पण्ढरपुर में लक्ष्मीदत्त नाम के एक ऋग्वेदी ब्राह्मण रहते थे। ये सन्तों की बड़े प्रेम से सेवा किया करते थे। एक बार इनके यहाँ साक्षात् नारायण सन्तरूप से पधारे और आशीर्वाद दे गये कि तुम्हारे यहाँ एक परम विरक्त भगवद्भक्त पुत्र होगा। इसके अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया गुरुवार संवत् १३४७ वि० को धनलग्न में इनकी पत्नी रूपादेवी ने पुत्र प्राप्त किया। यही इनके पुत्र महाभागवत राँका जी हुए। पण्ढरपुर में ही वैशाख कृष्ण सप्तमी बुधवार संवत् १३५१ वि० को कर्क लग्न में श्रीहरिदेव ब्राह्मण के घर एक कन्या ने जन्म लिया। इसी कन्या का विवाह समय आने पर राँकाजी से हो गया। राँकाजी की इन्हीं पतिव्रता भक्तिमती पत्नी का नाम उनके प्रखर वैराग्य के कारण ‘बाँका' हुआ। राँकाजी का भी ‘राँका' नाम उनकी अत्यन्त कंगाली रंकता के कारण ही पड़ा था।
राँकाजी रंक तो थे ही, फिर जगत् की दृष्टि उनकी ओर क्यों जाती। इस कंगाली को पति-पत्नी दोनों ने भगवान् की कृपा के रूप में बड़े हर्ष से सिर चढ़ाया था; क्योंकि दयामय प्रभु अपने प्यारे भक्तों को अनर्थो की जड़ धन से दूर ही रखते हैं। दोनों जंगल से चुनकर रोज सूखी लकड़ियाँ ले आते और उन्हें बेचकर जो कुछ मिल जाता, उसी से भगवान् की पूजा करके प्रभु के प्रसाद से जीवन-निर्वाह करते थे। उनके मन में कभी किसी सुख-आराम या भोग की कल्पना ही नहीं जागती थी।
श्रीराँका जी-जैसा भगवान् का भक्त इस प्रकार दरिद्रता के कष्ट भोगे, यह देखकर नामदेव जी को बड़ा विचार होता था। राँकाजी किसी का दिया कुछ लेते भी नहीं थे। नामदेव जी ने श्रीपाण्डुरंग से प्रार्थना की राँकाजी की दरिद्रता दूर करने के लिये भगवान्ने कहा—'नामदेव! राँका तो मेरा हृदय ही है। वह तनिक भी इच्छा करे तो उसे क्या धन को अभाव रह सकता है? परंतु धन के दोषों को जानकर वह उससे दूर ही रहना चाहता है। देने पर भी वह कुछ लेगा नहीं। तुम देखना ही चाहो तो कल प्रात:काल वन के रास्ते में छिपकर देखना।'
दूसरे दिन भगवान्ने सोने की मुहरों से भरी थैली जंगल के मार्ग में डाल दी। कुछ मुहरें बाहर बिखेर दीं और छिप गये अपने भक्त का चरित देखने । राँकाजी नित्य की भाँति भगवन्नाम का कीर्तन करते चले आ रहे थे। उनकी पत्नी कुछ पीछे थीं। मार्ग में मुहरों की थैली देखकर पहले तो आगे जाने लगे, पर फिर कुछ सोचकर वहीं ठहर गये और हाथों में धूल लेकर थैली तथा मुहरों को ढकने लगे। इतने में उनकी पत्नी समीप आ गयीं। उन्होंने पूछा-'आप यहाँ क्या कर रहे हैं?' राँकाजी ने उत्तर नहीं दिया। दुबारा पूछने पर बोले ‘यहाँ सोने की मुहरों से भरी थैली पड़ी है। मैंने सोचा कि तुम पीछे आ रही हो, कहीं सोना देखकर तुम्हारे मन में लोभ न आ जाय, इसलिये इसे धूल से ढके देता हूँ। धन का लोभ मन में आ जाय तो फिर भगवान् का भजन नहीं होता।' पत्नी यह बात सुनकर हँस पड़ी और बोली—'स्वामी ! सोना भी तो मिट्टी ही है। आप धूल से धूल को क्यों ढक रहे हैं?' राँकाजी झट उठ खड़े हुए। पत्नी की बात सुनकर प्रसन्न होकर बोले ‘तुम धन्य हो! तुम्हारा ही वैराग्य बाँका है। मेरी बुद्धि में तो सोने और मिट्टी में भेद भरा है। तुम मुझसे बहुत आगे बढ़ गयी हो।'
नामदेव जी राँका–बाँका का यह वैराग्य देखकर भगवान् से बोले 'प्रभो ! जिस पर आपकी कृपादृष्टि होती है, उसे तो आपके सिवा त्रिभुवन का राज्य भी नहीं सुहाता। जिसे अमृत का स्वाद मिल गया, वह भला, सड़े गुड़ की ओर क्यों देखने लगा? ये दम्पती धन्य हैं।'
भगवान् श्रीनामदेवजी से बोले— देखो, हमारी बात सत्य हुई। ये दोनों धन के प्रति कितने निस्पृह हैं।
भगवान् की जीत हुई, श्रीनामदेव जी हार गये। फिर भगवान्ने एक और बात कही कि 'यदि तुम्हारे मन में विशेष परिताप है कि श्रीराँका-बाँका जी की सहायता करनी ही चाहिये तो चलो, इनके लिये लकड़ी बटोरें।'
भगवान्ने उस दिन राँका-बाँका के लिये जंगल की सारी सूखी लकड़ियाँ गट्टे बाँध-बाँधकर एकत्र कर दीं। दम्पती ने देखा कि वन में तो कहीं आज लकड़ियाँ ही नहीं दीखतीं। गट्टे बाँधकर रखी लकड़ियाँ उन्होंने किसी दूसरे की समझीं। दूसरे की वस्तु की ओर आँख उठाना तो पाप है। दोनों खाली हाथ लौट आये। राँकाजी ने कहा—'देखो, सोने को देखने का ही यह फल है कि आज उपवास करना पड़ा। उसे छू लेते तो पता नहीं कितना कष्ट मिलता।' अपने भक्त की यह निष्ठा देखकर भगवान् प्रकट हो गये। दम्पती उन सर्वेश्वर के दर्शन करके उनके चरणों में गिर पड़े।
श्रीराँका–बाँकाजी श्रीठाकुरजी को घर लिवा लाये। भगवान् के संग श्रीनामदेवजी को देखकर श्रीराँकाजी ने झुंझलाकर कहा—'अरे मूड़फोरा! श्रीप्रभुको इस प्रकार वन-वन भटकाया जाता है?' भगवान्ने राँकाजी से कुछ माँगने का अनुरोध किया। तब वे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे कि 'मुझे आपकी कृपा के सिवा और कुछ नहीं चाहिये। तब श्रीनामदेव जी ने हाथ जोड़कर इनसे कहा कि 'अच्छा और कुछ नहीं तो प्रभु का रुख रखते हुए प्रभु का एक प्रसादी वस्त्र ही शरीर पर धारण कर लीजिये।' यद्यपि इतने से भी श्रीराँका-बाँकाजी को लगा कि मेरे सिर पर भारी बोझ पड़ गया, परंतु उन्होंने भक्त और भगवान् की रुचि रखनेके लिये वस्त्र मात्र स्वीकार कर लिया।
१०१ वर्ष इस पृथ्वी पर रहकर राँकाजी वैशाख शुक्ल पूर्णिमा संवत् १४५२ वि० को अपनी पत्नी बाँकाजी के साथ परम धाम चले गये।