Amavasya me Khila Chaand - 13 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अमावस्या में खिला चाँद - 13

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अमावस्या में खिला चाँद - 13

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        दिसम्बर के प्रारम्भिक दिनों में प्रायः ठंड कम होती है, किन्तु इस बार तापमान हर आए दिन  गिरता जा रहा था। गमलों में लगे पौधे भी शीत-लहर से कुम्हलाने लगे थे। जहाँ पहले ठंड का सामना करने के लिए अलाव का सहारा लिया जाता था, अब हीटरों ने अलाव को पछाड़ दिया था। इसलिए बन्द डिब्बों में पड़े हीटरों को बाहर निकालकर काम पर लगा दिया गया था। स्टाफ़ रूम के दोनों रूम हीटरों के मुख पुरुष प्राध्यापकों ने अपने ग्रुप की ओर कर रखे थे तथा वे गपशप में मशगूल थे। सुदेश मैम एक तरफ़ बैठी पीरियड समाप्ति की घंटी बजने की प्रतीक्षा में कुर्सी पर बैठी घुटने सिकोड़ कर ठंड से बचने का प्रयास कर रही थी। बैठने को वह भी पुरुष सहकर्मियों के साथ बैठकर ठंड से बच सकती थी, किन्तु अपने अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण उसने अकेले बैठना ही उचित समझा था। ज्यों ही घंटी बजी, उसकी निगाहें द्वार की ओर उठ गईं। दो-चार मिनटों में जैसे ही उसे शीतल की झलक दिखाई दी,  उसने उसके पास आकर कहा - ‘शीतल, आओ कैंटीन चलते हैं।’

         शीतल ने हाज़िरी रजिस्टर लॉकर में रखा और बिना कोई सवाल-जवाब किए उसके साथ हो ली, क्योंकि इन दोनों में हमउम्र होने के कारण शीतल के कॉलेज ज्वाइन करने के पहले दिन से ही अच्छी छनने लगी थी। कैंटीन में रिसेस को छोड़कर कम ही रश होता है, इसलिए इन्होंने कोने की एक टेबल, जहाँ खिड़की में से धूप आ रही थी, को बैठने के लिए चुना तथा वेटर के आने पर चाय-समोसे का ऑर्डर कर दिया। 

        चाय आने से पहले सुदेश मैम ने टेबल पर आगे झुकते हुए बहुत ही मद्धम स्वर में कहा - ‘शीतल, आज स्टाफ़ रूम में तुम्हारे आने से पहले मैंने प्रो. दर्शन को दूसरे प्रोफ़ेसरों से कानाफूसी करते सुना। वह कह रहा था कि प्रिंसिपल शीतल मैम को बहुत बार अकेले में बुलाता है और एक-आध बार तो वह प्रिंसिपल के घर भी गई है। ज़रूर इनमें कुछ-ना-कुछ पक रहा है। …. शीतल, सुनकर मुझे बुरा लगा। तुमसे आत्मीयता है, इसलिए तुम्हें बता रही हूँ। …. इन पुरुषों की सोच कितनी घटिया है! मैं इसीलिए इनसे मेलजोल कम ही रखती हूँ।’

      ‘सुदेश जी, आपको तो कॉलेज में प्रिंसिपल सर के साथ काम करते हुए काफ़ी समय हो गया है। आप तो उनके बारे में मेरे से अधिक जानती हैं। वे नेकदिल तथा उच्च चरित्र के इंसान हैं। उनके बारे में ऐसा सोचना वाक़ई सोचने वाले की घटिया सोच तथा ओछी मानसिकता का ही प्रतीक है। …. जहाँ तक मेरा प्रिंसिपल सर के घर जाने का सवाल है, मैं इससे इनकार नहीं करती, किन्तु आपको बता दूँ कि प्रिंसिपल सर मुझे क्यों बुलाते हैं, …. वे मेरे पापा के स्टूडेंट रहे हैं और आज भी उनका सम्मान करते हैं।’

