Amavasya me Khila Chaand - 17 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अमावस्या में खिला चाँद - 17

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अमावस्या में खिला चाँद - 17

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         सुबह जब शीतल की आँख खुली और उसने मोबाइल पर तापमान देखा तो उसकी हिम्मत नहीं हुई कि रज़ाई की गर्मी को बाय-बाय कर दे, क्योंकि बाहर का तापमान केवल एक डिग्री था। सात बजे के लगभग प्रवीर कुमार ने उसके कमरे पर दस्तक दी तो उसने उठकर दरवाजा खोला।

        ‘क्या बात है शीतल, अभी तक रज़ाई में ही हो, तबीयत तो ठीक है? .. बच्चों ने तंग तो नहीं किया?’

        ‘प्रवीर, नींद तो रोज़ के वक़्त ही खुल गई थी, लेकिन जब बाहर का तापमान एक डिग्री देखा तो दोबारा रज़ाई में घुस गई। बच्चों ने क्या तंग करना था! कुछ देर हमने बातें कीं, फिर सो गए। इन्हें तो अभी जगाने की ज़रूरत नहीं…. । कब तक निकलने का विचार है?’

       ‘हाँ, बच्चों को तो सोने दो। तुम फ़्रेश होकर हमारे रूम में आ जाओ, चाय पीते हैं। फिर सोचेंगे कि कितने बजे निकलना चाहिए।’ 

       कहकर प्रवीर कुमार अपने कमरे में लौट गया और शीतल ने अंगड़ाई लेते हुए आलस त्यागने का प्रयास किया। 

       प्रवीर कुमार के कमरे की ओर जाते हुए शीतल ने कॉरिडोर में से बाहर झांक कर देखा तो घनीभूत कोहरे की वजह से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। 

         प्रवीर कुमार टांगों तक रज़ाई लिए बेड के सिरहाने के साथ पीठ लगाकर समाचार पत्र पढ़ रहा था और नवनीता अभी रज़ाई ओढ़े हुए लेटी हुई थी। शीतल के आते ही उसने रज़ाई को परे हटाया और चाय बनाने लगी। 

        चाय के साथ नवनीता को हैंड बैग में से गूँद के लड्डुओं का डिब्बा निकालते देखकर शीतल बोली - ‘वाह भाभी, यहाँ भी पिन्नियाँ ले आई!’

           ‘दीदी, सर्दियों में इन्हें सुबह की चाय के साथ पिन्नी अवश्य चाहिए, इसलिए ले आई।’ 

        प्रवीर कुमार बोला - ‘इतनी ठंड में तो चाय के साथ पिन्नी हो तो कहना ही क्या! अब हम आराम से तैयार हो जाएँगे और बच्चे यदि स्वयं ना उठे तो साढ़े आठ बजे उन्हें उठा लेंगे। गुरुद्वारे के पास खाने-पीने की बहुत-सी दुकानें हैं, नाश्ता वहीं करेंगे।’

        जब सभी तैयार हो गए और सामान पैक करके रिसेप्शन काउंटर पर हिसाब करने के लिए पहुँचे तो रिसेप्शन काउंटर के पास रखे पिंगलवाड़ा की दानपेटी में प्रवीर ने कुछ रुपए दान के रूप में डाले। यह देखकर ड्यूटी पर तैनात लड़की ने पूछा - ‘सर, आप आज ही वापस जा रहे हैं?’

      ‘हाँ, जलियाँवाला बाग़, गोल्डन टेंपल और दुर्गियाना मन्दिर देखने के बाद वापस जाएँगे। इसलिए अभी चेकआउट कर रहे हैं।’

        ‘सर, यदि आप वापसी पर एक घंटा स्पेयर कर सकें तो आपके रास्ते में यहाँ से आठ-दस किलोमीटर दूर ‘मानावाला’ में पिंगलवाड़ा पड़ता है, उसे अवश्य देखें। आपको तथा बच्चों को वहाँ जाकर बहुत अच्छा लगेगा।’

        ‘मैंने भगत पूरण सिंह के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने पिंगलवाड़ा की स्थापना की थी। … आप कुछ बता सकेंगी कि वहाँ देखने को क्या है?’

        ‘मानावाला, पिंगलवाड़ा ब्रांच बहुत खुले प्राकृतिक वातावरण में बना कैम्पस है, जिसमें दिव्यांग जनों की विशेष देखभाल की जाती है तथा उनके पुनर्वास की कई प्रकार की योजनाओं को क्रियान्वित किया जाता है।’

         ‘आपके सुझाव के लिए धन्यवाद। हम कोशिश करेंगे कि थोड़ा समय निकालकर पिंगलवाड़ा भी देखते जाएँ।’

         ‘धन्यवाद सर।’

       जलियाँवाला बाग़ में दीवारों पर गोलियों के निशान दिखाते हुए प्रवीर कुमार बच्चों को वहाँ घटी घटनाओं के बारे में बताने लगा तो उनके मन में अंग्रेजों के प्रति बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ। बँटी ने कहा - ‘पापा, यदि मैं उस समय होता तो जनरल डायर को ज़िंदा नहीं छोड़ता।’

