Bharat ki Rachna - 8 in Hindi Fiction Stories by Sharovan books and stories PDF | भारत की रचना - 8

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भारत की रचना - 8

भारत की रचना / धारावाहिक

आठवाँ भाग

रात ढले ज्योति और रचना, दोनों ही अपने कमरे में थीं. सारी लड़कियां भी 'स्टडी' समाप्त हो जाने पश्चात अपने-अपने कमरों में बंद हो चुकी थीं. इसके साथ ही धीरे-धीरे हॉस्टल का अमुचा वातावरण अंधेरी अंधेरी रात के साए में लिपटता गया. चारो तरफ मूकता एक तीसरे आगुन्तक के समान रात्रि की इस खामोशी का दामन थामकर अपना अधिकार कर बैठी.

ज्योति और रचना भी लेती हुई थीं. अपने कमरे में 'स्टडी' समाप्त करके वे सोने तो आ गई थीं, पर उनकी आँखों में नींद नहीं थी. नींद न आने का कारण रचना के पास तो था, परन्तु ज्योति के पास शायद नहीं था.

फिर काफी देर के पश्चात ज्योति ने करवट बदलते हुये, लेटे-लेटे ही रचना से कहा कि,

'रचना?'

हां.' रचना ने हांमी भरी.

'एक बात कहूँ?'

'क्या?' ज्योति के इस प्रश्न पर रचना जैसे गम्भीर हो गई.

'तूने क्या अपने-आपको बहुत बहुत ही सस्ता समझ रखा है?'

ज्योति बोली तो रचना झट से पूछा,

'क्या मतलब?'

'क्यों, घुट-घुटकर मरी जाती है? ज्योति ने कहा तो रचना तुरंत ही अपने बिस्तर पर उठकर बैठ गई और फिर शीघ्र ही उसने जैसे ज्योति को टोक दिया. वह बोली,

'ज्योति !'

'ज़ज्बात ही तो सबकुछ नहीं होते हैं. प्यार के आगे भी तो एक ज़िन्दगी होती है, जिसे मनुष्य को संवारना और जीना पड़ता है.' रचना की बात का उत्तर न देकर, ज्योति ने उसे समझाना चाहा.

ज्योति की इस बात पर रचना और भी गम्भीर हो गई. वह पहले तो खामोश रही. मगर थोड़ी देर पश्चात बड़ी ही गम्भीरता से बोली,

'वही जीवन तो जी रही हूँ मैं.'

'क्या ख़ाक जी रही है? यह भी कोई जीना है. न तो सोते चैन और न ही जागते कोई संतोष- हर वक्त, तेरे मस्तिष्क में तो वही एक बात जूनून की तरह सवार रहती है. आखिर क्या हो गया है तुझको?'

'कुछ भी तो नहीं. बेसहारा हूँ न. इसीलिये अपने सहारे की तलाश कर रही हूँ मैं.' रचना ने गम्भीरता से कहा.

रचना के इस प्रकार से कहने पर ज्योति जैसे झुंझला गई. वह तनिक क्रोध में, मानो खीझ कर रचना से बोली कि,

'ये कैसी तलाश है तेरी? किसी को ढूंढते-ढूंढते खुद ही खोटी जा रही है?'

ज्योति की इस बात पर रचना को कोई भी क्रोध नहीं आया. उसने उसके कथन को बहुत ही साधारण और सामान्य तरीके से लिया और थोड़ा मुस्कराकर, एक हल्के व्यंग से, वह ज्योति से बोली,

'कहीं साथ में, तू मत खो जाना.'

'भला, मैं क्यों खोने लगी? मैं तेरी तरह मूर्ख तो हूँ नहीं- फिर तेरा रास्ता, तू ही जान.' ज्योति ने तुरंत उत्तर दिया, तो रचना बोली,

'हो सकता है.'

'वह कैसे?'

'तूने तो सुना होगा कि, खरबूजे को देखकर, खरबूजा भी रंग बदलने लगता है.'

