की किताबे, एक ‘अषाढ का एक दिन’ और दूसरा ‘ लहरो के राजहंस’।
“नीलेश में अपने पहले नाटक के रूप में ‘लहरो के राजहंस’ को चुनना पसन्द करूगी।“
“क्या विशेष है इसमें।“
“वो तो नही पता किन्तु इसका प्ले एक बार हम कर चुके है।“
“फिर तो ठीक है, इस नाटक की विषय वस्तु से आप अच्छी तरह परिचित ही है।“
“मै अपने पढ़ने और समझने के लिये क्या ये दोनो नाटको को भी अपने पास रख सकती हूं।“
“हाँ अवश्य।“.................. “मै अपने कालेज की लाइब्रेरी से लाया हूँ आप पन्द्रह दिन तक रख सकती है।“
“फिर तो ठीक है।“ रंजना ने छोटा सा उत्तर दिया और ‘लहरो के राजहंश’ को खोल कर पढ़ने लगी।“
“क्या विशेष है इस नाटक में।“
“इसका एक डायलॉग मुझे बहुत पसन्द है।“
“कौन सा।“
“नारी का आकर्षण यदि पुरूष को पुरूष बना सकता है तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध भी।“
नीलेश प्ले किये जाने वाले नाटक का चुनाव करने को एक अत्यन्त कठिन कार्य समझता था और चुनाव इतनी सहजता से हो जायेगा इसकी कल्पना भी उसने नही की थी। पार्क में चहल - पहल बढ़ने लगी थी पार्क में लगे हुए पेड़ो की छाया काफी लम्बी हो चुकी थी पार्क बहुत सारे स्त्री पुरूषो और बच्चो से भर गया था, मुख्य प्रवेश द्वार पर आइस्क्रीम बेचने वालो के आस-पास भी भीड़ जुटने लगी थी। काफी देर तक दोनो चुपचाप बैठे रहे एक दूसरे से बिना कुछ बोले आखिर रंजना ने मौन को तोड़ा।
“नीलेश में सोच रही थी कि एक दिन आप मुझसे अवश्य पूछेगें कि मेरा तलाक क्यों हुआ।“
“हाँ रंजना मै आपसे पूछना चाहता था तो अवश्य था किन्तु कभी साहस न कर सका।“
“आप सोचते होगे इससे मुझे दुःख होगा किन्तु वास्तव में अब मै अपने समस्त दुःखो से बाहर आ गयी हूँ और सुख तो जानती ही नही।“
“सुख दुख तो जीवन के यथा क्रम है, किन्तु यदि आप मुझे बता सकें तो तो मैं यह समझुंगा कि आप की दृष्टि में मेरा भी कुछ मान है ।“
“नीलेश मुझे इतना महत्व न दें किन्तु मै केवल आपको ही यह बताना चाहती हूं।“
थोडी देर आकाश की और देखती रहने के बाद एक लम्बी और असम्पृक्त सांस लेते हुए रंजना ने धीरे से कहां।
“मेरे पति को पुरूषो का साथ पसन्द था और वह मुझसे भी उसी प्रकार की अपेक्षा रखता था।“
“किसी ऐसे व्यक्ति के साथ आपने दो वर्ष व्यतीत कैसे किये।“
इस दुःख और पीड़ा को तो मै कुछ कह ही नही सकती।“थोड़ा ठहर कर “शायद मै उसमें सुधार की प्रतीक्षा करती रही।“
“मै यह विवशता समझ सकता हूं।“
पार्क में लाइटे जल चुकी थी लोगो की भीड़ पहले से अधिक हो गयी थी, दो नव विवाहित जोड़े उन दोनो के निकट आकर बैठ गये थे और दोनो जोडे धीरे-धीरे करके बहुत गहरे तक अंतरंग होने का प्रयास करने लगे थे। रंजना स्वंय को सहज नही रख पा रही थी इसका अनुमान नीलेश को भी होने लगा था।
‘‘रंजना आज तुम्हारा हास्टल आठ बजे तक ही तो खुला रहेगा।“
“हाँ आज कोई छूट नही होगी।“
“चलो आज आपकी और से काफी पीते है, काफी हाऊस में।“
“यह तो मेरा पहले से ही वादा है।“
