नीलम कुलश्रेष्ठ
एपीसोड --1
इस घर में आज भी सुबह-सुबह नर्म हवा के झोंके पर्दों को थरथराते हैं । आज भी बरामदे में नीचे के बाईं तरफ़ करे नीचे पेड़ों की टहनियों से छनती धूप अपना अक्स बनाती है। आज भी इस घर में डेरीवाला घंटी बजाकर दूध देता है। बस इन थरथराते पर्दों की सूरज की किरणों की जैसे रूह फ़ना हो गई है। सामान से भरे इस घर में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाओ तो लगता है निःस्तब्ध वीराने में टहल रहे हैं। घर की बची हुईं हलचलें स्पन्दनहीन लगती हैं, अजीब-सी मरघटनुमा खामोशी में लिपटी हुई । जिन दो लोगों यानि एक पुरुष व स्त्री ने घर बसाया था वे कहीं क्षितिज में विलीन हो गये हैं । उनका घर किसी ख़ौफनाक हादसे की तरह डराता लगता है। उन दिनों हादसे जैसे उस घर की किस्मत बन चुके थे।
बात इस घर के ख़ामोश मरघट बन जाने से पहले की है ---मैं अपने शहर में सड़क पर चली जा रही थी। अचानक स्कूटर मेरे पास रुका। पीछे की सीट पर नन्दिता उतरते हुए बोली, “कहाँ जा रही है खोई-खोई?”
“बस, जरा बाजार तक ।”
उसके पति बोले थे, “आपकी हालत क्या हो रही है ? आँखों के नीचे चेहरे पर ये काले-कालेनिशान हो रहे हैं ।”
नन्दिता ने सलाह दी थी- “तुझे तो “सनबर्न” हो रहा है । ठीक से इलाज करा । हमारे ही क्लिनिक पर आ जा।”
“नहीं, ये सनबर्न नहीं है। मेरे मामा जयपुर में ब्रेन ट्यूमर के ऑपरेशन के बाद बीस-बाईस दिन से कोमा में है। न जीवन के इधर-न उधर । मैं इसी बात से परेशान हूँ ।”
“किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों ऑपरेशन नहीं करवाया ?”
“ऐसी बात नहीं है । वहाँ भारत के बेस्ट न्यूरो सर्जन हैं । लोग तो जयपुर से उनसे ऑपरेशन करवाने आते हैं, ये तो हमारी किस्मत खराब थी ।”
उसके पति आश्चर्य से खिल्ली उड़ाते बोले, “ये सब तो जीवन में चलता ही रहता है । रिश्तेदारों के लिए कोई इतना परेशान रहा जाता है ?”
“नहीं, ये सिर्फ रिश्तेदारी नहीं है। हमारे घर का माहौल दूसरी तरह का रहा है । मैं जयपुर एक सप्ताह रहकर आई हूं । मन अब भी मौत और जिन्दगी के बीच झूलते मामाजी पर अटका हुआ है।”
मैं शायद उन्हें या अपने बच्चों को भी न समझा सकूँ कि बचपन में प्यार से लबालब भरी जो ज़िन्दगी हमने पाई थी वह सबके नसीब में कहाँ होती है । जैसे सूरज होता है ! दुनिया के हर कोने में अपनी तीखी किरणओं से रोशनी बिखेरता । यदि वह न निकले तो न सुबह हो, न हरी-भरी पत्तियाँ अपना खाना बनाएँ, न ऑक्सिजन निकले और न ही आदमी जी पाए । बस ऐसा ही छलकता हुआ प्यार हमें बचपन में मिला था जो मन के रेशे-रेशे में आज तक समाया हुआ है । वे स्नेह देने वाले मुसीबत में हों तो सैकड़ों मील दूर बैठे हुए भी रेशे-रेशे में बिंधी वे प्यार पगी सूरज की किरणें छटपटाकर चेहरे की त्वचा को अपनी अकुलाहट से सनबर्न-सी झुलसा ही देंगी ।
बाद में सुना मामा झूलती हुई जिन्दगी से निज़ात पा गए हैं ठीक उसी तिथि को जिस तिथि को एक वर्ष पहले मामी जी गुजरी थीं। त्रयोदशी संस्कार के दिन वही हुआ जो मामी जी के त्रयोदशी संस्कार के दिन हुआ था । उस दिन गणेश चतुर्थी थी ब्राह्मण भोजन करने नहीं आए थे, खाना अनाथालय पहुँचा दिया गया था।
रात में अभी भी कभी घबराकर नींद खुल जाती है तो विश्वास नहीं होता वे नहीं रहे ।
वे गए भी कहाँ है तब की बच्चा पलटन में अभी भी “पी ऽ ऽ...” आवाज की तरह समाए हुए हैं । होता यह था कि नानी के घर में गर्मी की छुट्टियों में चिल्ल-पों मचाते हम इकट्ठे होते थे। मामा दिन में दो-चार बार तो बाजार सामान खरीदने भागते रहते थे । दुकान में रखी अपनी साइकिल की घंटी को वे टनटनाते तो हम सब भागकर वहाँ पहुँचकर उन्हें घेर लेते थे, “मामाजी हम चलेंगे, हम भी चलेंगे ।”
वे कहते, “अच्छा जो हॉल के खम्भे को सबसे पहले छूकर आएगा उसे मैं ले चलूँगा ।”
हम सब बच्चे खम्भे को छूने अपनी पूरी ताकत लगाकर उल्टे भागते । तब तक वे “पी ऽ ऽ...” करते दुकान से साइकिल उठाकर चौक का बगीचा पार करते घर का बड़ा फाटक पार करते बाहर निकल जाते । हर दिन हम बच्चा पलटन को नयी तरह से बेवकूफ़ बनाया जाता ।
लौटकर वे ज़रूर चटखारे लेते, “आज चन्दौसी वाले की भिड़ई(एक तरह की कचौरी) बहुत अच्छी थी लेकिन उसने उसमें मिर्च कुछ अधिक डाल दी थी । जब मुझे मिर्च लगी तो...तो....।”
कोई अधीरता से पूछता, “तो क्या हुआ?”
