Youn Hee Safar Men in Hindi Moral Stories by Arvend Kumar Srivastava books and stories PDF | यूँ ही सफर में

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यूँ ही सफर में

“मैं सोचता हूँ कि अब इस घर को बेच दूँ।“राघव (राघवेन्द् ) ने अपने कमरे की खिड़की से बाहर खुले आसमान की ओर बहुत दूर तक देखते हुए कहा।

अगले ही पल राघवेन्द्र ने अपनी दृष्टि को दूर आसमान से हटाकर सुलेखा की ओर देखा। उसे लगा कि उसकी बातों को सुना ही नहीं गया है, परंतु सुलेखा के माथे पर उभर आयी सिलवटों को देखकर उसे अपना विचार बदलना पड़ा।ऐसा हो भी नहीं सकता था कि वह कुछ कहे या करे और उस पर सुलेखा ध्यान न दे। चालीस वर्षों के विवाहित जीवन में कभी ऐसा हुआ भी हो ,ऐसा उसे याद नहीं।

“बेच दें! फिर क्या वृद्धाश्रम में रहने का इरादा है?“

“हाँ!....सब सुविधाओं से युक्त वृद्धाश्रम है, जहाँ हम पैसे देकर मजे से रह सकते हैं।“

“क्यूँ? क्या अपना घर ठीक नहीं है?...खैर मुझे इसे छोड़कर कहीं नहीं जाना है । इस घर के साथ हमारे सारे अरमान जुड़े हैं। हमने एक - एक पैसा जोड़कर इसे बहुत मुश्किल से बनाया है।“

“मुझे लगता है कि समाज के संगठन का ढाँचा बदल रहा है और हमें भी उसी प्रकार बदलना चाहिए।“चेहरे पर बिना कोई भाव लाये उसी प्रकार आसमान में कहीं दूर देखते हुये राघव ने कहा।

“चालीस सालों से स्वयं को बदल ही तो रहे हैं । ऐसा कब हुआ जब हमने स्वयं को न बदला हो।“सुलेखा ने कहा और उठ कर किचन की ओर चली गई।

राघव सुलेखा की बातों का मर्म समझ रहा था। बात तो उसकी ठीक ही थी। ‘नवीन’ तीन साल का था, जब वे उसकी पढ़ाई के लिये अपने पूरे परिवार को गांव में छोड़कर शहर आ गये थे।

दो कमरों वाले किराये के एक छोटे से मकान में रहने के लिये वे खाली हाथ आ गये थे, अपने परिवार की खुशियों और उनके प्रयोग के लिये वो सब भी छोड़ कर जो उनका अपना ही था, परिवार की जिम्मेदरियों का महत्व समझते हुए वे घर से कुछ भी नहीं लाए थे, परिवार के किसी सदस्य ने भी कुछ साथ ले जाने के लिये नहीं कहा था। यह शायद उसका कर्तव्यबोध ही रहा होगा या फिर किसी को कोई तकलीफ न हो, यह विचार रहा होगा ; जिसके कारण उसने कुछ कहा भी नहीं था किन्तु क्या घर में सभी का यही कर्तव्य था ? खैर, इस पर अधिक कुछ सोचने का अब कोई लाभ नहीं।

उसे दस वर्ष लग गये थे उन सभी आवश्यक चीजों को चुन - चुन कर एकत्र करने में जो एक छोटे और सामान्य घर के लिये आवश्यक थीं। इन चीजों के बिना किसी घर को घर नहीं कहा जा सकता था। अनंत कल्पनाओं और सपनों के पंख लगाकर आसमान में उड़ने के लिये मचलती हुई एक लोअर मिडिल क्लास फैमली! जिसे वो सब चाहिए था, जो बाजार में बिकता हुआ दिखाई देता है। यही कारण रहा कि गैर जरूरी चीजें भी खरीदी गईं, जिनकी कि आवश्यकता ही नहीं थी या फिर बहुत कम थी।

यही वह समय रहता है, जब चारों ओर दिखावे के आडम्बर सुलग रहे होते हैं और इन धीरे - धीरे सुलगते हुए आडम्बरों के बीच में हम भी सुलगते हैं। इसे लुटना भी कह सकते हैं । घर में टेलीफोन नहीं था, तब भी जिंदगी बड़े आराम से कट रही थी। जरूरत के सारे काम घर से थोड़ी दूर पर स्थित पी. सी.ओ. से ही हो जाते थे।

