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कॉलेज में दिसम्बर की छुट्टियाँ होने पर घर जाने से पहले शीतल ने एक दिन प्रवीर के बच्चों के साथ बिताने की सोची। मन में विचार आते ही उसने प्रवीर को तदानुसार सूचित किया।
बस स्टैंड पर पहुँची तो जो बस चलने के लिए तैयार थी, वह खचाखच भरी हुई थी। शीतल इतनी भीड़ में चढ़ने की हिम्मत न जुटा पाई। उसने अगली बस के लिए पन्द्रह मिनट की प्रतीक्षा करना ठीक समझा। जब आप बेसब्री से बस की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं तो वह प्रायः लेट हो जाती है। जब पन्द्रह मिनट बीतने पर भी बस नहीं आई तो उसने पूछताछ काउंटर से पता किया तो जवाब मिला कि बस रास्ते में ख़राब हो गई है, इसलिए और इंतज़ार करना पड़ेगा। इंतज़ार के सिवा कोई विकल्प नहीं था। लगभग आधे घंटे बाद बस आई तो शीतल को चैन पड़ा। फुर्ती से बस में चढ़कर वह खिड़की वाली सीट पाने में भी सफल हो गई। ठंड होने की वजह से खिड़कियों के शीशे तो बन्द थे, लेकिन बाहर के दृश्य दिखाई दे रहे थे, क्योंकि अभी गोधूली का समय था। आबादी को पीछे छोड़ जब बस हाइवे पर आई तो सड़क के साथ लगते खेतों में गेहूँ की फसल अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे दूर-दूर तक घास की चादर बिछी हो। किसी-किसी खेत में सरसों के पीले फूलों के दृश्य भी मनमोहक लग रहे थे।
जब शीतल अपने गन्तव्य पर पहुँची तो अँधेरा घिर आया था। उसने ऑटो पकड़ा और प्रवीर कुमार के यहाँ पहुँच गई। उस समय नवनीता रात का खाना बनाने में लगी हुई थी और प्रवीर बच्चों के साथ साँप-सीढ़ी का खेल खेल रहा था। लोहे का मुख्य द्वार खुलने की आवाज़ सुन नवनीता ने रसोई में से बाहर झाँका। जैसे ही शीतल ने डोरबेल बजाने के लिए हाथ बढ़ाया कि उसने रसोई में से आवाज़ दी - ‘दीदी, बेल बजाने की ज़रूरत नहीं। आ जाओ, दरवाजा खुला है।’
शीतल के अन्दर आने पर नमस्ते का आदान-प्रदान हुआ। शीतल की आवाज़ सुनकर प्रवीर कुमार और बच्चे भी खेल बीच में ही छोड़कर कमरे से बाहर आ गए। शीतल ने आगे बढ़कर रिंकू को गोद में उठा लिया और बँटी के गाल थपथपाए।
प्रवीर कुमार - ‘शीतल, काफ़ी देर लगा दी आने में?’
शीतल ने देरी का स्पष्टीकरण देते हुए कहा - ‘प्रवीर, बस का इंतज़ार करते समय एक बार तो मन घर लौटने को हुआ था। सोचा कि कल सुबह निकल लूँगी, लेकिन फिर बच्चों के साथ रात बिताने का मौक़ा नहीं मिलना था। इसलिए इंतज़ार करके भी पहुँच गई हूँ। अब रात को बच्चों के साथ खुलकर बातें कर सकूँगी।’
‘देर आए दुरुस्त आए। अब फ़्रेश हो लो, फिर खाना खाते हैं।’
खाने की टेबल पर बैठे हुए बातों के बीच प्रवीर कुमार ने एकाएक बात रख दी - ‘शीतल, यदि तुम चाहो तो कल हम अमृतसर घूमने जा सकते हैं, परसों रात तक वापस आ जाएँगे।’
शीतल कुछ कहती, इससे पहले ही बँटी बोल पड़ा - ‘पापा, बुआ जी को क्या दिक़्क़त है, उनकी भी तो छुट्टियाँ हैं। …. चाहे आपने हमें बहुत घुमाया है, लेकिन हमने अभी तक अमृतसर नहीं देखा। हाँ, इसके बारे सुना बहुत है। हम ज़रूर चलेंगे।’
अब भी शीतल ने प्रवीर की बात का जवाब न देकर बँटी से पूछा - ‘बँटी बेटे, अमृतसर के बारे क्या कुछ सुना है?’
