Tash ka aashiyana - 41 in Hindi Fiction Stories by Rajshree books and stories PDF | ताश का आशियाना - भाग 41

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ताश का आशियाना - भाग 41



यह बोलना गलत नहीं होंगा की ऐसा एक दिन नहीं गया होंगा जहा सिद्धार्थ को याद ना किया हो|
आदत लग गयी थी सबको उसकी| आदते छुटती थोड़ी है जल्दी|


जैसे की तीन की जगह चार लोगो का खाना बनाना, उसकी पसंदीदा कटहल, छोटी छोटी बातो में सिद्धार्थ का जिक्र करना|

उसके लिए सुबह सबके चाय के साथ बनायीं गई कॉफ़ी जो की बाद में पता चलना की वो पिने वाला फीलहाल मौजूद नहीं|

उसकी पसंदीदा मोती चूर के लड्डू उसके पिताजी द्वारा लाया जाना और फिर उसको अपने कमरे से बुलाना की वो लड्डू खा ले| लेकिन फिर वो भ्रम बचे हुए सदस्य द्वारा तोडा जाना की फ़िलहाल सिद्धार्थ यहाँ नहीं है|
गंगा और तुषार को उन्हें देखकर बुरा लगता|
लेकिन हर एक व्यक्ति इसी दौर से गुजर रहा था|

क्यों इतना मुश्किल था सिद्धार्थ का यहाँ ना होना मानना?
क्योकि सिद्धार्थ से प्यार ना कर पाना, उसका पास ना होना यह सारी बाते एक जगह आ कर समेट जाती, पश्चाताप|

बहुत से माँ बाप को तो नहीं होता अपने बेटे के लिए खुद फैसले लेने का गम पर हर किसी की किस्मत सिद्धार्थ जैसी थोड़ी होती है|

सिद्धार्थ कभी ढाल ही नहीं पाया जो उसे मिला उसमे| नाही कभी इंजीनियरिंग की डिग्री में वो खुदको ढाल पाया, नाही नौकरी में, नाही चित्रा के दूर जाने के दुःख को वो पचा पाया|
समाज के नजर में वो एक फेलियर बनकर रह गया|

और यही एक वजह थी की खुद कुछ करने की तलाश उसकी कभी ख़तम ही नहीं हुई|

और जब उसने कुछ करना शुरू किया तो उसमे भी रोक थाम लगा दी गयी जो शायद शुक्ला परिवार के दुःख का कारण बन गई|

पछ्तावा इतना था इन तीनो को, की उन्होंने ठान लिया था की, वो ६ महीने बाद सिद्धार्थ को उसकी जिंदगी उसके खुदके तरीके से जीने देंगे|
अगर कभी सिद्धार्थ ठीक होता है तो.....





दूसरी तरफ तुषार भी अपनी ही परेशानियों से गुजर रहा था|
उसके लिए यह सहन करना काफी मुश्किल था की, सिद्धार्थ अब कभी ठीक नहीं होंगा और उनका साथ यही तक था|
तुषार ने बहुत सोचकर अपनी जिंदगी में दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए थे|
एक : You-tube चैनल को बंद करने का फ़ैसला , क्योकि वो भाई के सिवाय यह काम आगे नहीं बढ़ा पायेगा यह उसका मानना था|
दूसरा : यहाँ से जाने का उसकी सेविंग खत्म होने को आई थी , अब यहाँ रहना खाना पीना कोई बोझ के सामान लग रहा था|


जो भी रिश्ते उसने सिद्धार्थ के माता पिता से बनाये थे, वो सारे सिद्धार्थ के बदौलत थे अब वो ही यहाँ नहीं तो कैसे आगे बढ़ा जाए|

उसके मन सारी दिशाओ में घुमने लगे,
"तुम्हारी भी जिंदगी है वो को तुम्हारे माँ बाप थोड़ी है|
जो भी रिश्ता है वो सिद्धार्थ से है, वो भी प्रोफेशनल|"

दूसरा मन काफी विपरीत था, "भाई के यहाँ ना रहते उन्हें कोण सहारा देंगा? कितना टूट चूके है बेचारे| भाई से रिश्ता कब प्रोफेशनल था?"

