Prem Gali ati Sankari - 153 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 153

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प्रेम गली अति साँकरी - 153

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संस्थान के खुलते ही आज बेहद चहल-पहल हो गई | अखबारों में, टी.वी पर सब जगह इस आश्चर्यजनक घटना का सनसनीखेज खुलासा किया जा रहा था| इन स्कैंडल्स में जितने लोग पकड़े गए थे वे कोई छोटे-मोटे लोग नहीं थे, वे सब अपने आपको बड़ा दिखाने वाले कलाकार, बड़ी व्यवसायिक कंपनियों वाले और न जाने कितने और कैसे उच्च वर्ग के ‘महान’ लोग जुड़े थे | 

पापा-अम्मा, भाई को सब बातें पता चलनी ही थीं | पता चलते ही पापा ने मुझसे कहा कि उन्होंने क्या कहा था कि सब चीजें अपने आप ठीक हो जाएंगी। इन बेकार की बातों को छोड़ो और अपने काम में लग जाओ फिर भी हमारे मनों में से यह बात इतनी आसानी से जाने वाली नहीं थी कि जो कुछ भी हुआ जाने क्यों हुआ था? हाँ, पापा ने अपने कमिश्नर दोस्त से बात कर ली थी दरसल अंकल ने ही पापा से बात करके उन्हें बता दिया था कि वे यहाँ की चिंता न करें और आराम से वहाँ अपना समय बिताएं, यहाँ वे हमारे लिए थे | 

“बेटा ! तुम सब अपना काम करो, बाकी सब अपने आप ठीक हो जाएगा| ”

मंगला बहुत निश्चिंत रहने लगी थी लेकिन कभी-कभी अपनी बेटी की याद में बहुत विव्हल हो जाती जो स्वाभाविक भी था | कई बार वह मुझसे बच्ची की भाँति चिपट जाती;

“दीदी ! हम जैसे लोगों को कौन पूछता है लेकिन आपने मुझे बचा ही नहीं लिया जैसे एक नया जन्म भी दिया| ”

कितना निरीह हो जाता है इंसान ! जैसे मैं उत्पल के बिना निरीह हो रही थी| मुझे आज तक यह समझ में नहीं आ रहा था कि जो इंसान एक झटके में मोह का बंधन तोड़ सका था, क्या वह उत्पल ही था जो मेरे मन में प्रेम की ऐसी कोंपल जमा गया था जिससे मैं ऐसी कठिन और अजीब परिस्थितियों में भी अलग नहीं हो पा रही थी और मुझे महसूस होता कि मैं उससे विलग नहीं हो पाऊँगी | यह पीड़ादायक था। क्या उसको भी यहाँ से छोड़ने में इतनी ही पीड़ा हुई होगी ? जिस प्रकार वह मुझसे बातें करता, अपना प्रेम ज़ाहिर करता, उसने कभी मुझे न कोई वायदा दिया न लेने की कोशिश की| उसका मेरे प्रति प्रेम ही वायदा था और मैं उसे भीतर से छू पाती थी, यही उसका लगाव था | ऐसे ही लगाव हो जाता है क्या किसी से? यह ज़रूर प्रारब्ध था जो मेरे सामने आया और यह भी तो प्रारब्ध ही था न फिर कि मैं उसमें डूबी रहकर भी न उसे खुशी दे सकी, न खुद ही उसकी यादों से पीछा छुड़ा सकी| 

“क्या तुम्हारे ‘मोह-भंग’ की कोई रूपरेखा आगे बढ़ी?” पापा ऐसी स्थिति में भी मुझसे हर प्रकार की बातें करते रहते थे जिससे मेरा मन कम भटके लेकिन ऐसा होता है कहीं !

“पापा, आपने मि.कामले को भेजा था न, मेरी उनसे चर्चा भी हो गई, नक्शा भी बन गया और अब वे आगे उसकी प्रक्रिया कर रहे हैं| मुझे लगता है वे जल्दी ही इस काम को शुरू करने वाले हैं | ”मैंने पापा से कहा| 

“हाँ, उन्होंने मुझसे बात की थी न, कितने एफ़िशिएन्ट इंजीनियर हैं, बस उन्हें आपकी ज़रूरत का ठीक से ख्याल आ जाए| सारे संस्थान की डिजाइनिंग उन्होंने कैसे की है कि एक इंच ज़मीन का टुकड़ा भी व्यर्थ नहीं गया| मैं सोचता हूँ जो तुम चाहती हो, वैसा ही होगा| तुम उनके साथ लगातार संपर्क रखना| ”

“जी पापा। मैं उनके संपर्क में हूँ और कभी-कभी हम इंटीरियर के बारे में बात करते हैं| अब तो उनका बेटा भी उनके साथ काम कर रहा है पापा, ही इज़ ऑलसो क्वाइट इंटेलिजेंट---”