‘बुआ जी, एक तो यह कि अमृतसर सिक्खों का बहुत बड़ा तीर्थ स्थल है। दूसरे, वहाँ हिन्दुओं का दुर्गियाना मन्दिर भी देखने लायक़ है।’
‘बेटे, हिन्दू और सिक्ख अलग-अलग नहीं हैं, एक ही हैं। हिन्दुओं पर जब मुग़ल बादशाह अत्याचार कर रहे थे, उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बना रहे थे, तो उनकी रक्षा करने के लिए सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्खों की फ़ौज तैयार की थी। सिक्ख शब्द शिष्य से बना है। …. प्रवीर, जब बच्चे इतने उत्सुक हैं तो चलते हैं अमृतसर। मैं पापा को फ़ोन करके बता देती हूँ।’
‘वाह बुआ जी, आपके साथ तो और भी मज़ा आएगा।’
‘प्रवीर, आपने बात रखी, मैंने बच्चों का उत्साह देखकर मान ली, किन्तु भाभी से तो पूछा ही नहीं या तुमने पहले ही प्लानिंग कर रखी है?’
नवनीता - ‘भई, जब बच्चों के पापा ने प्रपोज़ल रखी है और बुआ को कोई एतराज़ नहीं, तो मैं कौन होती हूँ, बीच में अड़ंगा लगाने वाली? …. दूसरे, डेमोक्रेसी में किसी के पास वीटो पावर नहीं होती, बहुमत के साथ ही चलना पड़ता है।’
नवनीता की इस बात पर शीतल और प्रवीर कुमार ने खुलकर ठहाके लगाए। बच्चों ने भी ख़ुशी मनाई।
खाना खाने के बाद नवनीता अमृतसर जाने के लिए कपड़े वग़ैरह पैक करने लगी तो शीतल ने बच्चों का बैग तैयार करने में उसकी सहायता की।
सुबह उठे तो मौसम साफ़ था। पंछियों के कलरव ने उनका स्वागत किया। बच्चे जिन्हें स्कूल जाने के लिए दो-तीन बार में उठाना पड़ता था, आज सबसे पहले जगे हुए थे। कार साफ़ करने वाला अभी आया नहीं था और उन्हें जल्दी निकलना था तो प्रवीर कुमार स्वयं ही कार साफ़ करने लगा।
बँटी ने बाहर आकर पूछा - ‘पापा, मैं कुछ सहायता करूँ?’
‘नहीं बेटे, तुम मम्मी को डिस्टर्ब्ड किए बिना तैयार हो जाओ।’
शीतल रसोई में नवनीता की मदद कर रही थी।
जब सब लोग तैयार होकर कार में बैठ गए, तब तक भास्कर देवता भी अपनी रश्मियाँ बिखेरने लगे थे। प्रवीर कुमार ने ऊपर देखते हुए हाथ जोड़े तो बँटी ने नारा बुलन्द किया - ‘जयकारा ऐ माँ शेरां वाली दा’ और सबने साथ दिया - ‘बोल, साचे दरबार की जय।’
जब वे शहर से बाहर हाइवे पर आए तो भास्कर नारायण के प्रकाश को कोहरे ने ढक रखा था। सिंगल रोड होने की वजह से कार की स्पीड बहुत धीमी करनी पड़ी। इस प्रकार लगभग सौ किलोमीटर का सफ़र तय करने के बाद ही धूप के पुनः दर्शन हुए।
अमृतसर पहुँचते-पहुँचते दोपहर के खाने का समय हो गया था। सबसे पहले उन्होंने ठहरने की व्यवस्था की और खाना खाकर रिसेप्शन काउंटर से अटारी बॉर्डर की ‘बीटिंग रिट्रीट सेरेमनी’ के सम्बन्ध में जानकारी ली और देखने के लिए चल दिए।
जब ये लोग अटारी बॉर्डर पर पहुँचे तो दूर से ही हवा में लहराते तिरंगे को देखकर रिंकू बोल पड़ा - ‘वाह! इतना ऊँचा तिरंगा?’ प्रवेश द्वार को देखकर उसकी प्रतिक्रिया थी - ‘पापा, यह तो फ़तेहपुर सीकरी के बुलन्द दरवाज़े से भी ऊँचा लगता है!’
