अशोक गुजराती
निशीथ के पिताजी नगर के सम्मानित व्यक्ति थे. वे आरडीजी महिला महाविद्यालय की प्रबंधन समिति के वरिष्ठ सदस्य थे. उस कालेज में हिन्दी की प्राध्यापिका का पद रिक्त था. उसके लिए अनु का आवेदन लगा दिया गया. सीताबाई कला महाविद्यालय में शाम को लॉ के क्लासेस चलते थे. अंजल ने वहां द्वितीय वर्ष में प्रवेश ले लिया.
समय अब तेज़ी से गुज़रने लगा. उभय प्रेमी अपनी धुन में विभोर थे. नूतन सांसारिक गतिविधियां तो थीं ही, मानसिक एवं दैहिक प्यार के अनजाने रहस्य उन नवोदितों को एक अलग ही आनंद में डुबोये हुए थे. नया परिवेश, नये परिचय, नया साथ उनको अपने प्रवाह में बहा रहा था. उनको बस एक ही इंतज़ार ने बेचैन किया हुआ था कि आय के साधन अविलंब उपलब्ध हो जाएं. इसकी ख़ातिर वे इस-उस स्कूल, कालेज में साक्षात्कार देने में लगे हुए थे.
और हो गया. अंजल की नौकरी अभी अधर में ही थी लेकिन अनु का महिला म.वि. में चयन हो गया. अर्धांगिनी ने आधा सहारा दे दिया था. ज़रा निश्चिंतता की सांस ली दोनों ने.
अंजल को नौकरी नहीं मिलनी थी, नहीं मिली. उसकी न कहीं जान-पहचान, न कोई सिफ़ारिश ही थी. वह अपनी लॉ की पढ़ाई करता रहा. अनुभूति कालेज जाती रही. गृहस्थी चल रही थी पर अंजल अंदर ही अंदर घुलता जा रहा था. उसके स्वाभिमान को यह सह्य नहीं था कि पुरुष चारदीवारी में बैठे और स्त्री कमाकर लाये.
आख़िर उससे न रहा गया. वह पशेमान होकर अनु से एक रात बोला, ‘मुझसे, अनु, यह बर्दाश्त नहीं हो रहा. तुम कमा रही हो और मैं निठल्ला बैठा हूं...’
‘अरे! इसमें इतना हतोत्साहित होने की क्या आवश्यकता है. क्या आप और मैं विभक्त हैं? परिस्थितियों ने मुझे अवसर दे दिया. यदि आपको देती तब क्या मैं यूं ही कलपती?’ उसने अंजल की डबडबायी पलकों को चूम लिया.
‘पता नहीं... स्त्री अर्जन करे, मैं इसका पक्षधर हूं पर असल में मुझे ऐसे बैठे-ठाले ज़िन्दगी बिताने से उज़्र और ऊब का अहसास हो रहा है.’ अंजल ने ख़ुद को ज़ब्त करते हुए अपने संताप की व्याख्या की.
अनु ने उसकी उंगलियां अपनी में जकड़कर दिलासा दिया. फिर कहा, ‘मैंने निशीथ भैया से इस बाबत ज़िक्र किया था. उन्होंने और चाचाजी ने असमर्थता जतायी कि जहां-जहां वे कुछ दख़ल रखते हैं, वहां हिन्दी प्रवक्ता का पद ही ख़ाली नहीं है. मैं मौन रह गयी कि उन्होंने मेरे लिए जो किया, वह क्या कम है..?’
‘नहीं...नहीं... अब उनसे मत कहना. उनके पहले ही हम पर इतने अहसान हैं... मज़े की बात ये है कि हमारे विषय की कोई ट्यूशन भी नहीं लगाता. घर की मुर्गी दाल बराबर. और फिर हिन्दी में फ़ेल हो जाता है.’ अंजल के अधरों पर मुस्कान खेल गयी.
अनु ने बुरे में भी अच्छा विचारा- ‘जो हो रहा है, वह शायद क़ुदरत का एक इशारा ही है. आपको वैसे भी अध्यापन से अरुचि है. यह साल बीता रे बीता कि आप वकालत शुरू कर पायेंगे.’
