दहशत में सिसकती जिन्दगी
‘वनिता’ ने श्रीनगर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से ‘वहाबपोरा’ के लिये सीधी टैक्सी ली थी। ‘वहाबपोरा’ ‘अहैजी’ नदी के तट पर बसा जम्मू कश्मीर राज्य के बड़गांव जनपद का एक छोटा शहर था । यह शहर क्या वनिता के बचपन का गांव ही था जहां पर उसने चार वर्ष बड़ी बहन ‘नलिनी’ तथा माता-पिता के साथ अल्हड़ बचपन के ग्यारह वर्ष व्यतीत किये थे। पहले से ही बुक किये होटल ‘ग्रीन डायमण्ड’ के अपने कमरे में पंहुचकर वह एक कुर्सी पर सिर टिका कर बैठी ही थी कि उसके पर्स में रखे मोबाइल की घंटी बजने की धीमी आवाज सुनाई दी। वनिता ने पर्स से मोबाइल निकाल कर देखा तो फोन उसके पति अनमोल का था-‘‘हलो...’’ पति की हमेशा की तरह शांत और मधुर आवाज सुनकर उसे अच्छा लगा।
‘‘हाँ, मैं होटल पहुँच गयी हूँ, बस अभी हमारा सामान कमरे तक नहीं पहुँचा है।वेटर ला रहा होगा।’’‘‘रास्ते में कोई कठिनाई तो नहीं हुई।” ‘‘नहीं, कुछ भी नहीं, अभी तक का सफर बढ़िया रहा है।’’
‘‘ठीक है, अपना ख्याल रखना। ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम्हें अपने काम में सफलता मिले। तुम्हारी दीदी से तुम्हारी मुलाकात शीघ्र ही हो। अच्छा, फोन रखता हूं।’’
फोन काट दिया गया। वनिता ने सामने की मेज पर अपने मोबाइल को लगभग फेंक ही दिया था, किन्तु मोबाइल मेज पर रखे पर्स पर गिरा जिससे कोई तेज आवाज तो नहीं हुई, किन्तु उसके हदय में एक हूक सी उठी और वह बैठ गयी । तभी कमरे के दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई ।‘‘कम इन।’’ वनिता ने कहा और अपने दुपट्टे को ठीक करते हुए कुर्सी पर सावधानी से बैठ गयी। वेटर ने धीरे से कमरे का दरवाजा खोला । उसने एक ब्रीफकेस और एक बैग लाकर, अलमारी में करीने से लगा दिया।
‘‘मैडम! किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो फोन से ‘नौ नं0’ डायल कीजियेगा । यह रूम सर्विस का नं0 है।” वेटर ने कमरे में रखे फोन की ओर संकेत करते हुए कहा।‘‘बहुत अच्छा, अभी चाय मिल सकती है?’’
‘‘यस मैडम, अभी लाया।’’ वेटर ने विनम्रता से कहा और कमरे का दरवाजा बंद करते हुए बाहर चला गया।
वनिता थोड़ी देर यूं ही बैठी रही, निढ़ाल सी। तभी वेटर चाय ले आया । चाय पीकर उसे थोड़ी ताजगी का एहसास हुआ किन्तु उसके अंदर विचारों और भवनाओं का तूफान उठ रहा था।
शाम के चार बज गये थे, दिन ढ़लने में अभी थोड़ा समय शेष था । वह धीरे से उठी अपने कमरे की खिड़की का पर्दा हटाकर होटल के प्रांगण में देखने लगी ।
पेड़ों की छाया लंबी हो गयी थी । एक - दो बच्चे यूँ ही लॉन में इधर-उधर खेल रहे थे । सामने की सड़क पर लगातार गाड़ियां आ - जा रही थीं ।उसे महसूस हुआ कि वहाबपोरा के लोगों की जिंदगी भी काफी बदल गयी है।
