Prem Gali ati Sankari - 155 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 155

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प्रेम गली अति साँकरी - 155

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खुशी को लपकना पड़ता है, खुशी आई और हम आँखें मूँदे बैठे रहे तो जैसे बिल्ली को देखकर चूहा आँखें मूँद लेता है, ऐसा ही कुछ हो जाता है | अवसर मिलते हैं समय-समय पर लेकिन हम उन्हें हाथ से जाने देते हैं | मैंने यही तो किया था | मन में आशा की रोशनी जैसे कहीं छिपी हुई हो और पत्तों के बीच से छनकर मेरे भीतर बिखर रही हो उस रोशनी को मैंने अँधियारे से भर दिया था, कुछ प्रयास रहता तो ! दिल की धड़कनें सप्तम पर पहुँच गईं जब मैंने देखा कि मि.कामले ने ‘मोह-भंग’ का लोगो इतना खूबसूरत बनवाया है कि उस पर आँखें ठहर जाएं | 

उन्होंने एक सुंदर नील-कमल के ऊपर ‘मोह भंग’ लिखवाया था | नीलकमल का सुंदर बड़ा सा फूल किसी उत्कृष्ट कलाकार से बनवाकर उस पर ‘मोह भंग’पेन्ट करवाया था | मि.कामले की कला के प्रति चिंतन शक्ति इतनी बारीक व उत्कृष्ट थी कि उसने मेरे दिल पर जैसे कोई छाप छोड़ दी थी | उत्पल यानि खिलता हुआ कमल जिसे मैंने अपने दिल के तालाब में खिला हुआ पाया था | 

नीलकमल पर (मोह भंग) सोबर, शांत रंगों से कुछ ऐसे पेन्ट किया हुआ था कि वह एक शांत मानव आकृति लगता था | उसे देखकर एक बार तो देखने वाले को बुद्ध का ख्याल आ जाता क्योंकि ‘मोह भंग’ एक शांतिपूर्ण, चिंतनशील शब्द था, अपनी ओर आकर्षित करने वाला | 

समझ में नहीं आ रहा था कि मि.कामले ने इस लोगो की कैसे कल्पना की होगी आखिर? उत्पल मेरे लिए केवल एक नाम ही नहीं था, वह मेरे लिए एक पूरा संसार था जिसमें मैं बहुत कुछ महसूस कर लेती थी, जानती थी वह भी किन्तु किसी बात को टालने की एक सीमा होती है | मैं उसको इतना एवाइड कर चुकी थी कि सीमा क्रास हो चुकी थी | उसका संस्थान छोड़कर जाना एक इत्तिफ़ाक न होकर प्रारब्ध था जैसे हम दोनों का एक दूसरे की जिंदगी में आना प्रारब्ध ही तो था | 

वह यहाँ नहीं था लेकिन था, पूरे वातावरण में उसकी हँसी की खनक गूँजती, विशेषकर मेरे मन की साँकरी गहराई में से होकर पूरे संस्थान को गुंजित का देती | तब बार-बार महसूस होता कि प्रेम बंधन कहाँ है, प्रेम मुक्ति है, हरियाली धरती है, मुक्त आसमान है | बार-बार यही बातें तो मन के द्वार पर दस्तक देतीं और मैं चौंक-चौंक पड़ती | 

अपनी कल्पना का लोगो देखकर मैं न जाने कहाँ खो गई कि मि.कामले के लिए धन्यवाद का एक छोटा स शब्द भी मेरे मुँह से नहीं निकला | ’मोह भंग’ का बाहरी खाका इतना प्रभावित करने वाला था कि कोई भी उसे देखकर उससे जुड़ ही जाता | मैं तो उसके एक-एक लम्हे के साथ यात्रा करती रही थी | नहीं, अब जो भी था पर्याप्त था | मैं कला के कोमल दरीचे में से चलते हुए ‘मोह भंग’ की स्थिति में पहुँच जाने का प्रयास जाने कबसे करती रही थी लेकिन---

