Dwaraavati - 12 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 12

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द्वारावती - 12

12

प्रभात के प्रथम प्रहर का अवनी पर आगमन हो रहा था। रात्रि भर उत्सव समुद्र के तट पर ही रहा। उसे ज्ञात ही नहीं रहा कि वह रात्रि भर जागता रहा था। अनिमेष दृष्टि से वह समुद्र को देखता रहा था। समुद्र ने अपने रूप को बदल दिया था। समुद्र की तरंगें जो कहीं दूर थी वह अब उत्सव के समीप आ चुकी थी। तरंगों से उठता पानी उत्सव को स्पर्श करता था, किंतु उससे वह विचलित नहीं था। रात्रि भर द्वारका में प्रति घंटे हो रहे शंखनाद से भी वह विचलित नहीं था। वह बस स्थिर सा था। जैसे कोई प्रतिमा हो। एक ऐसी प्रतिमा जो प्राणों से भरी थी, चेतना से भरी थी। किंतु यह प्राण तथा यह चेतना भी स्थिर थे।
उत्सव के सम्मुख एक आकृति आकर खड़ी हो गई। रात्रि के प्रथम प्रहर के इस अंधकार में वह छाया अस्पष्ट सी थी। वह उसे देख तो रहा था किंतु उसकी को चेष्टा नहीं थी उस आकृति के प्रति। उस छाया से भी वह विचलित नहीं हुआ। वह स्थिर ही रहा। उस छाया गतिमान हो कर उत्सव के समीप आ गई।
“उत्सव।” छाया ने उत्सव के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा। उत्सव ने कोई प्रतिभाव नहीं दिया। वह स्थिर था, अनिमेष समुद्र को निहारता रहा।
“उत्सव, उत्सव।” उत्सव की स्थिरता से छाया विचलित हो कर बोली।
उत्सव अभी भी विचलित नहीं हुआ। छाया ने उसके कंधों को हिलाया।
“गुल, तुम किस बात पर विचलित हो? क्यों तुम आज इतनी अधीर हो?” उत्सव ने निरपेक्ष भाव से पूछा।
“तो तुम्हें ज्ञात था कि प्रभात के इस प्रहार में मैं यहां...।”
“किंतु मुझे यह ज्ञात नहीं कि तुम विचलित क्यों हो? मैं तो तुम्हें धैर्य की प्रतिमा मान रहा था।”
“वह मिथ्या है। मैं भी धैर्य खो सकती हूँ।”
“इस समय तुम किस प्रयोजन से यहाँ आइ हो?”
“यह समय मेरे प्रातः स्नान का है।”
“तो?”
“मैं इसी समुद्र में प्रतिदिन स्नान करती हूँ।”
“समुद्र में?”
“हां, इसी समुद्र में।”
“तो तुमने स्नान सम्पन्न कर लिया?”
“नहीं।”
“तो जा कर स्नान कर लो।”
“नहीं, मैं अभी स्नान नहीं करूँगी।”
“तो कुछ समय पश्चात कर लेना। तब तक तुम भी इस समुद्र के सान्निध्य में बैठ सकती हो।”
“उत्सव, तुम कारण नहीं पूछोगे मेरे स्नान नहीं करने का?”
“क्या ऐसा प्रश्न पूछना आवश्यक है? क्या वह आसक्ति नहीं होगी?”
“तुम निरपेक्ष हो गए हो अथवा मेरी उपेक्षा कर रहे हो? कहीं तुम मेरा उपहास तो नहीं कर रहे हो?”
“जो व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से रिक्त हो गया हो वह किसी की उपेक्षा भी नहीं कर सकता और ना ही उपहास।”
“ऐसा रिक्त होना...।”
“गुल, यह मार्ग तुमने ही दिखाया था मुझे।”
उत्सव के इन शब्दों का कोई उत्तर नहीं था गुल के पास। वह मौन हो गई। मन ही मन विचार करती रही। अनेकों विचार प्रवाहित होते गए। उन विचारों में कोई एकरूपता न थी। कोई लक्ष्य नहीं था। कोई स्थिरता नहीं थी। अपने ही विचारों से व्याकुल हो गई गुल।