तीस वर्ष पहले ऐसा नहीं था, जिला मुख्यालय बड़ग्राम से वहाबपोरा तक कोई सड़क नहीं थी । लोगों का आना - जाना पैदल या साइकिल से ही होता था। उसे यह भी याद आया कि उस समय गांव में केवल तीन मंदिर एवं दो मस्जिद थीं। गांव में तीस प्रतिशत से अधिक हिन्दू थे जो आर्थिक रूप से काफी संपन्न और प्रभावशाली माने जाते थे। सभी का व्यवसाय कृषि ही था । अहैजी नदी का पानी कृषि के लिये काफी उपयोगी था और पीने के काम भी आता था ।
वहाबपोरा जो कि दो शब्दों से मिल कर बना है । ‘वहाब’ जिसका अर्थ होता है अल्लाह ( देने वाला) और ‘पोरा’ का अर्थ है ग्राम या कस्बा! इस ग्राम को पांच सौ वर्ष पहले मुगल बादशाह जहाँगीर के साले आसिफ अली खान ने बसाया था। उन्होंने यहां पर चिनार के पांच वृक्ष भी लगाये थे, जिन्हें आज भी देखा जा सकता है । आसिफ अली खान उस समय कश्मीर के गर्वनर थे। ये सब उसे उसके पिता ने तब बताया था जब वह दस वर्ष की थी। भागती - दौड़ती जिंदगी के बीच उसे यह सब कुछ याद नहीं रहा था किन्तु खिड़की के सामने खड़े होकर आस-पास देखा तो तीस वर्ष पहले पिता से सुनी सब बातें चलचित्र की भांति उसके जेहन में घूमने लगी थीं ।
होटल के लॉन की लाइटें जल चुकी थीं । लॉन में लोगों की भीड़ थोड़ी बढ़ गयी थी । उसे याद आया ‘चिनार गार्डन’ को ‘आसिफ अली बाग’ भी कहा जाता है। उसके हृदय पटल पर गांव की वह तस्वीर एकदम स्पष्ट तो नहीं थी, किन्तु उसे सभी कुछ धुंधला सा याद था । वह स्कूल ,जहां वह तथा उसकी बड़ी बहन पढ़ती थीं। मंदिर के प्रांगण और वहां स्थापित मूर्तियां। दिन में मस्जिद से होती पांच बार की अजान। जिसका सभी अपने पूरे मन तथा विश्वास से सम्मान करते थे। मंदिरों की पवित्रता का भी पूरा ध्यान रखा जाता था। पारिवारिक और सामाजिक उत्सवों में भी सभी की भागीदारी रहती थी। वनिता ने अपना मोबाइल उठाया और वहाबपोरा का सेन्सेस देखा - राज्य जम्मू और कश्मीर, जनपद बड़ग्राम, समुद्र तल से ऊंचाई 16610 मीटर,जनसंख्या (2014) 14000 बोलचाल की भाषा कश्मीरी, सरकारी काम-काज की भाषा अंग्रेजी, उर्दू, हिन्दी, समय जोन UTC + 5.30 (IST) धर्म शिया मुस्लिम 90%, सुन्नी मुस्लिम 5%, नूरबक्श शिया 5% अन्य 0%, पुरूष 55% महिला 45% यह आज का वहाबपोरा है। तीस वर्ष पहले के वहाब पोरा से बिल्कुल भिन्न ! अन्तराष्ट्रीय एअर पोर्ट के निकट होने के कारण एक - दो होटल बन गये थे, जहां कश्मीर घूमने की इच्छा रखने वाले आकर रूकते थे, उसने सोचा लोग अब काफी व्यवसायिक हो चुके होंगे। विचारों की श्रृंखला उसे कहां ले जायेगी। वह अनुमान लगाने का प्रयास करती, इसके पहले मोबाइल की घंटी बज उठी। देखा, सात बज चुके थे। फोन मां का था।
‘‘हलो!’’ विचारों से जागते हुए उसने धीरे से कहा, ‘‘मां, मैं होटल पहुंच गयी हूँ । अनमोल ने क्या बताया नहीं?‘‘
‘‘बेटी! वह तो अभी ऑफिस से ही नहीं आया है।”
यह तो मैंने सोचा ही नहीं । अनमोल को अक्सर आने मे देर हो जाती है।उसने मन में कहा।
‘‘मां, मैं चार बजे पहुँच गयी थी।अनमोल से बात हो गयी थी, तो मुझे लगा उसने आप को बता दिया होगा।”
‘‘बेटी! तुम बड़ी हो, समझदार भी हो, किन्तु मां को चिंता तो रहती ही है।’’
‘‘हाँ,माँ ! मुझे मालूम है।’’
‘‘अच्छा, क्या हुआ, नलिनी’ का कुछ पता चला?’’