‘मैं भी यही सोच रहा था. कल मैं यहां के प्रसिद्ध वकील मोहन देशमुख से मिल आता हूं. वे मुझे सहायक रख लेंगे तो मैं कोर्ट की अंदरूनी कारगुज़ारियों से वाबस्ता हो पाऊंगा.’
‘सही है. इस बहाने आपका प्रैक्टिकल ट्रेनिंग भी हो जायेगा. आप उनके वेतन के प्रश्न को नकार देना. मुफ़्त में कार्य करना पड़े, तब भी यह अनुभव भविष्य में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा. आपका निश्चित ही आत्म-विश्वास बढ़ेगा और आप अपना व्यक्तिगत कार्यालय खोल सकेंगे.’
अंजल अगले ही दिन मोहन देशमुख से मिला. उनकी तीक्ष्ण दृष्टि ने अंजल की प्रबुद्धता परख ली. उन्होंने उसे अपना सहायक नियुक्त कर लिया. पगार थोड़ी ही दे पाऊंगा, यह कहा. अंजल ने सौजन्यता से कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया. इस तरह उसकी नई पारी का आगाज़ हो गया.
अंजल बेरोज़गार नहीं रहा लेकिन बेवेतन तो था ही. अनु इसकी भरपायी अपनी तनख़्वाह से कर रही थी. वकालत की दुरुह एवं जटिल तफ़सीलें आये दिन सीखने को मिलने से उसका चित्त शांत व स्थिर होने लगा. उसका हीनता-बोध भी कमती हो गया. उसके अंतर्मन से नाकारेपन का बोझ हटने को था. कुंठा लुप्तप्राय होकर उसका बर्ताव सामान्य पति-सा होता गया.
उनकी जीवन-चर्या उसी पुराने ढर्रे पर चल निकली. परीक्षाएं हुईं, जिसमें अनु की अतिरिक्त आय हुई पर व्यस्तता भी बढ़ीं. अंजल ने पर्याप्त परिश्रम किया. उसका इम्तहान हुआ, परिणाम आया. अविश्वसनीय. एलएल.बी. में वह गोल्ड मेडालिस्ट घोषित हुआ था. देशमुख वकील ने उसे ख़ास तौर पर बधाई ही न दी, अपना विश्वस्त बनाकर उसके मना करने पर भी वेतन देना शुरू कर दिया.
यह उनकी बेहतरी के लिए नया आयाम साबित हुआ. उन्होंने बैंक में एसआइपी खोल ली. यह एक साल उनके पास था, धन अपनी आवश्यकता हेतु उनको ताक रहा था. योजना यही थी कि वर्षांत पर निजी वकालत का काम अपने ज़मीनी-तल के फ़्लैट के सामने के कमरे में प्रारंभ किया जाये.
यह भी हो गया. मोहन देशमुख से उद्घाटन करवाया, निशीथ के पिताजी ने आशीर्वचन कहे. चाय-नाश्ते के साथ छोटे-से कार्यक्रम का आयोजन किया गया. कुछ परिचित, चन्द दोस्त और कई सारे पड़ासियों को निमंत्रित किया गया.
अंजल एवं अनुभूति के नाम से कार्ड भेजा गया था. इन नामों से उनके भिन्न धर्म की कोई कल्पना नहीं कर सकता था. अंजल (बड़ी आंखों वाला) हिन्दू नाम ही लगता है. इसमें और एक आश्चर्यजनक परिवर्तन अंजल ने कर लिया था. स्त्रियां विवाह के पश्चात पति का वंश-नाम धारण कर लेती हैं. कोई-कोई मध्य में अपना भी जोड़ लेती हैं. अंजल ने हलफ़नामा दाख़िल कर अपने नाम के आगे पत्नी का वंश-नाम लगाया और नयी परिपाटी डाली- अंजल पूनीवाला. यह सच्चाई और कि ऐसा सरनेम चन्द बोहरों, पारसियों तथा मुसलमानों में भी होता है.
