DO VORSH in Hindi Love Stories by Arvend Kumar Srivastava books and stories PDF | दो वर्ष

Featured Books
  • પ્રેમતૃષ્ણા - ભાગ 11

    “ હા ડો.અવની મલ્હોત્રા “ ખુશી બોલી .“ ઓકે , શાયદ ડો.મલ્હોત્ર...

  • આઈ વોન્ટ ટુ ટોક

    આઈ વોન્ટ ટુ ટોક- રાકેશ ઠક્કરઅભિષેક બચ્ચન પિતા અમિતાભનો અભિનય...

  • ભીતરમન - 59

    મુક્તારના જીવનમાં મારે લીધે આવેલ બદલાવ વિશે જાણીને હું ખુબ ખ...

  • ભાગવત રહસ્ય - 121

    ભાગવત રહસ્ય-૧૨૧   ધર્મ -પ્રકરણ પછી હવે -અર્થ -પ્રકરણ ચાલુ થા...

  • કૃતજ્ઞતા

      આ એ દિવસોની વાત છે જ્યારે માનવતા હજી જીવતી હતી. એક ગામમાં...

Categories
Share

दो वर्ष

दो वर्ष

तुमने जिस अधिकार और अपनेपन से कहा है “मुझ से मुहब्बत करना छोड़ दो।“तो शायद मैं कभी तुमसे मुहब्बत करना छोड़ दूँ,लेकिन उन पलों उन लम्हो से मोहब्बत करना कभी नहीं छोडूँगा जिन पलों में और जिन खूबसूरत लम्हों में मैने तुमसे मोहब्बत की है।

बात भले ही चोबीस - पच्चीस साल पुरानी है, लेकिन स्मृतियों में इतनी ताजी है जैसे अभी कल  की ही हो, और यह भी सच है कि वह सब कुछ कभी पुराना होता ही नहीं, जो दिल ` के बहुत करीब से हो कर गुजरा हो। मुझे अच्छी तरह याद है वो जुलाई माह के आखिरी दिन थे  और मूसलाधार पानी बरस रहा था मेरे घर के सामने वाली सड़क की दोनों ओर बनी नालियां ओवर फ्लो हो गयी थी, सड़क पर घुटनों तक का पानी भरा हुआ था, ठंड थोड़ी-थोड़ी ज्यादा ही  बढ़ी हुई थी, मैं अपने घर के बाहर बरामदें में अपने आप को गीले हाथों से बाँधे लगभग काँपते हुए इस बरसात का नजारा देख रहा था, सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक गहरा सन्नाटा था, तेज हवाओं के कारण पानी की बौछारें हमारे आधे बरामदें से भी अधिक दूरी तक भिगो रही थी, इन बौछारों से बचते हुऐ मैं सिमटा सा खड़ा प्रकृति के इस रौद्र रूप जो बाहर सुन्दर और प्रिय लग रहा था, को बहुत नजदीक से आत्मसात  करने की कोशिश कर रहा था कि तुम सामने से घुटनों तक अपनी सलवार को चढ़ाये, बिना इधर-उधर देखे चुप-चाप गुमसुम सी गुजरी थी, तुम्हारे कपड़े भीग कर बन्दन से चिपके हुऐ थे। तुम्हारे कदम जो पानी को चीरते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे है और तुम बेखबर थी कि कोई तुम्हें जाते  हुए अपलक देख रहा है, मुझे याद है तुम्हारे पीछे मैं  भी अनजाने सड़क पर निकल आया था और तब तक तुम्हें देखता रहा जब तक तुम आखों से ओझल नहीं हो गयी थी, अब सामने तुम नहीं थी फिर मैं जाने क्यों और किस इन्तजार में वहीं खड़ा रहा गया था।