          प्रो. दर्शन की बातें सुनकर सुदेश मैम के मन में भी संशय तो पनपा था, लेकिन अब शीतल की दो-टूक बातें सुनकर उसके मन में उठ रही संशय की तरंगें शान्त हो गईं। 

        सुदेश मैम तो शीतल के स्पष्टीकरण से सन्तुष्ट हो गई थी, किन्तु मानव स्वभाव ऐसा है कि किसी के बारे में कही गई नकारात्मक बातों का प्रचार-प्रसार बहुत शीघ्र होता है और यह तथ्य इस प्रसंग में भी सत्य सिद्ध हुआ। कानों-कान होती हुई यह बात प्रिंसिपल के कानों तक भी जा पहुँची। उन्होंने विषय की गम्भीरता को देखते हुए शीतल से बातचीत करना उचित समझा, क्योंकि ऐसे प्रसंग उठने पर सम्बन्धित महिला की ओर सवालिया उँगलियाँ अधिक उठती हैं और वे नहीं चाहते थे कि उनके गुरु जी की बेटी पर किसी तरह का आक्षेप लगे। उन्होंने अपने ऑफिस की बजाय घर पर शीतल को बुलाकर बात करना ठीक समझते हुए शाम को उसे फ़ोन किया। नमस्ते-प्रतिनमस्ते के उपरान्त पूछा - ‘शीतल, यदि तुम फ़्री हो तो कुछ समय के लिए घर आ जाओ।’

          ‘सर, कोई विशेष काम ….?’ 

          ‘नहीं, कोई विशेष नहीं। बस एक-दो बातें करनी हैं तुमसे।’

          ‘सर, मैं पन्द्रह-एक मिनटों में पहुँचती हूँ।’

        शीतल सोचने लगी, पहले तो कभी प्रिंसिपल सर ने इस तरह अचानक बुलाया नहीं, हमेशा कॉलेज में ही सूचित करते रहे हैं। इस समय ऐसी क्या बातें हो सकती हैं, जिनके लिए अचानक बुलाना पड़ा होगा! उसे तो इसकी भनक भी नहीं थी कि सुदेश मैम ने प्रो. दर्शन की जिस बात का ज़िक्र किया था, वह प्रिंसिपल सर के कानों तक पहुँच गई होगी।

         सर्दियों के छोटे दिनों के साथ ही सूर्यास्त के पश्चात् कोहरा गहराने लगा था, इसलिए जब शीतल पहुँची तो प्रिंसिपल ने सबसे पहले क्षमायाचना करते हुए कहा - ‘सॉरी शीतल, इस मौसम में तुम्हें बुलाना तो नहीं चाहता था, लेकिन जो बात करने के लिए तुम्हें कष्ट दिया है, वह कॉलेज में भी नहीं करना चाहता था।’

           अब भी शीतल प्रिंसिपल की बात का अर्थ समझ नहीं पाई। फिर भी उसने कहा - ‘सर, सॉरी वाली कोई बात नहीं। आप मेरे सीनियर ही नहीं, अभिभावक भी हैं। इसलिए कष्ट वाली बात कहकर शर्मिंदा न करें। … लेकिन सर, ऐसी कौन-सी बात है जो कॉलेज में नहीं की जा सकती थी?’

        प्रिंसिपल कुछ देर तक सोचते रहे। आख़िर उन्होंने कहा - ‘शीतल, अभी तुमने मुझे अपना अभिभावक कहा। नि:सन्देह, जब से मुझे पता लगा है कि तुम मुरलीधर सर की बेटी हो, तुमसे आत्मीयता-सी हो गई है। लेकिन, दुनिया बिना सत्य को जाने बेवजह की बातों को सत्य मानने लगती है। ….. शीतल, कॉलेज में तुम्हारे साथ मेरे सम्बन्धों को लेकर कानाफूसी होने लगी है। तुम अच्छी तरह जानती हो कि मेरे मन में तुम्हारे प्रति किसी तरह की कलुषता नहीं है। … हाँ, मुझे जब से तुम्हारे जीवन की त्रासद घटनाओं का पता लगा है, मेरे मन में तुम्हारे लिए सहानुभूति अवश्य उमड़ी है।’

