Amavasya me Khila Chaand - 1 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अमावस्या में खिला चाँद - 1

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अमावस्या में खिला चाँद - 1

लाजपत राय गर्ग

 

समर्पण

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के

हिन्दी विभाग के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष,

केन्द्रीय साहित्य अकादमी में पाँच वर्ष तक हरियाणा के प्रतिनिधि रहे,

अनेकधा पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित,

हरियाणा के अनगिनत साहित्यकारों के

मार्गदर्शक एवं प्रेरणा-स्रोत

सुहृद एवं स्नेहशील व्यक्तित्व के धनी

श्रद्धेय डॉ. लालचन्द गुप्त ‘मंगल’

को प्रस्तुत उपन्यास समर्पित करते हुए

मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ।

 

******

 

जय माँ शारदे!

मैंने इसे क्यों लिखा … ? 

        आभासी दुनिया के निरन्तर बढ़ते प्रभाव तथा नैतिक मूल्यों के निरन्तर ह्रास के कारण समाज में पवित्र रिश्तों की गरिमा बड़ी तीव्रता से लुप्त होती जा रही है। मित्रता पारिवारिक रिश्तों से अलग एक ऐसा मानवीय रिश्ता है, जिसमें व्यक्ति की मित्र से कोई अपेक्षा नहीं होती, फिर भी उसके सुख-दु:ख से व्यक्ति प्रभावित होता है और अपनी सामर्थ्यानुसार उसमें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करता है। मित्रता एक श्रेष्ठ मानवीय गुण है। मित्रता किसी भी प्रकार के वर्ग, आयु, जाति, धर्म, लिंग भेद के हो सकती है। यह तो है मित्रता का वैचारिक पक्ष। यथार्थ में तमाम तरह की आधुनिक सोच और प्रगति के बावजूद हमारे समाज में विपरीत लिंग के व्यक्तियों के बीच मित्रता को अभी भी सहजता से नहीं लिया जाता, बल्कि संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। इस कहानी के मुख्य पात्र प्रवीर और शीतल के सम्बन्ध को प्रारम्भ में प्रवीर की पत्नी नवनीता भी शंका की दृष्टि से देखती है, किन्तु ग़नीमत है कि प्रवीर के समझाने पर उसके मस्तिष्क में छाए संदेह के बादल शीघ्र ही छँट जाते हैं। कॉलेज के प्रिंसिपल के साथ शीतल के सम्बन्धों को लेकर भी प्रो. दर्शन जैसे पढ़े-लिखे लोग भी बिना वास्तविकता की तह तक गए कुछ भी कहने में संकोच नहीं करते हैं। ऐसी ग़लत धारणा समाज में न बने, इसलिए इस कथानक को गढ़ा गया है। इसके साथ ही रक्तदान जैसे सामाजिक महत्त्व के विषय के प्रति युवाओं को प्रेरित करने का भी किंचित् प्रयास किया गया है।

       कई बार शुभचिंतक तथा साहित्यिक मित्र पूछ लेते हैं कि एक बार आरम्भ करने के बाद मैं लगातार उपन्यास कैसे लिखता जा रहा हूँ? उपन्यास जीवन के विस्तृत फलक को उजागर करता है। मानव समाज के एक से अधिक पक्षों को इसमें समेटा जा सकता है। यह अपेक्षाकृत खुला और निर्बंध रास्ता है, जहाँ अपनी मर्ज़ी से, तमाम रूपों में अपनी बात कहने और खुलकर विचरने की स्वतन्त्रता रहती है। इतना होते हुए भी एक उपन्यास पूरा करने के बाद लगता है कि अभी कुछ और भी कहना शेष है। वर्ष 2022 के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाली फ़्रांसीसी लेखिका एनी अर्नो (अर्नोक्स) का एक कथन है - ‘जीवन के बारे में बताने के लिए एक जीवन पर्याप्त नहीं होता, बल्कि कई जीवनों की दरकार होती है।’ इसे मैं अपने शब्दों में कहूँ तो कहा जा सकता है कि जीवन में जो देखा, सुना और अनुभव किया है, उस सबका उल्लेख किसी एक कृति में सम्भव नहीं। इसलिए कृति-दर-कृति में जीवन के किसी-न-किसी पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है और मुझे प्रसन्नता है कि मेरे प्रयास को सुधी पाठकों तथा साहित्य के दिग्गजों का निरन्तर समर्थन मिल रहा है। डिजिटल पोर्टल ‘मातृभारती.कॉम’ पर मेरी रचनाओं के अब तक दो लाख से अधिक डाउनलोड और साढ़े छह लाख से अधिक व्यूज हो चुके हैं। साथ ही मेरे लेखन पर साहित्यिक दायरों में भी पर्याप्त चर्चा होती रहती है। 