धीरे-धीरे अंजल की वकालत फलने-फूलने लगी. अर्थात् मोहन देशमुख का इसमें ‘सिंह-हिस्सा’ था. वे अपनी अति व्यस्तता के चलते फ़ौजदारी के कुछ मुक़दमे अंजल को अंतरित करते रहे. इसका भरपूर फ़ायदा अंजल ने उठाया.
तभी एक निहायत ग़रीब युवती अंजल के निवास-स्थान को ढूंढते हुए आयी. उसकी मां काशीबाई की मालकिन श्रीमती सहाय का किसीने ख़ून कर दिया था. पुलिस ने उसकी मां को गुनाहगार मानकर हथकड़ी लगा दी थी. अंजल उसके साथ पुलिस चौकी गया और अपनी जेब से ज़मानत देकर उसे छुड़ाया.
बस. यहां से अंजल को वह राह सुझायी दी, जिस पर वह चलना चाहता था. वह दीन-हीनों की निशुल्क सेवा करने का प्रण लिये था. इस केस ने उसकी प्रतिज्ञा को मज़बूती प्रदान की. जैसा कि उसने सोच रखा था, सक्षम से फ़ीस लेनी है; धनाढ़्य से और अधिक लेकिन विपन्नों से अल्प अथवा बिलकुल नहीं. यहां तो उसने ख़ुद आर्थिक मदद की थी.
श्रीमती सहाय विधवा थीं. उनके पति सरकारी अफ़सर रहे थे. उन्होंने ख़ूब कमाया. अपनी आलीशान कोठी खड़ी की. एक बेटा था- सुभाष. वह ज़्यादा पढ़ा नहीं. आवारागर्दी करने लगा. पिता ने उसकी पसन्द से तसले बनाने का कारख़ाना लगा दिया. वह घाटे में चलता रहा. बारहा वह पिता से पैसे मांगता ही रहता- कोई न कोई कारण बताकर. उसको जुए और शराब की लत थी.
तंग आकर मां-बाप ने इलाज के तौर पर उसकी शादी कर दी. कुछ महीने वह ठीक रहा. नीम पर चढ़े करेले की बेल की मानिन्द उसकी पत्नी बेहद झगड़ालू थी. उसकी ज़िद पर सुभाष अलग रहने चला गया. अलबत्ता अपना ख़र्च पिता से ही लेता रहा. पिता इकलौते बेटे के व्यवहार से इतने क्षुब्ध हुए कि दिल की बीमारी पाल ली. उसी में उनका सेवा-निवृत्ति के एक वर्ष पश्चात ही देहावसान हो गया. अब सुभाष मां से मुद्रा की उगाही करने लगा.
यह सारा कच्चा-चिट्ठा अंजल को काशीबाई द्वारा मालूम हुआ. वह इन्स्पेक्टर से मिला और अपना शुबहा ज़ाहिर किया. उसको एक बार घटना-स्थल पर ले चलने का अनुरोध किया.
काशीबाई उनकी कोठी में दस सालों से मुलाज़िम थी. परिसर में ही पीछे की तरफ़ उसका क्वार्टर था. वह भी विधवा थी. घर में वह और उसकी बेटी दो ही सदस्य थे. मालकिन की तबीयत कम-ज़्यादा होती रहती थी. अतएव बेल लगा ली गयी थी, जिसका बटन मालकिन के बेड के सिरहाने ही था. उसके दबाते ही काशीबाई की खोली में घण्टी बज उठती थी. दिन हो या रात, कितने ही बजे हो, वह अविलंब श्रीमती सहाय की सेवा में उपस्थित हो जाती थी.
यानी वह चौबीस घण्टों की सेविका थी. वैसे सुबह सात से रात में नौ तक, अपने खाने-पीने का समय छोड़कर, वह कोठी में ही तैनात रहती थी. मालकिन को उठकर दरवाज़ा खोलना-बंद करना न पड़े इसलिए एक चाबी सदा उसके पास रहती थी. दूसरी चाबी बेटे को दे रखी थी.
