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गुल भीतर से रिक्त हुई थी उस घटना को अनेक दिवस व्यतीत हो गए। प्रत्येक दिवस वह किसी ना किसी पर ध्यान केंद्रित करती, उसे निहारती उससे आनंद प्राप्त करती। कुछ दिवस तो प्रसन्नता में व्यतीत हुए किंतु धीरे धीरे गुल उस प्रसन्नता को खोने लगी। जैसे वह कुछ समय का साथ देकर छूट जाने वाला छल हो। पुन: वह किसी भी बात पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करती, कुछ क्षणों के लिए उसे सफलता मिलती किंतु शीघ्र ही उसका मन भटक जाता। वह प्रसन्नता कोई ना कोई छलना करती हुई उसके हाथों से सरक जाती। वह खिन्नता ग्रस्त हो जाती।
गुल की इस स्थिति से उत्सव अनभिज्ञ नहीं था। अनेक बार उसे मन हुआ कि गुल से पूछ लुं, इस विषय में उससे बात कर लुं। किंतु उत्सव स्वयं को रोक लेता।
एक संध्या को सूरज पश्चिम की तरफ़ अधिक यात्रा कर चुका था। समुद्र के स्तर से कुछ ही दूरी पर था। इतना अंतर तय करते ही वह समुद्र के भीतर समा जाने वाला था। उत्सव तथा गुल दोनों उसे निहार रहे थे। एक प्रसन्न था तो एक अस्थिर मन में विषाद लिए थी। वह उसे धारण नहीं कर सकी, उठ कर चली गई।
उत्सव ने स्वयं से कहा - ‘आज विषाद अपने चरम पर आ गया है। गुल की तितिक्षा से पार जा चुका है। क्या अब भी मुझे मौन रहना चाहिए?’
उत्सव ने डूबते सूरज को देखा। मन ही मन निश्चय किया, डूबते सूरज को छोड़कर वह उठा। घर की तरफ़ भाग।
‘यह सूरज भले ही डूब जाए किंतु गुल के सूरज को डूबने से मुझे बचाना होगा। यह सूरज तो डूबकर कल पुन: निकलेगा किंतु यदि गुल का सूरज एक आर डूब गया तो …।’
उत्सव आगे सोच ना सका।
“गुल, सुनो। रुको। मैं भी तुम्हारे साथ आ रहा हूँ।” उत्सव दौड़कर गुल के साथ हो गया। दोनों घर के द्वार पर आ गए। गुल भीतर दौड़ गई। भीतर से कुछ ध्वनि आने लगी जो कोई शुभ संकेत नहीं दे रही थी।
उत्सव बाहर रहकर प्रतीक्षा करने लगा। संध्या आरती का समय हुआ तो गुल घर से निकाली। महादेव के मंदिर की तरफ़ जाने लगी। उत्सव वहीं रह गया।
मंदिर से घंटनाद की ध्वनि आने लगी। आरती सम्पन्न हो गई। उत्सव गुल के आने की प्रतीक्षा करने लगा। अधिक समय व्यतीत होने पर भी गुल नहीं लौटी। उत्सव चिंतित हो गया।
‘इतना समय तो नहीं लगता कभी गुल को। आज विलम्ब कैसे हो गया? कुछ तो बात है। मुझे जाकर देखना चाहिए।’
उत्सव मंदिर की तरफ़ गया। गुल एक कंदरा के कोने पर बैठी थी। समुद्र को निहार रही थी। सूरज कब का डूब चुका था। समुद्र पर धीरे धीरे अंधकार व्याप्त हो रहा था। दूर कोई नौका तट की तरफ़ गति कर रही थी। पंखियों की टोली समुद्र के जल से थोड़े ऊपर उड़ रही थी। तरंगें आपने यौवन पर थीं। मद्धम सी पवन समुद्र से धरती की तरफ़ बह रही थी जो गुल के केश को उड़ा रही थी। केश गुल के गालों पर तथा मुख पर उड़ रहे थे। कुछ केश नयनों को ढँक रहे थे। गुल इन सभी बातों से अनभिज्ञ थी। उत्सव ठीक उसकी पीठ के पीछे आ चुका था उस बात से भी वह अनभिज्ञ थी।
“गुल, क्या है यह सब? कोई ऐसा करता है क्या? क्यूँ कर रही हो तुम ऐसा?”