      प्रस्तुत उपन्यास अभी लिखना आरम्भ ही किया था कि अखिल भारतीय साहित्य परिषद, हरियाणा के महामंत्री व प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. मनोज भारत से साहित्य-चर्चा के दौरान उन्होंने कहा कि हम अपने लेखन में उद्धरण व सन्दर्भ देते समय प्रायः इतिहास बन चुके लेखकों के कथन उद्धृत करते हैं, क्यों नहीं यह गौरव हमें अपने समकालीन साहित्यकारों को देना चाहिए? क्या हमारे समकालीन साहित्यकार ऐसे साहित्य का सृजन नहीं कर रहे हैं, जिसे उद्धृत किया जा सके? उनके इस कथन पर चिंतन करने के उपरान्त इसे इस कृति में अमल में लाने का प्रयास किया है। हो सकता है, कुछ साथियों को यह अच्छा न भी लगे, लेकिन मैं इसे सही मानता हूँ। इसीलिए इस उपन्यास की भूमिका लिखने के लिए डॉ. मनोज भारत से निवेदन किया जो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। डॉ. मनोज भारत की उदारता के लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ तथा उनका धन्यवाद करता हूँ।

         इस उपन्यास का शीर्षक पहले ‘लौट आया बसन्त’ रखा था, जो डॉ. मधुकांत जी ने सुझाया था और इसी नाम से उपन्यास का एक अंश Indian Journal of Social Concerns के जुलाई-सितम्बर, 2022 के अंक में प्रकाशित हुआ था। डॉ. मधुकांत जी से क्षमा माँगते हुए बाद में नीरू मित्तल ‘नीर’ के सुझाव पर इसका शीर्षक बदलकर ‘अमावस्या में खिला चाँद’ रखा है। इन दोनों आत्मीय जनों का हार्दिक धन्यवाद।

         गोस्वामी तुलसीदास जी ‘रामचरित मानस’ के ‘बाल काण्ड’ में लिखते हैं - 

         ‘निज कबित्त केहि लाग न नीका।सरस होउ अथवा अति फीका।।’

अर्थात् अपनी कविता (रचना) किसे अच्छी नहीं लगती, चाहे वह सरस हो अथवा फीकी। दूसरी बात, प्रकाशित होने के उपरान्त रचना पर रचनाकार का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता है, उसका अपना अस्तित्व आकार ले लेता है; वह स्वतन्त्र हो जाती है। इसलिए यह उपन्यास कैसा है, इसका निर्णय अब सुधी पाठक तथा विद्वज्जन ही अपनी प्रतिक्रिया द्वारा निर्धारित करेंगे। 

         अन्त में मैं बोधि प्रकाशन, जयपुर के कर्त्ता-धर्ता माननीय माया मृग जी का हृदय की गहराइयों से धन्यवाद एवं आभार प्रकट करता हूँ, जिन्होंने व्यक्तिगत रुचि लेकर इस रचना को सुन्दर पुस्तक रूप दिया है। 

         सुधी पाठकों तथा विद्वज्जनों की मूल्यवान प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में….

लाजपत राय गर्ग 

150, सेक्टर 15,

पंचकूला - 134113 (हरियाणा)

मो. 92164-46527

ईमेल: blesslrg@gmail.com

 

 