        ‘सर, मुझे सुदेश मैम से पता चला था कि प्रो. दर्शन हमारे सम्बन्धों के बारे में दूसरे प्रोफ़ेसरों से कानाफूसी कर रहे थे। लेकिन, मैंने इस बात को तरजीह नहीं दी, क्योंकि मैं जानती हूँ कि झूठ अधिक देर तक नहीं टिकता, सच को सदा के लिए धुँधलाया नहीं जा सकता। पुरुषों की आदत होती है स्त्रियों के बारे में ऐसी बातें करके चटकारे लेने की। सर, माफ़ करना, मैंने जनरलाइज कर दिया।’

        ‘तुमने ठीक कहा। प्रोफ़ेसर दर्शन की ऐसी ही मेंटेलिटी है। बात का बतंगड़ बनाने में बहुत माहिर है वह। तुम उससे थोड़ा दूर ही रहोगी तो अच्छा होगा।’

           ‘सर, मेरी ऐसी आदत ही नहीं है। मैं अपने काम से काम रखती हूँ।’

           ‘वो तो मैं जानता हूँ।’

       जैसे ही उपरोक्त संवाद में विराम लगा, शीतल सोचने लगी, इसमें कुछ भी ऐसा नहीं कि अफ़वाहों को जन्म दे। मेरी परिस्थितियों को जानकर किसी के भी मन में, विशेषकर अपने परिचित के मन में, सहानुभूति उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

        कुछ देर मौन रहने के पश्चात् प्रिंसिपल ने कहा - ‘प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अवांछनीय घटनाएँ घटती हैं। पता नहीं तुम्हें मालूम है या नहीं, मेरा भी एम.टेक. करने के बाद मेरी क्लासफैलो के साथ विवाह हुआ था। मैं प्रारम्भ से ही टीचिंग लाइन में आने के लिए प्रयासरत था, क्योंकि मेरा मानना था कि अध्यापन ही एक ऐसा व्यवसाय है, जिसके माध्यम से आप अपने जीवनयापन के लिए तो भौतिक साधन जुटाते ही हो, साथ ही युवा पीढ़ी को समाज और राष्ट्र-हित के लिए सही मार्गदर्शन प्रदान करके हज़ारों जागरूक नागरिक तैयार कर सकते हो। लेकिन, मेरी क्लासफैलो कार्पोरेट सेक्टर में जाने की इच्छुक थी। कोर्टशिप के दौरान जब विवाह की बात उठती तो मैं अपनी आशंका ज़ाहिर करता कि जीवन के प्रति हमारे भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण कहीं हमारे भावी जीवन में व्यवधान तो नहीं उत्पन्न कर देंगे तो वह यह कहकर ओवररूल कर देती थी कि एक बार विवाह हो जाए, ये छोटी-मोटी समस्याएँ म्यूचुअल अंडरस्टेंडिंग से हल हो जाएँगी। विवाह से पहले ही उसकी नियुक्ति गुरुग्राम में स्थित एक एमएनसी के ज़ोनल ऑफिस में हो गई थी। मैंने भी हरियाणा सिविल सर्विस कमीशन में प्राध्यापक पद के लिए अप्लाई किया हुआ था। जब तक मेरा चयन नहीं हुआ, हम गुरुग्राम में इकट्ठे रहे। इसके बावजूद हम एक-दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम नहीं बिता पाते थे। उसके पास मेरे लिए समय ही कहाँ रहता था, क्योंकि उसे अपनी जॉब के कारण अक्सर टूर पर जाना पड़ता था। फिर भी मैंने कभी शिकायत नहीं की थी, क्योंकि मैंने उसे अपने जीवनसाथी के रूप में स्वयं स्वीकार किया था। उसके साथ जीवन शुरू करने के साथ ही मेड के हाथ का बना खाना खाने की आदत डाल ली थी। उसके हाथ के बने खाने के अवसरों को तो मैं दोनों हाथों की उँगलियों पर गिन सकता हूँ। जब मेरी जॉब लग गई तो मुझे इधर आना पड़ा। वह भी चण्डीगढ़ आ सकती थी, किन्तु उसे लगता था कि चण्डीगढ़ की अपेक्षा एनसीआर में रहते हुए जीवन में आगे बढ़ने के अधिक अवसर हैं। मेरी जॉब लगने के बाद प्रायः वीकेंड में मैं उसके पास जाता था। एक-आध बार से अधिक, मुझे नहीं याद आता कि वह मेरे पास आई हो। मेरे पास होते हुए भी उसका अधिक समय मोबाइल पर व्यतीत होता था। एक-आध बार मैंने टोका तो कटाक्ष में सुनने को मिला, कार्पोरेट वर्ल्ड में चौबीस घंटे की नौकरी करनी पड़ती है, तुम्हारी तरह नहीं कि चार पीरियड पढ़ाए और बाक़ी टाइम में मस्ती-ही-मस्ती।….. एक बार मैं गुरुग्राम पहुँचा तो फ़्लैट पर ताला लगा हुआ था। मैंने फ़ोन किया तो उसने बताया कि वह मुझे सूचित करने ही वाली थी कि उसे अचानक बैंगलुरु जाना पड़ गया। उसने कहा कि मैं मंडे मॉर्निंग में वापस आऊँगी, यदि तुम रुक सकते हो तो रुक जाओ वरना नेकस्ट वीकेंड ही मिल पाएँगे ….’