मैं बस अभी दो-तीन दिन पहले ही इस घर को किराये पर लेकर अपने माता-पिता के साथ रहने के लिये आया था मेरी बी0 ए0 की परीक्षा के रिजल्ट आ चुके थे, और अब एम. ए. के लिये इसी शहर में मेरे एडमीशन कराने की बात चल रही थी, मैं चाहता तो नहीं था लेकिन अकेली संतान होने के कारण मेरे माता-पिता मुझे अपने से दूर कहीं भेजना नहीं चाहते थे। तुम्हें तो तब पता ही नहीं था कि मेरा एक अनजान सा रिश्ता तुम्हारे साथ हो गया था, और अचानक से यह शहर मुझे अच्छा लगने लगा था, मेरे माता-पिता को उस समय बहुत आश्चर्य हुआ था जब बहुत खुशी-खुशी उनके साथ रहकर इसी शहर में एम. ए0 करने के लिये मैं तैयार हो गया।

प्रेम अपरिमेय है, और इसी कारण इसे किसी निश्चित साँचे में ढाला नहीं जा सकता, अब उस समय मुझे कहाँ मालूम था कि जिस कॉलेज में एडमीशन लेने वाला हूँ तुम बस अभी-अभी इसी वर्ष उसी कॉलेज में लेक्चरर नियुक्ति होकर, इस शहर में आयी हो, वह भी हिन्दी साहित्य विभाग में जो मेरा भी प्रिय विषय है, और जब मैने हिन्दी साहित्य में ही एम.ए. करने के लिए एडमीशन ले लिया, तब मुझे तुम्हारे बारे में पता लगा। यह पता चलना मेरी जिन्दगी में तूफान जैसा था, लेकिन कहते हैं न कि जिन्दगी में हर तूफान केवल नुकसान करने ही नहीं आते, कुछ रास्ता साफ करने भी आते है। वो कहते है न प्रेम किसी पर नियंत्रण नहीं रखता और न हीं प्रेम पर किसी का नियंत्रण होता है न जाने क्यों उस वर्ष एम.ए प्रथम वर्ष में पढ़ाने के लिये तुम्हे कोई क्लास नहीं मिली थी किन्तु मेरे लिये यह कोई खुशी की बात न थी क्योंकि बिना कोई वाजिब वजह के किसी के साथ कोई बात-चीत तो की नहीं जा सकती और फिर हम दोनों के लिये यह शहर और कॉलेज नया ही था।

कभी-कभी कुछ तय कर पाना वाकई में बहुत कठिन काम होता है और हम सभी के जीवन में एक अवसर अवश्य ही ऐसा आता है जब वास्तव में यह तय करना आवश्यक हो जाता हैं कि हमें जिन्दगी का एक पन्ना पलटना है या किताब को ही बन्द कर देना है और मैंने किताब को ही बन्द कर देने का फैसला कर लिया था। मन ही मन सुलगती हुई रेत पर मैंने पानी की तलाश तो बन्द कर दी थी परन्तु प्यास तो जिन्दा रह ही गयी थी, यह वह प्यास थी जो पहली बार होती है और फिर जिन्दगी भर नहीं बुझती,  फिर हम चाहे जितना भुलाने की कोशिश क्यों न कर लें।

ऐसे देखा जाये तो जिन्दगी में मन के धरातल पर सभी रोग प्रेम की कमी से पैदा होते है क्योंकि जीवन में तीन घटनाऐं बहुत महत्वपूर्ण और बहुमूल्य है, जन्म, मृत्व और प्रेम। जन्म प्रारम्भ है तो मृत्व अन्त इन दोनों के बीच डोलती जो लहर है वह है प्रेम, इस कारण प्रेम बड़ा खतरनाक है इसका एक हाथ जन्म को छूता है तो दूसरा मृत्यु का, इस तरह देखा जाये तो प्रेम में बड़ा आकर्षण है और बड़ा भय भी। प्रेम में आकर्षण है जीवन का क्योंकि उसमें अन्य कोई और अनुभूति नहीं है और भय केवल इस बात का है कि जिस दुनिया और जिस समाज के बीच हम रह रहे है वहाँ कुछ नियम बनाये गये है और इन नियमों ने ही सबसे अधिक हत्यायें है प्रेम की। “अपनी टीचर से प्रेम।“ यह वाक्य मुझे बहुत भयानक लगने लगा,  इस कारण ही अपनी प्यास के जिन्दा रहते हुऐ भी मैंने किताब को बन्द कर दिया था, हो सकता है कुछ लोगों की दुनिया प्यार से बनती हो, तो कुछ लोगों की प्यार के एहसासों से और कुछ की प्यार की यादों से, मेरी यादों से बनी है।