भूमिका

     गुणवत्तापरक सृजन त्वरा से कुछ वर्षों के अंतराल में ही एक के बाद एक लगातार पाँच उपन्यासों के प्रकाशन से लाजपत राय गर्ग का नाम हिंदी साहित्य में बहुत सुपरिचित और सुसम्मानित है। उनके कथानक सामाजिक परिवेश से उगते हैं, दैनन्दिन सामान्य चर्याओं से पोषित होते हुए नैतिक आचरण के उत्कर्ष को प्राप्त होते हैं। अनावश्यक रहस्य, रोमांच और पेचीदगियों की उलझनों से बचकर उनकी कहानियाँ हर सामान्य पाठक के आस-पास की कहानियाँ बन जाती हैं। पाठक उन्हें पढ़ते-पढ़ते कहानी की भाव-धारा में बहकर उससे तादात्म्य स्थापित करता हुआ किसी एक पात्र से स्वयं को कब प्रतिस्थापित कर लेता है, उसे आभास ही नहीं होता। श्री गर्ग अपने किसी भी कथानक को अति विस्तार से बोझिल नहीं करते। वे भली भाँति जानते हैं कि आज भागम-भाग की ज़िन्दगी में लंबे श्रृंखलाबद्ध उपन्यासों का युग बीत चुका है। कई-कई जन्मों की दास्तानें कहने और सुनने-पढ़ने का वक्त किसी के पास नहीं है। जब प्रबन्ध-काव्यों के स्थान पर मुक्तक और कथाओं के स्थान पर लघुकथाएँ आ चुकी हों, तब उपन्यासकारों को भी अपने कलेवर को वामन स्वरूप में लाना आवश्यक हो जाता है। श्री गर्ग की पहल इस दृष्टि से अनुकरणीय बनती है। एक उपन्यास के अतिरिक्त उनकी कृतियों का आकार-विस्तार लगभग सौ-सवा सौ पृष्ठों के आस-पास ही है, जिन्हें पाठक एक या दो सिटिंग में पूरा पढ़ सकता है। 'अमावस्या में खिला चाँद' भी उनका ऐसा ही उपन्यास है। उनकी संक्षिप्तता का अभिप्राय: कुछ सिकोड़ना या छोड़ना न होकर गागर में सागर भरना होता है। अपने इस उपन्यास में वे चुनिंदा पात्रों के साथ केवल परवाणू, चण्डीगढ़ (उपन्यास में नाम का उल्लेख नहीं है, किन्तु पाठक समझ जाता है) आदि के दो-तीन घटनास्थलों के आस-पास कथानक रचते हुए एक मनोरंजक और प्रेरक ताना-बाना बुनते हैं। कथा नायिका शीतल है जो तलाकशुदा नारी तथा मंदबुद्धि भाई की बहन होने के बावजूद अपने संघर्षशील व्यक्तित्व से न केवल स्वयं सफल व्याख्याता बनती है अपितु अपने बूढ़े माँ-बाप का भी सहारा बनती है। समाज की ओर से उठने वाली उंगलियों तथा लगने वाले लांछनों से वह अपनी बुद्धिमत्ता से अपने व्यक्तित्व को निर्मल बनाए रखते हुए किस प्रकार आगे बढ़ती है, लेखक पाठक को इसी उत्सुकता के आकर्षण-पाश में बाँधे चरम तक ले जाता है।

      इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता इसका पारिवेशिक रूप से समकालीन होना है। सामान्यतः लेखक अतीत या भविष्य को अपने कथानकों में समेटते-लपेटते हैं। यदि कहीं वर्तमान उसमें जुड़ता भी है तो बहुत आवरणों, प्रतीकों से ढका हुआ होता है, जिससे सामान्य पाठक उसे जान-पहचान ही नहीं पाता, किंतु श्री गर्ग ने एक अनूठा अनुकरणीय प्रयोग किया है। एक आलोचक की भाँति जहाँ उनके पात्रों को उद्धरणों-सन्दर्भों की आवश्यकता होती है, अपने समकालीन लेखक-कवियों को नामोल्लेख के साथ जोड़ते हैं। उनमें नीरू मित्तल नीर, घमंडी लाल अग्रवाल, इंद्रा स्वप्न, आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ के नाम प्रमुखता से आए हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा 'महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान' से विभूषित डॉ. मधुकांत तो उनके उपन्यास में एक विशिष्ट पात्र के रूप में सम्मिलित हो गए हैं। डॉ. मधुकांत के पात्र का जो कथानक में उल्लेख है, वह उनके जीवन की वास्तविक उपलब्धियाँ हैं। वास्तव में एक व्यक्ति अपना पूरा जीवन रक्तदान विषयक कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध लेखन को अर्पित करने के साथ-साथ रिकॉर्ड रक्तदान शिविर लगाने को समर्पित कर दे तो ऐसा व्यक्तित्व निश्चित रूप से वास्तविक महापुरुष होता है। उनके सक्रिय रहते उनके समकालीन साहित्यकार समालोचना से इतर अपने कथा-कहानी- उपन्यासों में रचने-गढ़ने लगें तो यह भी अपने आप में एक अनूठा सम्मान है। निश्चित रूप से लाजपत राय गर्ग का समकालीन साहित्यकारों को नाम सहित अपने सृजन में उद्धृत करना अनुकरणीय-अभिनन्दनीय पहल है।