बहुत थोड़ा ही समय गुजरा था कि घर के आस - पास के सभी घरों में टेलीफोन लग गये थे, तब राघव ने भी अपने किराये के मकान में फोन का कनेक्शन ले लिया था।

नवीन हाईस्कूल में अच्छे नंबरों से पास हो गया था । उसे मैथ्स और सांइस में बहुत अच्छे नंबर मिले थे ।

अतः सहज रूप से उसे इन्जीनियरिंग पढ़ाने का निर्णय ले लिया गया।इण्टर में कॉलेज की पढ़ाई के साथ हर विषय के लिये ट्यूशन भी कराया गया था।

इसके अतिरिक्त इन्जीनियरिंग की तैयारी करने के लिये एक पत्राचार का कोर्स भी खरीद लिया गया था।

देखते - देखते छः साल कैसे गुजर गये, पता ही नहीं चला । परंतु तब राघव के सिर पर काले बालों की संख्या कितनी बची है इसे आसानी से गिना जा सकता था। सफेदी के कारण उसने मूंछे रखना छोड़ दिया था और अब वह क्लीन सेव बन गया था। सुलेखा साड़ी पहनना छोड़कर सलवार सूट पहनने लगी थी।

राघव जानता था कि सलवार - कुर्ता उसकी पसंद नहीं है और समय की आवश्यकता भी नहीं। ...... परंतु 'हां', इसे वह समझौता कह सकता था। यद्यपि इस समझौते से उनकी खुशी में कोई कमी नहीं आई थी।

कॉलेज कैम्पस से ही नवीन का प्लेसमेन्ट एक साफ्टवेयर कंपनी में हो गया था। वह अपनी पढ़ाई समाप्त कर केवल दो महीने राघव के पास रहा था फिर उसका ज्वाइनिंग लेटर आ गया और वह गुरूग्राम चला गया।

नवीन की ज्वाइनिंग के बाद राघव ने बैंक से लोन लेकर किसी प्रकार तीन कमरों का एक मकान बना लिया था, जिसमें एक कमरा पहली मंजिल पर था जिसे उन्होंने नवीन के लिया बनाया था। सुलेखा उस कमरे को हमेशा साफ-सुथरा और सुसज्जित रखती थी।यूँ तो पूरे घर को साफ - सुथरा रखने में उसी का योगदान रहता था लेकिन पहली मंजिल के इस कमरे पर उसका ध्यान कुछ अधिक ही रहता था।

तीन साल तक कुछ नया नहीं घटा था। तभी नवीन की शादी उसकी पसंद की लड़की से कर दी गयी। राघव और सुलेखा को अपार खुशी थी क्योंकि उचित का चुनाव करना मनुष्य होने का लक्षण है और केवल मनुष्य ही अपने लिये चुनाव कर सकता है। इसके अतिरिक्त संसार के किसी भी अन्य प्राणी के पास अपने लिये कुछ भी चुन पाने का कोई अवसर नहीं है । प्रकृति ने अन्य प्राणियों के लिये पहले से ही व्यवस्था कर रखी है कि वह क्या खायेगा और कैसे रहेगा ? उनके लिए हर एक चीज पहले से ही निश्चित है। मनुष्य बस अपने माता - पिता,भाई - बहन और परिवार को नहीं चुन सकता । उसे बस यह अधिकार नहीं मिला है । यह ईश्वर प्रदत्त है। वह अपने लिए पति या पत्नी का चुनाव कर सकता है। इसके लिए वह स्वतंत्र है।

टेलीफोन का चलन तो बहुत पहले ही समाप्त हो गया था और उसके बाद मोबाइल भी स्मार्ट हो चुका है ! इंटरनेट ने संचार की दुनिया को पूरी तरह बदल दिया है। अब केवल बात ही नहीं होती, बल्कि वीडियो कॉलिंग करते हुए एक - दूसरे को आमने-सामने देखा भी जा सकता है। राघव ने अपने और सुलेखा के लिए नवीन से वीडियो कॉलिंग करने के उद्देश्य से एक - एक स्मार्ट फोन खरीद लिया था। नवीन के पास बात करने का समय कम रहता था । सुलेखा की बातें अपनी बहू से खूब होती थीं । सुलेखा बहू से बात करने के बाद काफी खुश दिखाई देती थी ।यह बात राघव के लिए भी सुखद थी।