जब इन्स्पेक्टर के साथ अंजल कोठी पर गया, उसने ख़ास-ख़ास जानकारी दी- ‘काशीबाई का कहना है कि वह नौ बजे रात को अपने क्वार्टर पर चली गयी थी. सवेरे सात बजे आयी तो श्रीमती सहाय का ख़ून से लथपथ शव पलंग के नीचे पड़ा था. उसीने कोठी के फ़ोन से पुलिस को सूचना दी.’ इन्स्पेक्टर ने शव का स्थान बताया. उघड़ी अलमारियां दिखायीं, जो ख़ाली पडी थीं, कपड़े-लत्ते नीचे बिखरे हुए थे. सेफ़ के पट पूरे खुले थे. अर्थात् नक़दी और गहने कोई चुरा ले गया था.
‘मतलब चोर आया था. आपने काशीबाई के क्वार्टर और समूचे परिवेश को छान मारा है.’ अंजल ने इन्स्पेक्टर के मन की शंका स्वयं ही व्यक्त कर दी.
‘लगता ऐसा ही है क्योंकि किसीने कोठी के आख़िरी कमरे की खिड़की का कांच फोड़ा और हाथ डालकर उसे खोल लिया था. हम आये तब भी वह खुली ही थी.’ इन्स्पेक्टर ने अपना क़यास स्पष्ट किया.
‘चलिए, ज़रा मुझे भी उस खिड़की के दर्शन करा दीजिए.’ अंजल ने आग्रह किया.
इन्स्पेक्टर ने जैसा चित्रित किया था, लगभग दृश्य वैसा ही था. अंजल ने क़रीब जाकर खिड़की के पट खोले और बाहर झांका. मुस्कराते हुए पलटा- ‘मैंने चोर को पकड़ लिया, इन्स्पेक्टर!’
‘कौन है... कहां है?’ इन्स्पेक्टर भौंचक उसे देखता रहा.
अंजल ने उसका कंधा थपथपाते हुए पूछा, ‘चोर बाहर से ही आया होगा न साहब?’
‘ऑफ़कोर्स!’
‘तब तो उसने कांच भी बाहर से ही फोड़ा होगा...’
‘इसमें भला क्या शक है.’
‘तब साहब, टूटे कांच के टुकड़े कहां गिरेंगे?’
‘अ...अंदर.’ इन्स्पेक्टर ने अंजल का लोहा मान लिया- ‘लेकिन कांच के टुकड़े बाहर पड़े हैं. तो क्या किसीने भीतर से कांच फोड़ा है..?’
‘करेक्ट! यह किसीने भ्रम में डालने के उद्देश्य से जान-बूझकर किया है.’ अंजल ने खुलासा किया- ‘यदि चोर बाहर से कांच फोड़ता, उस आवाज़ को सुनकर श्रीमती सहाय फ़ौरन बेल बजाकर काशीबाई को बुला लेतीं. है कि नहीं?’
‘बिलकुल. मेरे ख़याल से ऐसा दो ही व्यक्ति कर सकते हैं- काशीबाई या श्रीमती सहाय का बेटा. मुख्य दरवाज़े की चाबी दोनों के पास रहती थी. इन्स्पेक्टर ने अपनी अक्ल की घोड़ी दौड़ायी.
अंजल ने उसकी तारीफ़ की- ‘आपका अनुमान एकदम सही है. मैंने श्रीमती सहाय के बेटे सुभाष का अतीत खंगाल लिया है. उसे दारू और जुए का व्यसन है. बाप ने लगा दिया कारख़ाना औंधा पड़ा है. आये दिन अपनी मम्मी से पैसे मांगता रहता है. हो सकता है, श्रीमती सहाय ने ना-नुकुर की हो और ग़ुस्से और नशे की हालत में उसने मां पर वार कर दिया हो.’
इन्स्पेक्टर ने गर्दन हिलायी- ‘हां. ऐसा ही हुआ होगा... लेकिन वह नक़दी और गहनों की चोरी क्यों करेगा. वही अकेला वारिस है. उसे ही सब मिलना है.’
अंजल ने सोचा, संगत का असर बुद्धि पर भी होता है. फिर कहा, ‘आपका तर्क बराबर है पर उसने चोरी का यह नाटक भी चकमा देने के इरादे से रचा हो तो...’
