तारा जब एक सप्ताह की छुट्टी लेकर बनारस पहुँची तब राघव स्टेशन से ही उसे साथ लेकर सबसे पहले रथयात्रा क्षेत्र में स्थित अपने नये दफ़्तर पहुँचा।
दफ़्तर की सारी व्यवस्था देखकर तारा उत्साहित होकर राघव की पीठ पर धौल जमाते हुए बोली, "वाह मेरे शेर! क्या खूब सजाया है तूने हमारे सपने के आशियाने को।
मेरा मन तो अभी से यहाँ काम करने के लिए मचलने लगा है।"
"फिर तुझे रोका किसने है बता?" राघव तारा को उसके केबिन की तरफ ले जाते हुए बोला तो तारा की नज़र केबिन के दरवाजे पर लगे हुए नेमप्लेट पर ठहर गयी जहाँ लिखा था, 'तारा माथुर, चीफ़ मैनेज़र।'
इस नेमप्लेट को नर्म हाथों से स्पर्श करते हुए तारा ने कहा, "मैं जल्दी ही यहाँ आकर अपनी जिम्मेदारी सँभाल लूँगी राघव, तू फ़िक्र मत कर। बस मुझे थोड़ा सा समय दे दे।"
"ठीक है, ठीक है। इतना भावुक होने की ज़रूरत नहीं है। ये ले अपनी अमानत सँभालकर रख।"
राघव ने एक लिफ़ाफ़ा बढ़ाया तो तारा ने उत्सुकता से उसे खोलकर देखा।
इस लिफ़ाफ़े में वैदेही गेमिंग वर्ल्ड के चालीस प्रतिशत शेयर के पेपर्स थे जो तारा के नाम पर थे।
इन पेपर्स को देखते हुए सहसा तारा की आँखों से आँसू बह चलें तो उन्हें पोंछते हुए राघव बोला, "चल अब ड्रामा बंद कर और जल्दी से फ्रेश होकर मुझसे गंगा घाट पर मिल। अभी हमें बहुत काम करना है।"
"ओके बॉस, मैं बस यूँ गयी और यूँ आयी।" तारा ने मुस्कुराते हुए कहा तो राघव उसे उसके घर छोड़कर फिर अपने घर चला गया।
लगभग एक घंटे के बाद जब तारा दशाश्वमेध घाट पहुँची तब उसे राघव कहीं नज़र नहीं आया।
"ये लड़का भी न, पता नहीं कहाँ छिपकर बैठ जाता है।" मन ही मन बड़बड़ाते हुए तारा को सहसा ख़्याल आया कि अब तो उसके पास मोबाइल है इसलिए इतना परेशान होने की कोई बात ही नहीं है।
अपना मोबाइल निकालकर अभी वो राघव का नंबर डायल ही कर रही थी कि सहसा उसके कानों में आवाज़ आयी, "धप्पा।"
तारा चौंककर पीछे मुड़ी तो राघव उसके सामने खड़ा होकर हँस रहा था।
"राघव के बच्चे, तूने मुझे ऐसे डराया क्यों? अगर घबराहट में मेरा मोबाइल हाथ से गिरकर टूट जाता तो क्या होता?"
तारा ने गुस्से में बिफ़रते हुए कहा तो राघव बोला, "होता क्या, बस नया मोबाइल आने तक प्राण प्रिय से बातें नहीं होती।"
"तुझे तो मैं बाद में देख लूँगी, फ़िलहाल चल पुजारी जी से मिल लेते हैं।"
"हाँ, आ जा।" राघव ने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा तो तारा उसे थामकर घाट की सीढ़ियां उतरने लगी।
घाट की सबसे निचली सीढ़ी पर उन्हें अपने परिचित पुजारी जी मिल गये जिनसे उन्होंने एक शुभ मुहूर्त निकलवाया जिसमें ईश्वर की विधिवत आराधना के साथ वो अपने दफ़्तर का उद्घाटन करना चाहते थे।
पंडित जी ने तीन दिन बाद का मुहूर्त निकाला था इसलिए राघव और तारा के साथ वैदेही गेमिंग वर्ल्ड में काम करने वाले उनके अन्य सहकर्मियों के साथ-साथ उनका परिवार भी पूरे उत्साह से पूजा की तैयारियों में लग गया।
पूजा के दिन जब सब लोग वैदेही गेमिंग वर्ल्ड के परिसर में इकट्ठा हुए तब पंडित जी ने पूछा कि पूजा पर यजमान के रूप में कौन बैठेगा?
