अंगद ने मनपाल को रोकना नहीं चाहा, शायद वह जानता था कि उनके मस्तिष्क में उस समय क्या द्वंद चल रहा था। कुछ क्षण अंगद वहां रुक गया जैसे वह मनपाल की कही बातों पर विचार कर रहा हो, परंतु शीघ्र ही उसे ध्यान आया कि उसे भ्रमण को जाना है। वह अस्तबल गया और घोड़ा तैयार किया। पहले अपनी मां से मिलने गया और फिर वन की ओर निकल गया। माँ से उसने ज्यादा बातें नहीं करी, संध्या में लौटूंगा कहकर चला गया।
वन उसकी पसंदीदा जगह थी अपने घर वह सिर्फ अपने माता-पिता के कारण जाता था अन्यथा घर बार का उसे तनिक भी मोह न था। वन में उसे घर जैसा महसूस होता था। नरम डूब, कठोर बड़ी शाख, कटीली झाड़ी, बेल- घास सब उसे प्रिय था। इन्ही सब के बीच वह घर की सी अनुभूति करता। जंगल की छांव अंगद को शीतल करती थी और इस छांव से छनती हुई आई धूप उसे मादकता से भर देती थी। वह घंटों कहीं डूब पर पड़ा रहता, किसी डाल पर सोया रहता। अंगद को हमेशा यही आभास होता रहा कि वह यह प्रकृति उसकी अमूक भाषा को समझती है और उससे प्रतिवाद करना चाहती है। जैसे यह प्रकृति उसकी संरक्षक होना चाहती है। उसे कभी किसी वन्य पशु का भय ना हुआ, बचपन में भी कभी अकेले बाहर जाने मे उसे संकोच ना होता था। अक्सर लोग उसे डरते की जंगली जानवरों से क्षति पहुंच सकते हैं परंतु उसे तनिक भी डर न लगता, उसे कभी यह विचार ही ना आया की प्रकृति उसे किसी भी प्रकार की हानि पहुंचा सकती है।
आज भी उसने हमेशा की तरह अश्व को घने वन में प्रवेश करने से पहले ही लगाम से आजाद करके पैदल वन में प्रवेश किया, परंतु आज वह कुछ अलग महसूस कर रहा था, कुछ नया सा। आज से पहले वह जब भी प्रकृति के समीप जाता तो उसे आभास होता की प्रकृति उसे समझती है उसका संरक्षण करती है उसकी सारी भावनाओं को बिना कहे ही प्रकृति जान लेती है परंतु आज अंगद को लगा जैसे अब वह प्रकृति से वार्तालाप कर सकता है जैसे अब वह भी प्रकृति की प्रति ध्वनि सुन सकता है। मानो प्रकृति की भावनाएं भी अंगद का स्पर्श पाकर संजीव हो गई। उसे लग रहा था कि जैसे-जैसे ही वह बोलेगा तो प्रकृति तत्क्षण ही जवाब देगी। वह आगे बढ़ता ही जा रहा था , जितना गहरा वह वन में प्रवेश करता जाता वन उसे उतना ही सजीव व स-भाव दिखाई देता। वह अब अपने को प्रकृति का ही हिस्सा सोच रहा था और प्रकृति भी उसे अपना ही शरीर महसूस हो रही थी। यह विचित्र अनुभूति उसे विस्मित कर रही थी वह निश्चित करना चाहता था कि वह स्वप्न नहीं देख रहा है। उसने एक जल स्रोत के निकट पहुंचकर पानी अंजुलि में भरकर मुंह धोया फिर उसे विश्वास हुआ कि यह सब सत्य है। सचमुच वह किसी अमूक ढंग से प्रकृति से बातें कर सकता था परंतु अभी तक उसने बातें करी तो नहीं सिर्फ आभास मात्र ही किया। वह जल स्रोत पार करके आगे बढ़ गया। अब उसे चलने में बहुत आसानी हो रही थी। ना पांव उठाने में प्रयास लगता और न हीं पांव रखने में संभलना पड़ता। जब अंगद पांव उठाता तो नीचे से धरा जैसे उसका पांव ऊपर धकेल देती और जो पांव रखता तो जैसे नीचे की दूब में बल पड़ जाता और हल्के से पाओ धरती पर आ टिकता। प्रकृति से यह जुड़ाव उसमें उन्माद भर रहा था। अब वह इधर-उधर उछल कूद करने लगा। अंगद अपने अंदर अपूर्व स्फूर्ति महसूस कर रहा था। कभी इस शाख पर उछलता कभी उसे शाख पर कूदता, कभी किसी तने से लिपटा कभी चोटी पर जा चढ़ता, किसी डाल पर झूलता कभी धरती पर गुलाटिया खाता। तभी अचानक सामने से एक वृक (भेडिया) आता दिखाई दिया...