“तुम्हें याद नहीं है बेटा रतनी की जो सिलाई वाली वर्कशॉप है, उसकी डिजाइनिंग और उसके इतने कम समय में तैयार करने का श्रेय उनको ही जाता है| ”

“जी पापा, बिलकुल याद है---” उनसे मैं इतना ही कह पाई लेकिन यह कहाँ बता पाई कि जब भी मैं कभी वहाँ जाती थी उत्पल मेरे पीछे-पीछे चल देता था और उसकी शरारतों से मैं खीज जाती थी| 

उसकी निगाहें चारों तरफ़ घूमतीं और फिर मुझ पर ही आकर टिक जातीं| 

“क्या है उत्पल? ऐसे क्यों घूरते हो?”वैसे अब तक हम इतने करीब हो चुके थे कि वह शायद न घूरता तब अजीब लगता लेकिन मुझे उससे कुछ तो कहना होता था| 

“तो तुम मुझे घूर लो, मैं बुरा नहीं मानूँगा---” वहाँ काम करने वाले सब लोग हमें देखकर मुँह घुमाकर मुस्काने लगते और रतनी होती तो यह कहना कभी न भूलती;

“बिलकुल दिव्य जैसी हरकतें करता है, बच्चा जो है---”

“रतनी जी, मैं बच्चा नहीं हूँ, आपका दिव्य बच्चा है| माँ के आँचल में रहता है बच्चा, मैं तो ---”फिर चुप हो जाता| 

बेशर्म कहीं का !पर मैं उसे अपने साथ आने के लिए क्यों मना नहीं कर पाती थी?सबसे बड़ी बात यह थी कि कहीं भी बाहर जाना हो या कोई बाहर से आ रहा हो, उसे उसके स्टूडियो के आगे से होकर जाना जरूरी होता था इसीलिए अगर वह डार्क-रूम में न होता, जो अक्सर नहीं होता था, अपने असिस्टेंट को ट्रेंड कर ही चुका था वह ! बॉस की तरह फ़ाइनल चैक-अप करता और अपने चैंबर में कुछ न कुछ डिज़ाइन करता रहता | सब आने-जाने वालों पर उसकी दृष्टि पड़ ही जाती थी| मैं कहीं जाती और वह मुझे न टोकता, यह तो संभव ही नहीं था और मुझे ही कौनसा अच्छा लगता अगर वह चुहलबाज़ी न करता| कमाल है, इंसान वही होता है, रिश्ता भी वही होता है लेकिन समय के साथ नजरिया कैसा बदलने लगता है!!

एक तरफ़ ‘मोह-भंग’का काम चल रहा था, एक तरफ रतनी की ड्रेस-डिजाइनिंग का, मैंने इस बार फिर से अपनी कई नई साड़ियाँ निकालकर रतनी को दे दी थीं| खासकर वह साड़ी जिसे मुझ पर सजाकर शादी का मज़ाक बनाया गया था| 

“दीदी ! ये क्यों?”रतनी ने हिचकते हुए पूछा फिर धीरे से अपनी ज़बान दांतों से काट ली| 

“सॉरी दीदी---”

“अरे!कोई बात नहीं, वो नहीं दूँगी जो अम्मा के साथ मिलकर डॉली ने मेरे लिए बनाई थी | ”मैंने बहुत हल्के मूड में कहा जिससे उसके चेहरे की टेंशन दूर हुई | 

पिछली बार की परफ़ॉर्मेंस और लीडरशिप की सबसे इतनी प्रशंसा सुनी थी अम्मा-पापा ने कि इस बार भी दिव्य ही ट्रिप लीडर बनकर जा रहा था और डॉली भी| अब तो सबको संस्थान इतना अपना लगता कि उसकी एक-एक चीज़ का ध्यान, लगाव रखना इन बच्चों ने रखना शुरू कर दिया था| यहाँ तक कि ट्रिप पर बच्चों को ले जाने का चुनाव भी अब दिव्य करता था| 

“दीदी ! थोड़ा टाइम चाहिए आपका?” उसका फ़ोन आया था| 

“आ जाओ न, तुम कबसे मेहमान बन गए—”

वह कुछ नहीं बोला था और समय लेकर मेरे पास आ गया था| 

“एक तो यह लिस्ट देख लीजिए दीदी, ”इस बार नृत्य और गायन दोनों टीम्स जा रही थीं| उसने मेरे सामने लिस्ट फैला दी फिर बोला;

“उत्पल जी की तैयार की गई कुछ वीडियोज़ ले जानी हैं, उनका सलेक्शन करवा दीजिए| ”

“तुम देख लो न, स्टूडियो में जाकर| वहाँ उनके दो असिस्टेंट्स हैं न---”

“नहीं दीदी, मैं नहीं सिलेक्ट कर पाऊँगा, उत्पल जी होते तो और बात थी| आप चलिए न प्लीज़---”उसकी इस प्लीज़ के आगे मैं खुद को नहीं रोक पाई और एक लंबी साँस भरकर खड़ी होकर उसके साथ चल दी थी|