अंजल ने निर्णय ले लिया कि उसे अब क्या करना है- ‘इन्स्पेक्टर साहब, आपको एक सहायता करनी होगी. इस रहस्य पर से जल्द ही पर्दा उठ जायेगा. मैं अदालत से श्रीमती सहाय के बेटे सुभाष का तलाशी वारंट निकलवाता हूं. यह बात आप अपने तक रखिए. आप उसके घर की तलाशी लेंगे तो सारा माल-असबाब वहीं मिल सकता है.’
‘ठीक है. आप वारंट बनवाइए, मैं इस कार्य को चुपचाप अंजाम दूंगा.’
‘शुक्रिया साहब.’
अगले दिन अंजल ने माननीय न्यायाधीश महोदय के चेंबर में व्यक्तिगत मुलाक़ात के लिए अपना कार्ड भेजा, यह लिखकर कि आवश्यक गोपनीय काम है. अनुमति मिल गयी. अंजल ने वास्तविक अपराधी के विषय में अपने शक का कारण विस्तार से बयान किया और उस तक ख़बर पहुंच गयी तो वह सावधान होकर चोरी के माल को कहीं और स्थानांतरित कर सकता है, यह अंदेशा भी प्रकट किया. उसके निवेदन को जज साहब ने पूरा सम्मान दिया और लिखित आदेश दे दिया. उसके पश्चात गुपचुप वारंट बना लिया गया.
सुभाष के आवास की जामा तलाशी हुई और वाश रूम के ऊपर छिपायी समस्त क़ीमती वस्तुएं तथा नोटों की गड्डियां बरामद हो गयीं.
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न्यायालय में जब अंजल ने प्रतिवादी के वकील को सामने देखा तो उसकी सांस अंदर की अंदर और बाहर की बाहर रह गयी. जी हां, सुभाष के वकील और कोई नहीं, नामी अधिवक्ता मोहन देशमुख ही थे. अंजल के गुरु. उसे लगा, अब मेरी छुट्टी हो गयी... मैं क्या तो लड़ पाऊंगा अपने ही श्रद्धेय से. ज्यों अर्जुन के सम्मुख कौरव की सेना की अगुआई द्रोणाचार्य कर रहे हों... एक पल के लिए, मात्र एक पल के लिए वह उधेड़बुन में फंसा किन्तु तुरंत ही उससे छुटकारा पा लिया. स्वयं को सहेजा और युद्ध हेतु तत्पर हुआ.
कचहरी की औपचारिकताएं पूर्ण होते ही अंजल ने प्रारंभ किया. उसने खिड़की के टूटे कांच बाहर की तरफ़ बिखरे होने का सत्य विश्लेषित किया. उसने आगे कहा, ‘इसका अर्थ है भीतर से कांच फोड़ा गया था. मुख्य दरवाज़े की चाबी काशीबाई एवं सुभाष के पास थी लेकिन ग़ायब हुए नोट व गहने सुभाष के निवास से ज़ब्त किये गये हैं. निस्संदेह वही हत्यारा है.’
मोहन देशमुख ने कई दलीलें दीं. पति-पत्नी घर पर नहीं थे तब किसीने साज़िश के तहत सुभाष के यहां चोरी का माल लाकर छिपा दिया था; हत्या की रात सुभाष अपनी पत्नी के साथ सेकिंड शो देखने गया था (साक्ष्य में टिकट प्रस्तुत किये), जबकि हत्या का समय रात दस बजकर पांच मिनट का पोस्ट-मार्टम की रिपोर्ट में दर्ज़ है; कोई बेटा अपनी मां का क़त्ल कैसे कर सकता है... इत्यादि.
अंजल ने काशीबाई की दीर्घ काल की सेवा; कोठी के परिसर अथवा उसके क्वार्टर पर चोरी का माल न मिलना, जिसकी तलाशी पुलिस ने पहुंचने के थोड़ी देर बाद ही ले ली थी; काशीबाई जैसी उम्र-दराज़ औरत के लिए सुभाष के घर तक जाकर सारा माल छिपाना असंभव है और विशेष यह कि उसीने पुलिस को फ़ोन करके बुलाया आदि तर्क दिये.
जज ने उस दिन के वास्ते अदालत बर्ख़ास्त कर दी. अगली तारीख़ दे दी गयी.
कोर्ट रूम के दरवाज़े से निकलते-निकलते देशमुख बोले, ‘ठीक जा रहे हो, अंजल. लगे रहो. मुझसे भय मत खाना. अपनी दुश्मनी कोर्ट के भीतर. कार्रवाई समाप्त होते ही हम वही पुराने दोस्त हैं, रहेंगे.
अंजल यह सुनकर इतना द्रवित हुआ कि हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘मैं तो आपका शिष्य हूं. आपके आशीर्वाद से ही साहस जुटा पा रहा हूं.’
अगली तारीख़ पर गर्मागर्म बहस होती रही. जहां सिनेमा के टिकट का मुद्दा अंजल ने काट दिया कि आप रात को साढ़े दस बजे भी जाकर टिकट ख़रीद सकते हैं या पूर्वनियोजित पहले से भी लेकर रख सकते हैं. तीसरा नुक़्ता था कि बेटा अपनी मां की हत्या नहीं कर सकता. अंजल ने कहा, ‘सही है मगर सुशील पुत्र के संदर्भ में... दारू का नशा और मां द्वारा पैसा न देने से उभरा क्रोध एक जुआरी से कुछ भी करवा सकता है. समाज में ऐसी वारदातें होती रही हैं. जिसके मकान से चुरायी चीज़ें पकड़ी गयीं, उसे चोर साबित करने के वास्ते और क्या सुबूत चाहिए?’
मोहन देशमुख ने अंजल की दलीलों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया- ‘समाज में ऐसी घटनाएं भी विरल नहीं हैं, जब लम्बे वक़्त तक सेविका अथवा सेवक रहे व्यक्ति ने एक दिन लालच में ऐसा ही कृत्य कर डाला. चोरी का माल अन्य स्थान पर और फिर मौक़ा मिलते ही सुभाष के घर तक ले जाना संभव इस प्रकार हो गया कि काशीबाई का कोई चाहने वाला ज़रूर होगा, जिसने इस प्रकरण में उसे प्रेरित ही नहीं किया, बल्कि पूरी सहायता भी की...’ अंजल ने इस लांछन पर एतराज़ जताया, जो न्यायमूर्ति ने मान्य कर लिया.
देशमुख आगे बोले, ‘पुलिस को फ़ोन काशीबाई के अलावा कोई और कर भी नहीं सकता था, उसने अपने अपराध पर पर्दा डालने के लिए यह करना ही था. जैसा कि मेरे क़ाबिल दोस्त ने अर्ज़ किया है, यह समूचा काण्ड पूर्व-नियोजित था...’
‘हां था.’ अंजल ने फट से प्रत्युत्तर सौंपा- ‘अन्यथा खिड़की का कांच फोड़ना; नक़ली चोरी का नाटक रचना; सिनेमा के टिकट लेकर रखना; हथियार साथ लाना फिर उसे ग़ायब करना और सबसे ख़ास कि अपना वाहन कोठी के बाहर ही पार्क करना कि कहीं काशीबाई सतर्क न हो जाये- यह ऐन उस घड़ी तो सुभाष को सूझना नहीं था.’
जज महोदय उस दिन की कार्यवाही ख़त्म करते हुए बोले, ‘अंजल ने जो खिड़की के बाहर बिखरे कांच के टुकड़ों से निष्कर्ष निकाला, वह सही है. तब चाबी जिनके पास थी, उनमें से असली मुज़रिम कौन?.. आगामी पेशी पर अचूक साक्ष्य लाइए कि दोनों में से किसकी यह कारस्तानी है.’ 0
अंजल न्याय-पालिका से मिले अंतराल में काशीबाई से मिलने उसके क्वार्टर पर गया. काशीबाई की बेटी सुमित्रा उस समय काशीबाई के बाएं हाथ की तेल से मालिश कर रही थी. काशीबाई ने अंजल का स्वागत किया- ‘आइए वकील साहेब.’ फिर सुमित्रा से बाली, ‘अग सुमी, साहेबा करता चहा ठेव (सुमी, साहब के लिए चाय बना).’