          जैसे ही प्रिंसिपल ने विराम लिया, शीतल ने पूछा - ‘आप तो फ़ोन करके ही गए होंगे?’

         ‘हाँ, पहली रात फ़ोन पर सूचित किया था उसे कि मैं सुबह आ रहा हूँ। …. फ़्लैट की चाबियाँ वह अपनी एक क्लीग को दे गई थी। जब मैं चाबियाँ लेने गया तो उसकी क्लीग की बातों से मुझे कुछ और ही लगा…’

           ‘मतलब …?’

         ‘उसकी बातों से लगा जैसे पूनम, हाँ पूनम ही नाम था मेरी वाइफ़ का, ड्यूटी पर नहीं, बल्कि अपने सीनियर क्लीग के साथ फर्लो पर गई हुई थी। बस समझ लो, यहीं से हमारी प्रेम-डगर के आख़िरी पड़ाव की शुरुआत हुई।… मैं दो-एक घंटे आराम करके वापस आ गया, क्योंकि मंडे तक रुकना मेरे लिए सम्भव नहीं था…..।’

        ‘कभी आपने जानने की कोशिश नहीं की कि आपकी पत्नी ने किसी के साथ विवाहेत्तर सम्बन्ध तो नहीं बना रखे थे?’

         ‘शीतल, आदमी के मन में जब शंका जन्म लेती है तो वह निश्चिंत होकर कैसे बैठ सकता है? मैं भी हाड़-मास का बना पुतला हूँ। मैंने भी सच्चाई जानने की कोशिश की। जब राज खुला तो पता चला कि मेरी अनुपस्थिति में पूनम अपने सीनियर क्लीग के साथ ‘लिव-इन रिलेशन’ में रहती थी। लेकिन पूनम अपने क्लीग को फ़्लैट पर कभी नहीं बुलाती थी, यह बात पड़ोसियों ने भी कन्फर्म की थी।’

           ‘पूनम का क्लीग उस समय अविवाहित था?’

         ‘शीतल, अफ़सोस तो इसी बात का है कि वह विवाहित था, उसका एक बेटा भी था। दोनों अपने-अपने साथियों से विश्वासघात कर रहे थे।’

           ‘तो फिर उनके साथ रहने का क्या ठिकाना था?’

          ‘पूनम के क्लीग ने एक फ़्लैट किराए पर ले रखा था, जहाँ वे वीकेंड में या वीक डेज़ में भी टूर पर होने का बहाना बनाकर इकट्ठे रहते थे।’

          ‘फिर आपने क्या किया?’

          ‘जब मैंने सबूत इकट्ठे करके पूनम से स्पष्टीकरण माँगा तो उसने ढीठता से कहा कि जीवन में कुछ विशेष पाने के लिए छोटे-मोटे समझौते करने पड़ते हैं। …. उसकी यह बात सुनकर मेरे तन-बदन में आग लग गई। एक बार तो मन हुआ कि इसे अभी सबक़ सिखा दूँ, लेकिन मेरे अन्तर्मन ने मुझे रोक दिया। क़ानून को अपने हाथ में लेने की बजाय मैंने क़ानून का सहारा लेना उचित समझा। … मैंने पूनम के विरूद्ध वैवाहिक शुचिता को भंग करने तथा विश्वासघात करने का केस दाखिल किया तो उसके क्लीग ने भी उसका साथ छोड़ दिया। अब पूनम बिल्कुल अकेली पड़ गई। हताश होकर उसने केस वापस लेने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि उसने कोर्ट में लिखकर दिया कि यदि याचिकाकर्ता आपसी सहमति से तलाक़ के लिए तैयार हो जाए तो वह गुज़ारा भत्ता आदि के लिए कोई दावा नहीं करेगी और न ही किसी अन्य प्रकार का केस करेगी।’

           ‘सर, एक प्रश्न मन में उठ रहा है,’ कहकर शीतल रुक गई।

          कुछ क्षण प्रतीक्षा के बाद प्रिंसिपल ने पूछा - ‘रुक क्यों गई शीतल? पूछो, जो पूछना चाहती हो।’

       ‘सर, आप दोनों इकट्ठे पढ़ते थे, एक-दूसरे को जानने के अवसर आपके पास थे। क्या कभी पूनम के चरित्र का यह पक्ष आपके सामने नहीं आया?’

         ‘शीतल, तुम्हें यक़ीन नहीं होगा, हमारी कोर्टशिप के दौरान पूनम का व्यवहार बहुत ही संयमित रहता था। उसने कभी भी मर्यादा का उल्लंघन करने की कोशिश नहीं की, बल्कि मेरी हल्की-फुल्की शरारत पर मुझे वह ‘स्नब’ कर दिया करती थी। बाइस-तेईस की उम्र में लड़कियों में जो स्वाभाविक चुलबुलापन होता है, वैसा कुछ उसने कभी प्रदर्शित नहीं किया था। वह ठोस यथार्थवादी थी। वह प्रदर्शन नहीं, सान्निध्य चाहती थी। उसकी इन्हीं अदाओं ने मुझे उसकी ओर आकर्षित किया था।’

         ‘सर, आपकी बातों से मुझे ऐसा आभास होता है कि पूनम और आपके बीच की भौगोलिक दूरियाँ भी शायद एक कारण रहा होगा उसके भटकने का!’

         ‘मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं हूँ। जैसा मैंने पहले कहा था कि मेरी जॉब लगने के बाद वह चंडीगढ़ आ सकती थी, लेकिन अपने करियर, अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण उसने ऐसा नहीं किया।’

        ‘जुदा होने के बाद कभी उसकी खोज-खबर मिली?’