यादें खुशबुओं की तरह होती चाहे जितने भी खिड़की दरवाजे बन्द कर लो वो कहीं न कहीं से आ ही जाती है और प्रेम तो एक ऐसी सुगन्ध है जिसे बाहर से कहीं से आना भी नहीं होता वह तो यहीं हमारे मन के किसी कोने में चुप-चाप बैठी रहती है, एक कहीं से कोई जरा सी हलचल हुई, वह रात रानी के फूलों की तरह महकने लगती है, तो कभी गुलमोहर के फूलों की तरह मन के धरातल पर चारों ओर बिखर जाती है जैसे चाँदनी हो किसी निशा के आगोश में, या फिर ठहर जाती है गुलाब की पंखुड़ी पर ओस की एक निर्मल बूँद की तरह, जब भी मेरे आस - पास से तुम गुजरती तो छोड़ जाती थीं थोड़ी सी रोशनी और फिर मेरे चारों  ओर बनती थी न जाने कितनी परछाइयाँ तुम्हारे होने की, और मैं इन एक - एक परछाइयों को निहारा करता था, न जाने कितनी देर, जाने क्योँ तुम्हे देखना ही किसी प्रार्थना के पूरे होने जैसा था।

जैसे-तैसे कॉलेज में एक वर्ष बीत गया था और अब गर्मी की छुट्टियां भी खत्म हो गयी थी, हल्की-हल्की बूंदा-बाँदी और आकाश में उमड़ते-घुमड़ते काले-काले बादलों के साथ-साथ में कॉलेज पहुंचा तो हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूम के बाहर नोटिस बोर्ड पर एम0. ए0. द्धितीय वर्ष के पाठ्यक्रम का टाइम टेबिल लगा था, जिसे देखते ही मेरा जी धक से होकर रह गया क्योंकि ’’आधुनिक हिन्दी कवियों” के विषय को पढ़ाने वाली थी “अवन्तिका वर्मा”। एक साथ न जानें कितनी घंटियाँ बजती हुई सुनाई देने लगी, पैर ठिठक कर ठहर गये, एक बार मुंह खुला तो खुला ही रह गया, आँखे नोटिस बोर्ड पर जम कर रह गयी, न जाने ये पल खुशी के थे या गम के, अचानक मुझे क्या हो गया था इसे मैं जान ही नहीं सका था, मेरी स्थित जड़ सी थी तभी किसी ने पीछे से मेरे दाहिने कंधों को थप थपाते हुए पूछा ’’इतनी देर से क्या देख रहे हो।“

किसी तरह पीछे मुड़ कर पीछे देखा तो पाया कि मैडम “अवन्तिका वर्मा” मेरी स्थित को घूर रही है, मुझे असहज देख कर उन्होंने फिर पूछा ’’क्या हुआ।“

किसी प्रकार मेरे मुंह से निकला ’’कुछ नहीं।“उत्तर दे कर मैं तेजी से एक ओर बढ़ गया तो मैडम विभागाध्यक्ष के रूप में।

