Surasur - 1 in Hindi Fiction Stories by Sorry zone books and stories PDF | सुरासुर - 1

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सुरासुर - 1

रात्रि के अंधकार में सुनसानी सड़क पर कंधे लटकाए हाथ झुलाए कर्ण आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा है। 'राजू नाई' के दूकान को पार कर वो अपने कदमों को विराम देता है तथा सिर ऊपर की ओर उठाए अर्धखुली पलकों से चंद्रमा को निहारने लगता है-

"क्यों आखिर मैं ही क्यों मुझे ही क्यों चुना गया"?

यह प्रश्न उसके रक्त सने होंठ से बाहर निकले उस अंतहीन अंधेरे में वह अपना जीवन तथा गोल चाँद में उसको अपनी यादों की खाईं दिखाई दी जिसके भीतर उसे ढकेल दिया गया।

ऐसी रातों का कर्ण के जीवन में बड़ा महत्व रहा है क्योंकि माँ के अनुसार पूर्णिमा को ही उसका जन्म और उसके पिता की सड़क दुघर्टना में मृत्यु हुई थी जिसके पश्चात् माँ ही उसका इकलौता सहारा और खुशी का ज़रिया रही परंतु यह खुशी भी उससे बारहवें जन्मदिन को ही किसी क्षत्रिय ने छीनकर कर्ण को पूर्ण रूप से अनाथ बना दिया।

ठीक दो दिन बाद उसके अनजान चाचा-चाची ने एक नौकर को गोद लिया जिसने छह महीनों तक उनसे नाना प्रकार की गालियों के साथ शारीरिक ज़ुल्मों को झेला और अपनी प्यास को दबाए रखा किंतु जैसे ही वह प्यास बेकाबू हुई हालातों ने उसे सड़कों पर पटक दिया।

"ना परिवार ना घर ना ही सुख, मिला है तो सिर्फ दर्द और दुख इससे अच्छा तो मुझे मौ...", यह कहते हुए उसकी ठुड्डी कांपने लगी,आंँखों पर धुंधलेपन का पर्दा छाने लगा,दिमाग चीख चीखकर सिर्फ एक ही विचार दोहरा रहा परंतु वह विचार को शब्द बनाने की हिम्मत उसकी नहीं हो पा रही।

समय गुजरने के साथ चंद्रमा चक्षुओं से ओझल हो गया, देह बेजान पड़ने लगा, ऐसा लगा मानों आत्मा किसी भी क्षण जेल से स्वत: रिहा होकर उड़ चलेगी शशि की ओर जहाँ उसका परिवार इंतजार कर रहा है।

बूम्म्म!

पर्दों को सुन्न करती हुई धमाके ने कर्ण के रूह को वापस शरीर में धकेल डाला।

नाईं के दूकान के ठीक सामने वाली चार मंजिला इमारत में से धुँए का गुबार आकाश की ओर उठ रहा है, इमारत के अवशेष सड़क पर बेतरतीब फैले हैं तथा सामने खड़ा कर्ण सिर्फ इस घटना का एकमात्र साक्षी जो खुद असमंजस में है।

मामले की गंभीरता बढ़ाते हुए लंबे,चौड़े जबड़े वाला प्राणी किसी व्यक्ति को दाँतों में जकड़े धुंए से प्रकट हुआ।

भूमि में धमकते ही वह उस व्यक्ति को कंक्रीट पर लिटाकर सीने पर पैर जमाता हुआ एक ही झटके में सर को कागज समान फाड़कर गले में उतार लेता है।

पहले ही नज़र में कर्ण समझ गया कि ये भूरे रंग का मानव जैसे शरीर वाला प्राणी एक असुर है वों भी कालकेय रूप में जिसका सबूत उसके माथे पे तेजी से चमकता हुआ लाल रक्तानिधी था।

व्यक्ति का काम तमाम करते ही वह सूंघते हुए अपनी नज़रों को उठाकर गुर्राने लगा। कुक्कर के रक्त टपकाते नुकीले दाँतों वाले चेहरे के भाव देख कर्ण को इस बात का आभास हो गया कि असुर का पेट अभी भरा नहीं है तथा ऐसे हालात में सिर्फ एक ही अंग उसकी मदद कर सकते थे वों थे उसके पैर।

अपनी पूरी ताकत से कर्ण भाग रहा था लेकिन पीछे से 'भाऊ-भाऊ' की ध्वनि बढ़ती ही जा रही थी और ऐसे नाज़ुक वक्त में ही 'टक' से कर्ण का चप्पल उसका साथ छोड़ देती है और वो नीचे सड़क पर गिर पड़ा।

पलकें खुली तो उसके समक्ष साक्षात् यमराज यमलोक का लाल द्वार खोले खड़े थे तथा अपने साँसों की गति को धीमा कर वह खुद को इस आखिरी पीड़ा के लिए भी तैयार कर लेता है क्योंकि अब प्रयास व्यर्थ था पास आती द्वार में प्रवेश लेकर कर्ण अपनी आँखें बंद कर लेता है।

टंग की धुन कर्ण के कानों में गूंज उठी।