‘हाँ बेटे, इसकी शान अलग ही है।’
जब इन्होंने अन्दर प्रवेश किया तो दर्शक दीर्घा आधे से अधिक भर चुकी थी। इन्हें बैठने के लिए ऐसी जगह चुनने में कोई विशेष दिक़्क़त नहीं हुई, जहाँ से परेड का पूरा दृश्य तथा झंडा उतारने की प्रक्रिया को अच्छी तरह से देखा जा सकता था।
परेड शुरू होने से पहले बीएसएफ़ के जवानों तथा महिला सैन्य टुकड़ी द्वारा तिरंगा लहराते हुए राष्ट्र-भक्ति के गीतों के गायन ने दर्शकों में उत्साह भर दिया। चारों ओर से ‘भारत माता की जय’, ‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद’, ‘वन्देमातरम्’ के नारे लगने लगे। साथ-साथ लाउडस्पीकर पर निरन्तर ‘यह देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का’, ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा’, ‘मेरा रंग दे बसंती चोला माय’, ‘दिल दिया है, जाँ भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए’ जैसे देशभक्ति के गीत बजाए जा रहे थे। बीच-बीच में दर्शकों को सम्बोधित करते हुए कुछ आवश्यक सूचनाएँ भी दी जा रही थीं। अन्ततः वह घड़ी भी आ गई, जब दोनों देशों के झंडों को आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतारा गया और सम्मान सहित तह करके उच्च अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया गया। राष्ट्रीय गान के साथ समारोह का समापन हुआ।
वापसी पर रास्ते में बँटी ने कहा - ‘पापा, जब झंडे उतारने से पहले दोनों देशों के जवान पैर ठोंकते हुए एक-दूसरे की ओर बढ़ रहे थे, उनके चेहरों पर ऐसा क्रोध झलक रहा था जैसे वे एक-दूसरे को अभी मार गिराएँगे!’
‘नहीं बेटा, वह क्रोध नहीं था। वह जवानों का स्वाभिमान था जो विरोधी पक्ष के सामने प्रकट किया जा रहा था। दोनों तरफ़ के सैनिक और अर्धसैनिक सामान्य हालात में एक-दूसरे से मिलकर रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख में शामिल होते हैं। त्योहार-उत्सव पर मिठाइयों का आदान-प्रदान भी करते हैं।’
‘अच्छा, फिर तो यह सारी एक्सरसाइज़ मनोरंजन के लिए ही होती है।’
‘नहीं, ऐसा भी नहीं है। यह एक्सरसाइज़ दोनों देशों के नागरिकों के लिए मित्रता का संदेश भी देती है और दर्शकों में देशभक्ति और स्वाभिमान की भावना को पोषित करती है।’
इस तरह की बातें करते हुए जब वे अमृतसर पहुँचे तो सात बज चुके थे। अभी खाना खाने का किसी का मन नहीं था, क्योंकि परेड के दौरान सभी ने कुछ-न-कुछ खा लिया था। इसलिए निश्चय हुआ कि महाराजा रणजीत सिंह का क़िला गोविन्दगढ़ फ़ोर्ट देखने चला जाए।
क़िले की ओर जाते हुए रास्ते में बँटी बोला - ‘पापा, हम तो मेनली गोल्डन टेंपल देखने के लिए आए थे, वह तो अभी तक देखा नहीं!’