अंजल ने सहज ही पूछ लिया, ‘काशीबाई, आपके हाथ को क्या हुआ, जो सुमित्रा से उसकी मालिश करवा रही थी...’
‘क्या बताऊं वकील साहेब,’ काशीबाई की हताशा-भरी आवाज़ दबी-दबी-सी निकली- ‘दो साल पहले बारिश से हुए कीचड़ पर फिसलने से मेरी हड्डी टूट गयी थी. सरकारी अस्पताल वाले डॉक्टर ने जोड़ी भी, प्लास्टर भी लगाया लेकिन हाथ कोहनी से टेढ़ा ही रहा. उससे मैं झाड़ू तक उठा नहीं सकती, ना कोई काम कर सकती हूं. इतना लुंज-पुंज हो गया है.’
अंजल काशीबाई के कथन के उत्तर में आश्चर्य से इतना ही कह पाया- ‘क्या!’ और उठकर चलने को हुआ- ‘मैं जा रहा हूं. ज़रूरी काम याद आ गया...’
काशीबाई ने उसे रोकने का प्रयत्न किया- ‘अरे! अरे! वकील साहेब, चहा बन गयी है, पीकर जाइए.’
अंजल ने हाथ हिलाकर ‘शुक्रिया, अगली बार...’ बोलते-बोलते दरवाज़ा पार किया और स्कूटर को किक मारकर यह जा, वह जा...
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अंजल ने निश्चय कर लिया कि आज अदालत में इस केस को निपटा ही देना है. उसने सबसे पहले फ़िंगर-प्रिंट्स का ज़िक्र किया. चूंकि काशीबाई उस कोठी में सारे काम करती थी, उसकी उंगलियों के निशान हर जगह पाये जाना स्वाभाविक है. दूसरी ओर, सुभाष उस कोठी में कभी-कभार आता था. उसके इतने ज़्यादा निशानात- विशेषतः अलमारी एवं सेफ़ पर -पाये गये हैं. काशीबाई रोज़ाना अलमारी को अपने हाथों से छूती होगी लेकिन उसके कम क्यों हैं?’
मोहन देशमुख ने जवाब दिया कि निशान मिटाये भी जा सकते हैं. फिर सुभाष तो बेटा ही था, वह क्यों न अलमारी या सेफ़ को स्पर्श करता?
इसके बाद अंजल अपनी वाली पर आ गया- ‘वकील साहब उस आदमी को बचाने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके बारे में दुनिया जानती है कि वह जुआरी और शराबी है. कारख़ाने को घाटे में ले गया. बाप की दौलत उड़ा रहा है. इसके बजाय वे एक दरिद्र औरत को बिना किसी आधार के चरित्रहीन कह चुके हैं. वह निष्काम सेवा करती रही जबकि सुभाष की गंदी नज़र मां को रास्ते से हटाकर सारी ज़ायदाद हड़पने की थी. दिखाऊ चोरी की नौटंकी उसको महंगी पड़ी. उस बिगड़ी हुई औलाद को वकील साहब सिर्फ़ इसलिए बचा रहे हैं कि उससे मोटी रक़म बतौर फ़ीस के उनको मिलने वाली है...’
देशमुख को ग़ुस्सा आ गया. वे उठकर अंजल की बग़ल में आकर खड़े हुए और कुछ बोलने को होंठ खोले ही थे कि अंजल ने उनकी तरफ़ घूमकर पुनः आक्रमण किया- ‘आपको शर्म आनी चाहिए मि. देशमुख!’ उद्विग्न देशमुख असह्य आक्रोश के मारे कांपने लगे.
अंजल जारी रहा- ‘धन की ख़ातिर आप एक मासूम को फांसी लगवाने पर आमादा हैं. किसी बदचलन, अपनी मां के क़ातिल को बचाने के लिए... थू है आपके पेशे पर, आपकी सिद्धांतहीनता पर...’