‘‘नहीं माँ! अभी तो कोई प्रयास ही नहीं किया है। कल से खोजने का प्रयास करूंगी।’’
‘‘तुम तो जानती हो बेटी, मैंने किस तरह से घुट-घुट कर तीस साल गुजारे हैं, आज भी उसकी बिलखती लाचार चीखें और तुम्हारे पिता की बेबसी मेरी आँखों के सामने जीवित है।’’
‘‘जानती हूँ माँ, मैंने आप का दर्द हमेशा महसूस किया है । दीदी की आँखों के आंसू मुझे आज भी दिखाई देते हैं, पिताजी को घुट - घुट कर मरते हुए भी देखा है । रिफ्यूजी कैम्प का पूरा परिवेश मेरी अंतरात्मा में ठीक उसी प्रकार जीवित है, जैसा वह कैम्प था। आप ने किस तरह दिन - रात मेहनत कर मुझे पाला है, यह भी जानती हूँ । तिल - तिल कर कठोर होते हुए आप के हाथों में जमते हुये खून और छालों को मैंने दिल की अतल गहराइयों से महसूस किया है। यह आपकी ही कठिन मेहनत और प्रेम का फल है कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकी हूँ। आपके आशीर्वाद से ही मुझे अनमोल जैसा पति मिला और आज मैं सोलह वर्ष के ‘कुणाल’ और बारह वर्ष की ‘तान्या’ की माँ हूँ।”
वनिता के कानों में मां की सिसकियां गूँजने लगी। मोबाइल पर उसे अपने हाथों की पकड़ ढीली महसूस हुई। उसे लगा अभी वह भी रो पड़ेगी। किसी तरह उसने स्वयं को संभाला।
उधर से मां कुछ कहना चाहती थी, किन्तु उसकी आवाज गले में ही रूंध कर रह गई थी।
‘‘मां, मैं फोन रख रही हूँ, फिर बात होगी।’’ किसी प्रकार उसने कहा और फोन काट दिया।
वनिता ने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद किया और बेड पर औंधे मुँह तकिये पर पड़ गयी। आँखों से आँसू तो हृदय से तूफान बह निकला।
पिता की बतायी एक-एक बात उसके विचारों में गूंजने लगी। चौदह सितंबर 1989, जम्मू कश्मीर के एक प्रमुख विपक्षी दल के प्रदेश उपाध्यक्ष ‘टिक्कू लाल पप्लू’ की हत्या होने के साथ राज्य में आंतक का दौर समय के साथ उग्र और वीभत्स होता जा रहा था।‘टिक्कू’ की हत्या के महीने भर बाद ही ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ के नेता ‘मकबूल बट’ को मौत की सजा सुनाने वाले सेवा निवृत्त न्यायधीश ‘नीलकंठ गंजू’ की हत्या कर दी गयी। हिन्दुओं को कश्मीर छोड़ देने के पर्चे बाँटे जा रहे थे। मस्जिदों से लगातार यह घोषणा की जाने लगी थी कि 'हम सब एक, तुम भागो या मरो', कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया गया, जिसमें लिखा था या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो।बहुत सारे लोग अपनी सम्पत्ति, व्यापार आदि छोड़कर पलायन कर रहे थे। अठारह जनवरी उन्नीस सौ नब्बे को उसकी बहन ‘नलिनी’ का अपहरण बंदूक की नोंक पर कर लिया गया। उसकी माँ का आतंकियो के सामने हाथ जोड़ना, पैर पकड़ना सब व्यर्थ हो चुका था। हिंसा में सभी शामिल तो नहीं थे किन्तु उन सबके मौन ने आतंकियों के हौसलों को बढ़ा दिया था। राज्य सरकार और उसकी पुलिस केवल दर्शक बनी रह गयी थी। किसी ओर से कोई समर्थन न मिलने के कारण अंतत: उसके पिता ने भी उन्नीस जनवरी उन्नीस सौ नब्बे की सुबह कश्मीर घाटी को छोड़ दिया, सदा- सदा के लिये। और फिर वो दिल्ली में कश्मीरियों के लिये बने रिफ्यूजी कैम्प में आ गये थे, अपने परिवार के साथ। आतंक का सिलसिला यहीं नहीं रुका था। इसके बाद डोडा नरसंहार- चौदह अगस्त उन्नीस सौ तिरानवे को बस रोककर पंद्रह हिंदुओं की हत्या कर दी गई। संग्रामपुर नरसंहार- इक्कीस मार्च उन्नीस सौ सतानवे में घर में घुसकर सात कश्मीरी पंडितों को किडनैप कर मार डाला गया। वंधामा नरसंहार में पच्चीस जनवरी उन्नीस सौ अठानवे को हथियारबंद आतंकियों ने कश्मीरी परिवार के तेईस लोगों को गोलियों से भून डाला गया। प्रानकोट नरसंहार में सत्रह अप्रैल उन्नीस सौ अठानवे को उधमपुर जिले के प्रानकोट गांव में एक कश्मीरी हिन्दू परिवार के सत्ताईस लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, इनमें ग्यारह बच्चे भी शामिल थे। इस नरसंहार के बाद डर से पौनी और रियासी के एक हजार हिंदुओं ने पलायन किया था। सन दो हज़ार में अनंतनाग के पहलगाम में तीस अमरनाथ यात्रियों की आतंकियों ने हत्या कर दी।