राघव को सुलेखा ने ही बताया था कि नवीन का प्रोमोशन हो गया है और कंपनी उसे अपने हेड ऑफिस ‘ह्यूस्टन’ भेज रही है।नवीन के अमेरिका जाने की प्रसन्नता दोनों को थी।सुलेखा ने इस बात को अपने सभी रिश्तेदारों और सारे मोहल्ले में बड़े चाव से बताया था।
अमेरिका जाने से ठीक पहले नवीन उनके पास एक सप्ताह के लिए आया था।एक सप्ताह बाद उन दोनों ने दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से नवीन और बहू को विदा कर दिया और वे वापस आ गये। उनकी बातें तब भी उसी प्रकार वीडियो कान्फ्रेंसिंग से होती रहती थीं।

एक वर्ष बाद ही अमेरिका में नवीन की पत्नी ने बेटी को जन्म दिया।बेटी के जन्म ने उनकी जिंदगी में अनगिनत खुशियां भर दीं।राघव और सुलेखा ने जब पहली बार वीडियो पर अपनी पोती का चेहरा देखा तो उनकी आँखें अपार खुशी से भर आयी थीं, जैसे अब और कुछ देखना ही शेष न रहा हो।
राघव रिटायर हो चुके थे।रिटायरमेन्ट पर राघव को कुल मिलाकर तीस लाख रूपये से कुछ अधिक ही मिला।एन.पी.एस.से मिलने वाली पेंशन केवल चार हजार से कुछ अधिक थी। तीस लाख बैंक में जमा कर दिये गये जिससे ब्याज के पन्द्रह हजार से कुछ अधिक रूपये महीने के मिल जाते थे । सब मिलाकर महीने की कुल आमदानी थी बीस हजार रूपये से कुछ अधिक।

रिटायरमेन्ट के बाद उनका मेडिकल खर्च भी थोड़ा बढ़ गया था और दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था।राघव अपनी जिंदगी के पिछले पन्नों को और पलटते कि तभी सुलेखा दो कप चाय ले आयी । एक कप चाय राघव को पकड़ाकर वह भी चुप - चाप उनकी बगल में बैठ गयी।

“इतनी देर में आपने कितने पन्ने पलटे जिंदगी के?“ सुलेखा ने राघव की ओर देखते हुए पूछा। यह प्रश्न उसने राघव के चेहरे पर उमड़ते, उभरते, गिरते, बनते और बिगड़ते सभी भावों को अच्छी तरह पढ़ने के बाद पूछा है,यह अनुमान राघव को भी हो गया था।

“जिंदगी की पिछली किताबों में कहीं कुछ लिखा हो और आगे करने को कुछ न हो, तो पन्ने पलटना भी अच्छा ही लगता है।“एक ठण्डी साँस लेने के बाद राघव ने कहा।

“इस लम्बे सफर की जिंदगी में हमेशा कुछ न कुछ नया लिखा ही जाता रहा है, फिर वह चाहे सुख का हो या दुःख का ! सुख जिसे कभी जाना नहीं गया और दुःख जिसे कहा नहीं जा सका। हाँ, भूलने के नाकाम प्रयास अवश्य किये जाते रहे।”

पूरे परिवार के लिये हमेशा शुभ की इच्छा से दिन - रात संघर्ष करने वाला राघव चुनौतियों के बोझ से दब कर अशुभ की ओर कैसे बढ़ता चला गया यह अब भी उसके हृदय पटल पर ज्वालामुखी की भांति धधक रहा था,जिसे वह अब किसी से कह तो नहीं सकता और कुछ कहने का अब लाभ भी क्या होगा अपने आप को सुलेखा की दृष्टि से बचाते हुए उसने मन ही मन सोचा।

मन के किसी एकांत कोने में बीती हुई जिंदगी के उजले या स्याह पन्ने खुले हों तो अपने आप को स्थिर रख पाना सरल नहीं होता । फिर भी राघव ने जल्दी से स्वयं को संभाल लिया जैसे कुछ हुआ ही न हो। मन में कोई हलचल मची ही न हों ।

“अब छोड़ो भी ये सब,” चाय पीकर राघव ने कहा, ‘‘चलो, बाजार से सब्जियां तथा अन्य आवश्यक सामान लेकर आते हैं ।“

यह उनके रोज का क्रम था। शाम को दोनों एक साथ बाजार अवश्य जाते थे । इस प्रकार उनका थोड़ा टहलना भी हो जाया करता था । जिस दिन किसी कारण से सुलेखा नहीं जाती थी राघव अपने तीस साल पुराने स्कूटर से सब्जियां लेने चला जाता । इस प्रकार उनका स्कूटर भी महीने में तीन - चार बार बाहर घूम आया करता था। पूरे मोहल्ले के लिए उनकी जोड़ी बेमिसाल थी। शाम को वे दोनों जब हाथों में हाथ डालकर बाहर निकलते तो नव विवाहित जोड़े उन्हें देख उनके प्रेम पर गर्व महसूस करते ।