      प्रस्तुत उपन्यास की कथावस्तु पूर्णतः सामाजिक-पारिवारिक है। लेखक भौतिकता की चकाचौंध से खोखले होते पारिवारिक सम्बन्धों का उल्लेख करते हुए उन पर मरहम लगाने का प्रयास करता है। नायिका शीतल का वैवाहिक जीवन दहेज के कारण तथा कॉलेज प्रिंसिपल मानवेन्द्र का उसकी पत्नी के अत्याधिक अर्थ-लोलुप होने के कारण बर्बाद हो चुका था। लेखक बड़ी सफाई से प्रवीर और शीतल के माध्यम से स्त्री-पुरुष की शुचिता का आदर्श पाठकों के सामने रखता है। यदि उपन्यास के नायकत्व का विश्लेषण किया जाए तो भी प्रवीर का पक्ष ही सर्वाधिक सबल प्रतीत होता है। शीतल के जीवन में दहेज-दानव का ग्रहण लगने से अमावस्या की रात्रि से सघन अंधकार आ जाता है। शीतल और मानवेन्द्र के विवाह से उपन्यास का सुखान्त होना इसमें चाँद के खिलने का आभास कराने से शीर्षक की सार्थकता भी सिद्ध हुई है।

          कोई भी लेखन तब तक साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता जब तक उसमें समाज के लिए कोई सन्देश निहित न हो। इस दृष्टि से भी इस उपन्यास को पूर्णतः सफल कहा जा सकता है। दहेज-प्रथा, घरेलू-हिंसा जैसी सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात करते हुए शिक्षा, स्वावलम्बन, लैंगिक समानता के माध्यम से नारी सशक्तिकरण के विराट लक्ष्य का सन्धान लेखक सफलता पूर्वक करता है। विदुर-विधवा-परित्यक्ता के पुनर्विवाह का समर्थक लेखक महावीर और मोहिनी के माध्यम से बेमेल प्यार को दर्शाते हुए किशोर युवाओं को एक सार्थक सन्देश दे जाता है। एक दिव्यांग को समावेशी शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल न करने के क्या-क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, इस मनोविज्ञान को लेखक कान्हा के पात्र के माध्यम से स्पष्ट करता है।

        इस उपन्यास में लेखक अपने देश के गौरवशाली अतीत का खुलकर गौरव-गान करता है। जब यूथ फेस्टिवल में एकांकी का विषय आता है तो लेखक महाराजा रणजीत सिंह के जीवन से सम्बन्धित 'दयालु राजा' एकांकी का विषय चुनता है। केवल इतना ही नहीं जब शीतल और प्रवीर का परिवार भ्रमण के लिए अमृतसर जाते हैं तो स्वर्ण मंदिर, जलियाँवाला बाग, अटारी बॉर्डर, गोबिंदगढ़ फोर्ट, दुर्गियाना मन्दिर, पिंगलवाड़ा, बकाला कस्बा आदि स्थानों के ऐतिहासिक-पौराणिक-सामाजिक महत्त्व के वर्णन से यात्रावृत्त की उपयोगी जानकारियाँ भी उपन्यास का अंग बन गई हैं।

       इस उपन्यास की एक सबसे बड़ी विशेषता जो मेरी दृष्टि में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, वह है समरसता और सहजता। इस उपन्यास के किसी भी पात्र के नाम में कहीं भी कोई जाति-कुल या उसके सूचक किसी भी उपनाम का कहीं भी कोई प्रयोग नहीं किया गया है। यदि हम एक सच्चे समरस समाज की स्थापना करना चाहते हैं तो सबसे पहले यह संकल्प लेखकों को लेना होगा। श्री गर्ग की यह पहल सभी के लिए अनुकरणीय है। तदन्तर जब बंटी शीतल के सामने हिन्दुओं और सिक्खों के अलग-अलग होने के भ्रम में मंदिर चलने के लिए कहता है तो लेखक प्रवीर के माध्यम से कहता है, “बेटे, हिन्दू और सिक्ख अलग-अलग नहीं हैं, एक ही हैं।" यही नहीं, बॉर्डर पर बीटिंग रिट्रीट सेरिमनी पर भी भारत-पाकिस्तान के सैनिकों के जोश और भीड़ के आक्रोश को देख कर बँटी के एक सवाल पर उसे समझाते हैं, “वह क्रोध नहीं था, वह स्वाभिमान था जो दूसरे पक्ष के सामने प्रकट किया जा रहा था।...दोनों तरफ के सैनिक और अर्धसैनिक सामान्य हालात में एक-दूसरे से मिलकर रहते हैं, एक दूसरे के सुख-दु:ख में शामिल होते हैं। त्योहार-उत्सव पर मिठाइयों का आदान-प्रदान भी करते हैं।” लेखक इस प्रकार के कथनों से आने वाली पीढ़ी के सामने भारतीय चिंतन "वसुधैव कुटुंम्बकम्" का बीजवपन करते हुए कथा को विस्तार प्रदान करता है।

