Bhagwan ke Choubis Avtaro ki Katha - 5 in Hindi Mythological Stories by Renu books and stories PDF | भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 5

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भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 5

श्रीवामनावतार की कथा—
भगवान्‌ की कृपा से ही देवताओं की विजय हुई। स्वर्ग के सिंहासन पर इन्द्र का अभिषेक हुआ। परंतु अपनी विजय के गर्व में देवता लोग भगवान्‌ को भूल गये, विषय परायण हो गये। इधर हारे हुए दैत्य बड़ी सावधानी से अपना बल बढ़ाने लगे। वे गुरु शुक्राचार्यजी के साथ-साथ समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगे, जिससे प्रभावशाली भृगुवंशी अत्यन्त प्रसन्न हुए और दैत्यराज बलि से उन्होंने विश्वजित् यज्ञ कराया। ब्राह्मणों की कृपा से यज्ञ में स्वयं अग्निदेव ने प्रकट होकर रथ-घोड़े आदि दिये और अपना आशीर्वाद दिया। शुक्राचार्यजी ने एक दिव्य शंख और प्रह्लादजी ने एक दिव्य माला दी। इस तरह सुसज्जित हो सेनासहित उन्होंने जाकर अमरावती को घेर लिया। देवगुरु बृहस्पति के आदेशानुसार देवताओं सहित इन्द्र ने स्वर्ग को छोड़ दिया और कहीं जा छिपे। विश्वविजयी हो जाने पर भृगुवंशियों ने बलि से सौ अश्वमेध यज्ञ कराये। इस तरह प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मी का उपभोग वे बड़ी उदारता से करने लगे।

अपने पुत्रों का ऐश्वर्य-राज्यादि छिन जाने से माता अदिति बहुत दुखी हुईं, अपने पति कश्यपजी के उपदेश से उन्होंने पयोव्रत किया। भगवान्‌ ने प्रकट होकर कहा कि ब्राह्मण और ईश्वर बलि के अनुकूल हैं। इसलिये वे जीते नहीं जा सकते। मैं अपने अंशरूप से तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारे सन्तान की रक्षा करूंगा। इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। फिर भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को मध्याह्नकाल में अभिजित् मुहूर्त में भगवान् विष्णु महर्षि कश्यप के अंशद्वारा अदिति के गर्भ से प्रकट हुए और कश्यप-अदिति के देखते-देखते उसी शरीर से वामन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया। ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अपना भेष बदल ले। भगवान्‌ को वामन ब्रह्मचारी के रूप में देखकर महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ। उन लोगों ने कश्यप प्रजापति को आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये। जब उनका उपनयन संस्कार होने लगा तब सूर्य ने उन्हें गायत्री का उपदेश दिया। बृहस्पति ने यज्ञोपवीत और कश्यप ने मेखला दी। पृथ्वी ने कृष्णमृग चर्म, वनस्पतियों के स्वामी चन्द्रमा ने दण्ड, माता अदिति ने कौपीन और उत्तरीयवस्त्र, आकाश के अभिमानी देवता ने छत्र, ब्रह्मा ने कमण्डलु, सप्तर्षियों ने कुश और सरस्वती ने रुद्राक्ष की माला समर्पित की। कुबेर ने भिक्षापात्र और साक्षात् जगन् माता अन्नपूर्णा ने भिक्षा दी। इस प्रकार उनकी ब्रह्मचर्य-दीक्षा पूर्ण हुई। उसी समय भगवान्‌ ने सुना कि सब प्रकार की सामग्रियों से सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मणों के आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेधयज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँ के लिये यात्रा की।

राजा बलि नर्मदा नदी के उत्तर तटपर भृगुकच्छ नामक क्षेत्र में भृगुवंशियों के आदेशानुसार एक श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। ठीक उसी समय हाथ में छत्र, दण्ड और जल से भरा कमण्डलु लिये वामन भगवान्‌ ने अश्वमेध यज्ञ के मण्डप में प्रवेश किया। वे कमर में मुँज की मेखला और गले में यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे, बगल में मृगचर्म और जटा सिर पर थी। राजा बलि ने स्वागत-वाणी से उनका अभिनन्दन किया और चरणों को पखारकर चरण तीर्थ को मस्तकपर रखा। फिर बटुरूपधारी भगवान्‌ से बोले—ब्राह्मणकुमार ! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं। आप जो कुछ भी चाहते हैं, अवश्य ही वह सब आप मुझसे माँग लीजिये। भगवान्‌ ने प्रसन्न होकर बलिका अभिनन्दन किया और कहा—राजन्! आपने जो कुछ कहा, वह धर्ममय होने के साथ-साथ आपकी कुल-परम्परा के अनुरूप है। फिर यह कहकर उन्होंने बलि के पूर्वजों का यशोगान किया—बलि के पिता विरोचन की उदारता, पितामह प्रह्लाद की भक्ति-निष्ठा, प्रपितामह हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष के अमित पराक्रम की प्रशंसा की और बोले— मैं केवल अपने डगसे तीन डग पृथ्वी चाहता हूँ। बलिजी हँसने लगे— ‘जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥’ वही हाल आपका है। भगवान्‌ ने कहा—नहीं, कम माँगने में दरिद्रता हेतु नहीं है। सन्तोष हेतु है। यथा—
गो धन गज धन बाजि धन और रतन धन खान।
जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूरि समान॥