अपनी कहानी के उस किताब को मैंने बहुत पहले ही बन्द कर दिया था लेकिन मेरे दाहिने कन्धों को थपथपा कर जिस प्रकार से पूछते हुऐ मेरी ओर देखा था, उस एक नजर के एहसास ने मेरी जिन्दगी का एक नया चैपटर तो फिर खोल ही दिया,  और फिर मैं वहीं बरामदे के पास वाले खम्भे के पीछे छिप कर उनके विभागाध्यक्ष के रूम से बाहर निकलने का इन्तजार करने लगा अब उस समय मुझे क्या मालूम था कि मेरे क्लास की कईं सारे लड़के और लड़कियों की नजरें मेरे ऊपर है और वे मेरी हरकतों को बहुत गम्भीरता से समझने की कोशिश कर रहें है। अब कॉलेज कोई ऐसी जगह तो है नहीं जहाँ अपने आप को दूसरों की निगाहों से बचा कर बहुत देर तक रखा जा सकें। ये सब जानते हुऐ भी न जाने क्यों मैं वो सब करने लगा जी मुझे किसी भी तरह और किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहिये था। एक खम्बे के पीछे छिप कर खड़े होने का मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं था कि यदि मैं किसी को नहीं देख रहा हूँ तो कोई मुझे भी नहीं देख रहा है, ऐसा सोचना मेरी भारी भूल थी जो जाने-अनजाने हो चुकी थी और अब कुछ भी किया नहीं जा सकता था केवल उसका परिणाम भुगतने के सिवा।

कहते है इश्क ओर मुश्क छुपाये नहीं छुपते, बाँते हवा की रफ्तार से भी तेज गति से फैली थी। पूरे कॉलेज की नजरें मुझे इस तरह घूरती जैसे हर कोई मुझमें कुछ पूछ रहा हो और मेरे पास किसी का कोई उत्तर न हो, लड़के सामने आ कर मुस्कुराते और चल देते तो लड़कियाँ अपनी कनखियों से मेरी तरफ देख कर मुस्कराती, अब मैं किस-किस को बताता फिरू कि जब मैने पहली बार उसे देखा तब मुझे कहाँ पता था कि वह उसी कॉलेज में लेक्चरर बन कर आयी है जिस कॉलेज में मुझे एडमीशन लेना है, और फिर किसी को देखकर उस पर फना हो जाना क्या अपने वश में होता है, ये तो एक ऐसी घटना है जो शायद घटती तो सभी के जिन्दगी में है किन्तु कुछ जी जाते है, कुछ बिखर जाते है, कुछ लोग अपने अन्दर दबा लेते है तो कुछ मौन हो जाते है, लेकिन मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, वास्तव में देखा जाये तो मैं संवरने लगा था, भले ही हमारे बीच कोई संवाद न हुआ हो फिर मैं उसे अपने बहुत करीब समझने की कल्पना में खो चुका था। मेरी दीवानगी और मेरा पागलपन कहीं हद से आगे न बढ़ जाये इस कारण हमेशा क्लाश में सबसे आगे की सीट पर बैठने वाला में उसकी क्लास में सबसे पीछे की सीट पर बैठता था।