        इसपर प्रवीर कुमार ने उसे समझाते हुए बताया - ‘बेटे, उस समय हज़ारों-लाखों लोगों ने अंग्रेजों के अत्याचारों के विरूद्ध लड़ने का संकल्प लिया था और देश को आज़ाद करवाने के लिए अनेक तरह की क़ुर्बानियाँ और बलिदान दिए थे। जिस तरह तेरे मन में प्रतिशोध की भावना पनपी है, उसी तरह की भावना एक नौजवान सरदार उधम सिंह के मन में भी पैदा हुई थी और भारतमाता के उस वीर सपूत ने उस समय प्रतिज्ञा की थी कि जनरल डायर को मारकर इस नरसंहार का बदला अवश्य लूँगा। जलियाँवाला बाग़ में ब्रिगेडियर जनरल एडवर्ड डायर ने उस समय के पंजाब प्रांत के गवर्नर जनरल माइकल ओ डायर के आदेश पर निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलाई थीं। उधम सिंह ने इंग्लैंड में जाकर एक सभा में जब माइकल ओ डायर मंच पर आया तो उसे अपनी गोली का निशाना बनाया था और वह वहीं मर गया था। सभागार में भगदड़ मच गई थी।’

           ‘पापा, उधम सिंह को अंग्रेजों ने इसके लिए सजा दी होगी?’

       ‘बेटे, उधम सिंह चाहता तो भगदड़ में भागकर बच सकता था, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने वहीं खड़े-खड़े ‘हिन्दोस्तान ज़िन्दाबाद’ का नारा लगाया। पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया और उसपर मुक़दमा चला। लगभग छह साल मुक़दमा चलने के बाद 1940 में उधम सिंह को फाँसी दी गई। उधम सिंह जैसे शहीदों के बलिदानों के कारण ही आज हम स्वतन्त्र हैं।’

           ‘पापा, ऐसी जगह को छूने का मन कर रहा है।’

         ‘तो छुओ बेटे,’ कहने के साथ ही प्रवीर कुमार ने झुककर वहाँ की मिट्टी को चुटकी में लेकर अपने माथे पर मल लिया। प्रवीर कुमार की देखा-देखी सभी ने वैसा ही किया।

         जलियाँवाला बाग़ से बाहर आने से पूर्व प्रवीर वहाँ रखी ‘विज़िटर्स बुक’ देखने लगा, जिसमें आम पर्यटकों की टिप्पणियों के साथ दुनिया के कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों या प्रधानमंत्रियों की टिप्पणियाँ भी दर्ज थी। पन्ने पलटते-पलटते उसकी नज़र वर्ष 2013 की टिप्पणी पर पड़ी। उसने नवनीता और शीतल को अपने पास बुलाया और उन्हें कहा कि वे टिप्पणी पढ़ें। टिप्पणी में लिखा था कि 2013 में इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन इस स्मारक पर आए थे और उन्होंने लिखा कि "ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।" टिप्पणी पढ़ने के बाद दोनों ने प्रवीर की ओर आश्चर्य से देखा और पूछा - ‘क्या सच में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री को पछतावा हुआ था?’

           प्रवीर ने उन्हें समझाया - ‘आज़ादी के बाद से भारत एक मज़बूत देश बनकर उभरा है। समय गुजरने के साथ अत्याचार करने वाली क़ौम के भी बहुत से लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने यदि अपने पूर्वजों के कुकृत्यों के लिए पश्चाताप प्रकट किया तो कोई अनहोनी बात नहीं।’

           जलियाँवाला बाग़ के बाहर आकर उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह की विशालकाय प्रतिमा के पास खड़े होकर कुछ फ़ोटो खिंचवाए। तदुपरान्त उन्होंने गुरुद्वारे की ओर प्रस्थान किया।

        महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा और गुरुद्वारे के प्रवेश द्वार तक के परिसर में लोगों की चहल-पहल देखते ही बनती थी, क्योंकि अब धूप पूरी तरह से खिली हुई थी और ठंड को मात दे रही थी। 

         गुरुद्वारे में प्रवेश से पहले सभी ने जूते और जुराबें उतारकर काउंटर पर जमा करवाए और प्रवेश द्वार पर खड़े सेवादारों ने नंगे सिर वाले व्यक्तियों के सिर पर स्कार्फ़ बांधे। द्वार से प्रवेश करने से पूर्व बाहर बनी पानी की खरल में से गुजरने के बाद स्पंज के मैट पर पैर पोंछकर जब वे आगे बढ़े तो बँटी ने पूछा - ‘पापा, यहाँ हर व्यक्ति को पानी में से क्यों गुजरना पड़ता है?’

           ‘बेटा, पानी शुद्ध करता है।’

           ‘लेकिन पापा, हमने तो जूते और जुराबें पहने हुए थे, हमारे पैर तो साफ़ ही थे।’

           ‘बेटे, गुरुद्वारे की पवित्रता बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाता है। चाहे हमने जूते पहने हुए थे, फिर भी थोड़ी देर बाद पैरों से बदबू आने लगती है और पानी इस तरह की बदबू को नष्ट कर देता है।’

        बँटी ने आगे देखा तो दर्शन करने वालों की चार-पाँच लाइनें लगी हुई थीं। यह देखकर उसने कहा - ‘यहाँ तो बहुत इंतज़ार करना पड़ेगा।’

      ‘हाँ, कुछ इंतज़ार तो करना पड़ेगा, लेकिन उतना नहीं जितना तू सोच रहा है। यहाँ लोग अनुशासन का पालन करते हैं, कोई किसी से आगे निकलने की कोशिश नहीं करता। इसलिए जल्दी दर्शन हो जाएँगे।’

          जैसा प्रवीर कुमार का अनुमान था, वे आधे घंटे में ही श्री हरि मन्दिर साहब के मुख्य कक्ष में श्री गुरु ग्रन्थ साहब के समक्ष नतमस्तक होकर अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहे थे। माथा टेकने के बाद उन्होंने परिक्रमा की और प्रसाद लेकर बाहर आ गए।

         बाहर आकर प्रवीर कुमार ने पूछा - ‘बँटी, तुझे पता लगा कि क्यों इसे गोल्डन टेंपल कहते हैं?’

