कमठ (कच्छप) अवतार की कथाजब दुर्वासा जी के शाप से इन्द्रसहित तीनों लोक श्रीरहित हो गये। तब इन्द्रादि ब्रह्माजी की शरणमें गये। ब्रह्मा जी सबको लेकर अजित भगवान् के धाम को गये और उनकी स्तुति की। भगवान् ने उनको यह युक्ति बतायी कि दैत्य और दानवों के साथ सन्धि करके मिल-जुलकर क्षीर-सिन्धु को मथने का उपाय करो। मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को नेती बनाओ। मन्थन करने पर पहले कालकूट निकलेगा, उसका भय न करना और फिर अनेक रत्न निकलेंगे, उनका लोभ न करना। अन्त में अमृत निकलेगा, उसे मैं युक्ति से तुम लोगों को पिला दूंगा। देवताओं ने जाकर दैत्यराज बलिमहाराज से सन्धि कर ली। अब देवता और दैत्य मन्दराचल को उखाड़कर ले चले, परंतु थक गये, तब भगवान् प्रकट होकर उसे उठाकर गरुड़ पर रखकर सिन्धुतट पर पहुँचे। वासुकी अमृत के लोभ से नेती बने। जब समुद्र-मन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े देवता और असुरों के पकड़े रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होने के कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा। इस प्रकार अपना सब करा-कराया मिट्टी में मिलते देखकर उन सबों का मन टूट गया। उस समय भगवान् ने यह देखकर कि यह सब विघ्नराज (गणेश जी) की करतूत है, उन्होंने हँसकर कहा—सब कार्यों के प्रारम्भ में गणेशजी की पूजा करनी चाहिये। सो तो हम लोगों ने बिल्कुल भुला दिया। बिना उनकी पूजा के कार्य सिद्ध होता नहीं दीखता। अब उन्हीं की पूजा करनी चाहिये। लीलामय भगवान् की लीला है। वे स्वयं सर्वसमर्थ हैं, परंतु कार्यारम्भ में गणेशजी की अग्रपूजा की मर्यादा जो बाँध रखी है, उसका पालन करने के लिये जब देवताओं और दैत्यों को यह परामर्श दिया तो सभी लोग उधर श्रीगणेशजी की पूजा में लगे, इधर भगवान् ने तुरंत अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारणकर समुद्र में प्रवेश करके अपनी एक लाख योजन वाली पीठ पर मन्दराचल को ऊपर उठा लिया। तब देवता और दैत्य फिर बड़े वेग से समुद्र को मथने लगे।
भगवान् कच्छप रूप से मन्दराचल को धारण किये हुए थे, विष्णुरूप से देवताओं के साथ-साथ रहे थे। एक तीसरा रूप भी धारण करके मन्दराचल को अपने हाथों से दबाये हुए थे कि कहीं उछल न जाय। मथते मथते बहुत देर हो गयी, परंतु अमृत न निकला। अब भगवान् ने सहस्रबाहु होकर स्वयं ही दोनों ओर से मथना आरम्भ किया। उस समय भगवान् की बड़ी विलक्षण शोभा थी। ब्रह्मा, शिव, सनकादि जय-जयकार करते हुए आकाश-मण्डल से पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। उन लोगों की ध्वनि में ध्वनि मिलाकर समुद्र भी भगवान् का जय-जयकार कर रहा था। समुद्र से सर्वप्रथम ‘हलाहल कालकूट विष’ प्रकट हुआ, उससे त्रैलोक्य जलने लगा तो उसे देवाधिदेव महादेव ने ग्रहण किया। फिर और भी रत्न निकले। उनमें से ‘कामधेनु’ को ऋषियों ने स्वीकार किया। ‘उच्चैःश्रवा’ नामक अति सुन्दर बलिष्ठ अश्व को दैत्यों ने लिया। बाद में ‘ऐरावत’ नामक महान् हाथी निकला, वह देवताओं के राजा इन्द्र को मिला। ‘कौस्तुभमणि’ के प्रति सभी लालायित थे, उसे भगवान् ने अपने कण्ठ में धारण कर लिया। ‘कल्पवृक्ष’ बिना किसी की अपेक्षा किये स्वर्ग में चला गया। ‘अप्सराएँ’ भी स्वेच्छा से स्वर्ग को ही प्रस्थान कर गयीं। ‘भगवती लक्ष्मी’ ने, अपनी ओर से उदासीन रहने पर भी सर्वगुण-सम्पन्न भगवान् विष्णु को वरण किया। ‘वारुणी देवी’ को दैत्यों ने बड़े चाव से लिया। ‘धनुष’ तो किसी से उठा ही नहीं। तब भगवान् विष्णु ने उसे धारण किया। चन्द्रमा को अनन्त आकाश विचरने के लिये दिया गया। ‘दिव्यशङ्ख’ को भगवान् ने स्वीकार किया। अन्त में ‘अमृत-कलश’ हाथ में लिये हुए प्रकट हुए धन्वन्तरि जी महाराज। दैत्यों ने उनसे अमृत-कलश छीन लिया, देवता उदास हो गये। तब भगवान् ने मोहिनी-स्वरूप धारण कर दैत्यों को व्यामोहित कर अमृत-कलश उनसे लेकर अमृत देवताओं को पिला दिया। देवताओं की पंक्ति में सूर्य और चन्द्रमा के बीच में एक राहु नामक दैत्य वेष बदलकर आ बैठा था। उसे अमृत पिलाया ही जा रहा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने बतला दिया और तुरंत ही भगवान् के चक्र ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। परंतु कुछ अमृत उसे मिल चुका था, अत: सिर कटने पर भी मरा नहीं। इसलिये उसे ग्रहों में स्थान दिया गया। राहु अब भी सूर्य-चन्द्रमा से बदला लेने के लिये उनके पर्व अमावस्या और पूर्णिमा पर आक्रमण करता है, जिसे ग्रहण कहते हैं। देवताओं ने अमृत पी ही लिया था। भगवान् का आश्रय था ही। अतः अबकी बार संग्राम में विजय देवताओं की हुई।