'?'- रचना की इस बात पर ज्योति जैसे चहक गई. वह तुरंत ही अपने बिस्तर पर उठकर बैठ गई और तकिये को दीवार से टिकाकर रचना से बोली,

'तूने क्या मुझको भी अपने समान ऐसी-वैसी छोकरी समझ रखा है, जो हर जगह बगैर बात में खो जायेगी?'

'हर जगह तो मैं नहीं कह सकती, प्र हां, एक स्थान तो ऐसा है, जहां पर तू भी खो सकती है.' रचना बोली तो ज्योति ने उससे शीघ्र ही पूछा,

'ज़रा बता तो कि, वह कौन-सी जगह हो सकती है, जहां मैं भी गम हो सकती हूँ?'

'बता दूँ कि, तू भी कहाँ खो सकती है?'

'हां, यही तो मैं भी सुनना चाहती हूँ. बता न?'

'टेरर, भटकने, खोने और बिखरने का एक ही स्थान है, और वह है- 'भारत'.'

'भारत?'

ज्योति ने रचना के ही शब्द दोहराते हुए आश्चर्य से उसकी तरफ देखा, लेकिन रचना के चेहरे पर मुस्कान की रेखाएं देखकर उसकी झुंझलाहट और भी बढ़ गई. वह थोड़े-से ऊंचे स्वरों में, रचना को चेतावनी देते हुए बोली,

'ऐ, ज़रा सोच-समझकर बोलना. मैं तेरे समान कोई ऐसी-वैसी 'रचना' नहीं हूँ, जो किसी भी 'भारत' या फिर पाकिस्तान के लिए बे-मतलब ही भटकती फिरूं?'

'?'- तब रचना और भी गम्भीर हो गई.

वह थोड़ी देर की खामोशी के पश्चात ज्योति से बोली कि,

'ठीक है. ये तेरे विचार हो सकते हैं. वैसे इतना बताये देती हूँ कि अपने देश में हर लड़की, 'भारत' की एक 'रचना' होती है. ये और बात है कि, इस 'रचना' का 'भारत' में रहने वाले लोग किस प्रकार की कदर करते हैं?'

'??'

रचना के इस कथन पर, ज्योति जैसे अपने हथियार डाल दिए. वह गम्भीर होकर रचना को देखने लगी. फिर बाद में बोली कि,

'हूँ.'

फिर उसके कहे हुए शब्दों को फिर एक बार मन-ही-मन दोहराया. तब बाद में उससे बोली कि,

'अच्छा ! तो अब प्यार की पेंगे बढ़ाते-बढ़ाते, 'फिलॉस्फिकल' बातें भी आने लगी हैं तुझको?'

'तूने अगर किसी से दिल लगाया होता- आँखों में किसी को बसाने की कोशिश की होती; तो तुझे भी ऐसी बातें शीघ्र ही आ जातीं.' रचना ने व्यंग में कहा.

'तूने तो प्यार की राहों पर चलकर ऐसी दार्शनिक बातें अब सीखी हैं, सो तू ये समझने लगी है कि, बगैर प्यार-मुहब्बत के चक्कर में पड़कर कोई इस प्रकार की बातें नहीं कर सकता है.' ज्योति ने उत्तर दिया.

'हां, सोचती तो मैं ऐसा ही हूँ.' रचना ने उसकी बात का समर्थन किया.

'तो फिर ज़रा फिर से दोहराना अपने कहे हुए शब्दों को.' ज्योति बोली तो रचना फिर से बोली,

'यही कि, हरेक लड़की 'भारत' की एक 'रचना' होती है.'

'जबाब दूँ मैं इसका?'

'हां, हां, क्यों नहीं?'

तब ज्योति ने उससे कहा कि,

'तूने कहा है कि, हर लड़की 'भारत' की एक 'रचना' होती है और मेरा कहना है कि, हरेक 'रचना', 'भारत' की एक ज्योति होती है.'

'ऐ, क्या बोलती है तू?' ज्योति की भेद-भरी बात को सुनकर रचना के होठ आश्चर्य से खुले ही रह गये.