         ‘हाँ पापा। देखो ना, बाहर की दीवारों पर सोना लगा हुआ है।’

         ‘शाबाश। इसीलिए इसे गोल्डन टेंपल या स्वर्ण मन्दिर कहते हैं।’

       बातें करते तथा घूमते हुए वे ‘लंगर हॉल’ पहुँच गए। यहाँ भी बहुत से श्रद्धालु प्रतीक्षारत थे। अपनी बारी आने पर इन्होंने हॉल में प्रवेश किया और पंगत में बैठकर लंगर छका। लंगर हॉल से बाहर आकर बँटी बोला - ‘पापा, लंगर खाकर मज़ा आ गया। लंगर बहुत ही स्वादिष्ट था।’

         ‘बेटे, लंगर प्रसाद होता है और प्रसाद प्रभु की कृपा से बनता है। इसलिए प्रसाद हमेशा शुद्ध और स्वादिष्ट होता है।’

         इसके बाद बाईं ओर से होते हुए अकाल तख़्त की ओर बढ़ने लगे। रास्ते में प्रवीर कुमार और शीतल आपस में बातें कर रहे थे तो प्रवीर कुमार ने उसे बताया कि वर्तमान रूप में अकाल तख़्त का 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद पुनर्निर्माण हुआ था, क्योंकि ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान अकाल तख़्त ध्वस्त हो गया था। केन्द्रीय सरकार ने सिक्खों की आहत भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए इसका पुनर्निर्माण करवाया था। ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले इस स्थान पर भिंडरावाले तथा उसके उग्रवादी साथियों ने क़ब्ज़ा कर रखा था और यहीं से वे देश-विरोधी तथा समाज-विरोधी गतिविधियों को सरंजाम दिया करते थे। उन्होंने पंजाब में हिन्दुओं और सिक्खों के बीच सदियों से क़ायम भाईचारे को तहस-नहस करके खालिस्तान बनाने का असफल प्रयास किया था।

          श्री हरि मन्दिर साहब के बाद ये दुर्गियाना मन्दिर गए और माता के दर्शन किए। पूजा-अर्चना के बाद बँटी बोला - ‘पापा, यह मन्दिर तो गोल्डन टेंपल की कॉपी लगता है!’

        ‘हाँ बेटे। इसका इतिहास तो पुराना है, लेकिन इसका वास्तु-शिल्प श्री हरि मन्दिर साहब से प्रेरित है। वर्तमान रूप में इसका पुनर्निर्माण 1925 में महामना मदनमोहन मालवीय जी द्वारा नींव रखने से हुआ था।’

         ‘पापा, ये मदनमोहन मालवीय वही थे, जिन्होंने बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी?’

            ‘बिल्कुल ठीक। तुझे तो बहुत जानकारी है!’

          ‘हमारी मैडम ने स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान देने वाले देशभक्तों के बारे में पढ़ाते हुए बताया था कि कांग्रेस के नरम दल के नेता मदनमोहन मालवीय ने बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी।’

          ‘शाबाश बेटा। तुम ऐसी बातें रिंकू को भी बताया करो।’

         रिंकू जो अभी तक चुपचाप इनकी बातें सुन रहा था, बोला - ‘पापा, मुझे भी स्वतंत्रता संग्राम के बारे में पता है।’

          ‘तो बताओ बेटा, तुम्हें क्या-क्या पता है?’

        ‘स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी जी ने बिना हथियार उठाए अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया था, लेकिन भगत सिंह और उनके साथियों को अंग्रेजों ने उनकी आज़ादी की माँग के लिए फाँसी दे दी थी।’

       ‘शाबाश, तुम्हें तो बहुत कुछ पता है,’ और प्रवीर कुमार ने उसकी पीठ थपथपाई तो उसका चेहरा खिल उठा। शीतल ने उसे गोद में उठाकर उसके गाल चूम लिए।

         उसके बाद नवनीता के कहने पर अमृतसर के मशहूर पापड़-बडियाँ बाज़ार से इन्होंने रसोई का कुछ सामान खरीदा।

         वापसी पर जब मानावाला आया और प्रवीर कार को बाईं ओर पिंगलवाड़ा की दिशा में मोड़ने लगा तो नवनीता बोली - ‘प्रवीर, पिंगलवाड़ा फिर कभी देख लेंगे, अब सीधे चलो। घर पहुँचते-पहुँचते बहुत लेट हो जाएँगे।’