उसके दोनों मन काफी अटकेलिया लगा रहा थे, जिसके चलते उसने यहाँ से भागने का निर्णय लिया | यहाँ से जाने का फ़ैसला|
जिसके बारे में वो वक्त मिलते ही बात छेड़ेगा, माता-पिता से|


अगली सुबह
तुषार ने बात छेड़ने की कोशिश की, जब सब लोग ब्रेकफास्ट करने डायनिंग टेबल पर बैठे हुए थे|
"अंकल- आंटी मैंने सोचा है की, मैं यहाँ से चला जाऊ|"
"चला जाऊ मतलब?" गंगाजी ने सवाल दागा|
"मेरे घर वाले मुझे बुला रहे है | तो मुझे यहाँ से जाना होंगा|"
"पर... " गंगाजी ने बात आगे बढ़ने की कोशिश की परंतु नारायणजी ने उन्हें बिच में ही टोक दिया|
"जाने दो उसे गंगा|"
"लेकिन अभी सिद्धार्थ भी यहा नहीं है और अब यह भी चला जायेगा, तो घर सुना हो जायेगा |"
गंगाजी ने रोते हुए अपनी बात आगे रखी साडी के पल्लू से अपने बहने वाले आसू पोछने लगी वो|
नारायणजी अपने सिट से उठ गए, ब्रेकफास्ट की प्लेट सिंक में रखी|
"तुम तो ऐसा बोल रही हो जैसे की हमे इस बात की आदत ही नहीं|" उन्होंने खुदके प्लेट धोते हुए बोला|

"सिद्धार्थ जब यहाँ से भाग गया था तो इतने साल वैसे ही तो गुजरे है हमने| और कुछ साल गुजार लेंगे|"
गंगाजी बस चुप होकर सब सुन रही थी|

तुषार को भी काफी बुरा लग रहा था उसके दोनों मन की बातो में वो कन्फ्यूज्ड हुए जा रहा था|
एक तरफ यहाँ वो रहना भी चाहता था और दूसरी तरफ नहीं भी|

गंगाजी ने आखिकार बहस नहीं की, "ठीक है बेटा तुम जा सकते हो|" इतना कहकर उठ वो अपने कमरे की और चली गई|
खाना वैसे ही पड़ा रहा उनकी प्लेट में|

नारायणजी गंगाजी का ऐसा हाल देख हताश हो गए|
उन्हें भी रोना था जो चिंता गंगा जी को थी वो उन्हें भी थी लेकिन वो रोके भी तो किस हक़ से जब सब ठान लिया गया हो|
नारायणजी ने गंगाजी की अनछुई प्लेट कढाई में खाली कर दी|

तुषार उनसे बात करने उनके पास गया |
"अंकल सॉरी!"

"इसमें सॉरी बोलने की क्या बात है, बेटा तुमने जो भी फ़ैसला लिया होंगा वो सोच समज कर ही लिया होंगा| और रही बात गंगा की तो वो दो तीन रोएगी फ़िर ठीक हो जाएगीं|"

"किस तारीख जा रहे हो?" गंगाजी के प्लेट को धोते हुए उन्होंने पूछा|
"अभी सोचा नहीं अंकल|"

"ठीक है|" इतना निस्तेज ठीक है था की उसमे शायद सारी भावनाए दबा दी गयी हो|

बस प्लेटे धोने पर हाथ पोछ वो वहा से चल दिए कमरे की तरफ, गंगाजी को शांत करना भी तो उनका कर्तव्य था|

तुषार बस आत्मग्लानी (regression) में डूबा हुआ था|
अब तो उसे सिर्फ भगवान के सिग्नल की जरुरत थी|