            लाजपत राय गर्ग का शब्द-संसार अत्यन्त समृद्ध है। वे पात्र एवं परिवेश की आवश्यकता अनुसार हिन्दी, इंग्लिश, उर्दू, पंजाबी के शब्दों का प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं। मुहावरे, लोकोक्तियाँ, सूक्तियाँ और नीति-कथन उनके भाषाई अलंकरण भावों की पुष्टि में सहायक बनते हैं। व्यवहार विज्ञान के अनेक सूत्र यत्र-तत्र पात्रों के संवाद और लेखकीय उद्धरणों के रूप में आद्यान्त समाए हुए हैं। हिंदी में अभिनव प्रयोगों के साथ-साथ स्वस्थ परम्पराओं को पोषित करने वाले प्रेरक, रोचक उपन्यासों का जब भी साहित्य जगत में विवेचन-विश्लेषण होगा तो लाजपत राय गर्ग के उपन्यास 'अमावस्या में खिला चाँद' की निश्चित रूप से उसमें चर्चा होगी।

डॉ. मनोज भारत,

(महामंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, हरियाणा)

अक्षरं, भारत शिक्षा सदन, 

हनुमान गेट, भिवानी -127021

फोन- 94674-80000

 

 

- 1 -

         एक पंक्ति में बनी कई सरकारी इमारतों में से एक में स्थित उच्च शिक्षा विभाग के मुख्यालय में पदस्थ उच्च पदाधिकारी प्रवीर कुमार ने अपने कक्ष में आकर अपनी मेज़ पर पहले से रखी फ़ाइलों में से एक फाइल उठाई। अभी वह उसमें लिखी दफ़्तरी टिप्पणियों का अवलोकन करने लगा ही था कि उसके पी.ए. राजेन्द्र ने डाक का फ़ोल्डर उसके समक्ष रख दिया। डाक में सबसे ऊपर एक अन्तर्देशीय पत्र रखा था जो उसके नाम था। उसने वह उठाया। पलटकर देखा, भेजनेवाले का नाम व पता का स्थान ख़ाली था। डाकखाने की मोहर से भी कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। उसने पी.ए. को कहा - ‘राजेन्द्र, मैं डाक देखकर भिजवाता हूँ।’

         संकेत स्पष्ट था कि साहब एकान्त चाहते हैं। राजेन्द्र के लिए इतना संकेत काफ़ी था। अत: वह वापस अपनी सीट पर चला गया। उस द्वारा मार्क की गई डाक को एक तरफ़ रखकर प्रवीर कुमार ने अन्तर्देशीय पत्र खोला। पत्र शीतल का था। उसने लिखा था -

           ‘प्रिय प्रवीर जी,

                             नमस्कार!

             यूँ अचानक मिलना हो जाएगा, कभी सोचा न था! विधाता ने मानव-जीवन के रास्ते कुछ इस तरह से निर्धारित किए होते हैं कि आदमी जान ही नहीं पाता कि कौन, कब, किस मोड़ पर मिल जाएगा! प्रवीर जी, मेरे जीवन में एक समय ऐसा भी आया था, जब उजालों ने साथ छोड़ दिया था और अँधेरे ने पाँव पसारे हुए थे। तब जीना निरर्थक लगने लगा था। मन ने कहा था कि इस संसार को अलविदा कह दूँ। फिर पता नहीं कहाँ से आवाज़ आई कि तुम्हारा क्या दोष है जो तुम स्वयं को सजा देने चली हो! और इस शून्य से उभरी आवाज़ की वजह से ही सालों बाद आपसे मिलना हुआ और अब यह पत्र लिख रही हूँ। इस समय कमरे में मेरी रूममेट सो रही है, मेरे इर्द-गिर्द सन्नाटा पसरा हुआ है। और मेरे मन में बीते समय की स्मृतियाँ उमड़-घुमड़ रही हैं।

          आज जब आप होटल में लंच करने आए थे तो मुझे रिसेप्शन-गर्ल के रूप में देखकर आप अचम्भित रह गए थे। आश्चर्य के भाव आपके चेहरे पर स्पष्ट महसूस हुए थे मुझे। लेकिन आपकी पत्नी का ध्यान आपके चेहरे के भाव-परिवर्तन की ओर नहीं था। वह तो बच्चों के साथ सीधे रेस्तराँ की ओर बढ़ रही थीं। आपको देखकर अचम्भा मुझे भी हुआ था, लेकिन पत्नी और बच्चों को आपके साथ देखकर मैंने आपको बुलाया नहीं था। मेरे न बुलाने पर भी कुछ क्षण ही बीते होंगे कि आप बच्चों को रेस्तराँ में बिठाकर मेरे पास चले आए थे और आपने मेरे बारे में जानना चाहा था तो मैंने इतना ही कहा था कि अभी तो मैं ड्यूटी पर हूँ, किसी वक्त फिर बताऊँगी तो आप अपना विज़िटिंग कार्ड मुझे थमा कर  वापस बच्चों के पास चले गए थे। 

          मेरी ड्यूटी दो बजे तक थी। मैंने घर जाने से पहले रेस्तराँ में झाँका तो आप लोग खाना खाने में मग्न थे। वैसे भी उस समय आपसे कोई बात करना कहाँ सम्भव होता! इसलिए मैं घर चली आई थी। आप भी शायद बच्चों को घुमाने लाए थे।

        घर यानी पी.जी. हाऊस आकर मैं आपके बारे तथा आपके साथ बिताए समय के बारे में सोचती रही। सुखद यादों में खोई हुई को कब नींद ने आ दबोचा, पता ही नहीं चला। सोकर उठी तो पर्स से आपका विज़िटिंग कार्ड निकाला। यह जानकर मन को बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप जीवन में बहुत सम्मानजनक ढंग से व्यवस्थित हैं। आपको पत्र लिखने का मन बनाया किन्तु निश्चय नहीं कर पाई कि क्या लिखूँ। सो उस वक़्त कॉपी और पैन रख दिए। अब भी मैं पत्र में अपने बारे में कुछ विशेष नहीं लिख रही, क्योंकि कुछ बातें लिखकर नहीं, आमने-सामने बैठकर ही की जा सकती हैं, उस समय हमें सामने वाले के हाव-भाव पढ़ने का अवसर उपलब्ध होता है। अगर आप मेरे भूतकाल के बारे में जानने के इच्छुक हैं, मुझे आशा है कि आप जानना चाहते हैं, तो होटल के फ़ोन पर मुझसे बात करके कहीं अकेले में मिलने का प्रोग्राम बनाना। तभी मैं अपनी ज़िन्दगी के पन्ने जो यूनिवर्सिटी टाइम के बाद जुड़े हैं, आपके सामने खोल पाऊँगी।

कभी मित्र रही,

शीतल’

         प्रवीर कुमार ने पत्र बन्द किया और शर्ट की जेब में रख लिया। शीतल के होटल के नम्बर पर डायल किया। फ़ोन शीतल ने ही उठाया। ‘हैलो’ सुनते ही उसने कहा - ‘प्रवीर जी, तो आपको मेरा पत्र मिल गया?’

       ‘हाँ, लेकिन मुझे परेशानी में डाल दिया है। मैं तुम्हारे बारे में जानने के लिए बहुत उतावला हूँ। हम कब और कहाँ मिल सकते हैं?’

         ‘परेशान मत हों। मेरा ख़्याल है कि शनिवार को आपके ऑफ़िस की छुट्टी रहती है। दो बजे के बाद आ जाइए। मैं जिस पी.जी. में रहती हूँ, वहाँ दिन में हम अपने गेस्ट को कमरे में बुला सकते हैं।’

        ‘तुम्हारे पी.जी. का एड्रेस?’

        ‘एड्रेस की आपको ज़रूरत नहीं। आप दो बजे के लगभग होटल आ जाना। ड्यूटी ख़त्म होते ही इकट्ठे चले चलेंगे।’

         ‘ओ.के., मिलता हूँ।’

        ऑफिस से घर के लिए चलने से पहले प्रवीर कुमार ने पत्र जेब से निकालकर ब्रीफ़केस में रख लिया। ऑफिस से बाहर आया तो कड़कती धूप थी, लेकिन कार में ए.सी. लगा था। अत: कुछ विशेष परेशानी नहीं थी। घर पहुँचा तो पत्नी नवनीता बेडरूम में बैठी बच्चों के साथ कैरम खेल रही थी। प्रवीर कुमार ने आते ही बच्चों से पूछा- ‘बेटे, कैरम में कौन कितनी बाज़ी जीता?’

         बँटी ने बड़े उत्साह के साथ उत्तर दिया - ‘मम्मी एक बार जीती है, लेकिन मैं दो बार जीत चुका हूँ।’

         ‘वैरी गुड। और रिंकू तुम?’

          ‘पापा, यह चौथी बाज़ी है। इस बार मैं जीतने की कोशिश कर रहा हूँ।’

          नवनीता ने उठते हुए कहा - ‘बँटी, अब तुम दोनों खेलो, मैं तुम्हारे पापा के लिए चाय बना दूँ।’ 

         ‘नहीं मम्मी, बाज़ी पूरी करके उठना। इस बार मैं जीतूँगा,’ रिंकू ने ज़िद करते हुए कहा।

         ‘नीता, बाज़ी पूरी कर लो, नहीं तो रिंकू को बुरा लगेगा,’ कहकर प्रवीर कुमार बाथरूम में चला गया। 

        जब वह फ़्रेश होकर तथा कपड़े बदलकर आया, तो रिंकू ने ख़ुशी से उछलते हुए कहा - ‘पापा, मैं जीत गया, मैं जीत गया।’

        ‘शाबाश बेटा,’ कहकर प्रवीर कुमार ने उसे गोद में उठा लिया और कहा - ‘इसी ख़ुशी में पापा को एक पप्पी दो,’ रिंकू ने पापा की आज्ञा का पालन किया।

            नवनीता चाय बनाने के लिए रसोई में जा चुकी थी।

         जब वे चाय पी रहे थे तो प्रवीर कुमार ने कहा - ‘नीता, बच्चों की छोटी-छोटी ख़ुशियों का ध्यान यदि हम रखते हैं तो उन्हें बहुत बड़ी ख़ुशी मिलती है।’

         ‘प्रवीर, इसीलिए आपके कहते ही मैंने खेल बीच में छोड़ने का इरादा बदल लिया था।’

         प्रवीर कुमार ने आदत बना रखी थी कि घर आने के बाद वह कुछ समय बच्चों के साथ अवश्य बिताता था। इसलिए चाय पीने के बाद उसने बँटी और रिंकू से उनके स्कूल की गतिविधियों तथा होमवर्क के बारे पूछताछ की। 

       रात का खाना खाने के पश्चात् बेडरूम में आकर प्रवीर कुमार ने टी.वी. पर दस-पन्द्रह मिनट तक समाचार देखे। समाचारों में कुछ विशेष न था, रूटीन के समाचार थे। इसलिए उसने लाइट बन्द की और लेट गया।

        जब नवनीता रसोई समेटकर आई और उसने लाइट बन्द देखी तो स्विच ऑन करते हुए देखा कि प्रवीर कुमार आँखें बन्द किए लेटा हुआ है। उसने पुकारा - ‘प्रवीर, सो गए क्या?’

          ‘नहीं तो,’ प्रवीर ने आँखें खोलते हुए उत्तर दिया। 

          ‘तो इतनी जल्दी लाइट क्यों बन्द कर दी? क्या तबीयत ठीक नहीं है?’

        ‘ऐसी तो कोई बात नहीं। टी.वी. पर कुछ विशेष नहीं आ रहा था। सोचा, लाइट बन्द करके लेटने से रिलैक्स हो जाऊँगा। अगर तुम्हें कुछ ना करना हो तो लाइट बन्द कर दो।’

        नवनीता ने अलमारी में से नाइट-ड्रेस निकाली और बाथरूम में जाकर चेंज करने के बाद आकर लाइट बन्द करके प्रवीर कुमार की बग़ल में लेट गई। दूसरी तरफ़ मुँह करके लेटे प्रवीर कुमार के कंधे पर उसने हाथ रखा। उसने आहिस्ता से उसका हाथ कंधे से हटाते हुए कहा - ‘नीता प्लीज़, आज नहीं, सो जाओ’ और यह कहकर उसने करवट बदल ली। 

      नवनीता ने भी करवट बदल ली और सोने की कोशिश करते हुए सोचने लगी - प्रवीर अवश्य किसी दुविधा में है, वरना यह शख़्स इतनी जल्दी सोने वाला कहाँ है! हो सकता है, दफ़्तर की कोई परेशानी हो जो अभी इनके दिलोदिमाग़ पर छाई हुई है। नवनीता उन स्त्रियों में से नहीं थी जो पति को परेशानी में देखकर कुरेदना शुरू कर देती हैं। वैसे भी जब वह कमरे में आई थी और उसने लाइट जलाई थी तो उसे प्रवीर कुमार के चेहरे पर किसी विशेष परेशानी की झलक दिखाई नहीं दी थी, चेहरे के भाव सपाट थे। इसलिए वह यह सोचकर कि सुबह चाय के समय ही बातचीत में पता चल जाएगा, नींद के आग़ोश में समा गई।