गुल ने उत्सव को अपरिचित दृष्टि से देखा।
“गुल, तंद्रा से जागो।” उत्सव के शब्दों में चिंता थी।
“इस प्रकार मौन रहने से, स्वयं से दूर भागने से तो बात कैसे बनेगी?” उत्सव की बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा गुल पर।
“गुल, गुल।” गुल ने मुख के भावों से प्रतिभाव दिया।
“ईश्वर ने हमें वाचा दी है, शब्द दिए हैं। क्यूँ?”
“क्यूँ?” गुल ने पूछा।
“इस लिए की मनुष्य अपने मन की बात किसी को कह सके। कहो, क्या बात है?”
गुल ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया।
“रात गहन हो रही है, इस कन्दरा में अनेक समुद्र जीव रहते हैं जो विष से भरे होते हैं।”
“हां उत्सव, इस कन्दरा में विष है, उस जीव में भी विष था। किंतु वह समय प्रभात का था, रात्रि का नहीं।”
“प्रभात में तो सब कुछ स्पष्ट दिखता है, तुम उससे बच सकती थी।”
“किंतु नहीं बच सकी।”
“क्यूँ?”
“क्यूँ कि उस जीव में विष था उसका संज्ञान तब नहीं था।”
“तुम किस जीव की बात कर रही हो, गुल?”
“उसे मैंने सर्व प्रथम यहीं देखा था, इसी कन्दरा पर। प्रभात का समय था, वह यहाँ था।” गुल ने एक स्थान पर संकेत किया। उत्सव ने उस स्थान को देखा।
“कौन था वह जीव? यहाँ क्या कर रहा था? तुम कहाँ थी? क्या उसने तुम्हें दंश दिया? क्या तुमने तब कोई उपचार किया? कब की बात है यह? सब कुछ स्पष्ट बताओ।”
गुल उठी और समुद्र के निकट गई। कुछ तरंगें गुल को भिगो गई।
“केशव।” गुल ने गहन नि:श्वास से कहा।
“केशव? अर्थात् कृष्ण। तुम कृष्ण से रूठी हो। गुल, मुड़ो। कृष्ण के मंदिर को देखो। यदि तुम्हें कृष्ण से कोई समस्या हो तो कृष्ण को कहो। इस कन्दरा, इस समुद्र, इस तट पर आकर रूठकर बैठने से तो बात नहीं बनेगी। और एक बात। तुम रुक्मिणी तो हो नहीं कि तुम रूठ जाओ और तुम्हें मनाने के लिए कृष्ण स्वयं यहाँ आ जाए।”
“मैं कृष्ण की बात नहीं कर रही। हां, मेरी इस अवस्था के लिए कुछ सीमा तक वह भी उत्तरदायी तो है ही। किंतु मैं केशव की बात कर रही हूँ, कृष्ण की नहीं।”
“कृष्ण एवं केशव , मुझे तो भिन्न नहीं लग रहे। दोनों एक ही तो है। रूप भिन्न हो सकते हैं, व्यक्ति नहीं। चलो छोडो इन बातों को। घर चलें।”
उत्सव घर की तरफ़ चलने लगा, गुल वहीं रुकी रही। उत्सव मुड़ा, “अब घर चलो।” गुल ने कोई प्रतिभाव नहीं दिए।
“अब क्या हाथ पकड़कर घर को ले चलूँ?”
गुल ने स्मित दिया, “इतना साहस हो तो यह भी कर दिखाओ।”
उत्सव ने बड़ी सौम्यता से गुल का हाथ पकड़ा, जैसे कोई पुजारी अपने आराध्या को स्पर्श करता है। वह चलने लगा। गुल भी चलने लगी।
‘इस स्पर्श में भी वही अनुभव है जो उसके स्पर्श में था। क्या वही स्पर्श नए रूप में मेरे जीवन में आया है? यह कैसी नियति है ईश्वर? तुम ही मुझे मार्ग बताओ। इस प्रवाह में मैं स्वयं ही बहती जाऊँ अथवा स्वयं को रोक लूँ?’
उत्सव नि:स्पृह भाव से गुल का हाथ पकड़े घर के प्रति गति कर रहा था।दोनों घर आ गए।
“गुल, तुम यहाँ बैठो। आज भोजन का प्रबंध मैं करता हूँ।”
गुल तथा उत्सव ने भोजन किया। रात्रि गति करने लगी।
“गुल, तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है।” गुल कक्ष के भीतर चली गई। उत्सव शिला पर आसन लगाकर बैठ गया, समुद्र का अनुभव करता रहा।