तभी उन दोनों को हॉस्टल की बर्डन के आने का स्वर सुनाई दिया. वह हर रात के समान हॉस्टल का 'राउंड' लेने आ रही थी. सो दोनों ने चोर नज़रों से एक-दूसरे को देखा, फिर तुरंत ही अपने-अपने लिहाफों को सिर तक खींचकर उसमें दुबक गईं. किसी लाजवंती के समान. जैसे कि, छुई-मुई की पत्तियों को यदि कोई छू ले तो वे तुरंत ही बंद होकर सुन्न पड़ जाती हैं.


रात्रि गहरा रही थी.

हॉस्टल के बाहर घटाटोप अन्धेरा किसी अनजान कबीले की भाँति, जैसे रात-भर के लिए अपना पड़ाव डाले हुए पडा था. आकाश से चन्द्रमा रूठकर न जाने कहाँ चला गया था. यूँ, भी अमावस्या की रात थी. केवल कुछेक, तेज चमकते हुए सितारे ही टिमटिमाते हुए भीषण रात्रि के इस खौफनाक अन्धकार को भगाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे. कभी-कभार हॉस्टल के बाहर चौकीदार की सीटी की कटीली आवाज़ अंधेरों का सीना चीरती हुई सारी खामोशी को भंग करती हुई गूंज जाती थी. हॉस्टल की सारी लड़कियों के कमरों की बत्तियां बुझी पड़ी थीं और हॉस्टल की बार्डन भी इसी बीच सारे हॉस्टल का एक नियमित निरीक्षण करके अपने कमरे में लौट गई थी.

ज्योति को इतनी देर की खामोशी मिली थी, तो वह भी अब तक सो गई थी. परन्तु रचना ! वह कैसे सो सकती थी? उसे तो रातों में जैसे जागने की आदत पड़ चुकी थी. भारत के प्यार में हर पल सोच-सोचकर वह जैसे पागल हो जाना चाहती थी. किसकदर उसको चाहने लगी थी वह? किसकदर वह उसको याद करती थी? दिन अथवा रात्रि का शायद ही कोई ऐसा पल रिक्त जाता हो, जब रचना उस समय भारत के लिए न सोचती हो? भारत भी रचना के दिल-ओ-दिमाग में कितना अधिक अपना स्थान सुरक्षित कर चुका था, ये तो रचना का प्यार-भरा हसरतों का दीवाना दिल ही जानता था.

एक लड़की ! खूबसूरती की बे-हिसाब-बे-मिसाल- कॉलेज की खबरों में प्रथम स्थान रखने वाली- छात्रों के दिलों की नायिका- मगर बे-बस, लाचार- अपने अनकहे दुखों का हरेक घूँट चुपचाप, हर पीनेवाली- लेकिन सौंदर्य का भंडार- एक अनमोल कृति का बहुमूल्य उदाहरण- सुन्दरता की मलिका- अनजाने में ही, एक ऐसे 'भारत' के लिए अपना दिल हार बैठी थी, जो उसकी हर बात से अनजान था- बेखबर और बेगाना भी.

रचना के दिल के हाल को न तो भारत स्वयं ही जानता था और न ही उसका नज़दीक का कोई मित्र ही. यदि जानती थी तो केवल रचना और उसका नादान, मासूम, जमाने के हालातों से बेखबर उसका अपना दिल. थोड़ा-बहुत यदि कोई रचना के दिल की परिस्थिति से परिचित था, तो वह थी, रचना के दुःख-सुख की ह्मसहेली, हमराज ज्योति. जो मुख्य बात थी, वह यही कि, 'भारत', जिस पर रचना अपनी जान तक देने के लिए व्याकुल थी, वह उसके दिल में प्यार के पनपते हुए पौधों से बिलकुल ही अपरिचित था- अनजान और लापरवाह भी.

फिर जब सिसक-सिसक कर रात्रि ने अपना दम तोड़ना आरम्भ किया तो रचना भी सो गई. हॉस्टल का चौकीदार भी सुबह के अंतिम चार घंटे बजाकर सो चुका था. किस तरह ज़िन्दगी हर पल खत्म होती जाती थी- ख्यालों में, विचारों में और दूसरे दिन की उन उम्मीदों में, जो एक रात पूर्व तक ना-उम्मीद थीं. मां जीवन के इस भेद को मानव ने न तो पहले ही जाना था और न आज. ये मनुष्य का स्वभाव है कि जिन बातों को उसे जान लेना चाहिए, उनकी वह कभी परवा नहीं करता और जिन बातों को उसे न करना चाहिए, उनके वह बेहताशा भागता रहता है.

दिन निकल आया, तो ज्योति ने बड़े प्यार के साथ रचना को कान पकड़कर उठा दिया. जल्दी-जल्दी दोनों बहनों जैसी सखियाँ तैयार हुईं और नाश्ता आदि लेने के पश्चात कॉलेज जा पहुँचीं. कॉलेज पहुँचने पर हर दिन के समान, प्रतीक्षा में आँखें बिछाए, रचना ने भारत की आज भी तलाश की- उसकी प्यासी आँखों ने उसे चारों तरफ ढूँढने की चेष्टा की; परन्तु अफ़सोस, वह आज भी कॉलेज नहीं आया था. रचना ने ज्योति के सहयोग से कॉलेज के कार्यालय में जाकर भारत की जानकारी ली, तो उसे पता चला कि, उसने अनिश्चित समय तक की छुट्टी के लिए अपना प्रार्थना-पत्र भेजा था. इसका कारण भी रचना को ज्ञात हो चुका था- भारत के पिता का अचानक ही निधन हो गया था. ये सब कुछ ज्ञात होते ही रचना का दिल स्वत: ही दुखी हो गया. मन से वह अति गम्भीर हो गई. 'भारत' के दुःख के कारण, स्वयं वह भी दुखित हो गई. फिर उसने ज्योति को बहाने से अलग किया और कॉलेज के एकांत की ओर चुपचाप चली गई. फिर 'बॉटनी गार्डन' में आकर वह एक वृक्ष के तले बैठ गई. आज शायद वह जी-भरकर 'भारत' के लिए अकेले-अकेले ही अपने सारे दर्दों को रो-रोकर बाहर निकालकर बहा देना चाह रही थी. कॉलेज से अचानक ही, भारत की इतनी लम्बी पलायनता का कारण जब उसको ज्ञात हुआ तो स्वत: ही उसका नारी मन मलिन भी हो गया. क्षोभ और विछोह के चंगुल में पड़कर उसके सारे सुख तो पहले ही हवा हो चुके थे. उसने सोचा- जी-भर के विचारा- भारत ! हां, भारत ही- कैसा होगा अब? कितना अधिक दुखी हो रहा होगा वह? किसकदर रोया होगा वह? कितने ढेरों-ढेर आंसू उसने इस गम की वेदी पर चढ़ा दिए होंगे? ऐसे में पता नहीं उसे किसने सहारा होगा? कौन होगा वहां पर? शायद कोई भी तो नहीं? वह स्वयं भी तो यहीं पर है. ऐसे समय में उसे भारत के करीब होना चाहिए था. उसके पास ही, उसे उसके दुःख में हाथ बंटाना चाहिए था? उसके सारे आंसूं अपने हाथों से, आंचल में पौंछ लेने चाहिए थे. दर्द के इस तूफ़ान में किसने भारत को समझाया होगा? किसने तसल्ली-भरे उसके कंधों पर अपने हाथ रखे होंगे? रोते-रोते, उसका तो बुरा हाल हो गया होगा? कैसे उसने ये दुःख झेला होगा? इतना बड़ा सदमा- ऐसा आघात- इसकदर दुःख? किस प्रकार उसने संतोष किया होगा? न जाने किस प्रकार अपने-आपको समझाया होगा? कौन से यत्न से उसको तसल्ली प्राप्त हुई होगी? कहाँ से उसे संतोष मिला होगा? किसने? सोचते-सोचते, स्वत: ही रचना की बड़ी-बड़ी, गोल आँखों की अथाह गहराइयों में आंसू छलक उठे. कुछेक उसके गालों के उभारों पर आकर टिक भी गये. आकाश से आई हुई कोमल घास पर, शबनम की अटकी हुई बूंदों के समान- जिस प्रकार आकाश उदास होकर चांदनी में सारी रात-रात तक रोता रहता है, रचना भी आंसुओं की इन बूंदों के सहारे, अपना दुःख हल्का कर लेना चाहती थी.

क्रमश: