तीन बरस बाद वो भी जश्न का ही दिन था। नीरा की शादी के जश्न का दिन। दुल्हन के लिबास में सजी वो बेहद ख़ूबसूरत नज़र आ रही थी। इतनी ख़ूबसूरत कि कोई दो पल को नज़रें ही न हटा सके। विवान की नज़र उस पर ही जमी हुई थी।
विदाई की बेला में नीरा के आँसू ठहर ही नहीं रहे थे। सब कुछ पीछे छूटता चला जा रहा था। शायद, पहले जैसा अब कुछ भी ना रहे। माँ-बाबा से लिपटकर वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसके आँसू देखकर विवान की आँखें भी नम हो गई। आसमान ने भी रिमझिम फुहारें बरसाकर उसका साथ दिया।
नीरा भीगी पलकों के साथ विवान को निहार रही थी और सोच रही थी कि शादी का रिश्ता हर पुराने रिश्तों को पीछे छोड़ देता है। क्या हमारा रिश्ता भी पीछे छूट जायेगा? बचपन से लेकर अब तक विवान के साथ गुज़ारे सारे लम्हें उसकी आँखों के सामने तैर गये। उसने आँखें बंद कर ली, मानो उन सारे लम्हों के साथ ठहर जाना चाहती हो।
लेकिन समय का पहिया किसी के लिए नहीं ठहरता, आगे बढ़ ही जाता है। नीरा भी आगे बढ़ गई। पर यादों का पिटारा अपने साथ लिये। समय गुजरता गया और हर गुज़रते लम्हों ने उसे यक़ीन दिला दिया कि उसका यादों का पिटारा अनमोल है। उससे बढ़कर ज़िन्दगी में शायद ही कुछ हासिल हो।
पतिदेव दौलत और शौहरत हासिल करने की रेस में कुछ यूं लगा कि उसे किसी चीज़ का होश ही नहीं रहा। घर पर उसका बहुत कम वक़्त गुज़रता। छुट्टी के दिन भी उसके पास वक़्त नहीं होता। नीरा को कोफ़्त होती कि दौलत और शौहरत की ऐसी भी क्या रेस कि घर-परिवार पीछे छूट जाये।
पतिदेव के अपने तर्क थे – सबकुछ तुम्हारे लिए ही तो कर रहा हूँ। आज की मेहनत हमारा कल सुधार देगी। फिर हम साथ मिलकर उस कल के मज़े लेंगे। नीरा बस सोचती रह जाती कि कल के मज़े के लिए आज की ख़ुशी कुर्बान करने का क्या फ़ायदा?
व्यस्त पतिदेव के पास किसी बात की फ़ुर्सत नहीं थी। वह नीरा का पति बन गया था, मिशा और मायरा का पिता भी। लेकिन दोस्त.....
दोस्त तो नीरा की यादों में बसा विवान था। वो विवान, जिसके लिए दुनिया की सारी चीज़ों से बढ़कर नीरा की ख़ुशी थी। नीरा आज भी उन यादों से प्यार करती थी और उन यादों के हर कतरे में समाये विवान से भी। यादों पर ही तो हक़ रह गया था और था ही क्या उसके पास।
घर पर रह-रहकर ऊबने लगी थी नीरा। वह कुछ करना चाहती थी, कुछ बनना चाहती थी। ज़िन्दगी में अपना एक मुक़ाम हासिल करना चाहती थी।
एक दिन उसने पतिदेव से पूछा, “मैं कोई जॉब कर लूं?”
दो टूक जवाब मिला, “किस बात की कमी है तुम्हें? सब कुछ तो दे रहा हूँ। तुम लोगों के लिए ही तो दिन-रात खटता हूँ।”
इस दो टूक जवाब से नीरा का मूड उखड़ गया। अब कैसे समझाती उसे कि बात पैसों की नहीं है। वो भी कुछ करना चाहती है, अपने लिए...अपनी ख़ुशी के लिए...लेकिन सामने वाला हर बात को अपनी ईगो पर ले ले, तो वो कह भी क्या पाये?
जब भी वो ये बात निकालती पतिदेव का मेल-ईगो हर्ट हो जाता। उस लगता कि नीरा के हिसाब से शायद वो पर्याप्त नहीं कमा पाता है। इसलिए वो जॉब करना चाहती है। व्यस्तता की वजह से फ़ासला तो दोनों के दरमियान पहले से ही था, जो अब और बढ़ने लगा। झगड़े होने लगे, कई-कई दिनों तक अबोला रहने लगा।
एक दिन नीरा ने सोचा कि बाहर न सही, वह घर पर ही रहकर कुछ करेगी। वैसे भी अब वो दौर नहीं रहा, जब कुछ करने के लिए घर से बाहर निकलना ज़रूरी हो। नीरा ने अपना एक ब्लॉग शुरू कर लिया और उसमें लेख लिखने लगी। इस बारे में उसने पतिदेव को भनक लगने नहीं दी।
अब वह अपने ब्लॉग के लिए नये-नये आईडियाज़ सोचने में, उन पर रिसर्च करने में और उन पर लेख लिखने में व्यस्त रहा करती। ब्लॉग सक्सेसफुल रहा, कुछ ही महिनों में ट्रैफिक आ गया। ट्रैफिक आने पर सराहना भी मिली, प्रोत्साहन भी मिला और इनकम भी।
ब्लॉग शुरू करने का असर उसके मूड पर भी हुआ। वो ख़ुश रहने लगी। ख़ुश रहने का असर पतिदेव के साथ रिश्तों पर भी पड़ा। दूरियाँ कम हुई हो या नहीं, रोज़-रोज़ के झगड़े ज़रूर बंद हो गये। लेकिन आज सुबह पतिदेव को ब्लॉग के बारे में पता चल गया और इस बारे में जानकर वही हुआ, जिसके होने का अंदाज़ा नीरा को पहले से ही था।
वो दनदनाते हुए नीरा के पास गया और तैश में बोला, “अगर तुम्हें लगता था कि मैं कम कमाता हूँ, तो कह देती।”
“तो तुम्हें पता चल गया?” नीरा बेफ़िक्री से बोली।
“हाँ! बताओ, ये सब करके क्या अहसास दिलाना चाहती हो मुझे? अपने बीवी-बच्चों को खिला नहीं सकता। उनकी इच्छायें पूरी नहीं कर सकता।”
“हर बात पैसे की नहीं होती, ये तुम क्यों नहीं समझते? इससे ख़ुशी मिलती है मुझे। महसूस होता है कि मैं भी कुछ हूँ। अपने पैरों पर खड़े होने का अहसास सुकून देता है मुझे। मैं नाकारी नहीं हूँ, ये अहसास मेरे सेल्फ़-एस्टीम को संतुष्टि देता है और हाँ, मैं जानती हूँ कि तुम बहुत कमाते हो। मुझे कमाने की कोई ज़रूरत नहीं, ये भी जानती हूँ। मैं कह भर दूं, तुम मेरे हाथों में नोटों की गड्डियाँ थमा दोगे, ये भी मैं जानती हूँ। लेकिन फ़िर भी अपने ख़ुद के कमाये थोड़े से पैसे हाथ में लेकर जो गर्व का अहसास मुझे होता है, वो तुम्हारी बड़ी-बड़ी नोटों की गड्डियाँ थामकर भी मुझे महसूस नहीं होता। ये मेरी ख़ुशी है...छोटी सी ख़ुशी...ख़ुद को पा लेने की ख़ुशी....क्या तुमसे मेरी इतनी सी भी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं? क्या तुम इतना भी नहीं समझ सकते?”
वो ख़ामोश हो गया।
नीरा आँखों में आँसू भरकर बोली, “दोस्त होते, तो समझते ना...मेरी ख़ुशी में ख़ुश होते...पति हो ना, इसलिए ईगो आ जाता है तुम्हारा।”
ये सुनकर वो वैसे ही दनदनाते हुए कमरे से बाहर निकल गया, जैसे आया था। काफ़ी देर तक वो लॉन में टहलता रहा, फ़िर तैयार होकर बिना खाये-पिये ही ऑफिस के लिए निकल गया। नीरा उस दिन बहुत रोई। तब तक, जब तक आँसू न सूख गये।
लेकिन वह माँ थी। बच्चों के सामने कैसे रोती? उनके स्कूल से आने पर उसने ख़ुद को संभाल लिया। उनको खाना खिलाकर और होमवर्क करवाकर वह बरामदे में बैठ गई और पुरानी यादों के भंवर में डूबती-उतरती रही।
क्रमश:
क्या नीरा का दोस्त फिर मिलेगा उसको? जानने के लिए पढ़िए अगला भाग।