जज साहब ने ऑर्डर-ऑर्डर कहने अपना गैवल (जज के इस्तेमाल की लकड़ी की छोटी हथौड़ी) पकड़ा हाथ ऊपर उठा लिया था.
अंजल को रोक पाना मुश्किल लग रहा था- ‘उसने मां को मारा, आप मां-सी एक स्त्री को बेवजह मार रहे हैं, केवल पैसों की लालच में... थू!’
देशमुख लाल-भभूका हो गये. अपनी क्रोधाग्नि को क़ाबू में करने में असमर्थ. तैश में आकर अपना बायां हाथ अंजल को थप्पड़ मारने के लिए आवेश में ऊंचा किया. तभी जज का स्वर गैवल (मैलेट) की खटखट के साथ उनके कानों पर दस्तक दे गया- ‘ऑर्डर! ऑर्डर!’
देशमुख का उठा हुआ हाथ वहीं रुक गया. उन्हें कोर्ट की शालीनता स्मरण हो आयी.
उसी पल आश्चर्यजनक रूप से अंजल झुका और उसने देशमुख के चरण छू लिये- ‘सर मुझे माफ़ कर दीजिए.’ वह जज की दिशा में पलटा- ‘मान्यवर, आप भी. मैं इतना नालायक़ नहीं कि अपने ही प्रणम्य तथा अदालत की इस तरह अवमानना करूं...’
देशमुख उसे विस्मय से घूरते रह गये.
‘जी हां.’ अंजल ने मुलायमत से कहा, ‘मेरा मन्शा इतना ही साबित करना था कि जब खब्बू यानी लेफ़्ट-हैंडर अत्यधिक कुपित होता है तो वह अपने बाएं हाथ से वार करता है, दाहिने से नहीं.’
देशमुख का रोष अब तक शांत हो चुका था. असमंजस में थे पर प्रकृतिस्थ. बोले, ‘इससे क्या सिद्ध होता है?’
अंजल की सूरत पर स्मित फैल गया- ‘यही कि आपके जैसा ही सुभाष भी खब्बू है और पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट के अनुसार श्रीमती सहाय के सिर पर बाईं ओर से आघात किया गया है.’ वह जज से मुख़ातिब हुआ- ‘माननीय जज साहब, मेरे मुवक्किल काशीबाई का बायां हाथ टूटा, टेढ़ा और एकदम अशक्त है. वह उससे आपका ‘हैमर’ भी नहीं उठा सकती.’
मोहन देशमुख अपनी दीख रही पराजय से बग़ैर विचलित हुए प्रसन्नता से बोले, ‘वेल डन माय ब्वाय. कांग्रैट्स!’
एक ख्याति-प्राप्त वकील को न्याय-पालिका में मात देना अंजल के पक्ष में जाना ही था. ख़ासकर उसे तिकड़म से चंगुल में फांसना. इसका उसे बेहिसाब लाभ मिला. इससे भी बेहतर, वह जो महत्वाकांक्षा पाले था, वह पूर्ण हुई. जनता में कोई ऐसी विशेषता पंख लगाकर हर-सू उड़ी-उड़ी जाती है. यह ख़ासियत ही थी अंजल की, जो पूरे शहर में चर्चा के केन्द्र में अदेर आ गयी. अख़बारों ने इसमें जो छौंक लगाया, वह अंजल के भविष्य की बुनियाद बनने जा रहा था. यही कि एक ठो वकील ऐसा भी है, जो निर्धनों के लिए वरदान-सा है. वह उनसे कोई फ़ीस लिये बिना उनकी नैया पार लगाने की जी-जान से कोशिश करता है.
अनु के लिए यह गर्व का विषय था कि उसका चुनाव ग़लत नहीं था. इस ख़ुशी में उसने इज़ाफ़ा किया, यह सूचना देकर कि वह गर्भवती है. तमाम हालात अंजल की क़ामयाबी का निमित्त बन रहे थे.
(प्रलेक प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य लेखक के उपन्यास ‘शहतीर’ का एक महत्वपूर्ण अंश)
डा. अशोक गुजराती, बी-403, निहारिका ऐब्सोल्यूट,
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