वनिता ने झट से अपनी कार की खिड़की का शीशा चढ़ा लिया। सिग्नल क्लियर हुआ और कार आगे बढ़ गई। मगर वनिता पीछे रह गई। न चाहते हुए भी उस शख्स का चेहरा उसकी आँखों के सामने नाचने लगा, जो अभी कुछ देर पहले उसे नज़र आया था। ये वही चेहरा था, जिसकी एक झलक के लिए वो कभी बेकरार रहा करती थी।
कॉलेज का पहला दिन वनिता की आँखों के सामने फ़िल्मी रील की भांति घूमने लगा। सतरह बरस की वनिता हाथों में किताबें थामे दुपट्टा संभालते हुए लाइब्रेरी से बाहर निकल रही थी। यकायक लाइब्रेरी में दाखिल हो रहे एक लड़के से वो टकरा गई। किताबें हाथ से फिसली और दिल भी फिसल गया। उस नीली आँखों वाले लड़के से नज़रें मिली और समझ पड़ा कि पहली नज़र का प्यार क्या होता है। सुधबुध खोई वनिता उसे देखती रही और वह किताबें उठाकर उसके हाथ में थमाकर चला गया।
"कौन थी ये?" जाते-जाते उस नीली आँखों वाले के दोस्तों की सुगबुगाहट वनिता के कानों में पड़ी।
"कौन था ये?" पूछकर उसकी सहेलियों ने भी अपना सहेली धर्म निभाया।
वनिता कुछ न कह सकी। वो जो भी था, उस एक पल में उसे अपना लगने लगा था। उस दिन के बाद उस नीली आँखों वाले से आँख-मिचौली का खेल चलता रहा। उसका नाम था - रक्तिम राय। वह बी.कॉम फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था और वनिता बी.ए. फर्स्ट ईयर की। कॉलेज कैंपस में आते जाते उससे नज़रें टकराती और वनिता के दिल में उथल-पुथल मच जाती।
पहला साल इस आँख-मिचौली के बीच निकल गया। दोनों में कोई बातचीत न हुई। दूसरा साल आ गया। उनकी नज़रें अब भी टकराती और कुछ देर उलझी रहती। होंठ बात करने की चाह में खुलते और बंद हो जाते।
एक शाम कॉलेज गेट पर खड़ी वनिता ड्राइवर का इंतज़ार कर रही थी। ड्राइवर का मैसेज आया - 'कार खराब हो गई है वनिता दीदी। टाइम लगेगा।'
वनिता उलझन में पड़ गई कि टैक्सी से घर चले जाये या इंतज़ार करे। वह इस उलझन में उलझती जा रही थी कि एक जाना पहचाना चेहरा उसे अपने सामने नज़र आया - नीली आँखों वाले उसके ख्वाबों के शहज़ादे का चेहरा।
साल भर की ख़ामोशी आज टूट गई।
"क्या हुआ वनिता, यहाँ यूं अकेले क्यों खड़ी हो?"
उसके मुँह से अपना नाम सुनकर दिल कितना ख़ुश हुआ था वनिता का। वो उसका नाम जानता है, ये अहसास कितना प्यारा था, कितना खूबसूरत था।
"एक्चुअली ड्राइवर को आने में देर हो जायेगी। कार खराब हो गई है।" वनिता ने धीरे-से जवाब दिया।
"अगर तुम्हें मेरी इस खटारा बाइक में बैठने में कोई प्रॉब्लम न हो, तो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ सकता हूँ।"
"नहीं! तुम क्यों परेशान होते हो।" वनिता ने औपचारिकतावश कहा।
"परेशानी की कोई बात नहीं। हाँ अगर तुम इस बाइक पर न बैठना चाहो, तो वो अलग बात है। वैसे घिस ज़रूर गई है, पर धोखा कभी नहीं देती। मंज़िल तक पहुँचा ही देती है।" मुस्कुराते हुए रक्तिम ने कहा, तो वनिता भी संकोच छोड़कर उसके साथ जाने को राज़ी हो गई।
वह एक वाजिब दूरी बनाकर बाइक पर बैठ गई।
"अपने घर का एड्रेस बता दो..."
वनिता ने एड्रेस बताया और रक्तिम ने बाइक आगे बढ़ा दी।
दोनों के दरमियान चुप्पी का जो फ़ासला था, वो तो बरकरार रहा। मगर जो फ़ासला बनाकर वनिता बाइक पर बैठी थी, वो स्पीड ब्रेकर और सड़क के गड्ढों की वजह से पट चुका था। घर पहुँचते तक वह रक्तिम के कंधों को थाम चुकी थी। उस पल वो बस यही सोच रही थी कि काश इस कंधे पर सिर रखकर पूरी ज़िन्दगी गुज़ार दूं।
रक्तिम की बाइक वनिता के बंगले पर जाकर रुकी। वनिता बाइक से उतरकर खड़ी हुई और धीरे-से बोली, "थैंक्स रक्तिम!"