     ‘घर ही तो जाना है, यदि थोड़ा लेट भी हो जाएँगे तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। पिंगलवाड़ा के संस्थापक, भगत पूरण सिंह को सरकार ने उनकी अभूतपूर्व समाज-सेवा के लिए पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा था। ऐसे महान् व्यक्तियों द्वारा मानवता व समाज के लिए किए गए कार्यों से बच्चों को परिचित करवाना भी आवश्यक है।’

       नवनीता ने अब और विरोध करना ठीक नहीं समझा। जैसे ही इन्होंने पिंगलवाड़ा परिसर में प्रवेश किया, दाईं ओर बनी इमारत को इंगित करता ‘दफ़्तर’ का सूचना-पट दिखा। प्रवीर ने कार एक तरफ़ रोकी और शीतल को साथ लेकर इमारत की पाँच-छह सीढ़ियाँ चढ़कर बरामदे में पहुँचे। वहाँ  कुर्सी-मेज लगा था और एक बुजुर्ग सज्जन बैठे हुए कुछ लिखने में व्यस्त थे। जैसे ही प्रवीर और शीतल मेज़ के पास जाकर खड़े हुए और उन्होंने बुजुर्ग का अभिवादन किया, बुजुर्ग ने लिखना छोड़कर उनकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। प्रवीर ने अपना तथा शीतल का परिचय दिया। यह सुनते ही उस सज्जन ने कहा - ‘तुसीं बैठो साहब जी’ और बरामदे में घूमते एक लड़के को कहा - ‘जुगिन्दरा, दो गिलास पानी लिआ।’ और प्रवीर को सम्बोधित करते हुए पूछा - ‘साहब जी, तुहाडे लई चाअ मंगवावां?’

        इतने में पानी आ गया था। पानी पीकर प्रवीर ने कहा - ‘शुक्रिया सरदार साहब, चाय की आवश्यकता नहीं। हम अमृतसर से खा-पीकर ही निकलें हैं। पिंगलवाड़ा देखने का मन था, सो रुक गए।’

      ‘बोहत चंगा कित्ता जी। मैं तुहाडे नाल मुंडा भेज दिंदां हां, ओह तुहानूँ सारा पिंगलवाड़ा दिखा देऊगा,’ कहकर उन्होंने जोगिंदर को हरनेक सिंह को बुलाकर लाने के लिए भेजा।

        हरनेक सिंह के आने पर सीढ़ियाँ उतरकर प्रवीर ने नवनीता और बच्चों को कार से बाहर आने के लिए कहा। हरनेक सिंह सबसे पहले इन लोगों को दफ़्तर के पास वाली बिल्डिंग में ले गया जहाँ प्रिंटिंग का काम होता है। प्रेस में प्रिंटिंग के साथ, बुक बाइंडिंग आदि के सम्बन्धित कामों में आठ- दस लोग काम कर रहे थे। लोहे के रैक कई प्रकार की किताबों तथा प्रचार-सामग्री से भरे पड़े थे। प्रवीर ने हरनेक से पूछा - ‘क्या इस प्रेस में पिंगलवाड़ा का ही काम होता है या बाहर का काम भी होता है?’ तो उसने उत्तर दिया - ‘नहीं जनाब, यहाँ केवल पिंगलवाड़ा का ही साहित्य तथा प्रचार सामग्री आदि के प्रकाशन का काम होता है।’

        प्रेस से निकलने के बाद हरनेक उन्हें स्कूल दिखाने के लिए चल पड़ा। रास्ते में हरनेक ने बताया कि यहाँ तीन स्कूल चलते हैं। एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल है, जिसमें साढ़े सात-आठ सौ बच्चे हैं। स्कूल-परिसर में खड़ी बसों को देखकर तथा विद्यार्थियों की संख्या सुनकर प्रवीर ने प्रश्न किया - ‘क्या इस स्कूल में बाहर के बच्चे भी पढ़ते हैं?’

       ‘जी हाँ, पिंगलवाड़ा के बच्चों के अलावा बाहर से ही अधिकतर बच्चे आते है।’

       बातें करते हुए स्कूल प्रांगण में पहुँचने पर एक हाल-नुमा कमरे में बहुत-से बच्चे नृत्य तथा गायन  का अभ्यास करते हुए दिखाई दिए। अभ्यास करवा रही एक महिला टीचर इन्हें देखकर द्वार पर आई तथा इनका अभिवादन किया। प्रवीर ने उससे पूछा - ‘क्या ये सभी बच्चे पिंगलवाड़ा के हैं?’ तो उसने उत्तर दिया - ‘जनाब, छुट्टी वाले दिन केवल यहाँ के बच्चों को ही अभ्यास करवाया जाता है, बाहर से आने वाले बच्चों को कक्षा के अवकाश के बाद एक घंटा रोककर ऐसा अभ्यास करवाते हैं ताकि उन्हें छुट्टी वाले दिन स्कूल में आने-जाने की असुविधा न हो।’ शीतल के प्रश्न के उत्तर में टीचर ने बताया कि बच्चे राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते हैं और इनाम भी जीत कर लाते है। 

      जब ये लोग ‘दिव्यांग’ बच्चों के स्कूल में पहुँचे तो एक पूरा कमरा ट्रॉफ़ियों और मोमेंटोज से भरा देखकर बच्चों को बड़ा आश्चर्य हुआ। रिंकू ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा - ‘इत्ते सारे इनाम!’

       हरनेक - ‘बेटे, ये सब इनाम उन बच्चों ने हासिल किए हैं, जो किसी-न-किसी रूप में शारीरिक अपूर्णता के शिकार हैं, लेकिन उनके हौसले बुलंद हैं। … जनाब, ये सारे इनाम बच्चों ने जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरीय खेल प्रतियोगिताओं में तो जीते ही हैं, कुछ अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी जीते हैं।’

        ‘यह तो वाक़ई बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसका सीधा-सा मतलब है कि यहाँ बच्चों के टैलेंट को उभारने और निखारने पर बहुत मेहनत की जाती है।’

        ‘जी, हमारे टीचर बच्चों पर बहुत मेहनत करते हैं।’

      बँटी - ‘पापा, अब मैं और रिंकू भी अपनी गेम्स में और अधिक अच्छा प्रदर्शन करने का प्रयास करेंगे और अगली बार इनाम लेकर आएँगे।’

     ‘शाबाश। बँटी, तुमने यहाँ से प्रेरणा ग्रहण की, हमारा यहाँ आना सफल हो गया।… देखा नीता, अच्छे उदाहरण से बच्चे कितना कुछ सीखते हैं!’ 

        ‘हाँ, आपका निर्णय सही था,’ नवनीता ने अपनी भूल सुधारते हुए स्वीकार किया।

        हरनेक सिंह ने उन्हें बताया कि हमारे यहाँ एक और स्कूल है, जिसमें केवल गूँगे-बहरे बच्चों को शिक्षा दी जाती है। इसपर बँटी ने प्रश्न किया - ‘अंकल, गूँगे-बहरे बच्चों के लिए अलग स्कूल क्यों है?’ तो जवाब प्रवीर ने दिया - ‘बेटे, ऐसे बच्चों को पढ़ाने के लिए सामान्य ढंग की बजाय विशेष ढंग अपनाना पड़ता है। उन्हें शिक्षित करने के लिए साइन लैंग्वेज का सहारा लेना पड़ता है, जिसके लिए अध्यापकों को विशेष ट्रेनिंग दी जाती है। इसलिए उनके लिए अलग स्कूल की व्यवस्था है।’ इसके बाद प्रवीर ने हरनेक से पूछा - ‘सरदार जी, इस तरह के कितने बच्चे हैं यहाँ? और क्या ये सारे बच्चे पिंगलवाड़ा में ही रहते है।’

         ‘यहाँ लगभग सवा दो सौ ऐसे बच्चे हैं और सभी पिंगलवाड़ा के होस्टलों में ही रहते हैं। लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग होस्टल बने हुए हैं।’

         इसके बाद चलते-चलते प्रवीर की नज़र गोशाला के साइन बोर्ड पर पड़ी तो उसने पूछ लिया - ‘यहाँ गोशाला में कितनी गाएँ होंगी?’

        ‘यहाँ 35-40 गाएँ हैं, जिनका दूध यहाँ रहने वालों के लिए काम आता है तथा गौओं के गोबर से गोबर गैस प्लांट चलता है।’

         ‘इसका मतलब यह हुआ कि यहाँ गोबर गैस से काम लिया जाता है?’

         ‘लंगर बनाने में हम गोबर गैस का ही इस्तेमाल करते हैं।’

       इसके अलावा हरनेक सिंह ने इन्हें हॉस्पिटल, चिकित्सीय सुविधाओं तथा निस्सहाय वृद्धों के निवास के लिए आवासीय इमारतें भी दिखाईं। कृत्रिम अंग केन्द्र, पुनर्वास केन्द्र देखते हुए माता महताब कौर हाल के सामने आए तो हरनेक सिंह ने बताया कि यहाँ ग्राउंड फ़्लोर पर सभागार है और फ़र्स्ट फ़्लोर पर लाइब्रेरी है। सारे पिंगलवाड़ा का चक्कर लगवाने के बाद हरनेक सिंह ने उन्हें लंगर हाल में ले जाकर चाय पिलवाई। चाय पीते हुए प्रवीर के कुछ और सवालों के जवाब देते हुए उसने बताया कि भगत पूर्ण सिंह जी ने सबसे पहले जो पिंगलवाड़ा बनवाया था, वह बस स्टैंड के सामने है। उसका निर्माण भगत जी ने 1957 से शुरू किया था और आजकल वह पिंगलवाड़ा का मुख्यालय भी है। पिंगलवाड़ा की इस समय सात ब्रांचें है। यह वाला पिंगलवाड़ा तो साल 2004 में बनना शुरू हुआ था। इसका कुल एरिया 36 एकड़ है। हर तरह के मरीज़ों की संख्या लगभग साढ़े आठ सौ है। पिंगलवाड़ा का फार्म जंडियाला गाँव में है, जहाँ प्राकृतिक ढंग से फसलें तथा सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं। हरनेक ने उन्हें बताया कि भगत जी के जीवन और कार्यों पर एक बहुत बढ़िया फ़िल्म बनी है, जिसका नाम है, ‘ऐह जनम तुम्हारे लेखे।’ यह फ़िल्म यूट्यूब पर भी देखी जा सकती है।