       नवनीता के हल्के-हल्के खर्राटों की परवाह किए बिना प्रवीर कुमार देर रात तक विगत के बारे में सोचता रहा, एक सैलाब-सा उमड़ आया यादों का। …. छोटा शहर होने के कारण मैट्रिक तक की पढ़ाई के लिए लड़कों और लड़कियों के अलग-अलग स्कूल थे। जब कॉलेज में प्रवेश लिया तो उसी वर्ष शहर में लड़कियों का अलग कॉलेज खुल गया था, इसलिए कॉलेज में लड़कों की लड़कियों के साथ पढ़ने की तमन्ना पर पानी फिर गया था। आख़िर यह तमन्ना पूरी हुई यूनिवर्सिटी में प्रवेश पाने पर। स्कूल समय से ही साहित्य में रुचि होने के कारण हिन्दी में एम.ए. करने की सोची थी। हिन्दी में एम.ए. करने का एक और कारण भी था। बी.ए. में हिन्दी में प्रथम दर्जा प्राप्त हुआ था और उन दिनों बी.ए. में जिस विषय में प्रथम दर्जा यानी साठ प्रतिशत से अधिक अंक आते थे, उस विषय में एम.ए. करने पर वज़ीफ़ा मिलता था। घर की आर्थिक स्थिति को मद्देनज़र रखते हुए वज़ीफ़ा भी एक बड़ी वजह थी हिन्दी में एम.ए. करने की। अब तक लड़कियों का साथ न मिलने की कमी न केवल पूरी हुई, बल्कि अब लड़कियों से घिरने वाली स्थिति हो गई थी। कुल तीस विद्यार्थियों की कक्षा में केवल पाँच लड़के थे, बाक़ी सब लड़कियाँ। साहित्यिक अभिरुचि तथा वज़ीफ़ा मिलने के कारण अधिकांश लड़कियों का झुकाव मेरी ओर रहता था। लेकिन शीतल एक ऐसी लड़की थी, जिसने कभी मेरी ओर दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाया था। महीना, दो महीने, तीन महीने गुजर गए। कहते हैं न कि अप्राप्य ही अधिक काम्य होता है। आदमी उसी की तरफ़ अधिक आकर्षित होता है, जो उससे दूर होता है। दशहरे की छुट्टियों के बाद एक दिन लाइब्रेरी में शीतल से आमना-सामना हो गया था। मैंने ही पहल करते हुए कहा था - ‘शीतल, हमें तीन महीने से अधिक हो गए इकट्ठे पढ़ते हुए, लेकिन तुमने कभी मुझसे बात नहीं की। क्या कोई ख़ास वजह?’

         ‘प्रवीर, आज से पहले तुमने भी कभी मुझसे बात नहीं की। क्या मैं वजह जान सकती हूँ?’

        ‘शीतल, तुमने देखा होगा, जितनी भी लड़कियों से मेरी बातचीत होती है, उनमें से किसी से भी मैंने पहल नहीं की।’

       ‘यह तो मैं नहीं जानती कि किस-किस लड़की ने तुमसे बातचीत में पहल की है, किन्तु यह ज़रूर जानना चाहूँगी कि आज तुमने पहल क्यों की है?’

        ‘ओह, मुझे नहीं पता था कि मेरी कही बात का ही मेरे पास कोई जवाब न होगा! … मैं हारा, तुम जीती।’

          ‘हार-जीत का सवाल नहीं, दोस्त …  हम दोनों के मन में अहम की दीवार थी। चलो, आज वह ढह गई। …  आओ, स्टूडेंट सेंटर चलते हैं। अब बर्फ़ पिघली है तो कॉफी से थोड़ी और गरमाहट लेते हैं।’

          ‘वाह, क्या ख़ूब कहा है!’

          कॉफी पीते हुए बहुत-सी बातें हुई थीं - अकादमिक भी और व्यक्तिगत भी। हम दोनों के बीच जमी बर्फ़ एक बार पिघली तो दोस्ती प्रगाढ़ होती चली गई थी, अपनत्व बढ़ता चला गया था।

       उस समय की चुलबुली, बड़ी-बड़ी सपनीली आँखों वाली लड़की की छायामात्र थी शीतल, जिसे होटल के काउंटर पर ड्यूटी देते देखा था। अब शीतल किसी पर्वतीय क्षेत्र में बनी प्राकृतिक झील-सी धीर-गम्भीर व्यक्तित्व की स्वामिनी लग रही थी और स्वाभिमान उसके हाव-भाव से छलकता प्रतीत हो रहा था। शरीर का दूधिया रंग ज़रूर पहले से मद्धम पड़ गया लगता था।

         प्रवीर कुमार स्मृतियों में विस्मृत था और कब आँखों में नींद उतर आई, उसे पता भी नहीं चला।

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