बीस मार्च सन् दो हजार को चित्तीसिंघपोरा नरसंहार में ‘होला मोहल्ला’ मना रहे छत्तीस सिखों की गुरुद्वारे के सामने आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। दो हजार एक में डोडा में छः हिंदुओं की आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। दो हजार एक में ही जम्मू रेलवे स्टेशन पर नरसंहार हुआ। वहां सेना के भेष में आतंकियों ने रेलवे स्टेशन पर गोलीबारी कर दी, इसमें ग्यारह लोगों की मौत हो गई। सन दो हज़ार दो में जम्मू के रघुनाथ मंदिर पर आतंकियों ने दो बार हमला किया, पहला तीस मार्च को और दूसरा चौबीस नवंबर को, इन दोनों हमलों में पंद्रह से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। सन् दो हजार दो में ही कासिम नगर नरसंहार में उनतीस हिन्दू मजदूरों को मार डाला गया। इनमें तेरह महिलाएं और एक बच्चा शामिल थे। दो हजार तीन में नंदी मार्ग नरसंहार में पुलवामा जिले के नंदी मार्ग गांव में आतंकियों ने चौबीस हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया था।
इस तरह पुरानी यादों से वनिता का हृदय पिघल कर तरल हो गया था। आँखें सूखकर पथरा गयीं थीं। ये पिता द्वारा बताई वो सब यादें थीं, जिनका अब कोई महत्व नहीं था; जिन्हें वह याद भी नहीं करना चाहती थी किन्तु एक बार विचारों और भावनाओं का सैलाब उमड़ा तो जल्दी रुका नहीं।
उसने करवट बदल ली थी और अब सीधी होकर लेट गयी। विचारों की श्रृखंला टूटी तो भावनाओं का सैलाब भी ठहर गया। वह धीरे से उठकर बैठ गयी एक संकल्प के साथ।वह संकल्प था, अपनी बहन को ढूंढने का। यहां पहुँच कर उसे यह काम अब कठिन नहीं लग रहा था। जम्मू कश्मीर कुछ विशेष प्रावधानों वाला राज्य अब नहीं था। भारत सरकार के अधीन अब केन्द्र शासित राज्य था। रास्ते और अभी तक के अनुभवों से उसने जाना था कि पुलिस और वहां के लोग काफी सहयोगी हैं।वे केन्द्र सरकार की नीतियाँ, घोषित और प्रस्तावित किये जा रहे कार्यों से संतुष्ट हो रहे थे। अब बदलाव को सहज रूप से देखा और महसूस किया जा सकता था।
वनिता नहाकर बाथरूम से बाहर आयी ।वह काफी शांत हो चुकी थी । उसने अपने लिये डिनर का आर्डर दिया और अपने बच्चों का हाल-चाल जानने के लिये अनमोल को फोन कर दिया।
“हलो ! कैसी हो।’’ हमेशा की तरह पति द्वारा शांत और मधुर आवाज सुनकर उसे एक बार फिर मन का सुख मिला।
“ठीक हूँ।”
“यहाँ अभी डिनर की तैयारी हो रही है। दोनों बच्चे अपनी नानी के साथ किचन में कुछ कर रहे हैं ।’’
“आप का दिन कैसा रह?’’
“बढ़िया! ‘वहाबपोरा’ कैसी जगह है?”
“वहाबपोरा अब वैसी जगह नहीं रही जैसा की मां ने हमें बताया था। यहां अब काफी विकास हो गया है। संपन्नता दिखती है...” तभी कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई।“मेरा डिनर आ गया है। विस्तार से बाद में बात करूंगी । अभी फोन रखती हूँ, शुभ रात्री !’’
उधर से आवाज आयी- “शुभ रात्री डियर..!’’ और फोन कट हो गया।
सुबह आंख खुली तो वनिता ने अपनी आदत के अनुसार सबसे पहले अपना मोबाइल देखा। सुबह के आठ बज गये थे। दिन सोमवार, चौबीस फरवरी, 2020.
तैयार होकर वनिता अपने कमरे की चाबी देने होटल के रिसेप्शन पर पहुंची तो दस बजने वाले थे। काउन्टर पर बैठे मैनेजर ने सहज रूप से पूछ लिया, “घूमने किधर जाना है, मैडम।’’
“वहाबपोरा के पुराने मोहल्ले और वहां के पुराने धार्मिक स्थलों के विषय में जानना चाहती हूँ।’’
“आप को अपने साथ हमारे गॉइड सिराज को ले जाना चाहिए, आप को सुविधा रहेगी।’’
“ठीक है। मि0 सिराज को कितना देना होगा।’’
“केवल रू0 सात सौ मात्र।’’
“मैडम, यहां आस-पास की प्राकृतिक सुन्दरता, ‘चिनार गार्डेन’ और ‘अहैजी नदी’ देखने योग्य है।’’ सिराज ने कहा।
“अवश्य ! किन्तु मुझे पहले यहां की मौलिक और वास्तविक संस्कृति जाननी और समझनी है।’’
होटल ‘ग्रीन डायमण्ड’ ‘वहाबपुरा’ के बाहरी क्षेत्र में था जहां नई बस्ती बस रही थी,नये स्कूल, कॉलेज और अस्पताल तथा प्रमुख बाजार भी यहीं विकसित होना प्रारम्भ हुए थे। सिराज के साथ वनिता ने पैदल ही घूमने का निश्चय या था। दोनों होटल से बाहर निकले। सिराज ने बाएँ तरफ चलने का संकेत किया, रास्ता नीचे गांव की ओर जाता था, ढ़लान हल्की थी पैदल चलना सुखद लग रहा था।
“सिराज, आप कहां के रहने वाले हैं और आपने गाइड का काम ही क्यों चुना?’’