        ‘हम इस फ़िल्म को अवश्य देखेंगे,’ प्रवीर और शीतल ने एक साथ कहा।

         इसके बाद प्रवीर ने हरनेक सिंह का धन्यवाद किया और कार में बैठकर मेन रोड पर आ गए।

 ……

        जब ये लोग पिंगलवाड़ा देखने के पश्चात् हाइवे पर आए तो रास्ते में शीतल ने पिंगलवाड़ा द्वारा निराश्रितों तथा असहाय लोगों की नि:स्वार्थ सेवा के सन्दर्भ में अपनी बात कुछ इस तरह रखी- ‘प्रवीर, यह एक ऐसी जगह है, जहाँ अमृतसर आने वाले पर्यटकों को अवश्य आना चाहिए, क्योंकि जहाँ एक ओर व्यक्ति निजी स्वार्थों के चलते संवेदनहीन होता जा रहा है, हर तरफ़ भागमभाग है, दूसरे को पछाड़ कर आगे बढ़ने की प्रवृति बढ़ती जा रही है, बच्चों से उनका बचपन छीना जा रहा है और बुजुर्गों को उनके आख़िरी समय में रुलाया जा रहा है, वहीं पिंगलवाड़ा बीमारों, पिंगलों, निस्सहायों, लाचारों, लूले-लँगड़ों को आश्रय प्रदान कर रहा है। इस प्रकार यह ‘संवेदनशीलता का पाठ पढ़ाने वाली संस्था है’। मुझे तो यहाँ आकर बहुत अच्छा लगा।’

       शीतल के चुप होते ही बँटी बोला - ‘पापा, मैं भी बड़ा होकर इस तरह के जन-कल्याण के कार्यों में अपनी ओर से सहयोग देने का संकल्प लेता हूँ।’

      ‘बँटी बेटे, यह तो बहुत ही बढ़िया संकल्प है। मैं प्रभु से प्रार्थना करूँगा कि तुम्हें संकल्प पूर्ण करने की शक्ति व सामर्थ्य प्रदान करें।’

       ‘पापा, एक बात और, आपने गोल्डन टेंपल में घूमते हुए उसके बारे में कई बातें बताई, किन्तु यह नहीं बताया कि उसका निर्माण कब और किसने किया था?’

       प्रवीर कुमार के उत्तर देने से पूर्व शीतल बोली - ‘प्रवीर, तुम गाड़ी चलाओ। इतने ट्रैफ़िक में तुम्हारा ध्यान ड्राइविंग पर ही होना चाहिए। मैं बँटी की उत्सुकता शान्त करने की कोशिश करती हूँ। … हाँ तो बेटे, तुम जानना चाहते हो कि श्री हरि मन्दिर साहब का निर्माण कब और किसने करवाया था, तो सुनो…।’

            ‘बुआ जी, मैं यह जानने के लिए बहुत उत्सुक हूँ।’

            ‘बेटे, तुम्हें यह तो पता है ना कि सिक्खों के दस गुरु हुए हैं?’

            ‘हाँ बुआ जी। पहले गुरु नानक और दसवें गुरु गोबिन्द सिंह थे।’

          ‘शायद तुम्हें बीच के गुरुओं के नाम पता नहीं होंगे? चलो, कोई बात नहीं। … चौथे गुरु थे गुरु राम दास जी, जिन्होंने 1569 में अमृतसर शहर की स्थापना की। उस समय यहाँ कच्चा तालाब होता था, जिसे पक्का बनवाने के लिए गुरु जी ने उस समय के प्रसिद्ध सूफ़ी संत मियाँ मीर से नींव रखवाई और उसका नाम रखा अमृत सरोवर। धीरे-धीरे यहाँ आबादी बढ़ने लगी, क्योंकि गुरु जी के अनुयायियों ने गुरु जी का निरन्तर सान्निध्य पाने के लिए यहीं बसना शुरू कर दिया था। पहले इस नगर को रामदास पुर या चक रामदास कहते थे। बाद में अमृत सरोवर से ही इस शहर का नाम अमृतसर पड़ा है। गुरु राम दास जी के ज्योति ज्योत समाने के बाद पाँचवें गुरु गुरु अर्जुन देव जी ने गुरुद्वारे का नक़्शा स्वयं बनाया तथा इसका निर्माण 1588 में शुरू करवाया। जैसा आज तुमने देखा, गुरुद्वारे के चार प्रवेश द्वार हैं। ये द्वार चार दिशाओं तथा हिन्दू समाज के चार वर्गों के प्रतीक हैं। उस समय बहुत से मन्दिरों में निम्न वर्गों के लोगों का प्रवेश वर्जित था, लेकिन इस गुरुद्वारे में किसी भी धर्म, जाति या वर्ग के लोगों के लिए प्रवेश वर्जित नहीं था, ना अब है। बाद में गुरु अर्जुन देव जी ने जब ‘आदि गुरु ग्रंथ साहब’ की रचना की तो उसकी स्थापना भी इसी भवन में की गई। तब से यह स्थान हिन्दुओं और सिक्खों की आस्था का केन्द्र है तथा पवित्र धाम माना जाता है। इस स्थान का सिक्खों के दिलों में बहुत सम्मान है तथा यह उनके लिए उतना ही पवित्र है जितना कि ईसाइयों के लिए वैटिकन सिटी है या मुसलमानों के लिए मक्का मदीना। …. बँटी, तुमने पढ़ा होगा कि विदेशी हमलावरों ने बहुत बार हिन्दू मन्दिरों पर आक्रमण किए तथा उन्हें तहस-नहस किया। उसी तरह श्री हरि मन्दिर साहब पर भी कई बार आक्रमणकारियों ने हमले किए और इसे क्षति पहुँचाई। पहली बार इसका पुनरुद्धार महाराज सरदार जस्सा सिंह आहलुवालिया ने करवाया था और अफ़ग़ान हमलावरों द्वारा इसे नष्ट करने के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने इसका पुनर्निर्माण करवाया तथा इसकी दीवारों और कलश पर सोना मढ़वाया।’