        ‘शीतल, अब तक की बातों से तुम्हें अहसास हो गया होगा कि वह यथार्थ में बहुत महत्त्वाकांक्षी थी। उसने अपना करियर ग्राफ़ बढ़ाने के लिए अपने सीनियर को सीढ़ी बनाया और उस सीनियर ने उससे इसकी क़ीमत वसूली। दोनों ने एक-दूसरे का फ़ायदा उठाया, किन्तु उसका सीनियर एक हद तक ही स्वार्थी था। जब उसे अपने परिवार का भविष्य दाँव पर लगता दिखाई दिया तो उसने कदम पीछे हटाने में भी देर नहीं लगाई। कोर्ट में केस होने पर पूनम के क्लीग की पत्नी को जब उनके अवैध सम्बन्धों की भनक लगी तो उसने अपने पति को आड़े हाथों लिया और उसे अदालत में घसीटने की धमकी दी। बस फिर क्या था, उसने पूनम को ‘डिच’ करने में ही अपनी भलाई समझी ….।’

           ‘तो आजकल वह अकेली है?’

           ‘हाँ, रहती तो अकेली ही है। उसने अपने क्लीग के विरूद्ध यौन शोषण का केस कर रखा है। …. एक बार मेरे पास आई थी। मानसिक रूप से बहुत विचलित थी। रिक्वेस्ट करने लगी कि मुझसे नादानी में भूल हो गई। मुझे मेरे किए की सजा मिल चुकी है। मुझे माफ़ कर दो। पुराने रिश्ते की दुहाई देकर उसने कहा कि कोर्ट में मैं उसके हक़ में गवाही दे दूँ। केस का फ़ैसला उसके हक़ में हो सकता है।… उसने यहाँ तक कह दिया था कि उसका जीवन की चकाचौंध से मोह भंग हो चुका है, केस समाप्त होते ही वह मुझसे दुबारा विवाह करके सहज जीवन जीने की इच्छुक है।’

            ‘आपका क्या उत्तर था?’

          ‘मैंने साफ़ मना कर दिया। दूध का जला व्यक्ति छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। मैंने कहा कि जब हमारा तलाक़ हो चुका है तो मैं तुम्हारे व्यक्तिगत पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता। मैंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि तुमने मेरे विश्वास, मेरी भावनाओं की हत्या की है। तुम किसी भी यत्न से मेरे हृदय में पहले वाला स्थान नहीं ले सकती। बहुत गिड़गिड़ाई, लेकिन मेरा मन नहीं पसीजा। …. शीतल, तुम्हीं बताओ, इस तरह की स्त्री का मैं दुबारा विश्वास कैसे कर सकता था?’

        ‘ठीक कहा आपने। रिश्तों में एक बार दरार पड़ने के बाद उस दरार का भरना बड़ा मुश्किल होता है। रिश्ते काँच की तरह होते हैं। जैसे काँच के टूटने पर उसे किसी एडहीसिव मैटेरियल से जोड़ भले लिया जाए, टूटने की रेखा का अस्तित्व बना रहता है। …. सर, एक बात समझ में नहीं आती, जब प्रकृति में सूरज की धूप, वर्षा की फुहारें, चाँद और तारों की रोशनी, पेड़-पौधों की छाँव सब मनुष्यों के लिए एक समान उपलब्ध है तो मनुष्यों की क़िस्मत लिखते समय परमात्मा ने बराबरी के सिद्धांत को क्यों छोड़ दिया?’

           ‘ऐसा नहीं है शीतल। प्रकृति के भी अपने नियम हैं, उन्हीं के अनुसार काल का चक्र चलता है। देखा नहीं, कहीं बाढ़ से तबाही हो रही होती है तो कहीं सूखा पड़ा होता है। सूरज की धूप भी कहाँ सबको समान रूप से मयस्सर होती है? दुनिया में बहुत से इलाक़े ऐसे हैं, जहाँ धूप के लिए आदमी तरस जाता है और कुछ जगहों पर धूप की तपिश आदमी की सहनशक्ति की परीक्षा लेकर रहती है। असल में, इसे हम ईश्वर की माया कह सकते हैं और मनुष्यों के कर्मों का फल भी। सभी की एक-सी क़िस्मत होती तो दुनिया रंग-बिरंगी कैसे होती और बिना विभिन्न रंगों के एकरूपता और एकरसता से मनुष्य शीघ्र ही उकता न जाता!’

           ‘बात तो आपकी ठीक है। ईश्वर की माया को समझना कहाँ आसान है!’

       ‘शीतल, यह अन्तहीन चर्चा का विषय है, कितनी भी चर्चा कर लें, किसी ठोस नतीजे पर पहुँचना मुश्किल है। … अपने व्यक्तिगत जीवन की भी और चर्चा नहीं करना चाहता, क्योंकि पुराने ज़ख़्मों को स्मरण करने से भी कष्ट होता है।’

           ‘सॉरी सर। आपको कष्ट हुआ।’

        ‘नहीं शीतल, तुम्हारे साथ कुछ ऐसा सम्बन्ध हो गया है कि मैंने अपने विगत को उघाड़ दिया वरना आजतक मैंने इस प्रसंग को किसी के साथ शेयर नहीं किया।’

           ‘सर, जब आपने इतना कुछ बता दिया है तो मेरी एक उत्सुकता शेष है …..।’

           ‘जब इतना कुछ बता दिया है तो तुम अपनी रही-सही उत्सुकता का निवारण भी कर लो।’

           ‘कभी दुबारा मन में किसी का साथ पाने की अभिलाषा उत्पन्न नहीं हुई?’

          ‘इंग्लिश पोयट लॉर्ड टेनीसन की लाइनें हैं - इट्स बेटर टू हैव लव्ड एण्ड लॉस्ट दैन नेवर टू हैव लव्ड एट ऑल। लेकिन मेरे विचार में तो ‘इट्स बेटर नेवर टू हैव लव्ड दैन वन्स लव्ड एण्ड लॉस्ट।’ जिसे हम दिलोजान से चाहते हैं, जब उसकी बेवफ़ाई की वजह से जुदा होते हैं तो सारा अस्तित्व बिखर जाता है। … इसे तुमसे बेहतर कौन समझ सकता है?’

         ‘सर, मेरे और आपके केस में समानता नहीं है। मुझे तो प्यार मिला ही नहीं, कुछ मिलने से पहले ही मेरे सपने चकनाचूर हो गए। मेरे जीवन में तो उम्र के चढ़ाव के साथ ही उतार आरम्भ हो गया था। प्रभात वेला कब अँधेरी रात में बदल गई, पता ही नहीं चला। मम्मी-पापा के शगुन और शुभचिंतकों की दुआएँ किसी काम न आईं। लेकिन सर, आपने तो पूनम के साथ जीवन का कुछ समय ऐसा भी बिताया है, जिसकी तपिश किसी-न-किसी कोने में दबी पड़ी होगी! आपने तो उसे दिल की गहराइयों से चाहा था। आपने तो अपनी ओर से किसी तरह की शिकायत का अवसर नहीं दिया था उसे। उसकी हर बात मानी, फिर आपके साथ धोखा क्यों हुआ, क्यों विश्वासघात हुआ?’

         ‘हाँ, पूनम के साथ बिताए समय की कुछ सुखद स्मृतियाँ भी हैं, लेकिन उसके विश्वासघात के बाद उनका कोई मूल्य नहीं रह जाता। क्यों मेरे साथ विश्वासघात हुआ, का क्या जवाब दूँ, शीतल? यही समझ लो कि यह सब कर्मों का खेल है। इस जीवन में कोई पिछले कर्मों का हिसाब दे रहा होता है और कोई ले रहा होता है।’

         ‘ठीक है सर, यही मानना पड़ेगा। … सर, आपने मुझे आत्मीयता के नाते जो कुछ भी बताया है, वह मुझ तक ही रहेगा। ऐसा विश्वास मैं आपको दिला सकती हूँ।’

         ‘तुम पर विश्वास न होता तो मैं इतना खुल पाता! कदापि नहीं। …. अच्छा अब यह बताओ कि मैंने जो तुम्हें पीएचडी करने का सुझाव दिया था, उसका क्या बना?’

        एकदम विपरीत मन:स्थिति में पहुँचकर प्रिंसिपल का यह सवाल करना शीतल को उनकी परिपक्वता का द्योतक ही लगा। उसने उत्तर दिया - ‘सर, मैंने प्रवीर जी से विचार-विमर्श करके रजिस्ट्रेशन करवा लिया है।’

           ‘वैरी गुड। किस विषय पर शोध कर रही हो?’

         ‘सर, मेरे शोध का विषय है - ‘रक्तदान को जन-अभियान बनाने में डॉ. मधुकांत के साहित्य का योगदान’।’

           ‘साहित्य द्वारा लेखक ने रक्तदान को जन-अभियान बनाने में कैसे योगदान दिया है?’

        ‘सर, डॉ. मधुकांत हरियाणा ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य में एक जाना-पहचाना नाम है। उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा ‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ से विभूषित किया गया है। उन्होंने रक्तदान को अपने जीवन का मिशन बनाया हुआ है। उन्होंने साहित्य की हर विधा यथा कहानी, लघुकथा, नाटक, एकांकी, कविता यहाँ तक कि उपन्यास के माध्यम से भी रक्तदान की प्रेरणा देने वाले साहित्य का प्रचुर मात्रा में सृजन किया है। उन्होंने केवल कलम के द्वारा ही रक्तदान को प्रोत्साहन नहीं दिया, अपितु अढ़ाई सौ के लगभग रक्तदान शिविर लगवाने का काम भी किया है।’

             ‘तुम इनसे मिली हो?’

        ‘हाँ सर, पीएचडी का रजिस्ट्रेशन करवाने से पहले मिली थी। बहुत ही विनम्र व शालीन व्यक्तित्व के स्वामी हैं। अध्यापक का जीवन शुरू करके स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद इन्होंने रक्तदान को ही अपने जीवन का मिशन बनाया हुआ है। पीएचडी के लिए मेरे विषय को जानकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। रक्तदान से सम्बन्धित उनकी कुछ पुस्तकें तो कॉलेज की लाइब्रेरी में उपलब्ध हैं, कुछ और उन्होंने मुझे उपहार स्वरूप भेंट कीं तथा हर सम्भव सहायता का आश्वासन दिया है।’

       ‘ऐसा है तो इन्हें कभी कॉलेज में बुलाते हैं। विद्यार्थियों को इनसे प्रेरणा मिलेगी। साथ ही कॉलेज में रक्तदान शिविर का आयोजन भी किया जा सकता है।’

          ‘सर, आपका विचार बहुत ही बढ़िया है। मैं डॉ. मधुकांत जी से बात कर लूँगी, फिर जब आप ठीक समझेंगे, उन्हें बुला लेंगे। …. सर, अब मैं चलती हूँ। बहुत समय हो गया।’

          ‘ठीक है। तुम डॉ. मधुकांत से बात कर लेना।’

         जब वे घर से बाहर निकले तो कोहरे की परत इतनी गहरी हो चुकी थी कि कोठी का बाहर का गेट तक दिखाई नहीं देता था। पूर्णिमा निकट होने के बावजूद आकाश में चन्द्रमा का अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। कोहरे से लिपटी रोशनी का आभास मात्र हो रहा था। यह देखकर प्रिंसिपल ने कहा - ‘शीतल, ऐसे मौसम में मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दे सकता। स्कूटर यहीं रहने दो, मैं तुम्हें कार में छोड़ कर आता हूँ। सुबह बहादुर तुम्हारा स्कूटर छोड़ आएगा।’

          ‘सर, मैं आहिस्ता-आहिस्ता चली जाऊँगी, आप क्यों कष्ट करते हैं।’

          ‘इसमें कष्ट काहे का? कुछ मेरा भी तो कर्त्तव्य है!’

           इसके पश्चात् शीतल ने कोई प्रतिवाद नहीं किया।

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