शायद तुषार के मुह में सरस्वती बैठी हो, मुराद सुन ली गयी उसकी परंतु अजीब तरीके से|
कहा कोई चीजे मुफ्त में मिलती है|

शाम में नारायणजी ने रिहैबिलिटेशन सेंटर में फ़ोन लगाया। सिद्धार्थ की हालात जानने के लिए क्योकि वो ही एक सहारा था उससे जुड़े रहने का|
क्योकि की नियम के अनुसार वो एक महीने सिद्धार्थ से मिलने नहीं आ सकते थे |

नर्स ने सिद्धार्थ के हालत के बारे में बताने मात्र से ही माता पिता दोनो पर दुखो का पहाड़ टूट पड़ा|

"सिद्धार्थ को एक दिन में पाच सिज़र्स आ चुके है, फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता| अब तक वो होश में नहीं आया है डॉक्टर ऑपरेट कर रहे है होश में आते ही फ़ोन करेंगे|"

जब नारायणजी को इतना सदमे में देख गंगा जी ने बात जाननी चाही तो नारायणजी ने वही बाते बताई जो बाते नर्स ने उन्हें बताई|

गंगा जी के आसू रुक नहीं रहे थे, "यह सब हमारे बेटे के साथ ही क्यों होता है, किस जनम की सजा भुगत रहे है हम जी? किस जनम की सजा|" वो टूट गई, पूरी तरह टूट गई|
३ दिन होने के आए थे , सिद्धार्थ अभी भी होश में नहीं आया था|

शुक्ला परिवार तुषार समेत शोक की स्थिती से गुजर रहे था|
हर कोई भगवान से प्रार्थना कर रहा था की सिद्धार्थ होश में आ जाए|

तीन दिन के उथल पुथल के बाद तुषार का दिल आख़िरकार यहाँ जाने से नहीं माना| माता पिता का यह हाल उससे देखा नहीं जा रहा था|

तुषार ने उसी क्षण ठान लिया वो यह जगह छोड़ कही नहीं जायेगा|
कम से कम 6 महीने तक तो कही नहीं .....


भगवान परीक्षा ले सकता है, कठोर नहीं हो सकता, अपने बच्चो पर|
आख़िरकार, सिद्धार्थ को होश आ गया| और उसी खुशी के चलते शुक्ला परिवार ने सिद्धार्थ से मिलने की इच्छा जताई|

डॉक्टर पहले तो मन करना चाहते थे, लेकिन जब नारायण जी ने कहा वो दूर से ही उसे देखेगे तो डॉक्टर मान गए|
भला वो कैसे मना कर सकते उन लोगो को जिन्होंने दिन के १० फ़ोन कर परेशान कर रखा था।

विषय एक ही: सिद्धार्थ को होश आया की नहीं? क्या सिद्धार्थ को होश आया? सिद्धार्थ को ऐसे कैसे कुछ हो गया?

विभिन्न (डिफरेंट) तरीके के सवाल लेकिन सब्जेक्ट एक ही सिद्धार्थ...


शुक्ला परिवार और उनका नया सदस्य तुषार फ़िलहाल राजू के गाडी में बैठे थे, और गाड़ी, रिहैबिलिटेशन सेंटर की और चल पड़ी थी|

पहले तो मिस्टर और मिसेज शुक्ला को यकींन नहीं हो रहा था की तुषार उनके साथ रहने का फ़ैसला कर चूका है|

जब तीन दिनों में हर एक पल में शुक्ला परिवार सिद्धार्थ के लिए भगवान से मुरादे मांग रहा था उसी वक्त तुषार ने अपनी बात रखी की, "अंकल आंटी में यहाँ से नहीं जाना चाहता, जब तक भाई ठीक नहीं हो जाता|"

उस वक्त भी दोनों दंपति कुछ नहीं बोले थे और अब भी नहीं|
उन्होंने वक्त दिया तुषार को अपनी मन की बात रखने का|