         ‘बुआ जी, आपने तो बहुत अच्छी-अच्छी बातें बताई हैं। मैं अपनी क्लास के दूसरे बच्चों को भी बताऊँगा।’

        ‘ज़रूर बताना, बेटे। इतना ही नहीं, पूरे ट्रिप के बारे में बताना, तभी तुम्हारा इस ट्रिप पर आना सार्थक होगा।’

         प्रवीर कुमार गाड़ी चलाते हुए भी शीतल और बँटी की बातें ध्यान से सुन रहा था। इतने में वे बकाला क़स्बे के पास पहुँच गए। बँटी की जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए प्रवीर कुमार ने शीतल और नवनीता से पूछा - ‘तुममें से किसी को बकाला क़स्बे का इतिहास मालूम है?’

          दोनों ने एक साथ उत्तर दिया - ‘नहीं।’

         ‘तो सुनो, बहुत ही रोचक कहानी है इस क़स्बे की। हुआ यूँ कि जब आठवें गुरु श्री हर किशन जी दिल्ली में चेचक से पीड़ित लोगों की सेवा-सँभाल कर रहे थे तो वे स्वयं भी इस संक्रामक बीमारी के शिकार हो गए। उन्हें अनुभव हुआ कि उनका अंतिम समय आ गया है तो उनके शिष्यों ने भारी मन से पूछा कि आपके बाद गुरु गद्दी किसको दी जाए तो उन्होंने उत्तर दिया - ‘बाबा बकाला।’ …. अब ‘बाबा बकाला’ बहुत ही अस्पष्ट संकेत था। इसी का लाभ उठाकर बकाला के बाइस पाखंडी लोगों ने स्वयं को गुरु घोषित कर दिया। 

         ‘उन्हीं दिनों एक गुरसिख व्यापारी जिसका नाम मक्खन शाह लुबाणा था, विदेश से व्यापार करके समुद्री जहाज़ से वापस आ रहा था। उसका जहाज़ किनारे से कुछ ही दूर था कि भयंकर समुद्री तूफ़ान में जहाज़ डावाँडोल होने लगा। व्यापारी को लगा कि जहाज़ किसी वक़्त भी डूब सकता है। जब उसने देखा कि बचने की कोई उम्मीद नहीं तो उसने अपने इष्ट गुरु नानक देव जी को स्मरण करते हुए मन्नत मानी - ‘हे सच्चे पातशाह, मेरे जहाज़ को डूबने से बचा लीजिए, मैं आप जी के चरणों में पाँच सौ अशर्फ़ियाँ अर्पित करूँगा।’ और साथ ही वह गुरु अर्जुन देव जी की वाणी के शब्द उच्चारने लगा - 

                      अपुने सेवक की आपे राखै, आपे नामु जपावै।

                      जह जह काज किरति सेवक राखी, तहा तहा उठि धावै।।

                      सेवक कउ निकटी होइ दिखावै।

                      जो जो ठाकुर पहि सेवकु, तत्काल होइ आवै।।

भक्त की सच्ची पुकार पर चमत्कार हुआ। तूफ़ान थम गया। जहाज़ बिना किसी क्षति के किनारे लग गया। 

        ‘मक्खन शाह अपना वादा पूरा करने के लिए बकाला पहुँचा तो बहुत से लोगों को गुरु का चोला पहने देखकर भ्रमित हो गया। उसको कुछ समझ नहीं आ रहा था कि किसे असली गुरु मानूँ।आख़िर उसे एक युक्ति सूझी। उसने निर्णय लिया कि हरेक तथाकथित गुरु को दो-दो अशर्फ़ियाँ देता हूँ, जो सच्चा गुरु होगा, वह तो समझ जाएगा कि मैंने पाँच सौ अशर्फ़ियाँ देने की मन्नत मानी है। अपनी इसी योजना के अनुसार वह हरेक तथाकथित गुरु के पास गया और दो-दो अशर्फ़ियाँ भेंट करता गया। सबने सहर्ष अशर्फ़ियाँ स्वीकार कर लीं, किसी ने भी कोई एतराज़ नहीं किया। 