राघव ने जब तारा समेत मंजीत और अन्य सभी सहकर्मियों को पूजा पर बैठने के लिए कहा तो वहाँ उपस्थित सभी लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी।
पूजा के समापन के पश्चात वहाँ उपस्थित सभी बड़े-बुजुर्गों ने राघव और तारा के साथ-साथ उनकी पूरी टीम को सफ़ल और उन्नत भविष्य के लिए शुभकामनाएँ और आशीर्वाद दिया।
दो दिन के बाद तारा वापस बैंगलौर चली गयी और राघव ने अपनी टीम के साथ पूरे जोश में वैदेही गेमिंग वर्ल्ड के पहले प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया।
इस प्रोजेक्ट का मुख्य थीम पानी के अंदर की रोमांचकारी दुनिया थी।
इस गेम को डिजाइन करते हुए राघव जैसे अपनी भूख-प्यास, नींद-आराम सब भूल चुका था।
तीन महीने की मेहनत के बाद जब राघव का ये गेम लॉन्च हुआ तब शुरुआत में तो उन्हें गेमर्स से कुछ खास रिस्पॉन्स नहीं मिला लेकिन मार्केटिंग फील्ड का अपना दायित्व सँभालते हुए हर्षित ने इस गेम का ऐसा प्रचार-प्रसार किया कि दो महीने बीतते-बीतते इस गेम की कैसेट आउट ऑफ स्टॉक हो गयी और इसके साथ ही वैदेही गेमिंग वर्ल्ड को अपने पहले गेम का एक दूसरा बड़ा ऑर्डर भी मिल गया।
अपनी टीम की इस लगन से राघव बहुत ज़्यादा ख़ुश था।
दूसरे गेम की रूपरेखा बनाने के साथ-साथ वो धीरे-धीरे बैंक का लोन भी चुकाता जा रहा था।
उसके सभी सहकर्मी भी अब अपनी सैलरी और बोनस से पूर्णतः संतुष्ट थे जिसका सकारात्मक प्रभाव उनके दूसरे प्रोजेक्ट पर स्पष्ट रूप से दिखायी दे रहा था।
जब तक राघव ने अपना दूसरा गेम मार्केट में लॉन्च किया तब तक तारा भी बैंगलोर से अपनी जॉब छोड़कर बनारस आ चुकी थी।
तारा के आ जाने से राघव को बहुत संबल मिला और वैदेही गेमिंग वर्ल्ड का काम और भी जोर-शोर से चलने लगा।
उन्होंने एक वर्ष में दो गेम लॉन्च करने का टारगेट बनाया था जिसे सफ़लतापूर्वक पूरा करते हुए वो मार्केट में अब तक चार गेम ला चुके थे और इन चारों गेम्स ने गेमर्स का दिल जीत लिया था।
अब इस वर्ष होली की छुट्टी के बाद राघव नये गेम के प्रारूप पर अपनी टीम से डिस्कशन करने वाला था, जिसके पहले तारा का होली पर पूरा धमाल मचाने का इरादा था।
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अस्सी घाट के एक किनारे ख़ामोश बैठे राघव के कंधे पर जब तारा ने अपना हाथ रखा तब अतीत के ख़्यालों से बाहर आते हुए राघव ने कहा, "हो गया तुम्हारा फन फ्राइडे?"