रंजना ने किताबो को अपने बैग में डाला और जल्दी से उठकर खड़ी हो गयी किन्तु नीलेश किसी विचारो में गुम - सुम सा थोड़ी देर अपने स्थान पर बैठा रहा अंततः वह भी धीरे से उठा और रंजना के पीछे-पीछे पार्क के प्रवेश द्वार से ही बाहर निकल आया। तब तक रंजना ने एक टैम्पो तय ली थी काफी हाऊस तक लिये, काफी हाऊस के सामने उतर कर रंजना ने टैम्पो वाले को बिल का भुगतान दिया और काफी हाऊस में जाकर दोनों एक टेबिल पर आमने-सामने बैठ गये, रंजना ने वेटर को दो काफी के साथ दो सैण्डविच लाने का आर्डर दिया और मुक्त भाव से नीलेश की और देखते हुए कहां।
“मैने वेटर को आर्डर देने से पहले आपकी पसन्द को नही पूछा पर असल में मुझे भूख लग रही थी इस कारण आर्डर दे दिया।“
“मुझे आपकी पसन्द अच्छी तरह पसन्द है, मै भी सैण्डविच का आर्डर देने के विषय में सोच ही रहा था।“
“अगर आप सच कह रहे है तो मेरी और आपकी पसन्द काफी मिलती है।“
“मेरे सच न कहने का कोई कारण नही है।“
‘हाँ। मुझे भी यही विश्वास है, और यही कारण है, कि मै स्वंय को आपके साथ मुक्त समझती हूं ‘‘
“यह आप का विश्वास है जिसका मैं सम्मान करता हूँ”
“शायद मै गलत नही हूँ आप मुझसे कुछ कहना चाहते है, किसी भी प्रकार की औपचारिक्ता की आवश्यकता नही है,कहो।“
“रवीन्द्रालय में सप्ताह में तीन दिन शुक्रवार, शनिवार और रविवार को सांयकाल तीन बजे से छः बजे तक का समय तुम्हारे रिर्हसल हेतु तय हुआ है, रविवार को छः बजे के बाद का अतिरिक्त समय नही मिल सकेगा किन्तु बाकी के दो दिन मिल भी सकता है।“
“मेरे लिये बहुत है, मुझे इतने की भी उम्मीद नहीं थी।“`
“आपके नाटको में भाग लेने के लिये उत्सुक लड़के और लड़कियां इस शुक्रवार को ही रविन्द्रालय में अब आप से मिलेगें।“
“यह सब तो ठीक है किन्तु क्या आप नही रहेगें।“
“नही यह आपके हिस्से का संघर्ष है, कालेज में मेरी क्लासेज होगी और मुझे अपने तीसरे पेपर के प्रकाशन की तैयारी भी करते है, किन्तु आपके नाटको के टिकट बेचने का प्रयास में करूगा। रविन्द्रालय में भी टिकट बिक्री की उचित व्यवस्था है थोडा प्रचार - प्रसार अवश्य करना होगा।“
काफी के समाप्त होने तक कोई कुछ नही बोला रंजना ने वेटर को बिल का भुगतान किया और काफी हाऊस से दोनों बाहर आ गये।
“रंजना मै समझता हूं आप सक्षम और समर्थ हैं ये सब बड़ी सरलता और आसानी से कर सकोगी, आप का साथ देने के लिए आपके कलाकार तो रहेगे ही और मैं भी हूँ न, तुम अकेली कभी नही रहोगी।“
“मुझे तुम पर पूर्ण विश्वास है नीलेश।“
रंजना के अगले छः महिने काफी व्यस्त रहे थे रवीन्द्रालय में उसके निर्देशन में दस शो चुके थे जिससे उसे कोई विशेष आय तो नही हुई थी किन्तु सभी खर्चो और कलाकारो को थोडा-थोडा भुगतान करने के पश्चात् उसके जीविका हेतु भी कुछ बच रहा था जो उसके लिये प्रारम्भिक में सन्तोष की बात थी।
नीलेश के तीसरे पेपर का प्रकाशन हो चुका था थीसिस भी पूरी हो चुकी थी और उम्मीद थी अगले छः माह में उसे पी0 एच0 डी0 की डिग्री मिल जायेगी, इस बीच उसकी तीन चार मुलाकाते रंजना से भी हुई थी वह अपने काम में बहुत गम्भीरता से लीन थी जो कि नीलेश के लिये सुखद था, समय बहुत तेजी से गुजरा नीलेश को पी0 एच0 डी0 की डिग्री मिल चुकी थी रवीन्द्रालय और उसके आस पास के क्षेत्रो में रंजना के पोस्टर लगे थे एक कुशल और प्रतिभाशाली निर्देशक के रूप में उसकी ख्याती और पहचान बन गयी थी उसके नाटक के प्रत्येक शो हाऊस फुल होने लगे थे लखनऊ से बाहर वाराणसी, आगरा, मेरठ, गाजियाबाद, में भी उसके निर्देशन में मंचित हुए नाटको को पसन्द किया जाने लगा था। उसकी एक टीम बन गयी थी, सक्षम समर्थ और कुशल, लखनऊ में नाटको का दर्शक वर्ग तो था ही अन्य शहरो में भी उसके नाटको को काफी ख्याती और सराहन मिली थी एक वर्ष और, समय किस तेजी से व्यतीत हो गया कि पता ही नही चला।
शाम के सात बजे थे, नीलेश के आमंत्रण पर रंजना काफी हाउस मै अपने पैर रख देखा तो सामने नीलेश उसकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ था किन्तु उसका मुंह दूसरी और था रंजना ने पीले रंग की साड़ी पहन रखी थी जिस पर रंग बिरंगे फूलों से कढ़ाई की गयी थी। वह जाकर धीरे से नीलेश के सामने वाली सीट पर बैठ गयी, काफी हाऊस के छत पर लगी हुई लाइटो के प्रकाश में नीलेश ने देखा वह पहले से हजारो गुना खिली हुई और आत्मविश्वास से मरी हुई थी संघर्षो के तप ने उसे निर्मल और शक्तिशाली बना दिया था।
“वेटर मेज पर दो कप काफी के साथ एक प्लेट में भुने हुए काजू रख गया था।“
“रंजना मेरी नियुक्ति दिल्ली विश्व विद्यालय में लेक्चरर के लिए हो गयी है, नही जानता फिर कब मुलाकात होगी।“
“कब जा रहे हो।“
“आज रात को दस बजे की ट्रेन है, मेरा सामान एक छात्र लेकर वही पहुचायेगा।“
“तुम्हारी ट्रेन में अभी थोड़ा समय है क्या कुछ देर तुम फिर उसी पार्क में थोड़ी देर मेरे साथ बैठ सकते हो।“
“हाँ क्यो नही सोच तो मै भी रहा था।“
“तुम्हारे कर्तव्य और विकास के रास्ते में बाधा नही बनुगी किन्तु कुछ देर तुम्हारे साथ एकांत में बैठना चाहती हूं, उन्मुक्त बिना भय और पीड़ा के।”
रंजना ने स्वंय से कहा था, उसमे कोई आक्रोश, प्रतिवाद, आवेश कुछ नही था केवल एक स्थिर स्वीकार।
पार्क में गुलमोहर के पेड़ के तले रंजना ने अपने दोनो हाथ उठाकर एक बड़ा सा वृत्त बनाते हुए फैलाए और फिर नीचे गिरा दिया न मालूम अंगडाई लेते हुए या उस विस्तीर्ण और सूने आकाश को बाहो में समेटते हुए नीलेश कुछ समझ नही सका था किन्तु उसकी आँखें नम हो गयी थी, तो रंजना अपनी भावनाओ को अपनी सीमा रेखा से बाहर प्रकट होने देना नही चाहती थी और वह इसमें सफल भी रही थी। दोनो उसी गुलमोहर के पेड़ के तले तब तक बैठे रहे जब तक ट्रेन के जाने का समय नही हो गया था।
“नीलेश में तुम्हे छोड़ने, रेलवे स्टेशन तक तुम्हारे साथ आ सकती हूं, यदि तुम्हारी अनुमति हो तो।“
“मुझे अच्छा लगेगा यदि तुम भी स्टेशन तक चलोगी।“
वे जब स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन के छूटने का समय हो गया था, नीलेश का सामान उसकी निर्धारित सीट के नीचे छात्रो ने व्यवस्थित कर दिया था ट्रेन ने सिटी दी और जल्दी से नीलेश ट्रेन मे चढ़ गया किन्तु ट्रेन के द्वार पर दोनो तरफ हाथ टेक कर खड़ा हो गया और रंजना की और देखने लगा अपलक रंजना ने फिर अपने हाथ फैलाए एक वृत्त बनाया और नीचे गिरा दिया नीलेश को बिदा दे दी गयी थी ट्रेन चल चुकी थी रंजना नीलेश को देखती रही जब तक ट्रेन का आखिरी डिब्बा भी उसकी आखो से ओझल नही हो गया।