“मैं यही वहाबपुरा का रहने वाला हूँ, जम्मू विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के पश्चात गाइड के कार्य को चुना क्योंकि यह कार्य मुझे संतोषप्रद लगता है । मुझे हिन्दी, अंग्रेजी और कश्मीरी भाषाएं ठीक से आती हैं, जो इस कार्य में मेरे लिए सहायक है।’’
“यहां कोई शिव मंदिर है?’’
“है न ! मेरे घर के पास ही, किन्तु अब उसके अवशेष ही बचे हैं, वह भी मेरी बड़ी अम्मी के कारण।’’
“बड़ी अम्मी मतलब।’’
“मेरे पिता की पहली पत्नी।’’
वनिता ने अपनी भावनाओं को छुपा कर पूछा,
“आप के पिता क्या करते हैं ?’’
“यहाँ की सबसे पुरानी मस्जिद के इमाम हैं और अब मेरे बड़े भाई भी उनके काम में सहायता करते हैं।’’
“आप की बड़ी अम्मी को हिन्दू मंदिर में क्यूं इतनी रूचि है?’’
“जहाँ तक मुझे मालूम है वे हिन्दू थीं और मेरे पिता ने उनसे जबरदस्ती शादी की थी तथा जहां तक मैं समझ सका हूँ मेरी बड़ी अम्मी ने मेरे पिता को कभी अपना पति माना ही नहीं।’’
“क्या वे अपने परिवार के साथ नहीं रहतीं।’’
“साथ हैं भी और अलग भी! बड़ी अम्मी हमारे घर के एक अलग पोरशन में रहती हैं । पिता जी उन्हें गुजारे के लिए तीन हजार रू0 हर माह देते हैं तथा वे मोहल्ले के छोटे बच्चों को हिन्दी और अंग्रेजी पढ़ाती हैं ।’’
“क्या आप को यह सब ठीक लगता है?’’
“मेरे ठीक का तो सवाल ही नहीं है मैडम, पिता का परिवार पर ही नहीं मोहल्ले पर भी हुक्म चलाता है, वे मस्जिद के इमाम जो हैं, यहां हमारी आस्था ही सब कुछ है।’’
“आप की बड़ी अम्मी का नाम क्या है?’’
“नाजनीन बेगम! यह नाम उन्हें शादी के बाद दिया गया था।’’
ढ़लान समाप्त हो गयी और सड़क समतल हो गयी थी। वनिता को कुछ भी जाना-पहचाना सा नहीं लग रहा था।
कच्चे मकान पक्के हो गये थे। कच्ची - पतली सड़कें पक्की और चौड़ी हो गयी थीं । कच्ची सड़क के किनारे लगे पड़े अब नहीं थे। राज्य सरकार का वह स्कूल जहां वह पढ़ती थी उसका भवन अब बहुत बड़ा हो गया था। पहले वह प्राइमरी पाठशाला थी अब वह अब इण्टर कॉलेज हो गया था। स्कूल के चारों ओर अब बाउंड्री बन गयी।
वनिता को कॉलेज से थोड़ी दूरी पर एक बहुत बड़ी मस्जिद तो दिखाई दी किन्तु स्कूल के सामने बना विशाल मंदिर कहीं दिखाई नहीं दिया तो उसने पूछा,
“सिराज, यहां मस्जिद तो दिख रही है किन्तु मंदिर तो कहीं नहीं दिखता।’’
“वह जो खंडहर दिख रहा है वही मंदिर है। यहां के लोग कहते हैं मंदिर के ऊपर पांच गुम्बद थे । चार गुम्बदों को टूटते हुए मैंने नहीं देखा किन्तु पांचवा मेरे सामने टूटा था तब मैं बारह - तेरह साल का था, आज से पांच - छः वर्ष पहले।’’
“आप का घर कौन-सा है?’’
“मस्जिद के बगल में, सफेद और हरे रंग से पुता ।’’ अपने घर की ओर संकेत करते हुए सिराज ने कहा।
“मैं पहले मंदिर जाना चाहती हूँ, फिर आप की बड़ी अम्मी और पिता से भी मिलना चाहूँगी।’’
“हो सकता है बड़ी अम्मी अभी मंदिर में ही हों और पिता का तो नहीं मालूम कहां होंगे ।’’
सिराज को वहीं छोड़ कर वह धीरे-धीरे चलकर मंदिर के प्रांगण में पहुंची तो बहुत सारी बचपन की स्मृतियां ताजी हो गयीं । नीम, पीपल और एक आम का पेड़ वही था ज्यों का त्यों किन्तु आम के बाकी पेड़ वहां नहीं थे। प्रांगण में चारों ओर झाड़ियाँ उगी हुई थीं बेतरतीब सी, चारों ओर। बाउंड्री के केवल चिन्ह शेष रह गये थे। मंदिर का घंटा वही था, जिसे वह बचपन में पिता की गोद़ में चढ़कर हमेशा बजाया करती थी। शिव जी की सफेद संगमरमर के पत्थर से बनी मूर्ति वहीं थी, अपनी पूरी आभा के साथ । मंदिर का गर्भजून साफ था ।
फर्श पूरी तरह टूट चुका था । मूर्ति के चरणों में कुछ फूल चढ़े हुए थे, मस्तक पर लाल चंदन लगा हुआ था, जली हुई धूपबत्ती के चिन्ह और खुशबू थोड़ी शेष थी।
वनिता शिव जी की मूर्ति के सामने बैठ गयी अपनी पूरी श्रद्धा से हाथ जोड़े। उसने मूर्ति के चरणों पर सिर रख दिया। वह काफी देर तक यूं ही बैठी रही। शिव जी के चरण उसके आंसुओं से धुल गये थे।
तीस वर्षों से संचित हृदय का समस्त ताप और पश्चाताप, धीरे-धीरे पिघलता रहा। वनिता के ताप में उसकी मां और पिता का भी ताप घुला हुआ था। उसके पिता जीवन भर इस सब के लिये स्वयं की कायरता और बेबसी हेतु अपने आप को अपराधी मानते रहे थे।उन्होंने स्वयं को कभी माफ नहीं किया था। दिल्ली के रिफ्यूजी कैम्प में अपने प्राण छोड़ने से पहले, उससे, वनिता से अपनी बेटी ’नलिनी’ का पता लगाने का वचन ले लिया था। अपने पिता को दिये गये वचनों को पूरा करने के लिए ही वह यहां तक आयी थी, जिसमें वह सफलता के काफी निकट थी।
शिव जी के चरणों से उसने अपना सिर उठाया, धीरे से खड़ी हुई और तीन कदम पीछे हटते हुए एक कोने में हाथ जोड़कर बैठ गयी। सिराज के बताने के अनुसार उसकी बहन को वहीं होना चाहिए था किन्तु अभी नहीं थी। हो सकता है वह अभी आती हो, वनिता अपनी बहन से अकेले में बात करने के पश्चात् उसके पति से मिलना चाहती थी।
वनिता को अधिक समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। नलिनी ने मंदिर के प्रवेश द्वार पर माथा टेकने के पश्चात् अंदर कदम रखा तो पहले से एक कोने में किसी को बैठा देखकर ठिठक कर ठहर गयी। फिर सोचा कोई बाहरी होगा, घुमने आया होगा। अक्सर कोई न कोई आता ही रहता था, किन्तु किसी का वहां बैठना उसके लिये नई बात थी।
पिछले तीस वर्षों से मंदिर में स्वयं के सिवा किसी और को बैठे हुए नहीं देखा था। वनिता की ओर आश्चर्य से देखते हुए नलिनी भी धीरे से उसके बगल में बैठ गयी। वह पैंतालीस की उम्र में पैंसठ की दिख रही थी। पहनावा साधारण सलवार, कुर्ता और दुपट्टा ही था किन्तु साफ सुथरा था। अपने पहनावे से वह किसी भी तरह हिन्दू नहीं दिख रही थी, परन्तु उठने - बैठने और अन्य क्रिया कलाप में हिन्दू संस्कृति और सभ्यता की झलक देखी जा सकती थी। बात कहाँ से शुरू की जाय वनिता सोच रही थी कि तभी नलिनी ने ही पूछ लिया,-
“आप कहाँ से हैं ?’’ शब्दों से मिठास और पीड़ा टपक रही थी।
वनिता ने एक बार में अपना परिचय देना उचित नहीं समझा। उसने धीरे से कहा, “मैं दिल्ली की रिफ्यूजी कैम्प से हूँ। मेरे पिता का नाम ‘दयाशंकर पाण्डा’ और माता का नाम ‘सवित्री पाण्डा’ है।’’
“और आप का नाम ?’’ आँखों में नयी चमक और शरीर में नयी ऊर्जा का संचार होने लगा था।
“मेरा नाम ‘वनिता पाण्डा’ है दीदी।’’
“तुमने मुझे कैसे पहचाना ?’’ नलिनी की आँखों से आंसू बह चले ।
“सिराज से बात करके।’’ वनिता इससे अधिक कुछ बोल नहीं सकी, कंठ अवरूद्ध हो गया था। सांसें ठहर सी गयी थी। दोनों के हृदय में वर्षों की पीड़ा और अवसाद उमड़ आया था। वे एक दूसरे से लिपट गयीं और तब तक लिपटी रहीं जब तक उनकी आँखों के आंसू सूख नहीं गये।
मन का सारा संताप पिघलकर बह गया तो दोनों थोड़ी शांत हुईं । कहने - सुनने और बताने को कुछ रह नहीं गया। दोनों की आत्मा आलिंगन बद्ध हुई तो लगा जैसे दोनों ने ही एक - दूसरे को अच्छी तरह समझ और जान लिया है। उन दोनों के बीच जो घटित हो चुका था वह मानवीय संबंधों की पराकाष्ठा थी, जिसकी कोई भाषा नहीं होती, कोई शब्द नहीं होते, स्पर्श दुनिया की सबसे बड़ी भाषा है। इसके बाद कुछ भी व्यक्त करने को नहीं रह जाता, सब कुछ जान लिया जाता है बिना किसी आवाज के ! दोनों के हृदय में उठे तूफान का वेग कुछ शांत हुआ तो मंदिर के पीछे बह रही अहैजी नदी का कल - कल करता मधुर स्वर सुनाई दिया, जिसे वे अपने बचपन से सुन रहीं थीं। अहैजी नदी की गोद में बैठ कर उन्होंने अनमोल सपने बुने थे। गांव के बच्चों के साथ दोनों बहनों ने उस तट पर कितनी ही अठखेलियाँ की थीं। उसके पवित्र जल से सूर्य को अर्घ समर्पित किया था। उसी के जल से शिव जी का प्रत्येक वर्ष जलाभिषेक किया जाता था। ये सब कुछ आज भी उसी प्रकार उनके मन में संचित और जीवित था। काफी देर तक दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ यूँ ही बैठी रहीं ।
नलनी ने धीरे से पूछा, “मां और पिता जी कैसे हैं?’’
“दीदी, पिता जी जीवन भर आप के अपहरण के लिये स्वयं को दोषी मानते रहे और इसी पीड़ा में दो वर्ष बाद ही वह हमें छोड़ कर चले गए । मां मुझे पालने - पोसने के लिए जीवित रहीं और आज वह मेरे पति – बच्चों के साथ ही रह हमारा बहुत ख्याल रखती हैं । मेरे पति अनमोल उन्हें अपनी माँ की तरह मानते हैं । माँ आप के बिना तीस वर्षों से घुट - घुट कर जीवन जी रही हैं । आज आपके मिलने से उनकी साधना पूरी हुई और मेरी भी।’’
“आस और साधना तो मेरी भी समाप्त हुई है। शरीर की पीड़ा और कष्ट का तो कोई बोध ही नहीं है। आत्मा पीड़ा और ग्लानि से मैं सदा ही जलती रही ।’’
“मैं समझती हूँ दीदी, स्त्री पारस की तरह होती है, वह प्रेम नहीं करती बल्कि प्रेममय ही होती है, जिस रिश्ते को छूती है, प्रेम से भर देती है!’’
“ओह मेरा दुर्भाग्य! मैं किसी भी रिश्ते में प्रेम नहीं भर सकी।’’
“दीदी!’’ वनिता को यह बात शूल सी चुभी और उसने अपने अंक में नलिनी को समेट लिया।
अपनी सिसकियों पर काबू करते हुए नलिनी ने कहा, “अपहरण के बाद तीन दिन तक मुझे कहां रखा गया था नहीं मालूम। फिर मेरा विवाह मुझसे तीस वर्ष बड़े ‘रियाज’ से करा दिया गया। तब मैं विवाह का मतलब भी नहीं मझती थी। मैं एक निर्जीव मांस का लोथड़ा बन कर रह गयी लाचार और बेबस!
दस वर्षों तक कोई बच्चा नहीं हुआ तो ’रियाज’ ने दूसरा विवाह कर लिया और मैं एक अलग और स्वतंत्र कमरे में बंद हो कर रह गयी। यही मंदिर मेरे जीने और रोने का सहारा बना। भगवान शिव जी की आराधना आज पूर्ण हुई, उन्हें कोटिश धन्यवाद! उन्होंने मुझे तुमसे मिला दिया ।
मैं तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ, सब छोड़कर। एक - एक पल मैं यहां तरसती और लुटती रही । मान - सम्मान तो दूर की बात है, मेरी भावनाओं को कभी किसी ने समझा ही नहीं। बिना किसी संभावना और भविष्य के केवल मेरा शरीर लगातार पिसता रहा। बिना प्राण की मशीन की तरह मेरा इस्तेमाल और उपभोग किया गया! वास्तव में यहां मेरा कुछ है ही नहीं। आत्महत्या हमारे संस्कारों, शिक्षा के अनुसार कायरता है ।इस कारण जीती रही, किसी निर्जीव प्राणी की तरह। अपने सारे कलंक और अभिशापों के साथ इसे जीना नहीं कहते वनिता बस अब और नहीं।’’
“दीदी, मां की आत्मा आप के लिए ही तरस रही है। वह कितनी खुश होंगी मैं कह नहीं सकती और आज मेरी प्रसन्नता का तो कोई ठिकाना ही नहीं है।’’
“किन्तु जिन लोगों के बीच मैंने अपनी जिंदगी के तीस वर्ष व्यतीत किए हैं उनकी सहमति और अनुमति लेना भी मैं अपना फर्ज समझती हूँ।’’
“दीदी ! क्या वे सहज रूप से आपको भेजने के लिए तैयार हो जाएँगे?’’
“मुझे विश्वास है।उनके बीच मेरी कोई उपयोगिता और आवश्यकता नहीं है और मैं तो कभी भी उन्हें स्वीकार ही नहीं कर पाई हूँ ।’’
"दीदी, अनुमति लेने हेतु हमें अब चलना चहिये ।"
"हाँ!”
दोनों उठकर खड़ी हो गयीं । एक बार पुनः शिव जी की मूर्ती के समक्ष अपना माथा टेका। मूर्ति की ओर श्रद्धा से देखा तो शिवजी मुस्कराते हुये दिखाई दिये। वर्षों की साधना आज पूर्ण जो हो गई थी। वनिता और नलिनी के चेहरे अब शांत थे। मन के सारे उद्वेग बह कर निकल चुके थे।
नलिनी, ‘वनिता’ के साथ घर के पास पहुंची तो ड्राइंग रूम खुला हुआ था, घर के सभी सदस्य पहले से मौजूद थे। उन्हें लगा जैसे उनकी ही प्रतीक्षा की जा रही है । सिराज ने आगे बढ़कर दोनों को सम्मान के साथ बैठाया।
“वनिता मैडम, मैंने आप लोगों की सारी बात मंदिर के बाहर छुपकर सुन ली हैं और अपने इस अपराध के लिए आप लोगों से क्षमा चाहता हूँ ।’’
“कोई बात नहीं सिराज, हम सब कुछ आप लोगों को बताने ही वाले थे। आपने कोई अपराध नहीं किया है।’’ वनिता ने कहा ।
ड्राइंग रूम में थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा। कोई भी एक-दूसरे की ओर देखने का साहस नहीं कर पा रहा था। वहां का वातावरण शांत और बोझिल हो गया था। रियाज अपने पैरों की तरफ देख रहा था, तो उसकी दूसरी पत्नी छत की ओर। नलिनी खिड़की से बाहर शून्य में कुछ देख रही थी, तो वनिता कभी ‘सिराज’ की ओर देखती तो कभी ‘रियाज’ की ओर! माहौल को सहज रखने के उद्देश्य से एक सरल मुस्कान के साथ वनिता ने कहा, “आप लोगों को सब कुछ पता है तो कृपया हमें जाने की अनुमति दें।’’
रियाज ने धीरे से अपने सिर को ऊपर उठाया, एक सरसरी निगाह से चारों ओर देखा, स्वयं को संयत किया फिर धीरे से कहा, “आप लोगों को रोकने का मैं अपना अब कोई अधिकार नहीं समझता।’’ अपने आप को सहज करते हुए ‘रियाज’ ने कहना जारी रखा।
“मानवीय संबंधों और उनके बीच पनपते प्रेम और विश्वास के विषय में सिराज ने मेरी बंद आँखों को खोल दिया है, मैं अब वह नहीं रहा जो पहले था । मैं समझ सका हूँ कि विवाह एक समर्पित प्रेम का बंधन है, इसे बल और छल से नहीं प्राप्त किया जा सकता। शरीर का भोग अलग बात है, किन्तु प्रेम और समर्पण के बिना उसका कोई महत्व नहीं है । विवाह मिलन की स्वतंत्रता देता है, अधिकार नहीं! यह आज समझ सका हूँ । आतंक के साये में पनपते तथा विकसित होते धर्म के साथ चलते - चलते हम कहाँ पहुँच गये थे, हमारी मानवता खो गई थी। वह धर्म नहीं है जो हमें मानवता से विपरीत कोई और भी मार्ग दिखाता या सिखाता है।
नलिनी, हो सके तो मुझे क्षमा कर दीजियेगा। आप मेरी ओर से मुक्त और स्वतंत्र हैं।’’
नलिनी ने उस दहलीज को झुक कर नमन किया। उसकी मिट्टी को अपने माथे पर लगाया जहां उसने अपनी जिंदगी के तीस वर्ष व्यतीत किए थे और जिसे उसने अपने जीवन की अंतिम सीमा रेखा माना था । दहशत के सायों में बीत रही जिन्दगी उभर कर वह धीरे से खड़ी हुई।
उसके कांपते होंठों से कुछ शब्द निकले, “अब मुझे आप लोगों से कोई शिकायत नहीं है।’’