“उत्सव, मैं यहां तुमसे लड़ाई करने आइ थी और तुम हो कि मौन हो। कुछ तो बोलो।”
“गुल, जा कर अपने नित्य क्रमानुसार स्नान कर लो। सुना है कि स्नान करने से मन की उद्विग्नता शांत हो जाती है।”
“किंतु मैं आज स्नान नहीं करूँगी।”
“क्या मेरी उपस्थिति तुम्हें...।”
“नहीं, ऐसा नहीं है।”
“तो जाओ तुम अपना क्रम पूर्ण करो।”
उत्सव पुन: समुद्र को देखने लगा। विवश होकर गुल समुद्र में स्नान करने चली गई। उसने मुड़कर उत्सव को देखा। वह निर्लेप भाव से समुद्र को निहार रहा था। गुल के प्रति उसका ध्यान नहीं था।
‘ऐसे केसे वह अलिप्त रह सकता है? क्या वह भीतर से इतना रिक्त हो गया है कि वह मेरे होने की भी उपेक्षा कर सके? यह कौन सी अवस्था है?’
‘वह जो भी अवस्था हो, गुल तुम उस अवस्था को भंग कर सकती हो।’
‘मैं? वह कैसे?’
‘समुद्र है, एकांत है, यौवन भी है, सौंदर्य भी है, स्नान भी है। क्या यह पर्याप्त नहीं है किसी युवक को पथभ्रष्ट करने के लिए?’ एक अट्टहास्य करती हुई गुल की प्रतिछाया समुद्र की उठती तरंगों के साथ विलीन हो गई।
गुल पानी के भीतर चली गई। मनोमन संघर्ष करती रही।
‘क्या मुझे उस मार्ग पर चलना चाहिए जो मार्ग मेरी प्रतिच्छाया ने मुझे दिखाया है?’
गुल कोई निर्णय ना कर सकी। अनेक क्षणों तक वह स्थिर सी खड़ी रही। समुद्र की तरंगें उसके तन को स्पर्श करती रही, उसे भिगोती रही किंतु मन से वह कोरी ही रही। अनिर्णय की अवस्था में उसने उत्सव को देखा। वह अभी भी उसी स्थिरता से समुद्र को निहार रहा था।
‘मुझे इस ऋषि का तपोभंग करना ही होगा।’
गुल के भीतर की स्त्री सजग हो गई, मनोभाव जाग गए। वह समुद्र के भीतर चलने लगी, उत्सव की दृष्टि जिस दिशा में थी वह ठीक उस के सम्मुख आ गई।
‘अब मैं देखती हूँ कि वह मेरी तथा मेरे यौवन की उपेक्षा कैसे करता है?’
‘गुल, क्या उत्सव को पथ भ्रष्ट करना तुम्हारा प्रयोजन है?’ गुल ने स्वयं को प्रश्न किया। इस प्रश्न ने उसे व्याकुल कर दिया।
‘यह मार्ग मेरा नहीं है। मैं कोई इंद्र की मेनका, रम्भा नहीं हूँ। मैं गुल हूँ, पंडित गुल। ज्ञान, त्याग, संयम, नियम आदि का पालन करने वाली पंडित गुल। शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है मैंने। उस ज्ञान को समजा है, उस ज्ञान को जिया है मैंने। मैं सत्य के मार्ग पर ही चलूँगी। एक ऐसा मार्ग जो मैंने स्वयं ही निर्धारित किया है। मैं अपने मार्ग को नहीं छोड़ सकती। कदापि नहीं।’
दृढ़ निश्चय की मुद्रा में गुल ने हाथों की मुट्ठियों को बंध कर लिया।
“मेरे ईश्वर, मेरे इस मिथ्या विचार करने के पाप पर मुझे क्षमा करना।” गुल ने गगन की तरफ़ दो हाथ जोड़े, समुद्र के जल से हथेलियों में अंजलि भर पानी लिया और उसे समग्र तन पर लगा दिया। वह लौट आयी। आत्ममंथन करने लगी।
‘मेरे भीतर यह भाव कैसे जागे? यह विकार कहाँ से आया? क्या मैं उत्सव को पाना चाहती हूँ? क्या मैं स्वयम अपने पथ से भ्रष्ट हो रही हूँ? मुझे इस स्थिति को सम्भालना होगा, स्वयं को सम्भालना होगा।’