कुछ बातें धीरे - धीरे अपने अंत की ओर बढ़ती हैं तो कुछ की शुरुवात ही अंत से होती है और फिर वे सब बातें अपने अंत के सबसे आखीरी छोर पर ही टिकी रहती हैं, शायद जिनकी शुरुवात ही नहीं होती उनका अंत भी कैसे हो सकता, अपने प्यार को लेकर मैं उस जगह पर ठहर गया था जहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं था और पीछे मुड़ने का अवसर, कोशिशें भी करता को कामयाब नहीं होती क्योँ की तुम मेरे ह्रदय की अतल गहराइयों में बस चुकी थीं। सर्दियों के दिन शुरू हो गये थे, खिली हुई धूप अच्छी लगने लगी थी, हम कॉलेज की फील्ड में बिछी हरी घास पर अपने खाली पीरियड्स में बैठने लगे थे, वैसे तो फील्ड में लड़के दो - दो, चार - चार और छः - छः के झुण्ड में ही बैठते थे लिकिन मैं अक्सर अकेला बैठा रहता था, कई बार झुण्ड में रहते हुऐ भी मैं अकेला रहता था अपने आप में ही गमसुम, जनता हूँ यह कोई अच्छी बात तो नहीं है फिर भी क्या करता, इसके अलावा और जो कुछ भी करता वह मेरे लिये इससे भी अधिक भयावह रहता तो मैंने अपने आप से समझौता कर लिया, यह अकेलापन मुझे अच्छा लगता, कॉलेज में सभी ने मुझे इसी रूप में स्वीकार कर लिया था, मेरा अजनबीपन भी अब नहीं रहा था। हाथों में अटेंडेन्स रजिस्टर लिये कॉलेज ग्राउंड से गुजरते हुऐ एक दिन तुम मेरे पास आकर ठहर गयी थी, हमेशा की तरह में उस समय भी मैं वहाँ अकेला बैठा था, अपने बिलकुल पास अचानक तुम्हे खड़ा देख कर मैं भी हकबका कर खड़ा हो गया था, मेरे चेहरे पर उतर आये हर्ष और आश्चर्य के भावों को शायद तुमने पढ़ लिया था और धीरे से कहा था " तुम्हारी जिन्दगी बड़ी है दुनिया की हर एक चीज से, तुम किसी के लिये भी महत्वपूर्ण हो सकते हो,और मेरे लिये भी, यूँ तुम्हारा अकेलापन मुझे ठीक नहीं लगता,और मेरे पीछे रहना छोड़ दो।" तुम चली गयीं थी लेकिन मैं उस समय तुम्हारे चेहरे पर उतर आये भाव और दोनों कानों के नीचे झलक आयी लालिमा को देख कर वहाँ कब तक खड़ा रहा इसका पता मुझे अब तक भी नहीं है "मेरे पीछे रहना छोड़ दी।" इसक अर्थ मेरे लिये तो यही था कि "मुझ से मोहब्बत करना छोड़ दो।" जो अब किसी भी तरह सम्भव नहीं गया था।

वैसे तो हर एक मोहब्बत की कहानी अलग होती है, उसकी शुरूवात और उसका अंत भी अलग होता है और अपनी मोहब्बत पर हर एक को नाज भी होता है, और होना चाहिये भी लेकिन मुझे नहीं है ...... जाने क्यों तुम्हारे आस-पास होने से ही मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है और फिर मैं उस जगह से निकल ही लेता  हूँ कि कहीं तुम मुझे देखकर मेरे चेहरे पर उतर आये प्यार के चिन्हों को देख शरमा न जाओ और सच पूछो तो मैं चाहता तो यही थी कि जिन्दगी में सिर्फ एक बार पूरी जान का दम निचोड़ कर तुम्हे अपना कहने का मौका मिल जाये जो फिर मेरे जन्म लेने का मकसद पूरा हो जाये लेकिन मैं अपने दिल की अंतल गहराइयों में जानता हूँ कि ऐसा हो न सकेगा और अगर कोई ऐसा मौका आ भी जाये तो मैं अपने आप को रोक लुँगा। प्रेम में चेहरे की दमक बढ़ जाती है और तुम्हारे सामने या आस-पास होने से भी मेरे चेहरे की दमक और चमक कई गुना बढ़ जाती है, इस कारण भी रोक लेता  हूँ अपने आप को ओर ठहर जाता  हूँ तुमसे बहुत दूर। जिन वृक्षोँ  की जड़ें बहुत गहरी होती है उन्हें बार-बार सींचना नहीं पड़ता है और मेरे अन्दर तुम्हारे प्रेम के बीज की जड़ें बहुत गहरी हो चुकीं है, तो मैं तुमसे पास रहूँ या दूर कोई फर्क नहीं पड़ता और दूर रहना मेरा चुनाव था।

वह वर्ष इतनी जल्दी बीत गया इसका एहसास मुझे तब हुआ जब फाइनल परीक्षा की तिथि घोषित हो गयी और फिर एक-एक करके पाँचों पेपर खत्म हो गये। आज फिर वैसा ही बरसात का एक दिन था पानी झूम-झम कर बरस रहा था, मेरे घर के सामने की नालियाँ एक बार फिर से ओवर फ्लों थी सड़क पर घुटनों तक पानी भरा था। मैं अपने बाहर के बरामदे के पीछे वाले कमरे का दरवाजा खोल कर अपनी पुरानी किताबों को उलट-पुलट  कर देख रहा था। इस दुनिया में बहुत सारी ऐसी बाँते हैं जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता, बस उसे महसूस किया जा सकता है, प्यार उनमें से एक है।