"नाम पता है तुम्हें मेरा?" रक्तिम ने मुस्कुराकर कहा।
"तुम्हें भी तो मेरा नाम पता है।" वनिता के अंदाज़ में हया का हल्का-सा रंग घुला हुआ था।
"मुझे तो कॉलेज की हर खूबसूरत लड़की का नाम पता है।" रक्तिम ने मज़ाकिया लहज़े में कहा, तो वनिता हँस पड़ी।
"वैसे बंगला तो बड़ा खूबसूरत है तुम्हारा। काफ़ी रईस मालूम पड़ती हो।" रक्तिम ने बंगले को गौर से देखते हुए कहा।
"सब पापा की मेहनत है...ख़ाली हाथ आये थे इस शहर में, पर आज टिंबर का अच्छा ख़ासा बिजनेस है।"
"वैसे मेरा सपना भी खुद का बिजनेस स्टेबलिश करने का है।"
रक्तिम ने अपने सपने के बारे में वनिता को बताया, तो उसने मन ही मन प्रार्थना की कि उसका हर सपना पूरा हो।
"अच्छा, अब मैं चलता हूँ।"
"चाय तो पीकर जाओ।"
"फिर कभी..."
"फिर कभी...कब?"
"ऐसे ही किसी रोज़, जब तुम्हारी कार खराब हो जाये और मेरी इस खटारा बाइक का सौभाग्य फिर से जाग जाये।" रक्तिम ने मुस्कुराकर कहा और बाइक मोड़कर चला गया। वनिता उसे आँखों से ओझल होने तक देखती रही।
उस दिन के बाद से जब भी वनिता और रक्तिम की नज़रों का सामना होता, होंठों पर एक मुस्कान थिरक उठती। वनिता रक्तिम की आँखों में खुद से बात करने की बेकरारी महसूस करती, लेकिन शायद उसे सहेलियों से घिरा पाकर वह कभी उसके पास न आता। वनिता खुद उससे बात करने को बेकरार थी, पर कोई मौका हाथ ही नहीं आ रहा था।
जब बात करने के बेकरारी बढ़ने लगी, तो वनिता ने खुद ही वह मौका निकाला। उसने ड्राइवर को शाम को उसे लेने आने से मना कर दिया और कहा कि शाम को वो अपनी सहेली के घर जायेगी, वही उसे घर छुड़वा देगी।
शाम को ड्राइवर नहीं आया। वनिता कॉलेज के बाहर सड़क किनारे खड़ी हो गई, टैक्सी के इंतज़ार में नहीं, रक्तिम के इंतज़ार में। जाने क्यों उसे लग रहा था कि पिछली बार की तरह इस बार भी वो उसके पास आयेगा और उसकी सोच गलत नहीं थी।
रक्तिम अपनी बाइक पर उसके पास आया और बोला, "शायद तुम्हें मेरा इंतज़ार है।"
वनिता कोई जवाब दिए बगैर उसकी बाइक पर बैठ गई। उस दिन रक्तिम उसे लेकर उसके घर नहीं गया। वे शहर की गलियों में भटकते रहे और जब थककर वे झील के किनारे ख़ामोशी से बैठे, तो दिल ढेरों बातें को करने उतावला हो गया।
"तुम्हें कैसे पता चला कि मुझे तुम्हारा इंतज़ार था।" वनिता ने पूछा।
"नहीं था क्या?" जवाब देने के बजाय रक्तिम ने सवाल पूछ लिया।
वनिता ने ख़ामोशी से सिर झुका लिया।
"कई दिनों से बात करना चाह रहा था तुमसे। पर शायद तुम्हारी सहेलियों के बीच आकर मेरा तुमसे बात करना तुम्हें असहज कर देता। इसलिए रोक रहा था खुद को।"
"क्या बात करना चाहते थे।" वनिता ने हौले से पूछा।
"कुछ ख़ास नहीं। बस यूं ही इधर-उधर की बातें।"
अब वनिता क्या कहती कि उसकी यूं ही इधर-उधर की बातें भी उसके लिए बेहद ख़ास है।
"वनिता! मैं एक मिडल क्लास फैमिली से हूँ। पापा इरिगेशन डिपार्टमेंट में क्लर्क थे। उनके जाने के बाद बस माँ हैं और मैं हूँ। माँ बनारस में हैं और मैं पढ़ाई के सिलसिले में यहाँ। पापा की पेंशन है, जिससे घर का गुजारा चलता है और मैं ट्यूशन पढ़ाकर थोड़ा बहुत कमा लेता हूँ। मगर सपने बड़े हैं...और उम्मीदें भी...ज़िन्दगी में कुछ बड़ा कर जाना है..."
"तुम्हारे हर सपने पूरे होंगे रक्तिम।" वनिता ने कहा। रक्तिम का दिल खोलकर अपनी बात कह देना उसे अच्छा लगा।
"अगर अपने सपने में मैं तुम्हें शामिल कर लूं तो..."
वनिता रक्तिम को देखती रह गई। कुछ कह नहीं पाई।
क्रमश:
क्या होगा वनिता का जवाब? क्या अमीरी गरीबी का फासला दरकिनार कर वह रक्तिम का प्यार कबूल करेगी? जानने के लिए पढ़िए अगला भाग।