"हो तो गया लेकिन तुम यहाँ बैठे क्या कर रहे हो? ऊपर से अपना मोबाइल भी तुमने बंद कर रखा है।"
"हाँ बस यूँ ही, अभी काम कुछ है नहीं तो सोचा थोड़ी देर सुकून से अपने साथ बैठा जाये।"
"और जो मुझे तुमसे बात करनी है उसका क्या? अगर तुम मुझे यहाँ नहीं दिखते तो मैं तुम्हें कैसे ढूँढ़ती?"
"भला ऐसा भी कभी हो सकता है कि मैं तुम्हें न दिखूँ। अब बताओ क्या बात है?"
"कुछ ख़ास नहीं, जाने दो।" तारा ने राघव के पास बैठते हुए कहा तो राघव बोला, "तुम्हारी ये पहेली मैं बाद में बुझूँगा, अब मुझे बताओ कि तुम अपने घर में विवाह की बात कब करने वाली हो?"
"राघव यार, मैं अकेले कैसे अपने माँ-पापा से बात करूँगी?"
"फिर कैसे करोगी?"
"तुम्हारे साथ मिलकर। वैसे भी तुम जानते हो न कि तुम मेरा संबल हो।"
"अच्छा तो एक काम करो होली की जो पार्टी तुम रख रही हो उसमें अपने माँ-पापा को भी बुला लो।"
"ठीक है लेकिन बातचीत की पहल तुम्हें ही करनी होगी।"
"अच्छा बाबा, ऐसा ही होगा। अब तो ख़ुश हो न तुम?"
"हाँ बहुत। ऐसा हो सकता है कि राघव के होते हुए उसकी तारा दु:खी रहे।"
"हम्म... अपनी इस ख़ुशी में ऐसे मत खो जाना कि हमारे विशेष मेहमान को ही निमंत्रण देना भूल जाओ।"
"ये निमंत्रण भी तुम्हें देना होगा राघव प्लीज़, मुझसे नहीं हो पायेगा यार।"
"हद ही है यार, कब तक तुम्हारे सारे काम मैं करता रहूँगा?"
"ज़िन्दगी भर। समझ गये या और समझाऊँ?"
"रहने दो, फ़िलहाल बस नींबू वाली कड़क चाय पिला दो।" राघव ने गहरी साँस लेते हुए कहा तो तारा उठकर पास ही खड़े चाय वाले से दो कप चाय लेने चल पड़ी।
चाय की चुस्कियों के बीच राघव ने कहा, "तारा देखो, मैं तुम्हें स्पष्ट रूप से एक बात समझा रहा हूँ कि होली के दिन मैं तुम्हारी ख़ातिर थोड़ी देर के लिए पार्टी में आऊँगा लेकिन तुम दफ़्तर में भी सबको मना कर देना और ख़ुद भी याद रखना कि मुझे कोई रंग-गुलाल कुछ भी न लगाने पाये।"
"पर क्यों राघव, दूसरों की बात छोड़ो लेकिन मैं तुम्हें रंग क्यों नहीं लगा सकती हूँ? क्या तुम पर मेरा इतना अधिकार भी नहीं है कि हर वर्ष होली के दिन तुम न जाने कहाँ मुझसे दूर चले जाते हो?"
"बात अधिकार की नहीं है तारा, बस मुझे ये फागुन का मौसम पसंद नहीं है।"
"और क्या मैं इस नापसंदगी का कारण जान सकती हूँ?"
"नहीं।"
राघव ने अपने होंठ भींचते हुए इतनी सख़्ती से ये एक शब्द कहा कि अब तारा इस विषय पर आगे कुछ भी कहने का साहस नहीं जुटा पायी।
चाय की खाली प्याली डस्टबिन में डालकर जब तारा का हाथ थामे राघव अपनी कार की तरफ बढ़ा तब उनके बीच एक अदृश्य ख़ामोशी ने अपना घर बना लिया था जिसे भंग किये बिना ही तारा को उसके घर छोड़कर राघव भी अपने घर की तरफ बढ़ गया जहाँ नंदिनी जी बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं।
क्रमश: