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डॉ. मधुकांत से मिलने के पश्चात् जब प्रिंसिपल और शीतल वापस आ रहे थे तो कार चलाते हुए भी प्रिंसिपल निरन्तर उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा कर रहे थे। उन्होंने कहा - ‘शीतल, तुमने ठीक कहा था; रक्तदान करने, करवाने की भावना डॉ. मधुकांत के रोम-रोम में बसी हुई है। मैंने सिर्फ़ इतना ही पूछा था कि उन्हें कब सहूलियत रहेगी हमारे कॉलेज में आने के लिए और उन्होंने तुरन्त कह दिया कि इस काम के लिए मेरी सहूलियत का कोई महत्त्व नहीं, यह तो ऐसा पवित्र काम है, जिसके लिए मैं कुछ भी, किसी भी वक़्त करने के लिए सदैव तत्पर रहता हूँ। हम कोई तिथि बता पाते, उससे पहले ही उन्होंने कह दिया, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिन से बेहतर इस कार्य के लिए अन्य कोई दिन हो ही नहीं सकता, क्योंकि नेताजी ने सर्वप्रथम ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ का नारा देकर रक्तदान का शुभारम्भ किया था। …. अब हमें रक्तदान शिविर के आयोजन के लिए तैयारियाँ करनी होंगी। कम-से-कम सौ विद्यार्थियों को रक्तदान करने के लिए प्रेरित करना होगा।’
‘सर, इतने विद्यार्थी तो आराम से तैयार हो जाएँगे। मैं सोचती हूँ कि स्टाफ़ की मीटिंग बुलाकर उनसे भी रक्तदान करने के लिए कहा जा सकता है। यदि कुछ प्राध्यापक आगे आते हैं तो विद्यार्थियों की संख्या और भी बढ़ सकती है। … मैंने सोच लिया है कि मैं तो अवश्य रक्तदान करूँगी।’
‘वैरी गुड। तुम्हारे इसी संकल्प की ख़ुशी में चाय पीने का मन कर आया है।’
‘सर, वैसे भी आपको ड्राइव करते हुए दो घंटे हो गए हैं। इस बहाने थोड़ा रेस्ट भी हो जाएगा।’
रेस्तराँ में चाय पीते समय प्रिंसिपल ने कहा - ‘शीतल, एक पारिवारिक बात पूछना चाहता हूँ?’
‘सर, व्यवहार में बरती जाने वाली औपचारिकता तो हम छोड़ चुके हैं, फिर संकोच क्यों? नि:संकोच पूछिए, जो मन में है।’
‘तुम्हारा भाई थोड़ा-सा मंद-बुद्धि था, अब वह कैसा है?’
‘सर, अब वह जवान हो गया है, किन्तु मानसिक रूप से वैसा ही है। छोटा था तो सँभालना मुश्किल नहीं होता था, लेकिन अब …. पापा-मम्मी उसे लेकर चिंतित रहते हैं।’
‘उनकी चिंता स्वाभाविक है, लेकिन यह प्रारब्ध का खेल है, जीवन प्रभु की इच्छानुसार ही व्यतीत करना पड़ता है।’
वेटर बिल ले आया था। प्रिंसिपल ने बिल की अदायगी की और वहाँ से उठ लिए।
सूर्य के अस्ताचल के साथ ही शीतल को उसके कमरे पर छोड़कर प्रिंसिपल अपने घर की ओर रवाना हो गए।
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