जिन्दगी की आपाधयी मे तीन वर्ष निकल गये,नीलेश ने रवीन्द्रालय से रंजना का कान्टेक्ट न0 लिया और एक शाम फोन करके उसे बता दिया कि वह आ रहा है शनिवार को उसकी ट्रेन लखनऊ आठ बजे पहुंचने वाली थी रंजना का शो था किन्तु वह अपना काम सहायको को सौप कर नियत समय पर स्टेशन पहुंच गयी थी, रंजना को उसका बोगी न0 पता था वह वही खड़ी थी जंहा वह बोगी आकर ठहरने वाली थी, ट्रेन समय पर थी, नियत समय पर वह बोगी ठीक रंजना के सामने आकर ठहर गयी बोगी के अन्दर रंजना ने देखने का प्रयास किया नीलेश सामान लेकर खड़ा हो गया था उसके पीछे एक सुन्दर सी स्त्री और भी थी पहले नीलेश उतरा फिर अपने साथी को उतरने में सहायता की सामान को कुली को सौंपा और बाहर गेट पर मिलने को कहा नीलेश सीधे रंजना के सामने ही पहुंच कर रूका रंजना ने हाथ जोड़कर शालीनता से विनम्र अभिवादन किया।
“रंजना यह है ‘नीलिमा’ यहीं गोमती नगर की रहने वाली है और मेरे साथ ही सहायक लेक्चटर है”और नीलिमा की और देखकर वह रंजना का परिचय करने हेतु हेतु कुछ कहता इसके पहले ही नीलिमा बोल उठी।
“आप है रंजना जी!आपका नाम में नीलेश के मुख से लगातार सुनती रही हूं इतना की ट्रेन की बोगी से ही आपको पहचान लिया था, और में गलत नही थी।“
‘‘रंजना के और निकट आकर नीलेश ने कहा।“
“हम दोनो की नियुक्ति लखनऊ विश्वविद्यालय में हो गयी है, और अब हम हमेशा के लिए लखनऊ आ गये हैं ।“
रंजना शून्य में देखती रही, कुछ कहा नही,तीनो एक साथ रेलवे प्लेटफार्म के निकास द्वार से बाहर निकले, कुली समान लेकर वही प्रतीक्षा कर रहा था।
नीलेश ने कुली को भाड़ा दिया, कुली चला गया, सामने एक कार आकर रूकी, नीलिमा का सामान उसने रख दिया गया सामान्य अभिवादन कर नीलिमा कार में बैठी और चली गयी। नीलेश ने अपने पुराने छात्रो को बुला लिया था, छात्रो ने नीलेश का सामान एक टैम्पो पर रखा और सामान लेकर चले गये।
रंजना सब कुछ कौतूहल और आश्चर्य से देखती रही थी,कुछ पूछने का वह अपना अधिकार अब नही समझ पा रही थी,और इतना साहस भी नही जुटा पा रही थी, रंजना को अशांत, हतप्रभ और तमाम आशंकाओं से घिरी देखकर नीलेश ने कहा।
“नीलिमा अपने पिता के साथ अपने घर जा चुकी है, और हम एक बार फिर वही चलेगे जंहा से तुमने मुझे जाने की बिदा दी थी।“
नीलेश हजरत बेगम महल पार्क के उसी गुलमोहर की छाँव में पेड़ के नीचे खड़ा था और रंजना धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी सहसा नीलेश ने रूंधे हुए कंठ से कहा ‘‘आओ” रंजना ने देखा उसका हाथ उसी की और बढ़ा है एक आवाहन में, उस पुकार को उसने समझा, नीलेश के पास घुटने टेकते और झुकते हुए उसने फुसफुसाते स्वर में कहा ‘‘लो आई।“
साक्षी हों पूर्ण उगा हुआ चाँद, आकाश और पवन, तले बिछी हुई हरी घास, फूल और चट्टाने साक्षी हो आन्तरिक्ष के अगनित देवता और अकिंचन वनस्पतियाँ-
लेकिन यह एक सत्य है, जो कोई साक्षी नही मांगता, सिवाय अपने ही भीतर की निविड़ समर्पण की पीड़ा के अपने में हो निहीत, स्पन्दित और क्रियाशील असंख्य पीड़ाओ की असंख्य सम्भावना के....................
रंजना खड़ी हो गयी थी मुस्कुराते हुए आकाश में चाँदनी के बीच टिमटिमाते हुये असंख्य तारो की तरह उमड़ती हुई असंख्य लालसाओ के साथ जैसे सब कुछ प्राप्त कर लिया गया हो, न कुछ खोने का डर हो और न किसी मंजिल को पाने की उत्सुकता, रंजना ने फिर अपनी बाँहें खोली दोनो हाथ फैलाऐ एक वृत्त बनाया किन्तु इस बार उस वृत्त के अन्दर, उसके बाँहों के घेरे में नीलेश था पूरा समाया हुआ पूरी तरह समर्पित और प्रसन्न।