बलि ने कहा—अच्छा, तीन पग लेना है तो मेरे दैत्यों के पग से लीजिये। देखिये एक-एक योजन के इनके पाँव हैं। भगवान् भी पूरे हठी हैं, बोले—नहीं मुझे तो अपने ही पाँव से नाप लेने हैं; क्योंकि धन का उतना ही संग्रह करना चाहिये, जितने की आवश्यकता हो। जो ब्राह्मण स्वयं प्राप्त वस्तु से ही सन्तोष कर लेता है, उसके तेज की वृद्धि होती है, नहीं तो पतन हो जाता है। शुक्राचार्य जीके बहुत समझाने पर भी कि ये बटुरूपधारी तुम्हारे शत्रु भगवान् विष्णु हैं, ये सब छीनने के लिये आये हैं। अपनी जीविका छिनती देख असत्य बोलकर उसकी रक्षा करना निन्दनीय नहीं है। राजा ने असत्य बोलना—देने को कहकर फिर नकार जाना स्वीकार न किया, तब शुक्राचार्यजी ने बलि को राज्यभ्रष्ट होने का शाप तक दे दिया तो भी महात्मा बलि अपने निश्चय से हटे नहीं और हाथ में जल लेकर तीन पग पृथ्वी का संकल्प कर दिया।

संकल्प होते ही भगवान्‌ का वामनरूप बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ा कि भगवान्‌ की इन्द्रियों में और शरीर में सभी चराचर प्राणियों का दर्शन होने लगा। सर्वात्मा भगवान्‌ में यह सारा ब्रह्माण्ड देखकर सब दैत्य भयभीत हो गये। उन्होंने एक डग से बलि की सारी पृथ्वी नाप ली। शरीर से नभ और भुजाओं से सभी दिशाएँ घेर लीं। दूसरे पग से स्वर्ग नाप लिया। तीसरा पग रखने के लिये बलि की कोई भी वस्तु न बची। भगवान्‌ का दूसरा पग ही ऊपर को जाता हुआ महर्लोक, जनलोक और तपलोक से भी ऊपर सत्यलोक में पहुँच गया। श्रीब्रह्माजी ने विश्वरूप भगवान्‌ के ऊपर उठे हुए चरण का अर्थ्य-पाद्यसे पूजन और प्रक्षालन किया। ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विश्वरूपभगवान्‌ के पद-प्रक्षालन से पवित्र होनेके कारण गंगाजी के रूप में परिणत हो गया।

बलि के सेनापतियों ने, यह जानकर कि यह भिक्षुक ब्रह्मचारी तो हम लोगों का बैरी है, जो अपने को छिपाकर देवताओं का काम करना चाहता है और राजा तो यज्ञ में दीक्षित होनेसे कुछ कहेंगे नहीं, वामन-भगवान् पर अस्त्र चलाया, पर भगवत् पार्षदों ने उन्हें खदेड़ा। बलि ने दैत्यों को समझा-बुझाकर लड़ाई करने से रोक दिया। भगवान्‌ का इशारा पाकर गरुड़ ने वरुणपाश से बलि को बाँध दिया। तत्पश्चात् भगवान् बलि से बोले—दो पग में तो मैंने तुम्हारी सब पृथ्वी और सब लोकों को नाप लिया, तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी न होने से अब तुम नरक भोगोगे इत्यादि रीति से वामनजी ने बहुत तिरस्कार किया, परंतु राजा बलि धैर्य से विचलित न हुए। उन्होंने बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया, प्रभो! मैं आपसे एक बात पूछता हूँ। धन बड़ा है कि धनी? भगवान्‌ ने कहा—चूँकि धन धनी के अधीन रहता है, इसलिये धनी धन से बड़ा होता है। बलि जी ने कहा—प्रभो! आपने मेरा धन तो दो पग में नाप लिया है। रही एक पग की बात, सो वह पग आप मेरे सिरपर रख दीजिये। यद्यपि हूँ तो मैं दो पग से भी अधिक, परंतु एक ही पग में मैं आपके चरणों में आत्मसमर्पण करता हूँ। भगवान् बहुत प्रसन्न होकर ब्रह्माजी से बोले—मैं जिसपर बहुत प्रसन्न होता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ। मैंने इसका धन छीन लिया, राजपद से अलग कर दिया, तरह-तरह के आक्षेप किये, शत्रुओं ने इसे बाँध लिया, भाईबन्धु छोड़कर चले गये, इतनी यातनाएँ इसे भोगनी पड़ीं—यहाँ तक कि इसके गुरुदेव ने भी इसे शाप दे दिया, परंतु इस दृढ़व्रती ने प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मोपदेश किया, परंतु इस सत्यवादी ने अपना धर्म न छोड़ा !....। फिर राजा बलि को सुतललोक में रहने की आज्ञा दी और अपूर्व वर दिये। राजा बलि के आप द्वारपाल बन गये। इस तरह भगवान् वामन ने बलि से स्वर्ग का राज्य लेकर इन्द्र को देकर अदिति की कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर सारे जगत् का शासन करने लगे।