‘बेटे, वह हम कल सुबह देखेंगे। गोल्डन टेंपल के साथ ही जलियाँवाला बाग़ है। कल सुबह हम गोल्डन टेंपल जिसे श्री हरि मन्दिर साहिब तथा स्वर्ण मन्दिर भी कहते हैं, के साथ दुर्गियाना मन्दिर के भी दर्शन करेंगे और जलियाँवाला बाग़ में स्वतंत्रता संग्राम में अपना बलिदान देने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे।’
‘पापा, आपने पहले भी ये स्थान देखे हुए हैं?’
‘नहीं बेटे, हम पहली बार अमृतसर आए हैं, लेकिन इनके बारे में पढ़ा-सुना हुआ है।’
गोविन्दगढ़ फ़ोर्ट पहुँचकर जब वे प्रवेश टिकटें लेने लगे तो काउंटर पर ड्यूटी दे रहे व्यक्ति ने पूछा - ‘सर, आप 7डी शो भी देखना चाहेंगे?’
‘उसकी टिकट अलग से है?’
‘हाँ सर। बच्चों को ही नहीं, आपको भी बहुत अच्छा लगेगा।’
‘ठीक है, पाँच टिकटें दे दो।’
जैसे ही इन लोगों ने क़िले के अन्दर प्रवेश किया तो खुले मंच पर गतका प्रदर्शन चल रहा था। ये सभी कुर्सियों पर बैठकर देखने लगे। चाहे ये लोग पहली बार अमृतसर आए थे और स्वाभाविक रूप से गोविन्दगढ़ क़िला भी पहली बार देख रहे थे, फिर भी बँटी और रिंकू सिख नौजवानों द्वारा गतका तथा तलवारबाज़ी का अद्भुत प्रदर्शन देखकर बहुत खुश हुए। इस शो की समाप्ति पर इन्होंने संग्रहालय देखा, जिसमें सिक्ख इतिहास से सम्बन्धित बहुत-सी नायाब वस्तुओं को देखकर बच्चों को आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। रंग-बिरंगी रोशनियों वाले फ़व्वारे के पास फ़ोटो लेने के लिए खड़े हुए तो पानी की फुहारों के पड़ने से कंपकंपी छूटने लगी।
आधा-पौना घंटा हो गया था और 7डी शो शुरू होने में अभी भी पन्द्रह-बीस मिनट की देरी थी।बच्चों ने कुछ खाने की इच्छा व्यक्त की तो ‘अंबरसरी ज़ायक़ा’ स्टॉलों पर बैठकर बड़ों ने चाय पी तो बच्चों को ताज़ा पॉपकॉर्न और चिप्स पसन्द आए।
7डी शो को देखने के बाद नौ बज चुके थे, अब सभी के पेट में चूहे कूदने लगे थे। प्रवीर ने विचार रखा कि डिनर अमृतसर के सबसे पुराने और प्रसिद्ध ‘केसर ढाबा’ पर किया जाए तो शीतल को यह प्रस्ताव पसन्द आया। स्थानीय निवासियों से पूछताछ करके जब ये लोग वहाँ पहुँचे तो प्रतीक्षारत लोगों की भीड़ देखकर इनके हौसले पस्त हो गए। भूख के आगे प्रतीक्षा हार गई और मन-मसोसकर वहाँ से वापस लौटकर होटल में ही खाना खाना पड़ा।
रात के लिए दो कमरे बुक थे। एक कमरा शीतल और बच्चों के लिए था तो दूसरा प्रवीर कुमार और नवनीता के लिए। सारा दिन इकट्ठे घूमते-फिरते रहे थे और अब ठंड भी बहुत बढ़ गई थी, इसलिए अपने-अपने कमरों में जाकर रज़ाइयों में घुसने में किसी ने देर नहीं लगाई। प्रवीर कुमार ने तो कहा था कि शीतल के कमरे में बँटी के लिए एक्सट्रा बेड लगवा लेते हैं, किन्तु बँटी ने कहा, ‘जब रिंकू बुआ जी के साथ सोएगा तो मैं अलग से अकेला क्यों सोऊँ?’