“मुझे इतनी मिर्च लगी कि मुझे मटके वाली कुल्फी खानी ही पड़ गई ।”
“ऐं...ऐं...।” कोई छोटा तो जमीन पर पाँव फैलाकर रोने ही बैठ जाता, “हमें छोड़ जाते हैं, अकेले-अकेले सब कुछ खा आते हैं ।”
वह उस छोटे को प्यार से गोदी में उठाते, “अब अगली बार तुमको साथ में ले चलूँगा । ये तुम्हारे लिए टॉफ़ी लाया हूँ ।”
“और हमारे लिए?” सारे बच्चे उछल-उछलकर उनकी जेबों से बाकी टॉफ़ियाँ बरामद कर लेते थे।
दोपहर में खाने के बाद घर के बड़े हॉल में ज़मीन पर बिस्तर लगाये जाते थे । यहाँ से वहाँ तक होती थी सोने वालों की भीड़ । ऊपर के एक सीलिंग फ़ैन की हवा काफ़ी फ़ैन नहीं होती थी। एक कोने में खड़खड़ाता पटरे पर रखा टेबिल फ़ैन होता था। उसके पास वाले बिस्तर पर उसी का कब्ज़ा होता जो उसे ‘फ़र्स्ट कम फ़र्स्ट ’ की तर्ज़ पर झपट लेता । अपनी माँओं की लाल-पीली आँखें देखकर सारे बच्चे एक-एक करके बिस्तरों पर लेटते जाते। जैसे ही वे सब गहरी नींद में डूब जातीं, एक सिर उठाकर अपनी ऊँगलियों से एक के बाल खींचता, दूसरा तीसरे के, तीसरा चौथे के । सब धीरे-धीरे उठकर दबे पाँव मामा के कमरे में जा धमकते । एक उनकी किताब बन्द करता, दूसरा उनका हाथ खींचता, दो-तीन मिलकर उनकी कुर्सी को हिलाते,“चलिए मामाजी हम लोग खेलेंगे ।”
“मुझे अभी पढ़ने दो ।”
“बाद में पढ़ते रहिए । हम लोग यहाँ कौन से रोज़ आते हैं ।”
“चलिए थोड़ी देर खेलकर आते हैं ।” सब उन्हें खींच-खाँचकर ऊपर ले आते । धीरे-धीरे आवाज करते हुए ‘आइस-पाइस’ खेली जाती । कोई ऊपर के कमरे में ड्रम के पीछे छिपता, कोई दुकान में रखे छोटे तख़्त के नीचे । कोई चारपाई के नीचे, कोई दरवाजे के पीछे । थोड़ी देर में मामा गायब हो जाते । उनके बिना तो खेलने का मजा ही नहीं था । जब उन्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक जाते जब हॉल में वापिस सोने आते तो देखते मामा सबके बीच में गहरी नींद में सो रहे हैं या अपना कमरा बन्द करके पढ़ने में लगे हैं । मम्मी के सारे बहिन-भाई उन्हें ‘पिठ पुछना’ कहकर चिढ़ाते थे ।
हम बच्चों को ये नाम बेहद आकर्षक व अटपटा लगता, हम पूछते, “ये पिठ पुछना क्या होता है ?”