सुलेखा के हाथों की कलाई में दर्द बढ़ गया था जिस कारण रोटी बनाने और आटा गूंथने में उसे अधिक परेशानी होने लगी थी ।

अब रोटी के लिये आटा राघव ही गूंथने लगा था। दिन मेँ एक बार सुलेखा किसी प्रकार दोनों समय के लिए रोटी बना लेती थी।

घर की साफ - सफाई और बर्तन धोने के लिये एक पार्ट टाइम नौकरानी उनके घर में शुरू से थी ही जो रोज सुबह आकर अपना काम कर जाती थी।

सुलेखा राघव से उम्र में तीन साल छोटी रही होगी, किन्तु राघवेन्द्र बाबू में उत्साह थोड़ा ज्यादा था।

नवंबर का महीना शुरू होने के साथ वातावरण में ठंड थोड़ी बढ़ गयी। इस कारण सुलेखा ने अपने और राघव के लिये स्वेटर निकाल लिये थे । सुबह - शाम ठंड थोड़ी ज्यादा रहती थी किन्तु दोपहर गर्म हुआ करती थी।सुबह के सात बज रहे थे, उन दोनों ने बस चाय खत्म ही की थी कि बाहर मुख्य दरवाजे की कॉलबेल बजी।

“इतनी सुबह कौन हो सकता है।“ राघव ने कहा और उठने का प्रयास किया।

“तुम बैठो मैं देखती हूँ।“ सुलेखा ने कहा और उठकर बाहर चली गयी।

सुलेखा वापस लौटी तो उसके हाथों में एक बड़ा - सा फूलों का गुलदस्ता था, जिसे देखकर राघव ने हतप्रभ होते हुए पूछा,

“किसने भेजा है?“

“पता नहीं।“

राघव अपने आप को रोक नहीं सका, उठकर खड़ा हो गया और सुलेखा के हाथों से गुलदस्ते को लेकर देखने लगा। अंदर एक कार्ड दिखाई दिया।

“तुम देखती नहीं हो।“ राघव ने पत्नी को उलाहना देते हुए कहा और अंदर से कार्ड निकाल लिया।

राघव ने कार्ड देखा । नवीन का था । बहू और बेटे के द्वारा उनकी शादी की चालीसवीं वर्षगांठ पर बधाई दी गयी थी।

“अच्छा, तो आज दस नवंबर है !“ सुलेखा ने कार्ड को देखते हुए कहा ।

“हमें तो याद ही नहीं था।“

“आप को याद ही क्या रहता है।“ सुलेखा ने इस प्रकार कहा, जैसे उसे सब याद रहता है।

नवीन ने ऑन लाइन आर्डर कर शाम को केक और फिर डिनर भी भेजा था। अपने चालीस वर्षों के विवाहित जीवन में शादी की वर्षगांठ इस प्रकार उन्होंने पहले कभी नहीं मनायी थी। सुलेखा केक को अपने आस - पास के सभी घरों में जाकर बाँट आयी थी।

दिन तेजी से गुजरने लगे थे। सर्दियाँ समाप्त हो गयीं और अप्रैल का महीना शुरू हो गया था।

एक दिन दोपहर को अचानक नवीन की वीडियो कॉल आयी, हालांकि यह कोई नयी बात नहीं थी सप्ताह में तीन - चार बार उन सब की बातें हो जाया करती थीं, परंतु हमेशा रात में नौ बजे के बाद।

वीडियो काल सुलेखा ने रिसीव किया था, ‘‘मां, पापा को बुला लीजिये मैं आप लोगों को कुछ दिखाना चाहता हूँ।“

“हम दोनों यही हैं । बेटा!बोलो क्या बात है ?“

उधर से नवीन की आवाज सुनायी दी, ‘‘मां, यह एक घर है जिसमें तीन कमरे, दो बाथरूम, एक बड़ी लावी, एक किचन, बाहर छोटा सा लान और सामने पार्क है।“ एक - एक चीज को ठीक से दिखाते हुए नवीन ने कहा ।

“तुम लोग किराए पर दूसरा मकान ले रहे हो क्या?“ राघव ने प्रसन्न होते हुए पूछा।

“जिस मकान में तुम रहते हो उसे तो हम कई बार देख चुके हैं ।“ इस बार सुलेखा ने कहा ।