असल में, बँटी के मन में कई सवाल थे, जिनके उत्तर वह शीतल से चाहता था। इसलिए उसने उपरोक्त बात कही थी। जब शीतल ने भी बँटी की बात का समर्थन कर दिया तो प्रवीर कुमार ने इस विषय में और कुछ कहना उचित नहीं समझा और अपने कमरे में चला गया।
जब दसेक मिनटों में रज़ाई की गर्मी से शरीर को आराम अनुभव होने लगा तो बँटी ने पूछा - ‘बुआ जी, क़िले में पापा आपसे बातें करते हुए बता रहे थे कि यह क़िला सबसे पहले भंगी मिस्ल के सरदारों ने बनवाया था, तब यह कच्चा किला होता था और बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने इसे पक्का और मज़बूत क़िला बनवाया। बुआ जी, यह भंगी मिस्ल क्या थी?’
‘बेटे, गुरु गोबिन्द सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों के विरुद्ध लड़ने के लिए ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की थी और उनके बाद बाबा बन्दा सिंह बहादुर ने अपने जीवनकाल में मुग़लों का डटकर मुक़ाबला किया, किन्तु उनकी मृत्यु के बाद कई सिक्ख जत्थेदारों ने छोटी-छोटी रियासतें क़ायम कर लीं, इन्हें ही ‘मिस्ल’ कहते हैं। उस समय बारह मिस्लें बनीं, जिनमें एक ‘भंगी मिस्ल’ भी थी। सारी मिस्लों के सरदार दुश्मन के साथ एकजुट होकर लड़ते थे, लेकिन आपस में वे स्वतन्त्र थे। इनकी साल में दो बार - बैसाखी और दीवाली पर अमृतसर में ‘सरबत खालसा’ के समक्ष मीटिंग होती थी, जिसमें व्यापक जनहित के फ़ैसले लिए जाते थे। …. बाद में महाराजा रणजीत सिंह, जिनके दादा ने ‘सुक्करचक्किया’ मिस्ल की स्थापना की थी, ने सभी मिस्लों को इकट्ठा करके एक शक्तिशाली सिक्ख साम्राज्य की स्थापना की। उनकी ताक़त के आगे अंग्रेज़ भी हार मान गए थे और विवश होकर अंग्रेजों को महाराजा से संधि करनी पड़ी थी। …. अच्छा, यह बताओ कि क़िले में तुम्हें सबसे बढ़िया क्या लगा?’
‘बुआ जी, मुझे तो गतका खेलते हुए लड़कों की चुस्ती और सिनेमा हॉल में महाराजा रणजीत सिंह के कारनामों को दिखाते समय जब घोड़ों के पैरों की धमक से हमारी कुर्सियाँ भी हिलने लगी थीं और जब घोड़े पानी में से गुजर रहे थे तो पानी के छींटे हम तक आ रहे थे, वह बहुत अच्छा लगा।’
‘और रिंकू, तुम्हें क्या अच्छा लगा?’
‘बुआ जी, सिनेमा हॉल में तो कई बार मैं डर ही गया था। एक तो जब घोड़ों पर सवार सैनिक आगे को आ रहे थे तो मुझे लगा था कि अब तो ये हमें कुचल ही देंगे। लेकिन, यह मानना पड़ेगा कि महाराजा के सैनिक थे बड़े बहादुर।’
‘हाँ बेटे, महाराजा के सेनापति हरिसिंह नलवा की बहादुरी के चर्चे तो काबुल-कंधार तक होते थे। …. अच्छा, अब बहुत रात हो गई है, अब तुम सो जाओ। यदि तुम्हें इस रज़ाई में ठंड लगती हो तो ब्लोयर चला देती हूँ।’
रिंकू - ‘नहीं बुआ जी, ब्लोयर की ज़रूरत नहीं। यदि ठंड लगी तो मैं आपकी रज़ाई में आ जाऊँगा।’
‘क्यों नहीं? ज़रूर आ जाना। अब सो जाओ, सुबह श्री हरि मन्दिर साहब देखने चलेंगे।’
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