"मैं भाई के जाने के बाद बोझ नहीं बनना चाहता था| मेरा भाई से रिश्ता काफी गहरा था और भाई का आप से| इसलिए जब तक भाई थे मुझे किसी शेड की जरुरत महसुस नहीं हुई लेकिन उनके जाते ही ऐसे लगा की मैं यहाँ बेलोंग नहीं करता|
पर मैं गलत था जिस गलती का अहसास मुझे इन तीन दिनों में हुआ है|
जितना प्यार मुझे भाई ने दिया है उसके बाद यह मेरा फर्ज बनता है की मैं उनके एब्सेंस में उनके रिश्तो की जिम्मेदारी लू|
प्लीज़ अंकल आंटी मैं यह चाहता हु की, आप मुझे अपने दुसरे बेटे के तरह ही समझे|"

दोनों कुछ ना बोलता देख तुषार घबरा गया लेकिन जब नारायण जी ने बात आगे रखी तो उसके दिल को तसल्ली मिली|
" हमने तो तुम्हे, बहुत पहले ही अपने बेटे का दर्जा दे दिया है| बस तुम ही हमे अपने माँ-बाप का दर्जा नहीं दे पाए| और रही बात तुम्हारे यहाँ रहने के फैसले की तो नाही हमे तुम्हारे जाने से आपत्ति है ना ही तुम्हारे रहने का बोझ हमे महसुस होता है|"

तुषार यह सुन कर इमोशनल हो गया और उसने नारायणजी को गले लगा लिया|
गंगा बहुत ही खुश थी| इस फैसले से दुःख में भी एक हलकी मुस्कान उनके चेहरे पर फ़ैल गयी थी|

गाड़ी आख़िरकार सेंटर पर पहुच गयी|

तीनो सिद्धार्थ से मिलने के लिए काफी उत्सुक थे|

अंदर गए तो रिस्पेक्शनिस्ट ने, उनका नाम लिखा।

उनसे सिद्धार्थ के बारे में बात करते हुए बोली, "अचानक हुआ यह सब 1 हफ्ते सब ठीक चल रहा था एक दिन अचानक सुबह का समय था। उसको मिर्गी का झटका आया। जब चाय का कप फूटने की आवाज आई तो सिद्धार्थ वहा फर्श पर गिरा हुआ था। मेल नर्स ने उसे संभाला। लेकिन इमरजेंसी का ध्यान रखते हुए बाद में डॉक्टर ने आकर सिचुएशन संभाल ली।"

सभी परिवार वाले बस वहा बैठे रिस्पेक्शनिस्ट की बाते सुन रहे थे।

उन्होंने, सिद्धार्थ से मिलने की इच्छा जताई।

"आप मिल सकते है, लेकिन कोई ऐसी बात मत छेड़िएगा जिससे वह अपने आप पर का कंट्रोल खो दे।"
"नही-नही! हम ऐसा कुछ नही करेगे।" नारायणजी ने आश्वासन दिया|
तीनो सिद्धार्थ के सेल में सिद्धार्थ से मिलने गए।
वह बेड पर लेटा हुआ था,आंखें बंद थी।
मेल नर्स ने उसे उठाया, "सिद्धार्थ उठो! देखो तुमसे कोई मिलने आया है।"

आवाज सुनते ही,
सिद्धार्थ ने आंखे खोली। वो बुझीबुझी सी आंखे, आंखो में भरा पानी जो साफ–साफ दिखा रहा था की, वो अभी भी गोलियों के असर से उभारा नही है।

उसने तभी भी आंखे खोलकर सामने देखा तो उसे सामने तीन शक्श दिखाई दिए।
उसे चिलान्ना था, क्योंकि कोई बेहतर नाम नही सूझ रहे थे। उसके मन में एक ही सवाल आखिर कोन है यह लोग?

इतने झटको के बाद उसके दिमाग मानो सब जैसे भूल गया था।
पूछना था उसे, कौन हो तुम लोग?पर उसने बस सब छोड़ आंखे बंद करना बेहतर समझा।