        ‘मक्खन शाह निराश हो गया। असली गुरु को कहाँ ढूँढूँ, यही उसकी सबसे बड़ी चिंता थी। तभी किसी गाँववासी ने उसे बताया कि तेग़ बहादुर इन पाखंडों से अलग अपने घर के एकांत में तपस्या कर रहे हैं। निराश मक्खन शाह ने सोचा, चलो उन्हें भी देख लेता हूँ। मक्खन शाह जब तेग़ बहादुर जी के घर पहुँचा तो उसने दो अशर्फ़ियाँ निकालकर माथा टेका। तेग़ बहादुर जी ने आँखें खोलीं और मुस्कुराते हुए कहा - ‘गुरु दे सिक्खा, पंज सौ अशर्फ़ियाँ सुक्ख के दो ही भेटा कर रहैया हैं?’ मक्खन शाह की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, वह तो पागलों की तरह झूम उठा। वह तुरन्त गुरु जी के चरणों में दण्डवत हो गया और उसने पाँच सौ अशर्फ़ियाँ उनके चरणों में भेंट कर दीं। उसी क्षण वह बाहर आया और ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा - ‘गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे!’ यह पुकार सुनकर गाँव के गुरु के सभी शिष्य इकट्ठे हो गए। पाखंडियों को तो साँप सूँघ गया, उनकी दुकानदारी बन्द हो गई।

         ‘आठवें गुरु जी की आज्ञानुसार दिल्ली से एक गुरसिख अपने साथ पाँच पैसे और नारियल लेकर आया था जो उसने ‘बाबा बकाला’ को सौंपने थे, लेकिन वह भी मक्खन शाह की तरह भ्रमित था। अब भ्रम दूर हो चुका था तो उसने पैसे और नारियल गुरु तेग़ बहादुर जी को भेंट किए। तत्पश्चात् बाबा बुढ़ा जी के पोते बाबा गुरांदित्ता जी ने गुरु जी को तिलक लगाकर गुरु गद्दी पर विराजमान किया …..।’

           ‘पापा, ये बाबा बुढ़ा जी कौन थे?’

           ‘बेटे, बाबा बुढ़ा जी गुरु नानक के समय से संगतों की सेवा में लगे हुए थे। गुरु अर्जुन देव जी ने ‘आदि गुरु ग्रंथ साहब’ का सृजन करने के बाद जब ‘बीड’ को श्री हरि मन्दिर साहब में स्थापित किया था तो बाबा बुढ़ा जी को पहला ग्रंथी नियुक्त किया था उन्होंने।’

        ‘प्रवीर, इस सारी कहानी को सुनने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न आ रहा है कि आठवें गुरु जी ने अपने उत्तराधिकारी का नाम लेने की बजाय ‘बाबा बकाला’ क्यों कहा?’ नवनीता ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

        ‘नीता, तुम्हें शायद गुरुओं का इतिहास मालूम नहीं! नौवें गुरु गुरु तेग़ बहादुर जी छठवें गुरु गुरु हर गोबिन्द जी के पुत्र थे और सातवें गुरु हर राय के पिता श्री गुरदित्ता के सगे भाई थे। आठवें गुरु गुरु हर किशन जी आठ वर्ष से भी कम आयु के थे, जब वे स्वर्ग सिधारे थे। हमारे समाज में कुछ समय पहले तक भी परिवार के छोटे सदस्य अपने से बड़े सदस्यों का नाम नहीं लिया करते थे। इसलिए आठवें गुरु जी ने अपने उत्तराधिकारी, तेग़ बहादुर जी, जोकि उनके दादा-भाई थे, का नाम लेना उचित न समझते हुए केवल ‘बाबा बकाला’ कहा था, क्योंकि तेग़ बहादुर जी उन दिनों बकाला में रहते थे। अब हुआ तुम्हारी जिज्ञासा का शमन?’

        ‘प्रवीर, आप भी कहेंगे कितनी अनपढ़ हूँ मैं, लेकिन सच में मुझे सिक्ख इतिहास की बहुत कम जानकारी है। एक प्रश्न अब भी मेरे मन को मथ रहा है …. गुरु हर गोबिन्द जी ने अपने पुत्रों में से किसी को गुरु गद्दी न देकर अपने पोते को गुरु गद्दी क्यों दी?’

        ‘नीता, संक्षेप में कहूँ तो कारण यह था कि बड़े पुत्र गुरदित्ता को जब गुरु नानक देव जी के पुत्र श्री चन्द जी, जिन्होंने उदासी सम्प्रदाय की स्थापना की थी, ने गुरु हर गोबिन्द जी से अपने उत्तराधिकारी के रूप में माँग लिया तो गुरु जी ने अपने पोते को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।’ 

        ‘हाँ, अब सारी बातें स्पष्ट हो गई हैं। मैं भी कोशिश करूँगी कि सिक्ख इतिहास को पढ़कर और जानकारी ग्रहण करूँ।’

       ‘सरदार ख़ुशवंत सिंह ने सिक्खों के इतिहास पर दो खण्डों में पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक बहुत प्रमाणिक मानी जाती है। कहो तो वह मँगवा दूँगा।’

        ‘इतना समय तो अभी नहीं निकाल पाऊँगी, क्योंकि बच्चों को भी पढ़ाना होता है। हाँ, सिक्ख इतिहास का कोई संक्षिप्त संस्करण हो तो पढ़ लूँगी।’

         ‘चलो, मैं देखता हूँ। कोई-न-कोई पुस्तक मिल ही जाएगी।’

        इस तरह की बातें करते हुए उन्हें सफ़र कटने का पता ही नहीं चला। जब रूपनगर पार किया तो सूरज ढल चुका था। साँझ के साथ कोहरा भी छाने लगा था, लेकिन मंज़िल अधिक दूर नहीं थी, इसलिए सब ख़ुश थे कि दो दिन बहुत बढ़िया गुज़र गए और इन दो दिनों की यादें सदा गुदगुदाती रहेंगी।

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