“किराये के लिये नहीं, मां! हम इसे खरीदना चाहते हैं।“

जिस बात को सुनकर खुशी होनी चाहिए जाने क्यों वह बात दोनों को थोड़ी चुभ गयी थी,,किन्तु नवीन बोलता रहा, “कंपनी ने पिछले तीन सालों में अच्छा बोनस दिया है । हमने भी खर्च में कटौती करके लगातार पैसे बचाये और कुछ बैंक से लोन भी हो जायेगा। बस, आप पिता जी से कहकर पच्चीस लाख रूपये दिलवा दें, तो हमारा काम हो जायेगा।“

“मुझे रिटारमेन्ट पर तीस लाख रूपये मिले थे। उनमें पच्चीस लाख मैं दे दूंगा। तुम अपना बैंक एकाउन्ट नं. भेज दो।“

राघव ने अपने भविष्य के संबंध में बिना कुछ विचार किए ही कह दिया था।

“घर तो बहुत अच्छा है।“ सुलेखा ने इस तरह कहा ,जैसे उसे बहुत खुशी हो रही हो।

“हां, मां! घर काफी अच्छा है और सही कीमत पर मिल भी रहा है। जब रहना भी यहीं है तो सोचा, खरीद ही लूँ ।“

“बहुत ठीक सोचा है, बेटे।”राघव ने जल्दी से कहा और सामने से हट गये।

“अच्छा मां! अब फोन रखता हूँ । रात को फिर कॉल करूंगा ।“नवीन ने यह कहकर फोन काट दिया।

उसने अपना एकाउन्ट नंबर भेज दिया।

अगले दिन राघव और सुलेखा ने सबसे पहले बैंक जा कर पच्चीस लाख रूपये नवीन के एकाउन्ट में ट्रान्सफर कर दिये। सारा काम दो घंटे में हो गया था।

वे दोनों घर वापस लौटते इसके पहले ही नवीन का मैसेज आ गया कि उसे पैसा प्राप्त हो गया है। । नवीन का मैसेज पढ़कर दोनों ने संतोष और सुख की ठंडी सांस ली। "जो कुछ भी है वह अंततः है तो ‘नवीन’ का ही,मेरे जीवन काल में यदि यह उसके काम आ जाये तो इससे बड़ी बात क्या होगी ?" राघव ने चलते- चलते मन ही मन सोचा।" हम दोनों के लिए यह ख़ुशी की सौगात है ।"

सुलेखा के मन में भी कुछ ऐसा ही चल रहा था, "हम तो अपने हिस्से का जीवन जी ही चुके हैं। इन पैसों की उपयोगिता हम दोनों के लिए तो अब थी ही नहीं। आज इन आँखों से हमने इसका उपयोग पुत्र के लिए होते हुए देख लिया तो लगता है जैसे हमारा जीवन धन्य हो गया।“

रास्ते भर दोनों ने एक दूसरे से कुछ कहा नहीं ।घर से थोड़ी दूर सड़क पर ऑटो से दोनों उतरे, एक दूसरे की ओर देखा। उन दोनों के ओठों पर अपने - अपने हिस्से की मुस्कुराहट तैर रही थी।

दोपहर को रोटी बनाने के लिये आंटा गूँथते समय राघव ने कहा, ‘‘सुलेखा, अब मुझसे भी यह आटा गूँथा नहीं जाता। मेरी कलाइयों का दर्द भी अब ज्यादा हो गया है।‘

सुलेखा ने धीरे से कहा- ‘'हूँ'' और रोटी सेकना शुरू कर दिया।

रात को खाना खाकर दोनों बेड पर लेटे तो सुलेखा ने राघव के बहुत नजदीक आकर उसके सीने पर हाथ रखते हुए कहा,

“मै सोचती हूँ, तुम ठीक ही कहते थे।”

राघव सुलेखा की आंखो में ही देख रहा था, हमेशा की तरह वह आज भी शान्त थी, उसके चेहरे के भावों में खुशी या गम का कोई चिन्ह नहीं था।

सुलेखा ने फिर धीरे से कहा, “इस घर को अब बेच ही देते हैं, बेटे, बहू, और पौत्री से तो हम वृद्धाश्रम से भी वीडिओ कॉलिंग कर घण्टों बातें कर सकेंगे।“

यूँ ही सफर के कुछ और दिन बीत जायेंगे, राघव,अब घड़ी की ओर देख रहा था, उसे लगा इस घड़ी की सूइयाँ बहुत धीरे चल रही हैं,सुलेखा की ओर देखे बिना ही उसने कहा "हूँ" और करवट बदल ली।