मि.कामले व उनकी पूरी टीम मेरा संतुष्ट चेहरा देखकर बहुत प्रसन्न थे और वे अपने काम में लग चुके थे | महाराज उन सबके लिए चाय नाश्ते और मिठाई का इंतज़ाम करने में व्यस्त हो गए थे | मुझे पता था कि वे कुछ ज़रूर कुछ खास बनाकर लाने वाले थे | हम लोग मेरे चिंबर की ओर चल दिए थे | एक सुकून सा मेरे दिलोदिमाग में जैसे पसर रहा था | 

“अम्मा, पापा और भाई से आराम से वीडियो पर बात करूँगी | तब तक ‘मोहभंग’का बाहरी आवरण भी हो जाएगा | मैं मि.कामले के साथ अपने चैंबर की ओर बढ़ते हुए बोली | 

“आप सैटिस्फाई तो है न--?”मि.कामले के चेहरे पर भी एक संतुष्टि थी | 

“जी, बिलकुल मि.कामले | आपके काम को तो पापा वहाँ बैठे याद कर रहे हैं | ”मैंने उनकी और भी हौसला अफ़जाई की | छोटे इंजीनियर कामले को यानि अपने बेटे को वे वहीं छोड़ आए थे जिससे यदि कहीं कोई ज़रूरत हो तो वह मार्गदर्शन कर सके | 

“ये तो उनका बड़प्पन है, जब मेरा कोई नाम नहीं था, शुरू-शुरू में उन्होंने अपनी इतने बड़ी और मूल्यवान संस्थान का काम मुझ पर किस विश्वास से सौंपा था, यह सब उसी का परिणाम है | ”

मुझे अपने परिवार के इस स्वभाव से कितना गर्व महसूस होता था और लगता कि दादी के संस्कारों की छाया में पलने वाले हम सब कितने भाग्यशाली हैं जो आज के जमाने में भी प्रेम की लीक पर चल रहे हैं | 

मैं जानती थी कि मेरे उत्पल समिधा की वह महक है जो पूरी उम्र मेरे भीतर समाया रहेगा | 

उसकी कितनी ही बातें मुझे बार-बार याद आतीं और मैं मुस्कुराने लगती लेकिन यह सब किसी बाहर वाले को कैसे मालूम हो सकती थीं | 

दो नावों में पैर रखने में तो गिरने का ही ढबका लगा रहता है | कला व साहित्य स्वयं में एक योग हैं और उससे ऊपर की स्टेज मेरे सामने थी, आमंत्रित करती हुई मुझे, बहुत सी बातें याद आतीं | 

“मैडम!एक बात पूछूँ ?”

“पूछिए न---”

“मैडम ! आपका कला-संस्थान वर्षों पुराना है जिसमें कला की सभी विधाओं का सुंदर ज्ञान दिया जाता है | आपको ‘मोहभंग’ बनाने का ख्याल कैसे आया | आपकी सोच व चिंतन बहुत उच्च स्तरीय हैं | ”

“मि.कामले ! जीवन में कुछ चीजें ऐसी आती हैं जो प्रारब्ध में होती हैं | आप प्रारब्ध तो मानते हैं न?”मैं उनसे कभी इतनी खुली नहीं थीं लेकिन आज वे मुझे पापा जैसे लग रहे थे | 

“बिलकुल, यह भी मुझे आपके पापा के कारण सीखने, जानने को मिला | न जाने उन्होंने कितने लोगों को मार्गदर्शन दिया है, कितना कुछ सिखाया है---”

“बस, यही---पापा के कारण ही मेरे मन में बहुत सी बातों की गुत्थी सुलझीं और यह विचार मन में आया | ये सब मैडिटेशन की क्रियाएं हैं, जिसको जो अच्छा लगे या जिसमें जिसका मन लगे | आपने देखा होगा, मैंने कितनी काम स्पेस ली है, उसके लिए | ”

“मेरे मन में यही विचार आया था इसीलिए----”

“कोई बात नहीं मि.कामले आपने पूछ लिया तो अच्छा किया न?”मैंने कहा और महाराज ने दरवाज़े पर नॉक दी | 

“दीदी, नाश्ता लाया हूँ, छोटे साहब को भी बुला लाता हूँ ----“उनका इशारा कामले जी के बेटे की ओर था | शायद अपने असिस्टेंट को वे ज़रूर कोई काम सौंपकर आए होंगे | ट्रौली कमरे की एक तरफ़ छोड़कर वे बाहर निकल गए |