धड़कते दिल से निकली हुई न जाने कितनी चिन्गारियाँ बर्फ बन चुकी थीं जो छुट गया था उसके मिलने की अब कोई सम्भावना नहीं थी कितना आसान होता है किसी से दूर चले जाना लेकिन बहुत दूर तक जाना पड़ता है, सिर्फ यह जानने के लिये कि नज़दीक कौन है,मैं मन ही मन सोच रहा था कि अचानक से तुम  सर से पांव तक पूरी भीगी-भागी सी उस सन्नाटे को चीरते हुए मेरे सामने थी, और मैं बिना कुछ बोले  सामने हाथ जोड़कर खड़ा रह गया था,       सर से पांव तक देखते, मेरी ओर उसने चॉकलेट से भरा हुआ एक डिब्बा बढ़ाया और काँपतें हाथों से पकड़ते हुऐ मैने धीरे कहा ’’यह क्या है मैम।“

“क्षितिज” उसके मुँह से अपना नाम सुन कर अचानक ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में बहुत सारा शहद एक साथ घोल दिया हो, जैसे जीवन भर की साध पूरी हो गयी हो और पाने के लिये अब कुछ भी शेष न रहा हो, चेहरे पर आश्चर्य और हर्ष मिश्रित जो रेखाऐं उभर आयीं थीं उनका अनुभव मेरे लिये नया था, वह शांत खड़ी रही थी, फिर मुझे जैसे झिझकोरते हुऐ अपना कहना जारी रखा, “कॉलेज में मेरे दो साल का कॉटेक्ट पूरा हो गया है तो जा रही हूँ यह शहर छोड़ कर।“ मैं कुछ कहता इसके पहले ही पीछे मुड़कर वह मेरे कमरे से बाहर बरसते पानी में निकल गयी, वह शायद कुछ देर और रुकी रहती लेकिन उसकी गीली आँखों ने ऐसा होने नहीं दिया था, तो मैं भी उसके पीछे किसी तरह अपने आप को सम्हालता हुआ बाहर सड़क तक निकल आया और जाते हुए उसे अपलक दूर तक देखता रहा जब तक वह आँखो से दूर नहीं चली गयी।मैं अपनी सिसकियों को अपने अन्दर ही दबाते हुऐ सोच रहा था 'क्षितिज' यानी दृष्टि सीमा, एक वह काल्पनिक रेखा जहाँ यह धरती और आसमान मिलते हुऐ दिखाई तो देते हों लेकिन वास्तव में वो कहीं होते नहीं हैं।

आज पच्चीस साल हो चुके है लेकिन यह घटना मेरे जहन में आज भी उतनी ही ताजी है जितनी उस समय थी। कुछ पल हर आदमी के जीवन में लौट-लौट कर आते है जिसमें वह निष्कवच होता है, नितांत अकेला होता है और सबसे अधिक निर्बल भी। मेरे हाथों में वह चॉकलेटों से भरा हुआ डिब्बा शायद तुम्हारी ओर से मेरे प्रेम की आखिरी निशानी थी, किन्तु मेरे लिये जिन्दगी भर की आखिरी दौलत और सच में उन पलों, उन लम्हों को, मैं कभी नहीं भूल सका। मन में प्रेम हो तो हर वनवास कट जाता है, और यदि आप किसी स्त्री को तहे दिल से प्रेम करते हो तो वह आप के लिये परमात्मा हो जायगी, लेकिन कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते, दोस्ती और मोहब्बत के दरम्यान सिमट जाते है, उन पलों को जिन पलों और लम्हों में मैने तुम से मोहब्बत की थी, सदा  अविस्मर्णीय रहे हैं, वो ’’दो वर्ष”।