“तुम्हारी नानी के चौदह बच्चे हुए थे उनमें से नौ जिन्दा हैं । प्रदीप सबसे बाद में हुआ था इसीलिए तुम्हारी नानी के पेट का सब कुछ पोंछकर ले आया है । इसलिए उसे पिठ पुछना कहते हैं ।”
“मम्मी, अगर आप बहिन-भाइयों के नौ-नौ बच्चे होते तो इस घर में इक्यासी बच्चे खेल रहे होते तो नानाजी को हमें ठहराने के लिए छत पर टेंट लगाना पड़ता ।”
“चुप शैतान !” मम्मी झेंपती । तब हमें पता नहीं था कि उनकी एक डॉक्टर बहिन होने के कारण परिवार नियोजन का त्रिकोण समय से बहुत पहले ही वहाँ पहुँच गया था।
हमारे ये पिठ पुछने मामा या प्रदीप मामा या टीपू मामा सबके दुलारे थे। हर एक का काम करने को तत्पर, हर एक की सहायता करने को तत्पर । अपनी पॉकिट मनी में से रुपये बचा-बचाकर रखते जाते थे छुट्टियों में हमें ऐश करवा सकें ।
एक दिन हम लोगों के बीच बैठकर उन्होंने हमें विस्मित कर दिया था, “हमारी युनिवर्सिटी में ऐसी मशीन आई है कि बस पूछो मत ।” वह उठकर चल देते, “अच्छा अब मैं कल बताऊँगा ।”
“बताइए न ! मामाजी बताइए न !” सब उनकी बाँहें पकड़कर बिठा लेते।
“ऐसी मशीन आई है कि उसका नल दबाओ तो ठंडा पानी निकलने लगता है।”
मैं समझदारी दिखाती, “तो जरूर ऊपर से बर्फ डालनी पड़ती होगी।”
“हट पगली ! बिजली का बटन दबाते ही उसमें पानी ठंडा हो जाता है इसे वॉटर कूलर कहते हैं ।”
और सच ही वह वॉटर कूलर दिखाने मई की गर्मी में साइकिल पर बिठाकर वे मुझे मुस्लिम युनिवर्सिटी ले गए थे । मैं बार-बार नल खोलती बन्द करती ठण्डा पानी पीती, चकित होती रही थी ।
एक दिन उनके लाए टेपरिकार्डर में हम लोग फ़िल्मी गाने टेप कर रहे थे। नानी ने भोलेपन से पूछा था, “क्यों प्रदीप ! मैं भजन गाऊँ तो इसमें रिकार्ड हो जाएगा ?”
हम सब खिलखिलाकर हँस पड़े थे जैसे कि कम्प्यूटर को लेकर हमारे बेतुके प्रश्नों पर हमारे बच्चे हँसते हैं ।
उन्हीं जीवन्त मामा को मैंने जयपुर के अस्पताल में कोमा में पड़े देखा था। उनके ऑक्सीजन की नली लगी थी ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ रही थी । गले में छोटा छेद करके एक ट्यूब डाली हुई थी, जिससे फलों का रस वगैरह डाला जा सके । कभी-कभी मशीन से उनके गले में लगी ट्यूब से कफ को खींच लिया जाता था । हर चौथे-पाँचवें दिन उनके सिर पर बड़े-बड़े गोल उभार उभर आते थे जिनके दबाव से दबकर उनका चेहरा बीभत्स हो जाता था ।
उनके पास बैठी कुसुम मौसी ने धीमे से बताया था, “डॉक्टर मानते नहीं है लेकिन इन लोगों से गलत ऑपरेशन हो गया है । सिर में खून-खून रिस-रिसकर एक जगह इकट्ठा होता है ।”
डॉक्टर राउंड पर आते उन्हें चिकोटी काटकर देखते । उनका शरीर जरा-सा हिलता, पलकें काँपती सिर्फ इसीलिए ही वे जिन्दा लोगों की श्रेणी में गिने जाते जा रहे थे ।
महीने में चार-पाँच बार उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर ऑपरेशन थियेटर ले जाया जाता । वहाँ उनका सिर में जमा हुआ गन्दा खून निकाला जाता । वे सूजे हुए गोल आकार तो गायब हो जाते किन्तु सफ़ाचट सिर से काले खून के धब्बे रह जाते। इस हालत में उन्हें स्ट्रेचर पर थियेटर से बाहर निकाला जाता तो लगता अपना ही कलेजा बाहर आ जायेगा । कुसुम मौसी छुट्टी लेकर आ गई थीं । बड़े मामा ने नौकर का इंतज़ाम कर दिया व उनकी बेटी संचिता वहीं के हॉस्टल से आकर गर्मी की छुट्टियाँ होने के कारण वहीं रह रही थी, सारी हॉस्पिटल की दौड़-भाग में हाथ बँटाती । मैं छोटे बच्चों को छोड़कर एक सप्ताह के लिए गई थी।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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